कविता आज और अभीः सुशांत सुप्रिय, गोवर्धन यादव, शैल अग्रवाल, चंद्रकला त्रिपाठी


दशकों पहले एक बचपन था
बचपन उल्लसित, किलकता हुआ
सूरज, चाँद और सितारों के नीचे
एक मासूम उपस्थिति

बचपन चिड़िया का पंख था
बचपन आकाश में शान से उड़ती
रंगीन पतंगें थीं
बचपन माँ का दुलार था
बचपन पिता की गोद का प्यार था

समय के साथ
चिड़ियों के पंख कहीं खो गए
सभी पतंगें कट-फट गईं
माँ सितारों में जा छिपी
पिता सूर्य में समा गए

बचपन अब एक लुप्तप्राय जीव है
जो केवल स्मृति के अजायबघर में
पाया जाता है
वह एक खो गई उम्र है
जब क्षितिज संभावनाओं
से भरा था

सुशांत सुप्रिय

धूल भरी पुरानी किताब के
उस पन्ने में
बरसों की गहरी नींद सोया
एक नायक जाग जाता है
जब एक बच्चे की मासूम उँगलियाँ
लाइब्रेरी में खोलती हैं वह पन्ना
जहाँ एक पीला पड़ चुका
बुक-मार्क पड़ा था

उस नाज़ुक स्पर्श के मद्धिम उजाले में
बरसों से रुकी हुई एक अधूरी कहानी
फिर चल निकलती है
पूरी होने के लिए

पृष्ठों की दुनिया के सभी पात्र
फिर से जीवंत हो जाते हैं
अपनी देह पर उग आए
खर-पतवार हटा कर

जैसे किसी भोले-भाले स्पर्श से
मुक्त हो कर उड़ने के लिए
फिर से जाग जाते हैं
पत्थर बन गए सभी शापित देव-दूत
जैसे जाग जाती है
हर कथा की अहिल्या
अपने राम का स्पर्श पा कर

सुशांत सुप्रिय

एक चिड़िया की आत्मा-
अक्सर सवार हो जाती है-
मेरे ऊपर
और उड़ा ले जाती है आसमान में
जहां सूरज अपनी प्रचण्ड किरणॊं से
बरसाता रहता है आग
हवा में उड़ते हुए
वह मुझे दिखाती है
श्रीहीन पर्वत श्रेणियां
ठूंठ में तब्दील हो चुके मुस्कुराते जंगल
सूखी नदियां-नाले-जलाशय
मेड़ पर बैठा
हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो चुका किसान
जो टकटकी लगाए ताकता रहता है
आसमान की ओर, कि
कोई दयालु बादल का टुकड़ा
हवा में तैरता हुआ आएगा
और बुझा देगा उसकी
जनम-जनम की प्यास.

गोवर्धन यादव

एक चिड़िया की आत्मा
अक्सर सवार हो जाती है मेरे ऊपर
और उड़ा ले जाती है मुझे
चिपचिपे-कपसीले बादलों के बीच
फ़िर हवा में तैरती हुई वह
मुझे दिखाती है वह
पी.दयाल और रोहित का घर
जहां एक बाल-कविताएं रच रहा होता है
तो दूसरा, चित्रों में भर रहा होता है-
रंग-बिरंगे रंग
फ़िर एक गौरैया,
चित्र के ऊपर आकर बैठ जाती है, अनमनी सी
फ़िर दूर उड़ाती हुई वह
मुझे दिखाती है-
सतपुड़ा के घने जंगल
पहाड़ॊं के तलहटी पर-
अठखेलिया खेलती-
अल्हड़ देनवा-
सरगम बिखेरते झरने-
हल चलाते किसान-
कजरी गातीं औरतें
और, टिमकी की टिमिक-टिम पर
आल्हा गाती मर्दों की टोलियां
न जाने, कितना कुछ दिखाने के बाद
वह, मुझे छॊड़ जाती है वापस
अपने घर की मुंडेर पर
मैं बैठा रहता हूं देर तक भौंचक
चिड़िया की जगह, चिड़िया की तरह.

-गोवर्धन यादव

आंसू नहीं,
चिड़िया सा उन्मन यह मन है मेरा
महकते उपवन को छोड़ जा बैठा
कंटीली डाल पे होने को लहूलुहान
दूर क्षितिज पर बैठा जिद्दी सूरज है शायद
अपनी ही आग में जलता-मचलता
रंग लेगा अब सुर्ख़ नीला-पीला आसमान

कहीं बादलों के काले धब्बे आएंगे
कहीं सपनों का फैलेगा सुनहरा जाल
नुचे पंखों संग गाता रहेगा फिर भी
उदास शाम भर जाने कितने मीठे गान

उठती रहती हैं आस पास
लहरों पर मधुर लोरियाँ
सुरभित पवन पहना जाता है
जाने कितनी अश्रु-जड़ित लड़ियाँ
बिखरेंगी पर आँख झपकते ही
हंसेगा फिर भी किलक पुलक
नभ पर बिखरे तारे बनकर
कभी बूंदों की अठखेलिय़ाँ

साथ नहीं छोड़ेगा हठीला
झिलमिल सदा ही हंसता रोता
आंखों में तो कभी नभपर
कभी एक आंसू, कभी एक तारा
सुख के साथी कई यहाँ पर
दुख में बहलाता यही चिड़िया-सा
उन्मन अकेला मन बेचारा!

– शैल अग्रवाल

हर क्षण मौत है सामने ।
बच लेने की चतुराई ज़रा भी नहीं ।
फिर भी जब तक हैं बस फुदकती उड़ती चहचहाती हैं।
लड़के बच्चे
इस जनम उस जनम के लिए कुछ बचाती नहीं।
किसी भी पत्तों से भरी डाल में शाम होते ही समा जाती हैं।
कभी देखिए
शाम होते ही उनका घने वृक्षों में उतरना।
अनुशासन देख कर दंग रह जाएंगे आप।
जैसे कोई सांवली लहर उतर रही हो आकाश से।

दिल से चाहती हूं
अगला जनम चिड़िया का
प्यारी चिड़िया का
पंख भर नहीं
उड़ान भर भी नहीं
प्यार भर धरती और आकाश चाहती हूं बशर्ते
ये दोनों यानी धरती और आकाश बचे रह गए तो

चंद्रकला त्रिपाठी

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