क्या युद्ध की राजनीति अब मात्र एक व्यापार है…धर्म विशेष का प्रचार-प्रसार है या फिर कुछ और साजिशें भी है नेताओं और शाषकों की इस आतंकी और हिंसक सोच के पीछे ? नफे नुकसान की या फिर विस्तारवादी बात भले ही समझ में न आती हो, परन्तु एक बात तो तय है कि हम सभी आज भयभीत और आशंकित हैं सुरक्षा को लेकर,आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को लेकर… अपनी इस दुनिया को लेकर।
घर से बाहर यात्रा और पर्यटन की तो छोड़ें , बाजार तक जाते हैं तो अक्सर ख्याल आता है कि आज सही-सलामत लौटेंगे भी या नहीं ! कहीं कोई विनाशकारी अनहोनी तो आतंकवाद के रूप में इंतजार नहीं कर रही हमारा! आए दिन ट्रक और कारों से पैदल चलते पर्यटक और खरीददारों को कुचले जाने की खबरों ने अच्छे-अच्छों का मनोबल तोड़ डाला है और सैकड़ों के अपहरण और मौत की खबरें मानो अब सभी ने सुन कर भी अनसुना करना शुरु कर दिया है। क्या करें, आम जो हो चली हैं ये खबरें, फिर किसमें इतनी हिम्मत है जो पराई आग को कुरुदे उसमें कूदे…वैसे भी कितना भी आक्रमक दिखे, आत्म संचय की पट्टी बांधे एक भीरू और स्वार्थी समय में जी रहे हैं हम, जहाँ शौर्य भी बस एक विज्ञापन ही है।
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विश्व की आम और शान्तिप्रिय जनता कैसे रोक सकती है खुदको और दुनिया को इस विनाश के अनचाहे और कष्टप्रद चक्रव्यूह और ताण्डव से ? युद्ध का पूर्ण बहिष्कार या निशस्त्रीकरण भी एक विकल्प हो सकता है, परन्तु फिर अमीर और सशक्त देश अपने अस्त्र-शस्त्र किसे बेचेंगे, इन संपन्न देशों की अर्थ-व्यवस्था का क्या होगा ! छोटी-मोटी लड़ाई नहीं, बहुत हिम्मत और साहस का काम है यह। इसके प्रतिपादन के लिए जबर्दस्त संगठन और समझ की जरूरत है…विवेक और सहृदयता से संदेश न सिर्फ घर-घर, अपितु ताकत के गलियारों में भी पहुंचाने की जरूरत है-जैसे रोटी की राजनीति एक निष्कृष्ट और विनाशकारी कदम है, युद्ध की यह लेन-देन वाली राजनीति भी- बताने की जरूरत है। किसी राजनेता या सामंतशाही को यह हक नहीं कि वह मासूमों की जान से खेले, देशभक्ति के नामपर, या फिर अपनी क्षणिक झक या शान के रहते युद्ध करे, शोषण और दमन करे। डराए-धमकाए। दूसरों की सीमाओं का अतिक्रमण करे और सैकड़ों निरीह युवाओं को उपलों की तरह युद्ध की आग में झोंक दे। कम-से-कम अब सभ्य और विकसित हमारी इस इक्कीसवीं सदी में तो स्थिति बदलनी ही चाहिएँ! पर बिल्ली के गली में घंटा कौन बांधेगा…वैसे भी अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता । सभी को मिलजुलकर ही शांति-बिगुल बजाना होगा। बेहद शांत और सभ्य तरीके से, सुरीले तरीके से, वरना आंख के बदले आंख का नतीजा तो वाकई में बस एक अंधा युग ही छोड़ेगा हमारे आगे। अंधा युग …वह भी इतनी खूबसूरत धरती पर…कल्पना भी सिहराने वाली ही है।
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एक चीज जो अपनी सारी सदेच्छाओं और वैज्ञानिक अनुसंधानों के बाद भी हम नहीं बदल पा रहे हैं- वह है जीवन में मृत्यु का क्रूर हस्तक्षेप। आज भी जीवन का अंतिम और ध्रुव सच ‘ मृत्यु’ ही है। अप्रैल 2018 तो मानो वज्रपात की तरह अभूतपूर्व क्षति लेकर आया लेखनी और साहित्य परिवार के लिए। अभी केदारनाथ सिंह की मृत्यु के सदमे से उबर भी नहीं पाए थे कि भारत और ब्रिटेन से हमने अपने तीन-तीन शुभचिंतक और प्रतिबद्ध लेखकों को खो दिया। रचनाकार जो अपने मूल्यों और संवेदनशीलता में बेहद कद्दावर थे। देहली के अशोक गुप्ता जी का देहावसान 16 अप्रैल को हुआ फिर हैदराबाद के विजय सप्पत्ति जी का 23 अप्रैल को और फिर कवेन्ट्री के प्राण शर्मा जी का 24 अप्रैल को। एक ही हफ्ते के अंदर तीनों गए…अशोक गुप्ता और विजय सप्पत्ति कैंसर की वजह से और प्राण शर्मा जी पक्षाघात फिर छाती के संक्रमण की वजह से। मृत्यु का सीधा संबंध अंत और स्थाई विछोह से है और दोनों ही पीड़ादायक और अवसादपूर्ण स्थितियां है। संघटन और विघटन का यह राग वैराग …जीवन मृत्यु का यह निरंतर का अभिसार, कहाँ और किसके इशारे पर कब, कैसे शुरु हुआ, कहना मुश्किल है, पर पुराने को हटाकर ही नए के लिए जगह बना पाती है सृष्टि ।
कितना ही पीड़ादायक और असह्य क्यों न हो, तसल्ली तो करनी ही पड़ती है,क्योंकि यही नियम है प्रकृति का।
पर स्मृतियों के संग्रहालय में तो सबकुछ वैसे ही सजा-संवरा रहता है जबतक जाने वालों को याद करने वाले मौजूद हैं। आज भी नहीं भूल पाती, अपने पहले ही ई. मेल में प्राण जी ने बड़े भाई की तरह जो दो लाइनें सद्भावना की लिख कर भेजी थीं। मन में उनका कद बहुत बड़ा कर गई थीं ये –
इक दिन तो ऐसा आएगा जब रंग बरसता देखूंगा
तुझको भी हँसता देखूँगा, ख़ुद को भी हँसता देखूँगा ।
लेखनी को लेकर अक्सर ही उनकी बेहद आत्मीय और उत्साह वर्धक प्रतिक्रियाएं मिलती रहती थीं। फोन करते तो घंटों बातें करते रहते। हिन्दी उर्दू पर मेरे आलेख ‘ माँ और मासी दो बहनें’ और ‘विसर्जन’ कहानी की तो उन्होंने इतनी तारीफ कर डाली कि मेरे अन्दर का लेखक वाकई में अभूतपूर्व आत्म-विश्वास जोश से भर गया। ऐसे ही थे प्राण भाई- प्रेरक और खुले दिल से प्रशंसा करने वाले। भाई रूपसिंह चन्देल जी ने बड़े ही संवेदन शील तरीके से उकेरा है प्राण भाई को अपने आलेख में , जिसे आप इसी अंक में पढ़ सकते हैं।
अशोक गुप्ता के तो कई खत ही खतो-खिताब में पेश कर दिए है मैंने आपके लिए इस अंक में, ताकि उनके ओस से कोमल मन की छुअन आप को भी सिहरा सके। मार्च के अंत तक भारत में थी। कई बार मिलने जाने की सोची, कई बार फोन मिलाया पर न तो मिल ही पाई और ना ही फोन पर ही बात हो पाई। अब ताउम्र बस मलाल ही रहगया है ।… विजय सप्पत्ति जी से कभी मुलाकात नहीं हुई, पर उनकी कई रचनाओं ने मन के किसी कोने को बहुत गहरे छुआ। बहुत ही रूमानी और दार्शनिक रचनाएँ होती थीं उनकी। अक्सर उदासी का एक प्याराा-सा रंग लिए हुए, बिल्कुल अंग्रेजी के रोमांटिक कवि बायरन और कीट्स की तरह ही कुछ कुछ। उनकी कई रचनाओं को अपनी इंद्रधनुषी छटा के साथ समेटा है अपने इस लेखनी के अंक में। कुछ तो जो अभी उन्होंने पिछले महीने ही भेजी थीं।
हमारा सौभाग्य है कि हमें इन तीन अच्छे रचनाकारों का भरपूर साथ और सहयोग मिला। शब्दों के अभाव में खुद को पूर्णतः असमर्थ महसूस कर रही हूँ। अन्य तनावों के साथ-साथ इस अकस्मात आई आंतरिक दुख भरी मनःस्थिति से भी जूझी हूँ इसबार मैं और मई-जून का यह अंक अपने इन्ही तीन विश्वस्त रचनाकारों को समर्पित कर रही हूँ। जल्दी में जुटाया यह प्रयास मुख्यतः इन्ही तीनों की रचनाओं के उत्स को पकड़ने का लघु प्रयास है—उनकी रचना धर्मिता का उत्सव भी कह सकते हैं आप इसे।
तीनों प्रतिबद्ध लेखकों और प्रिय मित्रों को लेखनी परिवार की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि और परिवार व प्रियजनों के प्रति हार्दिक संवेदना ।
शैल अग्रवाल
पुनश्चः लेखनी के जुलाई-अगस्त का विषय वही निसस्त्रीकरण और युद्ध की निरर्थकता है। आपकी विषय संबंधी रचनाओं और विचारों का हमें मई माह के अंततक इंतजार रहेगा।