स्वच्छंद आकाश में विचरता: ‘कुछ कोलाहल कुछ सन्नाटा’
“मैं कवि हूँ मैं ही कविता हूँ
मैं आप स्वयं को गाता हूँ।
मुझको सुनना हो सावधान
मैं अंतर का उद्गाता हूँ।”
दुष्यंत जी के स्वाच भावों से परिचित कराती हुई शब्दों में यह काव्यानूभूति हर लेखक के लिए प्रेरणा का स्त्रोत्र है.
लेखन कला एक ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते हैं, परिश्रम के खाध्य का जुगाड़ करते हैं और सोच से सींचते हैं, तब कहीं जाकर इसमें शब्दों के अनेकों रंग-बिरंगे सुमन निखरते और महकते हैं। ऐसे ही इन्द्रधनुषी रंगों का पैरहन ओढ़ कर सामने आई है डॉ.गुर्रमकोंडा नीरजा जी की सन्नाटों में कोलाहल मचाती कवितायेँ. उनके नवीन काव्य संग्रह ‘कुछ कोलाहल कुछ सन्नाटा’ में उनके तेजस्वी लेखन का विस्तार अनुभूति से अभिव्यक्ति तक का सफरनामा है. ये भावनाएं उनके चिंतन-मनन के मंथन का निचोड़ है और कविताएँ उनके भाषाई साहित्य सफर की ज़ामिन.
नीरजा जी के भीतर की कवियित्री, कविता के नखशिख की विलक्षणता की पक्षधर है. वह सुन्दरता से अपनी रचना को सलीके से श्रंगारित करती, भावों में महक भरती हुई पाठक के मानस पर काव्योन्माद से परिपूरित एक छवि को निखार कर प्रस्तुत करती है. कहीं कहीं तो कविताओं का एक एक शब्द घ्वन्यात्मक, लयात्मक और दमकता हुआ दिखई देता है, जो अपनी आभा जनमानस में बिखेरने का स्तुत्य प्रयास कर रहा है. यही भाव उनकी ‘कोलाहल’ नामक कविता में पाई जाती है —
‘ख़ुशी से तरंगित होता है, मन नाच उठता है
यह सच है –खिल रहा है आँगन, आंखें- सजीव चित्र, उपमा तुलनात्मकता, लयात्मकता का परिचय देते हुए सौन्दर्य बोध करा पाने में सक्षम है.
कविता लिखना दिल की घनी वादियों में जाकर ज्ञान की सघन झाड़ियों के पीछे देहरूपी वस्त्र उतार, नए मौसम के अनुभव के शबनमी बूँदों से आत्मा के कलकल बहते निर्भर झरने की तरह कुछ अनकहे, अनसुने अक्षरों में उकेर देना है, जिसके सुर ताल पर मेनका रक़्स कर उठती है. इसी सौन्दर्य बोध का दर्शन ‘नि:शब्द’ नामका कविता में देखिये-
उस अनुभूति को व्यक्त करने के लिए/ शब्द नहीं हैं
मौन का साम्राज्य है चारों ओर/ भीतर तो तुमुलनाद है
भीगी हूँ प्यार में
‘आह के साथ वाह’ बरबस ही निकल पड़ती है.
कम शब्दों में एक गूढ़ यतार्थ से परिचित करवाते हुए कवियित्री पग पग पर मिली सीख के क़दम चिन्हों पर चलते चलते चुनौतियों को स्वीकारते हुए ७७-‘सीखना’ नाम की कविता में लिखती हैं-
कविता करना मुझे नहीं भी आया/
तो कोई बात नहीं/तुमसे सीख लिया मैंने
तुमुल कोलाहल के बीच सन्नाटे को जीना
सन्नाटा जो कविता है-/कविता जो जीवन है.
जीवन पथ पर चलते चलते अपने अनुभवों को एक पारदर्शी स्वरुप देकर भीतर और बाहर की दुनिया के तालमेल में कविता को एक अनोखे रूप में परिभाषा किया गया-सन्नाटा जो कविता है, कविता जो जीवन है.
जीवन पथ पर घर की चौखट के भीतर बैठी नारी आज स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में सक्षम है. अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब उसका ध्येय बन गया है. ऐसी नारी मन की रूदाद है, उनकी कविता – ‘कविता ‘खतरे में बेटियाँ’, जिसकी ज़ामिन है सिसकती खामुशी जो वेदना बनकर बह रही है. शायद यह नारी मन की व्यथा-गाथा है जो हर बहन-बेटी में अभया का तसव्वुर करती है.
‘वह तो बस छोटी सी गुडिया थी गुड्डे-गुड़ियों से खेलती / उस दिन भी खेलने के लिए ही तो/
ख़ुशी-ख़ुशी घर कि दहलीज़ पार की थी.
पर उसे क्या पता था /दरिंदा वहीँ से उठाकर ले जायेगा/
नोच नोच कर खसोट-खसोटकर खा जायेगा
नीरजा जी की अभिव्यक्ति, मर्द की करतूत की ओर निशाना साधकर, साफगोई से डंके की चोट पर ऐलान कर रही है. यह भी एक संघर्ष है जो आज भी नारी समाज में अपनी सुरक्षा के लिए करती आ रही है.
आज़ादी के 68 सालों बाद भी हमारा देश एकता की डोर में नहीं बंधा, बल्कि वर्गों में विभाजित है। सबसे बड़ा वर्ग आम जनता का है, जो अपने और अपने परिवार के पालन-पोषण में ही अपनी पूरी उम्र बिता देता है। इस आम जनता में निम्न और मध्यम वर्ग के वो लोग आते हैं, जिन्हें या तो रोजी रोटी जुटाने से ही फुरसत नही है, या फिर वो उस दायरे में ही संतुष्ट हैं। दूसरा वर्ग उन उच्च वर्ग के लोगों का है,जिन्हें अपनी दौलत को बढाने का जुनून होता है. बहुत ही कम लोग होते हैं जो लीक से हटकर दीन-दुनिया, देश की भलाई के बारे में सोचते हैं। कुछ नहीं कई लोग समाज को एक दिशा देने की कोशिश करते हैं, आपस में मिलकर समाज कल्याण के लिए अनेक गुटों का निर्माण करते हैं. अफसोस की बात है कि दिशा देने वाला मार्गदर्शक वर्ग ही आज भटकने लगा है, समाज कल्याण की ओर न जाकर आज गर्त में जा रहा है. इन भावों को बखूबी इन कविताओं में पाया जाता है–
‘इस देश की क्या दशा’ कविता में कवियित्री ने संभवता अपने मन की विचारों को
-गरीबी हटाओ का नारा/ वोट फंसने का चारा है/
अगले चुनाव तक झेलना पड़ेगा.
और आगे–
पराभव निश्चित है काव्य में –प्रभुता के मद में/ राजनीतिग्य झूम रहे हैं/
अधिकारी सम्पति स्वःकर/सत्यवान बन घूम रहे हैं.
‘एक और महाभारत’ में शब्दों की तेजस्वी रूपरेखा में समाज की कुनीतियों पर कटाक्ष बड़ी ही साफगोई से किया गया है-साज़िश नाम की कविता में…
……षड्यंत्र/ दर्ज किया कोर्ट में केस /गवाह हैं पांच सौ/
पांच सौ गवाहों के समक्ष/ रहस्यमय साज़िश!…
सरकारी साज़िश/ झूठे मुक़दमे की सुनवाई….
यही सब हमारे समाज में, हमारे कुनबे में, हमारे आस पास होता आ रहा है. सुनते है, देखते हैं, पर युधिष्टर की मानिंद आँखों पर पट्टी बांधे हुए हैं-न कुछ देखते हैं, न सुनते हैं, ठीक वैसे जैसे इन्साफ की देवी को करते पाया है.
‘बीस सूत्रों की डंडी यात्रा’ में इस विचार धारा को अभिव्यक्त करते हुए उनकी बानगी देखिये:
मुख्या मंत्री कठपुतलियों के समान कह रहे हैं/….
दीन जन के उद्धार के संकल्प ….
समृद्धि के सूत्र लागू होने में बाधक प्रतिपक्ष के नियंत्रण में रहते ही दीन जन का उद्धार हो गया तो प्रसन्नता की बात है…और आगे ..
मार्गदर्शक वर्ग के लोगों ने अपनी सोच संकुचित कर ली है। विचारों की अभिव्यक्ति को रोकना स्वतंत्र विचारधारा में सबसे बड़ी बाधा है. आम धारणा के विरुद्ध कुछ भी कहने पर समाज के ठेकेदार आलोचना के साथ साथ हिंसक भी होने लगते हैं।
‘शर्म करो, मुख्यमंत्री’ कविता का यह अंश राजनीति की आधार शिला पर बुनी हुई ‘पार्टीव्रत’ को सामने ले आई है:
‘ लम्बी पगड़ी बांधकर/ प्रदेश में उग रही विभाजन-विरोधी पार्टियां/ (‘पार्टीव्रत’ है उनका) इसलिए अलग तेलंगाना का /का प्रश्न ही नहीं उठता-कहती है प्रधान मंत्री ‘श्रीमती’ इंदिरा /नेहरु की लाडली/’
–प्रदेश में उग रही पार्टियों से/ प्रधनमंत्री को बहुत लगाव है
कविता में हमारे राग-विराग, हास्य-रुदन सब गुंथे रहते हैं. प्रत्येक कवि बीते हुए कल के सामने नवोदित होता है, चलते हुए समय के सामने समकालीन होता है और आने वाले कल में कालजयी होता है. मन की आशा बहुत कुछ पाकर भी कुछ और पाने की लालसा में निराशाओं को अपने आलिंगन में भरने को तैयार है. यादों की सँकरी गली के घेराव में एक बवंडर उठ रहा है जहाँ साँस धधकती है, मौत के नाम पर आत्मा के अधर जलने लगे है, जलती चिता पर जीते जी लेटे उस इन्तज़ार में जहाँ, उस पनाह को पाने के लिये, वहीं उस अवस्था में जहाँ जिंदगी एक आह बन जाती है और मौत उसकी पनाह बन जाती है. हर पन्ने पर शब्द निशब्द करते चले जा रहे हैं और झूठ का एक-एक आवरण सच में तब्दील होता जा रहा है.–
डा॰ किशोर काबरा ने एक जगह लिखा है – “सच्ची कविता की पहली शर्त यह है कि हमें उसका कोई भार नहीं लगता. जिस प्रकार पक्षी अपने परों से स्वच्छंद आकाश में विचरण करता है, उसी प्रकार कवि “स्वान्तः सुखाय” और “लोक हिताय” के दो पंखों पर अपनी काव्य यात्रा का गणित बिठाता है”. इसी दिशा में एक प्रयास है अनुवाद जो प्रांतीय भाषाओँ के साहित्य को राष्ट्रीय भाषा में विकसित होते हुए पाया जाता है.
अनुवाद स्वयम में एक विज्ञान है. यह लेखन से कठिन शैली है, इसका मर्म वही समझ पाता है जिसने साहित्यानुवाद का कार्य किया है. इसी प्रयास में नीरजा जी की तेलुगु से हिंदी में अनूदित कविताएँ इस बात का प्रतिनिधित्व करते हैं कि भाषा की परीधियाँ अब दम तोड़ चुकी है. जहां भाषा व सभ्यता की प्रगति दिन-ब-दिन बढ़ रही है, वहीं विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में पहल करता है. अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय एकता की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है।
हिंदी से तमिल में अनूदित कवितायेँ से कुछ कालजयी कवितायें: ‘असमंजस’-(मूल:ऋषभ देव शर्मा) मैंने रात से ज़िद की/ ठहर जा/कुछ घडी और/ और वह चली गई/ बिना ठहरे/कुछ घडी पहले/ कम शब्दों में व्यापकता समाई हुई है. शब्द अर्थ के साथ एकाकार होकर सामने आये हैं.
“मुझे पंख दोगे’ कविता में ऋषभदेव जी ने औरत के मनोभावों को शब्दों में आकर दिया है और नीरजा जी के अनुवाद ने एक धरातल पर लाकर खड़ा किया है. मैंने किताबें मांगी/मुझे चूल्हा मिला/.. मैंने सपने मांगे/मुझे प्रतिबन्ध मिला/.. मैंने संबंध मांगे/ मुझे अनुबंध मिला/ कल मैंने धरती मांगी थी /मुझे समाधी मिली थी/ आज मैं आकाश मांगती हूँ/मुझे पंख दोगे?
यह एक कन्या की जन्म जन्मान्तर की सहराई प्यास है बुझकर भी नहीं बुझती. औरत का एक जन्म नहीं होता, ज़िंदगी के सफर में हर पड़ाव पर एक नया जन्म होता है. वह औरत ही होती है जो मिट्टी से जुड़कर सेवा करती है. फिर भी समाज में पुरुष सत्ता के मान्यता के दायरे में कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं. कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई करते करते हार जाती है, पर उसकी आवाज़ चीख बनकर अब ध्वनित व् प्रतिध्वनित हो रही है. ‘गुड़िया-गाय-गुलाम’ नामक यह कविता उसीकी तर्जुमानी है.
‘कल तुमने मुझे अपने खूंटे से गाय समझकर/ मेरे पैरों में रस्सी बाँध दी आज तुमने मुझे /अपने हुक्म का ग़ुलाम समझकर/ गरम सलाख से मेरी जीभ दाग़ दी है/और अब भी चाहते हो/मैं शिकायत न करूं?.
एक और अनुदित कविता ‘प्यार’ में वही भाव है जो सदियों से नारी के हालात बयाँ करते आ रहे हैं. लीजिये:
उस दिन मैंने फूल को छुआ / सहलाया और सूंघा/
हर दिन की तरह /उसकी पंखुड़ियों को नहीं नोचा /
उस दिन मैंने पहली बार सोचा /फूल को कैसा लगता होगा/
जब हम नोचते हैं/उसकी एक एक पंखुड़ी?
हमारी जानी पहचानी प्रिय लेखिका कविता वाचकन्वी की ‘अभ्यास’ नामक कविता का हिंदी अनुवाद एक सवाल के जावाब की तलब लिए सामने है
भोर का, चिड़ियों की चह-चह का/ जिन्हें अभ्यास हो
रात्रि का निर्जन अकेलापन/उन्हें कैसे रुचे? नीरजा जी की कल-कल बहती काव्य सरिता में मानव मन एक अलौकिक आनंद से पुलकित हो उठता है. काव्य संग्रह की अनेक रचनाएँ उल्लेखनीय है, राजनीती की पुष्ट भूमि के धरातल पर जिनको शब्दों में निर्माणित किया है. उनकी मौलिक रचना की अनेक पंक्तियाँ सच से अवगत कराते हुए, मन को उदास किए बिना नहीं रहतीं –
कोख में अपने रक्त-मांस से सींचकर
/उसने मुझे जन्म दिया/और अपनी छाती चीरकर/
पिलाया दूध.जाने कितने रातें अपलक जगती रही/ हर पल हर लम्हा मेरे बारे में सोचती.
और अब वक़्त आया है कि हम जागें, जागकर सोचें, अपनी भारत माता के
इस अनूठे काव्य संग्रह की हर रचना मन को उकेरती है और अपनी छवि बनाती हुई मन पर अमिट छाप छोड़ती है. सुरमयी, सुगंधित रचनाओं का यह संकलन संग्रहणीय है. नीरजा जी को इस भाव भीनी अभिव्यक्ति के लिये मेरी दिली शुभकामनाएँ और बधाई.
काव्य संग्रह: कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा, रचयिता: गुराम्कोंदा नीरजा, पन्ने: 114, मूल्य: रु. 250, प्रकाशक: खुद कवियित्री.
– डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (सह-संपादक ‘स्रवन्ति’)
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संसथान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद – 50004
पुनश्चः यह पुस्तक ई-बुक है जो Kindle पर उपलब्ध है। इस लिंक पर ई-पुस्तक उपलब्ध है
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शीघ्र ही पुस्तकाकार में भी प्रकशित होगी।
धन्यवाद सहित
नीरजा