( 10 फ़रवरी 1931 : 13-मई-2018)
बालकवि का अचानक, यूहीं चले जाना ……..
बालकवि बैरागी जी का अचानक यूंहि चले जाना माने एक युग का अवसान हो जाना हुआ. तेरह मई 2018 की शाम को वाट्सएप पर ग्रुप सिक्स्टी+ पर डाली गई पोस्ट को पढ़ने के बाद सहसा मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. मन में तरह-तरह के विचारों का समुद्र ठाठे मार रहा था कि कहीं किसी ने शरारत तो नहीं की?. फ़िर इतनी बड़ी गुस्ताखी भला कौन कर सकता था?. मन था कि इस बात पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था. तत्काल ही मैंने बैरागी जी के फ़ोन नम्बर पर फ़ोन लगाया. फ़ोन लगा नहीं. फ़िर मैंने भोपाल के मित्र धनश्याम मैथिल को फ़ोन लगाया और जानना चाहा कि सच क्या है?. उन्होंने मुझे फ़ोन पर विस्तार से कह सुनाया कि वे नीमच के कांग्रेसी नेता बाबू सलीम के यहाँ एक कार्यक्रम में गए हुए थे और शाम साढ़े तीन बजे वापस मनासा आ गए थे. जैसा कि वे दोपहर में एक घंटा आराम करते रहे हैं, आराम करने अपने कमरे में गए. पांच बजे जब उन्हें चाय के लिए उठाने लगे तो पता चला कि बैरागी जी नहीं रहे.
साहित्य के दैदिप्यमान नक्षत्र रहे बैरागी जी से कौन भला परिचित नहीं होगा?. अपनी फ़क्कडी, लाजवाबी और तबीयत से मस्तमौला रहे बैरागी जी से मेरा आत्मीय लगाव सन 2008 में हुआ. हालांकि काफ़ी समय पूर्व से मैं आपको पढ़ता-सुनता रहा हूँ. उन्हें नजदीक से भी देखा हूँ. लेकिन ऐसा मौका कभी नहीं आया कि मैं उनसे कोई वार्ता कर सकूं.
जुलाई 2008 में मेरा दूसरा कहानी संग्रह “तीस बरस घाटी” वैभव प्रकाशन रायपुर (छ.ग.) से प्रकाशित होकर आया. मैं चाहता था कि इसका विमोचन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन भोपाल में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली पावस व्याख्यानमाला के पावन अवसर पर विमोचित हो जाए. मैंने अपनी मन की बात माननीय कैलाशचन्द्र पंतजी ( मंत्री-संचालक ) को कह सुनाया. दादा पंतजी ने मुझसे कहा कि संग्रह की कम से कम दस प्रतियाँ लेकर आप आ जाइए. उसका विमोचन हो जाएगा. दादा का आश्वासन पाकर मैं प्रसन्न था, लेकिन इस बात को लेकर मन में चिंता बराबर बनी रही कि किस महापुरुष के हस्ते पुस्तक विमोचित होगी?
तृतीय विमर्श सत्र का विषय था- -“राष्ट्रीय उर्जा के कवि रामधारी सिंह “दिनकर.- वक्तव्य देने के लिए मंच पर श्री अनिरुद्ध उमट, डा. श्री कृष्णचन्द्र गोस्वामी, श्री बी.बी.कुमार, श्री केशव “प्रथमवीर”, डा.श्रीराम परिहार, श्री शंभुनाथ, श्री अरुणेश नीरन और कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे हमारे दादा श्री बालकवि बैरागीजी. इसी सत्र में मेरे संग्रह का विमोचन होना था. सत्र शुरु होने से पहले सारी औपचारिकताएँ पूरी कर ली गई थी.
बैरागी जी के हस्ते पुस्तक का विमोचन होना गौरव की बात थी. घड़ी की सुईयां निरन्तर सक्रीय थी. मुझे बेसब्री से इन्तजार था उस घड़ी का जब उनके हाथॊ मेरी पुस्तक का विमोचन होना था. जल्दी ही वह समय भी आया, जब हिन्दी भवन के विशाल मंच पर लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकारों की गरीमामयी उपस्थिति में आपके करकमलों से विमोचन हुआ.
राष्ट्रीय ऊर्जा के कवि : रामधारी सिंह दिनकर-
अपने अध्यक्षीय भाषण में आपने आग्नेय कवि दिनकरजी जी के संस्मरणॊं को सुनाया. उसमें से कुछ ऐसे भी थे जो काफ़ी रोचक थे. मैं जिन्हें पहली बार सुन रहा था. एक के बाद एक प्रसंग सुनाते हुए उन्होंने अपने मिनिस्टर बनने की घटना पर भी विस्तार से बतलाते हुए कहा- “मैं उन दिनों मनुष्य नहीं था, मंत्री था, क्षमा करें, मैं मंत्री था, क्योंकि हमारे देश में मिनिस्टर को तो मनुष्य माना ही नहीं जाता. हम मानते हैं कि या तो वे फ़रिश्ते हैं या शैतान हैं. उनको मनुष्य नहीं मानते.” मंत्री जैसे विशिष्ट पद को पाकर भी वे आम आदमी ही बने रहे. जब मन चाहे उनसे मिल लो, जब जी चाहे उनसे बतिया लो. इतने सहज और सरल स्वभाव के थे बैरागी जी. राजनीति की काली कोठरी में रहने के बाद भी उन पर कभी कोई आक्षेप नहीं लगा. वे हमेशा सतर्क बने रहते थे, कि भूल से भी उनसे कोई गलती न हो जाए.
बैरागी जी प्रतिदिन बिना नागा किए डायरी लिखा करते थे. डायरी को पढ़ने के बाद आप स्वतः उनके स्वभाव को जान जाएंगे कि वे कितने सहज और सरल रहे होंगे. जब वे दौरे पर होते, उस स्थान का ब्योरा रहता. दिन भर क्या-क्या काम किए, सब सिलसिलेवार दर्ज रहता. शाम होते ही वे आम आदमी की तरह हो जाते. स्थानीय साहित्यकारों को बुला भेजते और देर रात तक कविताओं की बारिश होती रहती. दुष्य़ंत संग्रहालय के निदेशक मित्र राजुरकर राज जी ने “बैरागी की डायरी” प्रकाशित की है. उसमें आप उनके दैनन्दिन कार्यक्रम को पढ़कर जान सकते हैं कि मिनिस्टर जैसे पद पर आसीन रहने के बाद भी उनके स्वभाव में रत्ती भर भी फ़र्क नहीं आया था.
प्रदेश के विक्रम विश्वविद्यालय से हिन्दी में पोस्टग्रेजुएशन करने वाले वैरागी जी ने अपने छात्र जीवन से ही राजनीति और साहित्य के क्षेत्र में हिस्सा लेना शुरु कर दिया था. यह सफ़र आगे बढ़ा और आप देखते ही देखते शीर्ष पर जा पहुंचे. वे अर्जुन सिंह के मंत्री मंडल में खाद्य-मंत्री बनाए गए थे.
प्रादेशिक राजनीति से निकलकर आप राज्यसभा सांसद बने. अपनी राजनैतिक सूझ=बूझ और सिद्दहस्त कवि होने के नाते, आपने अपनी अमिट छाप छोड़ी. आपकी संवेदनशील कविताओं पर आपको कवि प्रदीप सम्मान से सम्मानित किया गया और केन्द्र की ओर से आपको राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी अलंकृत किया गया था. इसके अलावाजोहान्सबर्ग-दक्षिण अफ़्रीका में आयोजित होने वाले (22 सितम्बर से 24 सितम्बर 2012) विश्व हिन्दी सम्मेलन में आपको और. माननीय श्री कैलाशचन्द्र पंतजी को, दक्षिण अफ़्रीका में गांधी के नाम से विख्यात श्री नेलसन मंडेला के हस्ते सम्मानित किया गया था.
विगत चालीस वर्षों से मैं “दीपावली” के शुभावसर पर, पोस्टकार्ड पर प्रज्ज्वलीत दीप का चित्र बनाकर शुभकामनाएं संदेश अपने साहित्यकार मित्रों और परिवार के सदस्यों को भेजते रहा हूँ. चित्र बनाने का सिलसिला दीपावली से पूर्व लगभग माह-देढ़ माह तक चलता रहता. एक बार बैरागी जी को “दीप-पर्व” पर मेरा कार्ड नहीं पहुंचा. उन्होंने फ़ोन लगाया और कहा- गोवर्धन भाई , मुझसे क्या गलती हो गई,जो तुम्हारा बधाई संदेशा वाला पत्र नहीं मिला ?. मैंने क्षमा मांगी कि किसी कारणवश पत्र पहुंचने में देरी हो गई होगी. मेरा जवाब सुनकर उन्होंने कहा-“ कोई बात नहीं, पत्र आगे-पीछे मिल जाएगा. मैंने तो तुम्हारे नाम से पत्र डाल दिया है.
वर्ष 2008 के बाद से मुझे अब (वर्ष 2017) तक आपके पत्र प्राप्त होते रहे है. है, आज भी धरोहर के रूप में मेरे पास सुरक्षित हैं. इन्हीं पत्रों में कुछ अंश-
2017 को लिखा गया पत्र
“आकार में हूँ छॊटा (पर) संकल्प में बड़ा हूँ / मुझको पता है, मैं भी रणक्षेत्र में खड़ा हूँ / अंधे अँधेरे की जिद को मैं खूब जानता हूँ / माता मेरी है मिट्टी, इसको भी मानता हूँ / जननी का ऋण चुकाऊँ संकल्प मैंने पाला / मुझको जला के देखो, दे दूँगा मैं उजाला”.
2014 का एक पत्र-
“घनघोर काली रात से लड़ना सिखाते जो मुझे / पर वंदनाएँ सूर्य की करके बुझाते हो मुझे / मैं सूर्य का वंशज नहीं, श्रम-पुत्र हूँ जी आपका / नाम मेरा दीप है, लाडला हूँ बाप का / बेशक अँधेरे में मुझे पैदल चला कर देख लो / सूर्य जब थक जाए तब मुझको जला कर देख लो.”
2011 का एक पत्र-
“ यदि अँधेरा छा गया तो इस तरह चीखो नहीं / कायरों की भीड़ में नारे नये सीखो नहीं /. तुम रणांगण में खड़े हो युद्ध कौशल खुद चुनो / आहुति खुद की लगाओ और समिधा खुद बनो /.सूर्य तो अपने समय पर आप ही आ जायेगा / इस भरम में ये अँधेरा देश को खा जायेगा”.
और भी कई पत्र हैं जिनमें वे निडर होने का मंत्र देते हैं, देश के प्रति कर्तव्य की सीख देते हैं, अँधेरों से झूझने का संकल्प लेने का आव्हान करते हैं और अपनी धरती माँ के प्रति क्या कर्तव्य होने चाहिए, बताते हैं.
10 फ़रवरी 1931 को गांव रामपुरा तहसील मनासा जिला नीमच कें श्री द्वारिकादास बैरागी एवं माता श्रीमती धापूबाई बैरागी के घर जन्म हुआ. वे बचपन से ही सहज,सरल और प्रेमभाव वाले व्यक्ति रहे, उन्होंने सन 1964 में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से एम.ए.(हिन्दी) प्रथम श्रेणी से उतीर्ण की एवं एक लोकप्रिय कवि तथा साहित्यकर के रूप में अपनी पहचान बनाई. आपका विवाह श्रीमती सुशीला चन्द्रिका वैरागी से हुआ (जिनका स्वर्गवास 18-07-2011 को हुआ). आपके दो पुत्र हैं बड़ा पुत्र श्री सुशीलनंदन वैरागी (मुन्ना बैरागी), पुत्रवधु श्रीमती कृष्णा (सोना) बैरागी, पौत्री डा.रौनक बैरागी एवं पौत्र श्री नमन वैरागी है. आपके छॊटे पुत्र श्री सुशीलवंदन बैरागी (गोर्की बैरागी), पुत्रवधु श्रीमती नीरजा (रूपा वैरागी), पौत्रियाँ कु.अभिसार व कु.अनमोल बैरागी है.
दरअसल आपके बचपन का नाम नंदरामदास बैरागी है. मां का दिया हुआ सुर थाआपके पास और पिता से आपको चिकारे ( एक प्रकार की सारंगी) बजाने का हुनर प्राप्त हुआ था. कविताएं लिखते और चिकारे परधुदुन निकालते हुए मस्ती के साथ गाया करते थे. काफ़ी कम उम्र में गीत लिखने के कारण आपको बालकवि की पदवी से नवाजा जाना चाहिए था लेकिन प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री कैलाशनाथ काटजु ने आपको बालकवि कह कर संबोधित किया. तभी से आपका नाम नंदरामदास की बजाय बालकवि वैरागी पड़ा और आप इसी नाम से देश-दुनिया में पहिचाने गए. आपकी कई कविताएं / रचनाएं कई राज्यों के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जा रही हैं. सिर्फ़ इतना ही नहीं आप पर तीन पी.एच.डी. विभिन्न विश्वविद्यालयों में हो चुकी है एवं वर्तमान में आंध्र विश्वविद्यालय विशाखापट्टनम एवं अम्बेडकर विश्वविद्यालय आगरा में पी.एच.डी हो रही है और तीन विध्यार्थियों ने आप पर लघु निबंध लिखकर एम.ए. कर चुके हैं.
बैरागी जी ने मालवी भाषा में कई कविताएं लिखी जिनमें प्रमुख संग्रह है-चटक म्हारा चम्पा एवं अई जावो मैदान में. आपके कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए जिसमें से मनुहार भाभी तथा बिजुका बाबू कहानी संग्रह की चार कहानियों पर दूरदर्शन भोपाल फ़िल्में बना चुका है. दरद दीवानी. जूझ रहा है हिन्दुस्तान, दादी का कर्ज, दो टूक, गाओ बच्चो, कोई तो समझे, रेत के रिश्ते, ललकार, मैं उपस्थित हूं यहां, आलोक का अट्टहास, ओ अमलतास, गीत बहार, गीत लहर, गौ व गली, शीलवती आग इत्यादि दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकों सहित आपने उपन्यास भी लिखे हैं.
आपकी रचनाएं देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं सहित प्रमुख अखबारों में प्रकाशित होती रही हैं. आपने दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं अन्य टीवी चैनलओं में अपनी प्रस्तुति दी है. फ़िल्मी जगत में भी आपने अपनी अनोखी पहचान बनाई है. छोटी-बड़ी करीबन 26 फ़िल्मी में गीत भी लिखे,.” रेशमा और शेरा” का वह गीत, भुलाए कैसे भूल सकता है. ” तू चन्दा….मैं चांदनी- तू तरुवर ..मैं शाख रे…तू बादल ….मैं बिजुरी…तू पंछी…. मैं पांख रे…….लताजी की खनकदार आवाज, जयदेव का संगीत और दादा के बोल. तीनॊं मिलकर एक ऎसा कोलाज रचते हैं, जिसमे श्रोता बंधा चला जाता है. गीत सुनते ही लगता है जैसे आपके कानों में किसी ने मिश्री घोल कर डाल दी हो. इस गीत में मिठास के साथ-साथ, एक तडफ़ है, एक दर्द है. गीत के बोल ही कुछ ऎसे हैं, जो आपको अन्य लोक में ले जाते हैं. वसन्त देसाई की संगीत-रचना, दिलराज कौर की सुरीली आवाज मे फ़िल्म” रानी और लालपरी का गीत “ अम्मी को चुम्मी….पप्पा को प्यार” वाला गीत हो, अथवा संगीतकार (आशा भॊंसले के सुपुत्र) हेमन्त भॊंसले की संगीत रचना में फ़िल्म “जादू-टोना” का गीत हो, अथवा दो बूंद पानी, अनकही, वीर छत्रसाल, अच्छा बुरा के गीत हो, दादा की शब्द-रचना आपको मंत्र मुग्ध कर देने में सक्षम है. सन 1984 में “अनकही”फ़िल्म का गाना—“मुझको भी राधा बना ले नंदलाल,”सुनते ही बनता है.
आपने 1945 में कांग्रेस ज्वाईन की थी. जिला कांग्रेस मंदसौर के कार्यालय मंत्री, बाद में मनासा कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे. श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने 1967 में आपको मनासा विधानसभा का उम्मीदवार बनाया. आप दस वर्षों तक मनासा के विधायक रहे. जनसंघ के विधायक श्री सुंदरलाल पटवा को हरा कर मनासा के विधायक बने. श्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र के संसदीय सचिव बनने पर श्री बैरागी जी को जी.ए.डी.सामान्य प्रशासन विभाग से जोड़ा गया और श्री श्यामाचरण शुक्ल के मंत्री मंडल में सूचना प्रकाशन, भाषा, पर्यटन और जी.ए.डी के राज्यंत्री रहे. 1980 में मनासा से फ़िर चुनाव लड़ा और विधायक बने तथा तत्कालीन अर्जुनसिंह के मंत्रीमण्डल में खाद्यमंत्री(स्वतंत्र प्रभार) राज्य मंत्री रहे. 1995-96 तक अखिल भारतीय कांग्रेस के संयुक्त सचिव रहे. 1998 में सोनिया गांधी ने म.प्र. से आपको राज्यसभा में भेजा. 29 जून 2004 को राज्यसभा से निवृत्त हुए. 2004 में राजस्थान प्रदेश के आंतरिक संगठनात्मक चुनाओं में प्राधिकरण अध्यक्ष बनाया गया. आप म.प्र. कांग्रेस चुनाव समिति के अध्यक्ष भी रहे. 2008-11 तक म.प्र.कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे. आपने कई नारे दिए जिसमें से प्रमुख नारा था “ हम दो हमारे दो”. आपने अमेरिका, कम्बोडिया, इंग्लैण्ड, मारीशस, श्रीलंका, नेपाल, हांगकांग, नीदरलैंड, सूरीनाम, म्यांमार. शेषल्स, जर्मनी आदि देशों की यात्राएं की. आप मानव संसाधन विकास मंत्रालय-सूचना मंत्रालय की स्थायी समितियों सहित पोत परिवहन मंत्रालय, कार्मिक मंत्रालय की हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे हैं.
आप अक्सर कहा करते थे कि मैं कलम से कमाता हूँ,, कांग्रेस की गाता हूँ खाता नहीं. मेरे पास कोई व्यापार, व्यवसाय, धंधा या कारखाना, फ़ैक्ट्री, होटल, पेट्रोल पंप नहीं है. मुझे अपने अतीत से कोई शिकायत नहीं है. आपका सूत्र-वाक्य था- साहित्य मेरा धर्म, राजनीति मेरा कर्म. अपने धर्म और कर्म की शुचिता का मुझे पूरा ध्यान है. बाएं हाथ से लिखता हूँ, ईश्वर ने मुझे बाएं हाथ में कलम और पंडित जवाहरलाल नेहरु ने मेरे दाहिने हाथ में शहीदों के खून से रंगा तिरंगा थमाया, मैं दोनों की गरिमा पर दाग नहीं लगने दूंगा.
वे अपने साथियों से अक्सर कहा करते थे कि –कभी आलोचना की परवाह मत करो. संसार मे आलोचकों के स्मारक नहीं बनते. जो तना अपनी कोंपल का स्वागत नहीं करता, वह ठूंठ हो जाता है**
एक ऎसा मस्तमौला कवि, जो बड़ी से बड़ी बात को, अपनी कविता में सहज और सरल ठंग से कह जाता हो, जिसे व्यक्त करने में हम अपने आपको असमर्थ पाते हैं, जिनकी कविता में भारतीय ग्राम्य संस्कृति की सोंधी-सोंधी गंध रची-बसी हो, जो लोगों के जुबान पर चढकर बोलती हो, एक ऐसा हाजिर जवाबी कवि, जिसने गली-कूचों से चलते हुए, देश की सर्वोच्च संस्था,जिसे हम संसद के नाम से जानते है,सफ़र तय किया हो, जिसे घमंड छू तक नहीं गया हो., जो खास होते हुए भी आम हो, ऎसे जनकवि के लिए अतिरिक्त परिचय की दरकार नहीं होती. ऎसी ही एक अजीम सख्सियत का नाम था -बालकवि बैरागी.. किसी शुभचिंतक ने इन्हीं बातों को लेकर उनसे प्रश्न किया तो उन्होंने जवाब में कहा-“साहित्य मेरा धर्म है, और राजनीति मेरा कर्म”. गहनता लिए हुए उनके इन्हीं शब्दों से, उनके व्यक्तित्व कॊ नापा जा सकता है.
मुझे कई बार दादा को मंचॊं पर सुनने का मौका मिला है. उस समय पर होने वाले कवि-सम्मेलनॊं की आन-बान-शान अलग ही होती थी. मंचों पर आलादर्जे के कविगण होते थे. श्रोताओं को साहित्य से भरपूर रचनाएं सुनने को मिला करती थी. कवि-सम्मेलन तो अब भी हो रहे हैं,लेकिन उनमें केवल चुटकुले ही सुनने को मिलते है. जब तक रचनाओं में साहित्य का पुट नहीं होगा,कोई भी रचना सरस कैसे हो सकती है?.ग्राह्य कैसे हो सकती है?
एक बार मुझे नाथद्वारा जाने का अवसर प्राप्त हुआ. नाथद्वारा मे स्थित साहित्यिक मंच”साहित्य-मण्डल नाथद्वारा” द्वारा मुझे सम्मानीत किया जाना था. मैं अपने मित्र मुलताई निवासी श्री विष्णु मंगरुलकर जी के साथ यात्रा कर रहा था. यात्रा का सारा कार्यक्रम इटारसी आने के पहले ही गडबडा गया. संयोग यह बना कि मुझे भोपाल रात्रि विश्राम करना पडा. आगे की यात्रा में रतलाम रुकना पडा. फ़िर अगली सुबह छः बजे की ट्रेन से आगे की यात्रा करनी पडी. रास्ते में “मनासा” स्टेशन पडा. दादा की याद हो आयी. दरअसल वहाँ रुकने का कार्यक्रम पहले से ही तय था, लेकिन समय साथ नहीं दे रहा था. वैसे ही हम एक दिन देरी से चल रहे थे, और हमें अभी आगे का सफ़र जल्दी तय करना था. स्टेशन से दादा को फ़ोन लगाया और अपने नाथद्वारा जाने का प्रयोजन बतलाया. मेरा मन्तव्य सुनने के बाद उन्होंने कहा-“गोवर्धन भाई, समय मिले तो जरुर आना”. उन्होंने बड़ी ही आत्मीयता के साथ मुझे अपने गांव आने का निमंत्रण दिया था,लेकिन चाहकर भी हम मनासा रुक नहीं पाए.
एक अधूरी कसक
प्रति वर्ष हिन्दी भवन भोपाल में माह जुलाई के महिने में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन होता है. मैं इसमें निश्चित रुप से जाता रहा हूँ. अभी कुछ दिन पहिले ही मैंनें भोपाल के मित्र घनश्याम मैथिल, मुलताई के मित्र श्री विष्णू मंगरुलकर जी से और हमारी संस्था के सचिव श्री नर्मदा प्रसाद कोरी जी से परामर्श करते हुए योजना बनाई थी कि हमें इस वर्ष निश्चित रुप से मनासा जाना ही है. आदमी अपनी योजना बनाता है लेकिन विधि और कोई विधान रच रही होती है, जो सामान्य आदमी की समझ से बाहर होती है. हम अपनी योजना बना चुके थे, लेकिन विधाता कुछ और मन बना चुके थे. दो माह पूर्व ही वे स्वर्गारोहण कर गए. भविष्य में मिलने की हमारी योजना अधूरी ही रह गई. बस इस बात का अफ़सोस है कि हम अब उनसे कभी भी नहीं मिल पाएंगे. बावजूद इसके, इस बात को लेकर संतुष्टि भी है कि बैरागी जी भले ही हमारे-आपके बीच नहीं हैं ,लेकिन वे अपनी लेखनी के माध्यम से हमारे बीच सदैव बने रहेंगे..
गोवर्धन यादव.
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