मैंने तुम्हें पहचान लिया है
मर्यादा की गहरी लकीरों के बीच जब
बड़े परिवार की छोटी लड़की किशोर वय से आगे बढ़ती है
उलझी हुई उम्र की उन वीथियों में
प्रेम
आया मेरे करीब
बादाम के खुले पत्तों की सतह पर ठहरी चमक जैसा
होली की रंगीन शाम में खुली छत के विस्तार पर
ठिठकी चंद्रकिरणों जैसा
इंजन के रेडियटर में भरे गर्म पानी के दबाव तले थमी हुई
मंडराहट जैसा मंडराता
मैंने आँख भर देखा भी नहीं
प्रेम की तरफ
दबे पांव हल्की मुस्कराहट में लिपटा हुआ
फिर आया वह
ससुराल की सीमेंटी मुंडेर पर फिसलता हुआ
अल्लसुबह
सबों के जागने से पहले
मैंने नकार दिया
संयुक्त परिवार के शालीन संयमित आचारों के तहत
उम्र के दरवाजे खुलते रहे
रोशनी की मानिंद वयस उनके बीच से सरकती रही
कई बार देखा मैंने
खिड़की के बाहर खड़े पेड़ पौधे
किसी किसी ऋतु में
अनजाने प्रहर के किन्हीं निमिषों में
अचानक उल्लसित हो उठते थे
डेहलिया की सुर्ख पंखुरियों से लेकर
कॉसमास की सुनहरी सतह तक उज्ज्वल हो उठती थी
प्रेम उन पंखुरियों को छूता सहलाता
मेरे इंतजार में घास की नोंक से लेकर
अर्जुन के मोटे तने और
फुनगियों तक लहरें भरता रहता था
नीम की काली तिरछी डाल पर पंडुक पुरुश
अपनी प्रिया को लुभाता
गर्दन डुला-डुला
नृत्य की भंगिमा में पूरी सुबह
पूरी शाम डोलता रहता था
गौरैयों के जोड़े में काली गर्दनवाले
नर की उद्वेलित फुरकनें हवा को
तरंगायित करती रहती थीं
मेरे पास कई काम होते थे
बच्चों को ब्रश कराने से लेकर
स्कूल भेजने तक की जिम्मेदारी
मैंने प्रेम की धड़कनों को पुष्पों, वृक्षों
चिड़ियों के संग पहचानना भी चाहा ही नहीं
वक्त हारा
लेकिन वह न हारा
दुमंजिले प्रासाद की बालकनी से
तीस फुट नीचे चिकनी
सड़क तक मेंह की लंबी
लकीरों से घुला हुआ वह वर्षों
बरसता रहा
उसे इंतजार था
इंतजार था उसे कि एक दिन
उम्र के किसी भी मोड़ पर मैं
पहचान लूँगी उसे
सामने पसरे लॉन की विस्तृत
हरी नर्म सतह की तरह
कतार में खड़े युकलिप्टस के नुकीलेपन की तरह
पहचान लूँगी उसे मैं
विंडोबाक्स में खिले
गहरे लाल लिली पुश्पों की तरह
क्यारियों में थरथराते पेरिविंकल की तरह
आओ
अब मैंने तुम्हें वाकई पहचान लिया है
तुम यहाँ मेरे वजूद के हर हिस्से में रहो
रोमावलियों के हर छिद्र में सुकुन की तरह समा जाओ
अब तुम कहीं जाना नहीं
लुकना छिपना नहीं
मेरी पलकों की ओट में ठहरे पनीली पर्त की तरह
तुम आजन्म
सात जन्मों तक मेरे संग रहो
प्रेम
मैंने तुम्हें पहचान लिया है
–
निष्चय ही
कभी कभार
जब हम अकेले होते हैं
नितांत अकेले
नहीं वहाँ कोई एकांत नहीं होता
भगवान आते हैं
वे हमारा हाथ पकड़ ले जाते हैं
आगे
निश्चित दूरी पर छिपे खड़े
उज्ज्वल स्तंभों की ओर
जहाँ निर्णित तथ्य प्रतीक्षित रहा करते हैं
हमारी खातिर
हमारी अनदेखी नियति
विस्मिति के बीच
फुरहरी ले जाग उठती है
वह जाग
हमें दूर तक ले जाएगी
निश्चय ही !
वैशाली की व्यथा
अपने ही नगर के, परकोटों को,
ढहकर धंसते देखना,
कितना त्रासदायी है,
अम्बपाली,
तुम्हें भी दिखता है क्या,
यह सब
भूगर्भित मेहराबों के टूटे-फूटे,
चरण,
ध्वस्त पीठिकाओं के चौकोर चरण
यहीं तो बैठे थे गर्वोन्नत शीशों वाले जन
विषैली नजरों का उनका वह लोलुप अवलोकन
प्रांगण का यह मुक्त फैलाव,
सभागृह के जालीदार छतों से विस्फारित
झाँकती, गोलाईयाँ
और,
उन हृदयहीन स्थूलताओं के बीच
दांव पर चढ़ी तुम्हारी निरीह देहयष्ठि की
कातर सूक्ष्मता,
सहा था तुमने, यौवन को दांव पर, लगाए जाने का पराभव
बेभाव बिक जाने का दंष,
रोईं थीं तुम
कलपा था कातर हिया
पर, कहाँ पिघला था कोई भी पाषाण,
नहीं थमा था वह अपकृत्य
सभागृह नगर के परकोटों, प्रसादों के बीच से,
नहीं झाँका था एक भी देव हृदय
उन निर्मम, कलुषपूर्ण
दांवपेचों के बीच
लालसामयी, लोलुप, लिप्सा के भार तले,
छलबल के कौतुकपूर्ण कौशल के बीच,
हो गए थे तिरोहित तमाम अलिखित कानून,
तनी हुई प्रत्यंचा से छूटकर
दूर जा गिरे थे वैदिक निष्ठा के नियम,
एक बार फिर,
पुरुष का पशुत्व गहराया था, और,
नारी के नारीत्व मातृत्व को रौंदता हुआ
अपने
दुष्कृत्य पर इठलाया था,
नहीं रोक पाईं थीं तुम
काल का वह दुर्दष प्रवाह
नारी की देह, भोग्या का शरीर
आमोद प्रमोद की बलिवेदी पर हवि
बन धधका होगा,
होना परिवर्तित, देवकाया का विषय बुझे मानस में,
ढोना फुंकारते विषप्रवाहित दर्प को, बरसों बरस,
अपनी निर्दोश नसों में,
धनिकों वणिकों की वासनामयी, कुत्सित,
अनगिनत चेष्टाओं की नियति तले
वर्षों पकते सड़ते व्रण में बिजबिजाते कीटों की,
वह विषैली घुरमन,
वही अखंडित ताप, युग युगांतरों का,
आहत मानस अनिंद्य सुंदरी का,
बनकर कहर का वज्र
टूट पड़ा है यहाँ के कण-कण में,
नगर शहर और युगों की अनदेखी परिधि को,
लांघता
कंपकंपाता दसों दिशाओं के आकाश को,
आज भी आवेष्ठित है कातर अनुगूँज
अबला की
शहर के आर-पार
आम्रकुंजों को सुखा डाला है
अग्निबिद्ध तप्त निश्ष्वासों ने,
युगों के बाद भी जनमते पुरुषों को
बना डाला है निर्वीर्य
भर गई है उनकी नसों में अनजानी कायरता का दंभ
आज भी,
अपने अजन्मे बालक की अनकही माता
कहलाने को व्याकुल वैशाली
समस्त पौरुष और पुरुषत्व को धिक्कारती है,
धधकता हुआ बड़वानल,
आत्मदया के अनगिनत बंद घेरों के बीच
सरपट दौड़ता है
निर्जन वीथियों में संस्कारहीनता बिखरती जाती है
निर्विकार भंगिमा
शहर अपनी स्थूल बाहों को फैलाए हुए निर्विकार भंगिमा में अवस्थित
शहरियों का मानस शहरी ख्यालों में गुम
शहर की सूक्ष्म बाहें
आगतों के स्वागत में नहीं उठ पातीं
स्टेयरिंग के पीछे बैठी आकृति की हिकारती निगाहें
बत्तियों वाले चौक पर झिझकते, ठिठकते, हल्की दौड़ लगाकर सड़क पार करते
ग्रामवासियों की अनगढ़ भंगिमाओं से झुंझला उठती है
सभ्यता के नकाब तले
असभ्यता अपने काले नाखून चमकाती है
पैने दांत दिखाती है
गांवों में बसे भारत के धरती-पुत्र
ब्रिटिशर्स् के शहरी मानस-पुत्रों को आदरपूर्वक निहारते हुए
तन्मय
अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक जैसे स्वप्न देखते हुए
हिकारत से भरे शहरी लोग अपनी सुख सुविधाओं के प्रति निर्ममता की हद तक
कटिबद्ध
मौन ग्रामवासियों की ललक भरी भंगिमा अपने स्वप्नों के प्रति प्रतिबद्ध
शहरीपन को ‘बुद्ध’ अर्द्धनिमीलित आंखों से निहारते हुए
वहाँ
औंधे स्तूप के बीच बैठे हुए
ग्रामवासियों का मन बुद्धत्व के ख्यालों से आलान्वित
अनेकों तरह की कल्पना में डूबा हुए यह वक्त
…………….
आपके लिए
वे आपके लिए सड़क बना रहे हैं
ताकि
ताकि आपकी पाँच/दस/पचास लाख की गाड़ी
चिकनी सड़क पर बेखटके दौड़ सके
फटेहाल मजदूरों द्वारा बनाई गई सड़क पर
साथ ही
तीन हजार माहवारी पाने वाले
मजदूरों द्वारा बनाई गई सड़क के नीचे दौड़ पड़े
करोड़ों की मेट्रो रेल
मजदूर सड़क बनाते हैं
हम अपनी लाखों की गाड़ी में बैठे हुए
नहीं रुकते हैं
बाहों में उठाकर छड़ ले जाते हुए मजदूरों के लिए
वे दयनीय कृतज्ञताज्ञापित मुस्कान के संग
सड़क पार करते हैं
लोहे की छड़ें उनके कंधों पर हैं
छड़ उठाए हुए मजदूर व्यस्त सड़क पार करते हैं
सड़क को पार करते मजदूर हमारी निगाह में
हम उनकी निगाह में
रास्ते नहीं रुका करते
रास्ता रुकता है
–
बड़ा अंतर है
बड़ा अंतर है असभ्यता
सभ्यता और संस्कृति का
सुसंस्कृत आचार विचार एवं उच्छृखलता का
साफ, सफैयत, सफाई एवं गंदगी के पहाड़ का
बड़ा अंतर है
विष्व के अलग गोलकों
देशांतर एवं अक्षांश रेखाओं के
बीच स्थित भूखंडों के बीच
बड़ा ही अंतर है
यह अंतर है
समाज सेवा एवं निश्ठुरता का
सकारात्मक व्यवहारों एवं
नकारात्मक धरातल का
एक और बड़ा अंतर है
अंतर है मन से मन की दूरी का
अमीरी एवं भुखमरी का
कड़ी मेहनत की कमाई एवं
लूट-खसोंट का
अंतर है जरूर
वह यहीं पृथ्वी के अलग-अलग खंडों के बीच खड़ा
प्रश्नचिह्न बना हुआ
उनके और हमारे बीच
लगातार बढ़ रहा है
उनके बीच
कड़े नियम कानून का
निभाव है
हमारे पास नियमहीन
मंत्रीत्व है
उनके पास है सुरक्षा और
सद्भावना से भरी पुलिस
हमारे पास डराती-धमकाती
और हफ्ता वसूलती
तथाकथित पुलिस
अंतर है
नियम कानून के झूठे मुल्लमें
और
स्वतंत्र देश के
परतंत्र नियमों में
वे अलग-अलग हैं खड़े
नियम हमारे थेम्स नदी की
धार के साथ बह गए है
गंगा की तली में गंदगी
की शक्ल में जब गए हैं
बड़ा ही अंतर है भरा हुआ स्वच्छ निर्मल
हडसण नदी की
धार और यमुना
के गंधाते हल के बीच एवं सिकुड़ती
काया के बीच
यह अंतर बहुत बड़ा है
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