कविता धरोहरः भवानी प्रसाद मिश्र

जंगल के राजा

जंगल के राजा, सावधान !
ओ मेरे राजा, सावधान !

कुछ अशुभ शकुन हो रहे आज l

जो दूर शब्द सुन पड़ता है,
वह मेरे जी में गड़ता है,

रे इस हलचल पर पड़े गाज l

ये यात्री या कि किसान नहीं,
उनकी-सी इनकी बान नहीं,

चुपके चुपके यह बोल रहे ।

यात्री होते तो गाते तो,
आगी थोड़ी सुलगाते तो,

ये तो कुछ विष-सा बोल रहे ।

वे एक एक कर बढ़ते हैं,
लो सब झाड़ों पर चढ़ते हैं,

राजा ! झाड़ों पर है मचान ।
जंगलके राजा, सावधान !

ओ मेरे राजा, सावधान !

राजा गुस्से में मत आना,
तुम उन लोगों तक मत जाना ;

वे सब-के-सब हत्यारे हैं ।
वे दूर बैठकर मारेंगे,

तुमसे कैसे वे हारेंगे,

माना, नख तेज़ तुम्हारे हैं ।

“ये मुझको खाते नहीं कभी,
फिर क्यों मारेंगे मुझे अभी ?”

तुम सोच नहीं सकते राजा ।

तुम बहुत वीर हो, भोले हो,
तुम इसीलिए यह बोले हो,

तुम कहीं सोच सकते राजा ।
ये भूखे नहीं पियासे हैं,
वैसे ये अच्छे खासे हैं,
है ‘वाह वाह’ की प्यास इन्हें ।

ये शूर कहे जायँगे तब,
और कुछ के मन भाएँगे तब,

है चमड़े की अभिलाष इन्हें,
ये जग के, सर्व-श्रेष्ठ प्राणी,
इनके दिमाग़, इनके वाणी,

फिर अनाचार यह मनमाना !

राजा, गुस्से में मत आना,
तुम उन लोगों तक मत जाना ।

धरती का पहला प्रेमी

एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का
पहला प्रेमी कहा है

धरती को सूरज के बाद
और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा

जाने कितनी चीज़ों ने
उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा

कुछ तो उस पर
वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में

मगर एडिथ ने
उनका नाम नहींलिया
ठीक किया मेरी भी समझ में

प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने
मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने

प्रेमी के मन में
प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है

चाहते हैं सब धरती को
अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से

मगरप्रेमी में
एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है

रोज़ चला आता है
पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों

मगर वह लौटा देती है उसे
शाम तक शायद लाज के मारे

और चला जाता है सूरज
चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।

-भवानी प्रसाद मिश्र

जन्म 29 मार्च 1913 गाँव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश), मृत्यु नरसिंहपुर 20 फरवरी 1985।
1972 में ” बुनी हुई रस्सी ” नामक रचना के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार और भी अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कारों से विभूषित एक ऐसे प्रेरक कवि जिसने कभी हार नहीं मानी। निराश नहीं हुए।

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