संस्मरणः प्राण शर्मा-रूपसिंह चन्देल

वह सपनों में मुझसे मिलते रहे…

जीवन में बहुत से लोग अचानक आ जुड़ते हैं और इतने आत्मीय और अपने हो जाते हैं कि उनके बिना जीवन व्यर्थ दिखाई देने लगता है. ब्रिटेन निवासी प्रसिद्ध साहित्यकार प्राण शर्मा का मेरे जीवन में प्रवेश कुछ इसी प्रकार हुआ. २००७ में मैंने अपना ब्लॉग ’वातायन’ प्रारंभ किया. यह तब की बात है जब ब्लॉग की दुनिया में लोग प्रवेश कर ही रहे थे. वातायन में मैं मित्र साहित्यकारों की रचनाएं प्रकाशित करता था. व्लॉग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाने लगा और प्रवासी साहित्यकारों की रचनाएं मुझे मिलने लगीं. मैंने निरंतर उन्हें वातायन में प्रकाशित किया. भारत में रहने वाले लेखकों को तो कर ही रहा था. वातायन की स्थिति यह हो गयी कि उसमें प्रकाशित होने के लिए साहित्यकारों की ढेरों रचनाएं मिलने लगी थीं. बाद में मैंने अनेक अंक ’साहित्यकार केन्द्रित’ प्रकाशित किए. अर्थात पूरे एक अंक को एक ही रचनाकार की रचनाओं पर केन्द्रित किया. इस प्रकार प्राण जी के साथ प्रारंभ हुआ परिचय निरंतर प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया.
प्राण जी सरल, निश्छल और स्वाभिमानी व्यक्ति थे. व्यक्ति की उन्हें पहचान थी. उन्होंने कभी भी अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया. उन्होंने बताया था कि अपने इस स्वभाव के कारण ही उन्होंने कई पुरस्कार स्वीकार करने से इंकार किया था. उनका जन्म पाकिस्तान के वजीराबाद में १३ जून,१९३७ को हुआ था. जब वह दस साल के थे उन्हें विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी थी. ९ सितम्बर,२०१७ के पत्र में उन्होंने संक्षेप में अपने उस जीवन का उल्लेख किया था :
“प्रिय रूप जी ,
मैं दस साल का था जब भारत का विभाजन हुआ था। खस्ता हालत में हम दिल्ली आये थे और पाँच साल तक हम खस्ता हालत में ही रहे। धर्मशालाओं और कैम्पों में भटकते रहे। टॉयलेट जाने के लिए सुबह तीस -तीस और चालीस – चालीस लोगों की क़तार लग जाती थी। सुबह की रोटी है तो शाम की रोटी नहीं लेकिन पाकिस्तान को करोड़ों रुपये दिए जा रहे थे। नई दिल्ली में शरणार्थियों के लिए जाना वर्जित था , ` महात्मा ` गांधी का फरमान था। विभाजन का दुःख – दर्द ` सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ` लिखने वाले रामधारी सिंह की आँखों में भी आँसू नहीं ला पाए। कश्मीरी पंडितों और पाकिस्तान से हाल ही में हिन्दुओं के पलायन के दुःख – दर्द से सेकरुलिज्म का नारा लगाने वालों के मन पसीज नहीं पाए।
शुभकामना के साथ,
प्राण शर्मा”
प्राण जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. और बी.एड. किया. एक बार फोन पर उन्होंने बताया था कि फिल्मी गीत गाते-गाते वह गीत लिखने लगे थे. उनके लेखन का प्रारंभ १९५५ से हुआ. उन्होंने गीत, कविताएं, गज़लें, माहिया, लघुकथाएं और कहानियां लिखीं. प्राण जी की कहानी ’तीन लंगोटिया यार’ मैंने वातायन में ३ नवंबर,२००९ को प्रकाशित की थी. उनकी छः लघुकथाएं – उपचार, रक्षक, मुराद, मोह, आकांक्षा, संतान की सफलता वातायन के अंतिम अंक में प्रकाशित होने वाली रचनाएं थीं. यह अंक १२ अगस्त,२०१७ को मैंने प्रकाशित किया था और वातायन में इनके बाद किसी की भी रचना प्रकाशित नहीं की जा सकी. प्राण जी का एक लघुकथा संग्रह ’देश पराया’ ’मेधा बुक्स’ नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 ने सन् 2012 में प्रकाशित किया था, लेकिन उनका कोई कहानी संग्रह नहीं आ सका. उनकी ग़ज़लों और रुबाइयों के संग्रह ’गज़ल कहता हूं’ और ’सुराही’ नाम से प्रकाशित हुए. प्राण जी मूलतः ग़ज़लकार ही थे. वह ग़ज़लकार ही नहीं थे गज़ल आलोचना में भी उनकी अच्छी पकड़ थी. उन्होंने यू.के. की एकमात्र हिन्दी पत्रिका ’पुरवाई’ में ’हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल’ धारावाहिक स्तंभ लिखकर हिन्दी उर्दू गज़लकारों को अपनी ओर आकर्षित किया था. वह एक ईमानदार आलोचक थे. उनके ये आलेख पूर्णिमा बर्मन द्वारा संचालित हिन्दी की प्रतिष्ठित ‘वेब पत्रिका’ ‘अभिव्यक्ति’ में भी प्रकाशित हुए थे.

१९६५ में प्राण जी यू.के. चले गए थे, जहां नौकरी करते हुए वह कॉवेंटरी में बस गए थे. नौकरी के साथ उनका लेखन नियमित चलता रहा. पिछले दो सालों से वह नियमित लघुकथा, गज़ल, शेर, माहिया आदि अपने फेस बुक खाते में प्रकाशित करने लगे थे. मुझे वह अलग से ये रचनाएं मेल करते और मेरी बेबाक प्रतिक्रिया मांगते. गज़ल और शेर की मुझे समझ नहीं, फिरभी यदि कहीं कुछ अटपटा लगा मैंने उन्हें बताया. कई लघुकथाओं पर मैंने अपनी स्पष्ट राय उन्हें दी और उन्होंने उसे माना भी. शायद ही कभी ऎसा हुआ होगा कि मैंने उनके किसी पत्र का उत्तर न दिया हो. उन्हें ही नहीं, बल्कि मैं हर किसी के पत्र का उत्तर देता हूं. एक गज़ल पर मेरी प्रतिक्रिया प्राप्त कर प्राण जी ने १९ अप्रैल,२०१६ को मुझे लिखा :
“प्रिय रूप जी ,
आपके ह्रदय की विशालता के आगे मेरा मस्तक नत है। सुना है , मुंशी प्रेम चंद हरेक को प्रोत्साहित करते थे। उन जैसे चंद ही साहित्यकार रह गए हैं अब। आप शीर्ष पर हैं।
मेरी पूरी ग़ज़ल यूँ हैं। यह ग़ज़ल शायद बीस साल पुरानी है। पढियेगा –

तू किस दुनिया से आया है , तू किस दुनिया को जाएगा
मेरे जीवन , ये सब कुछ ही क्या मुझको नहीं बतलाएगा

मैं रोता हूँ , तू रोता है , मैं हँसता हूँ , तू हँसता है
मैं सोचता हूँ नित कब तक तू मुझको हैरान बनाएगा

तू कितना अच्छा लगता है , तू कितना प्यारा लगता है
क्या अगले जनम में भी यूँ ही तू मेरे मन को भाएगा

मुझको मालूम है अच्छी तरह तू फूल के जैसा कोमल है
कोई तुझको ताना मारे तू मुँह लटकाए आयेगा

तुझको खोना इस दुनिया में शायद ही कोई पसंद करे
जीवन , तेरा जादू जब तक सब पर ही चलता जाएगा
————————-
(कृपया लिखिएगा कि निकट में मेरी कौन सी ग़ज़ल है ? मेरा सौभाग्य है कि उदंती, लेखनी और निकट में आपकी रचनाओं के साथ मेरी रचनाएँ छपी हैं।)
शुभ कामनाओं के साथ ,
प्राण शर्मा “

प्राण जी का हिन्दी लेखन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर न केवल लगातार स्वीकार किया जाता रहा बल्कि प्रशंसित और पुरस्कृत भी होता रहा। सन् १९६१ में प्राण जी को भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ. १९८२ में कादंबिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में उनकी कहानी पुरस्कृत हुई थी. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में उनकी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला था. २००६ में हिन्दी समिति लंदन ने उन्हें सम्मानित किया था.

प्राण जी ने विशाल हृदय पाया था. प्रायः वह लोगों की सहायता किया करते. साहित्यिक मित्रों की बीमारी का समाचार उन्हें व्यथित कर डालता था और उनका कोमल हृदय उन्हें उनकी आर्थिक सहायता के लिए प्रेरित करता और वह उसे उपचार के लिए यथासंभव कुछ धन भेजना चाहते. मित्रों की बेटियों-बहनों के विवाह के अवसर पर तो निमंत्रण मिलने पर भेजते ही थे. इस मामले में वह दूसरे कमलेश्वर थे. इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख आवश्यक है. चण्डीगढ़ की एक युवती (नाम जानबूझकर नहीं लिख रहा हूँ), जो हिन्दी में पी-एच.डी. कर रही थी, ने उन्हें लिखा कि उसके पास कंप्यूटर नहीं है. आर्थिक स्थिति ऎसी नहीं कि ले सके. थीसिस बाजार में टाइप करवाना नहीं चाहती. यदि प्राण जी उसे तीस हजार रुपए भेज दें तो उसे सुविधा हो जाएगी और उनका धन वह नौकरी लगने के एक वर्ष के अंदर वापस लौटा देगी. प्राण जी ने उसे तीस हजार रुपए भेज दिए. युवती की नौकरी लगी और साल बीत गया. प्राण जी चुप थे. जब दूसरा वर्ष भी बीतने को आया और उसने दूसरे डिग्री कॉलेज में नौकरी पा ली तब प्राण जी ने उसे पैसे वापस लौटाने के लिए लिखा. युवती ने ‘जल्दी ही दूंगी’ कहकर टाल दिया. समय बीतता रहा, लेकिन युवती ने तीन पत्र लिखने के बाद भी पैसे नहीं लौटाए. प्राण जी अपने को छला हुआ पा रहे थे. इस एहसास से उन दिनों वह तनाव की स्थिति में थे. उनके पत्रों से मुझे ऎसा आभास हुआ तो मैंने एक दिन पूछ लिया. दुखी मन से उन्होंने फोन पर सारा प्रकरण बताया. मैंने उन्हें तनावमुक्त रहने की सलाह दी. उन्होंने कहा, “रूप जी, तीस हजार मेरे लिए मायने नहीं रखते—मैं और सहायता भी कर सकता हूं. वह लेते समय यदि यह कहती कि लौटा न सकेगी, तब बात कुछ और थी, लेकिन वह मेरे मेल को टाल रही है और यह मेरे लिए पीड़ाजनक है. लग रहा है कि मेरे साथ चीटिंग हुई है.”

मैंने प्राण जी को समझाया कि वह मन को शांत करें, मैं कोई उपाय देखता हूं. मैंने बहुत सोचा और अगले दिन फेसबुक पर उस युवती के नाम का उल्लेख न करते हुए, लेकिन ऎसा संकेत देते हुए कि वह उसे समझ ले, एक पोस्ट लिख डाली. उसने उसे समझा और तुरंत प्राण जी को मेल लिखा कि वह उन्हें पैसे भेज रही है और प्राण जी मुझे कहकर वह पोस्ट हटवा दें. उसने प्राण जी को बाइस या तेईस हजार रुपए लौटा दिए. शेष के बारे में प्राण जी ने मुझसे पूछा तब मैंने उन्हें सलाह दी कि बाकी बचे रुपयों को वह भूल जाएं; और वह भूल गए थे. फिर एक दिन प्राण जी का मेल आया कि वह चाहती है कि मैं उसके खिलाफ वाली अपनी वह पोस्ट हटा दूं. मैंने इंकार कर दिया. प्राण जी ने सहृदयता दिखाते हुए पुनः कहा, लेकिन मैंने पुनः इंकार कर दिया था और पोस्ट नहीं हटाई थी.

प्राण जी दूसरों की सहायता के लिए कितना तत्पर रहते थे इसका एक उदाहरण मेरी बेटी के यू.के. जाने पर ज्ञात हुआ. दामाद सुमित को कंपनी ने अपने एल्डर शॉट कार्यालय में भेजा था. बेटी और नातिन साथ गए थे. वहां उनके रहने की समस्या पर चर्चा हुई, तब प्राण जी ने लंदन के अपने सभी मित्रों को मेल भेजकर अनुरोध किया कि वे कोई समाधान खोजकर उन्हें बताएं. एल्डर शॉट लंदन से शायद ८० कि.मी.की दूरी पर है. प्राण जी को केवल दिव्या माथुर जी का उत्तर मिला, जिन्होंने लिखा था कि उनकी जान-पहचान का कोई वहां नहीं रहता, लेकिन वह प्रयास करेंगी. एक-दो ने फोन पर प्राण जी से कहा कि वे नहीं जानते कि वह स्थान कहां पर है. मैंने तेजेन्द्र शर्मा को भी सुझाव देने के लिए लिखा था और उनका सुझाव था कि “एस्टेट एजेंट के बिना काम संभव न होगा” और वही सही था. प्राण जी पुराने व्यक्ति थे और चूंकि सबकी सहायता के लिए हर समय तत्पर रहते थे तो उन्होंने सोचा था कि शायद किसी की पहचान से काम बन जाएगा, जबकि जानते वह भी थे कि ऎसा हो पाना नामुमकिन था.

शैल अग्रवाल जी की वेब पत्रिका ’लेखनी’ को लेकर जब एक मोहतरमा मुझसे उलझ गयीं और मुझ पर अपने को धमकाने का आरोप लगाते हुए मेरे विरुद्ध साइबर सेल में शिकायत करके मुझे जेल भेजवाने की धमकी देने लगी थीं, तब प्राण जी ने शैल जी को ५ फरवरी, २०१६ को जो पत्र लिखा था, वह दृष्टव्य है :
“प्रिय बहन शैल जी ,
लेखनी आपके नाम का पर्याय है। लेखनी को आपसे कोई जुदा नहीं कर सकता है। आपने उसे बेटे – बेटी की तरह पाला है। श्री रूप सिंह चंदेल जी ने आपके हित में आवाज़ उठा कर स्तुत्य कार्य किया है। वह सदा अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ते हैं। साहित्य में उन जैसे निर्भीक और सहायक कम ही हैं। हम सबको उन पर गर्व होना चाहिए।
लेखनी और आपको शुभ कामनाएं ,
प्राण शर्मा”

यही नहीं, जब दशकों पुराने एक मित्र ने मुझपर झूठा और कुत्सित आरोप लगाया तब प्राण जी भी आहत हुए थे. उन्होंने फेसबुक पर तो कुछ नहीं लिखा, लेकिन उस विषय पर २० सितंबर,१७ को मुझे जो व्यक्तिगत पत्र लिखा वह भी साझा करना अनुचित नहीं होगा :
“प्रिय रूप जी ,
बेबुनियाद आरोप मन में विचलन पैदा कर देते हैं। आपसे मेरा कई सालों से संपर्क है और यह संपर्क हमेशा के लिए रहेगा। आप जैसे नफ़ीस ( बढ़िया ) इनसान से संपर्क होना ही बहुत बड़ी बात है। आपकी मेहरबानियाँ कोई भूल जाए उससे बड़ा और कोई अनजान नहीं है। आपको एक सत्य बताता हूँ , मैंने कभी आपकी शान में यह पंक्तियाँ लिखी थीं –
“भूल जाऊँ हर निशानी आपकी मुमकिन है पर
भूल जाऊँ मेहरबानी आपकी मुमकिन नहीं।“
बेग़ैरत लोग हर जगह मिलते हैं। उन्हें भूलना ही बेहतर है।
आपके और आपके परिवार के लिए मेरी शुभकामनाएँ ही शुभ कामनाएँ हैं।
प्राण शर्मा”

प्राण जी प्रायः लिखते कि उन्होंने सपने में मुझे देखा. कई बार यह बात उन्होंने मुझे लिखी. इससे अनुमान लगाता हूं कि वह मुझे लेकर कितना संवेदनशील थे. मेरे घर के सदस्यों के विषय में निरंतर पूछते रहते. ३० जुलाई,१७ को मैं उन्हें तीन बार सपनों में आया. उनके अनुसार :

“प्रिय रूप जी ,
रात को थोड़ी – थोड़ी देर बाद मुझे तीन बार सपने आये थे। हैरत की बात है कि हर सपने में आप ही आये थे, कभी अपने जीवन का कोई प्रसंग सुनाते हुए, कभी अपनी कहानी का पाठ करते हुए और कभी अपनी नातिन को लाड़-प्यार करते हुए।
इसी तरह सपने में आते रहिये।
शुभकामनाओं के साथ ,
प्राण शर्मा”

३० जुलाई,१७ को ही मैंने उन्हें उत्तर देते हुए लिखा था :
“आ. प्राण जी,
मेरे प्रति आपके असीम प्रेम और स्नेह के फलस्वरूप ये सपने आपको आते रहे। एक दिन मुझे भी आप सपने में मिले थे और वह भी यू के में जहां मैं कभी नहीं गया। इससे जाहिर है कि एक-दूसरे के प्रति हममें निश्छल आदर-स्नेह है । आपके सपने का जिक्र मैंने घर में किया था । आपको बता नहीं पाया।
आप सपरिवार स्वस्थ-सानंद रहें यही कामना है।
सादर,
चन्देल”

५ अगस्त,२०१७ को रात उन्होंने मुझे फिर सपनों में देखा और सुबह होते ही लिखा :
“प्रिय रूप जी ,
रात में आपसे सपने में फिर मुलाक़ात हुयी। आपके हाथ में आपकी कृति ‘आपबीती–जगबीती’ थी।
शुभकामनाओं के साथ,
प्राण शर्मा “
मैंने उन्हें लिखा कि ऎसी कोई कृति मेरी नहीं है और न ही मेरे मन में है. वह मेरे साथ बातचीत की अपनी दबी हुई इच्छाओं को सपने के माध्यम से तुष्ट करते रहे और बार-बार लिखते कि कभी भारत आना हुआ तब या आप कभी यू.के. आएँगे तब, मुलाकात अवश्य होगी. १६ फरवरी,२०१८ को मैंने अपनी दायीं आंख का मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया. कंप्यूटर पर काम करना तो बंद होना ही था, मोबाइल का इस्तेमाल भी कम कर दिया. फेसबुक पर जाना भी. यह सूचना भी मैंने पहले ही लिख दी थी, लेकिन शायद वह देख नहीं पाए थे. यद्यपि मुझे १४ मार्च को चश्मे का नंबर मिल गया था और १६ को चश्मा भी बन गया था, लेकिन अचानक मेरी आंख लाल हो उठी थी. शायद उत्साह में मैंने किसी मित्र से लंबी बात कर ली थी और मोबाइल ने अपना असर दिखा दिया था. पहले आंख से पानी बहा फिर लाल. सोचा था कि चश्मा मिलते ही फेसबुक में पोस्ट लिखकर मित्रो को बताउंगा, लेकिन आंख के लाल होने के कारण वह नहीं कर पाया और २५ मार्च को प्राण जी का मेल आ गया कि बहुत दिनों से उन्होंने मेरी टाइम लाइन में मेरा कुछ देखा नहीं, शायद मैं किसी रचना के सृजन में अत्यधिक व्यस्त हूं.

अगस्त, २०१५ की किसी तरीख को प्राण जी अपने घर के बाहर गिर गए थे. नाक और कंधे पर चोटें आयी थीं. ९ अगस्त,१५ को पत्र में उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए लिखा कि नाक की चोट तो ठीक हो गयी है, लेकिन कंधे का दर्द परेशान कर रहा है. रात में अधिक तकलीफ देता है. फिजियोथेरेपी के लिए अस्पताल जाता हूं. उन्होंने पत्र में लिखा कि—कभी एक शेर लिखा था, जो मुझी पर लागू हो गया. शेर इस प्रकार है :

“न इतना नाज़ कर दौर-ए-खुशी पर
मुसीबत पूछ कर आती नहीं है ।”

प्राण जी जितने बड़े गज़लकार और शायर थे उतने ही बड़े या कहूं कि उससे भी उम्दा इंसान थे. गत 30 मार्च को उन्हें पक्षाघात हुआ था. वह अस्पताल में भर्ती हुए. २४ अप्रैल,१८ को शाम सवा चार बजे वह इस संसार को अलविदा कह गए. यह समाचार मुझे २६ की रात को मिला. मैं अवाक था और अब तक हूं. उन जैसा व्यक्ति खोजने से भी नहीं मिलता. दो टूक शब्दों में कहूं कि उनके जीवित रहते, भारत ही नहीं यू.के. में भी उनकी प्रतिभा की उपेक्षा की गयी. उनका सही मूल्यांकन शायद अब हो.
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रूपसिंह चन्देल
फ्लैट नं.७०५, टॉवर-८, विपुल गार्डेन्स,
धारूहेड़ा, हरियाणा-१२३१०६
मो. नं. ८०५९९४८२३३

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