पढ़ाई में पूरी तरह से झोंक दिया था दोनों ने खुद को। काम नहीं होता तो ढूँढ लेते, पर व्यस्त रहने की कोशिश करते। काव्या ने तो समझा लिया था खुद को पर रजत की परेशानी दिन प्रतिदिन कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। जितना उससे दूर रहने की कोशिश करता, दूरी और असह्य होती जाती और काव्या थी कि दिसंबर के सूरज की तरह कहीं नजर ही नहीं आती थी उसे, चाहे जितना भी इन्तजार कर लेता था वह।
नहीं ही दिखेगी। इरादों की पूरी पक्की है काव्या, भलीभांति जान चुका था रजत।
जब स्थिति पूर्णतः असह्य हो गई तो नीतू को फोन कर ही बैठा एकदिन, ‘ आन्टी, मैं रजत हूँ, रजत रामालिंगम। आप शायद मुझे नहीं जानती, पर मैं और काव्या बहुत अच्छे मित्र हैं। इसी विषय में आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं, क्या कल मिलने आ सकता हूँ? उम्मीद है आप इजाजत देंगी और अनुरोध का बुरा भी नहीं मानेंगी, ना ही मेरी इस विनती को अनसुना ही करेंगी !’
‘हाँ’ या ‘ना’ कुछ भी सोचे, इसके पहले ही नीतू ने खुद को कहते पाया- ‘ हाँ, हाँ, क्यों नहीं। जब जी चाहे आ जाओ। मैं कल शाम छह बजे के बाद घर पर ही मिलूँगी। ‘
कुछ-कुछ अनुमान था उसे कि क्या बातें करेगा वह। जल्दी तो उसे खुद भी थी । जानती जो थी कि इनके रिश्ते बेहद नजदीकी थे और भावनात्मक लगाव भी था। पिछले चन्द महीनों की यादें और यातना भूली नहीं थी नीतू। चाहे कोई भी जांघ उघड़े , इज्जत तो उसकी ही बेआबरू होती थी।
बात पूर्णतः स्पष्ट नहीं थी, फिर भी एक तृप्त मुस्कान तैर आई थी नीतू के चेहरे पर।
आनन-फानन जाकर पति की तस्बीर के आगे दिय़ा जला दिया और मन-ही मन कई सवाल भी पूछ डाले दीवार पर लटकी राजेश की तस्बीर से –‘ क्यों क्या कहते हो, क्या मुझे मान लेनी चाहिए बच्चों की जिद को ? क्या यही सही लड़का है, दे दूँ आशीर्वाद?’
आदत पड़ चुकी है उसकी यूँ उलझते एकाकी पलों मे या दिशाहीन दोराहे पर जानते हुए भी की मदद माँगना व्यर्थ है, राजेश की तस्बीर से बातें करते जाना। सवाल पूछना और जबाव देना। आँसू भरी आंखों से देखा तो उसे लगा मानो राजेश के ओठों पर भी स्वीकृति की मुस्कुराहट थी।
खुशी और रंज का एक मिला जुला सा भाव था अब नीतू के मन में। अकेले-अकेले भी आगे निकल जाती है जिन्दगी।
बेटी सयानी हो गई थी। पराई होने जा रही थी। कैसे संभाले सब…क्या-क्या तैयारियाँ करनी चाहिएँ उसे ? कोई तो होना ही चाहिए उसके साथ, बताने को, समझाने को। तस्बीर मुस्कुरा तो सकती थी पर कुछ बता नहीं, यह भी जानती थी वह। तुरंत ही सयानी सहेली का ध्यान आया और उंगलियाँ स्वतः ही नंबर घुमाने लगीं। हमेशा दिशा ही तो सहारा रही है उसका। हर सुख दुख में वही तो खड़ी मिली है बगल में ।
‘ मैं मिलने आ रही हूँ दिशा , अभी तुरंत।‘
दिशा भौंचक थी। खाली है भी या नहीं, सुविधाजनक है भी या नहीं -कुछ भी तो नहीं पूछा सहेली ने और यूँ रात में साढ़े नौ बजे इत्तिला, वह भी अचानक ही- आखिर ऐसी क्या बात हो गई, जो सुबह तक का इंतजार नहीं कर पा रही है नीतू ?’
दिशा अभी यह सब सोच ही रही थी कि दरवाजे पर घंटी बज उठी।
दरवाजा खुलते ही ललककर गले लगी नीतू । खुशी रोम-रोम से फूटी पड़ रही थी।
‘ सुन, कल शाम को छह बजे मेरे साथ घर पर रहना है। वह मिलने आ रहा है। खाली तो है न, तू ? ‘
‘ वह कौन नीतू? ’ दिशा भी अब सब कुछ जानने को उतावली थी।
‘ अपना दमाद, रजत रामालिंगम।‘ आवाज का उत्साह प्रोत्साह-जनक था।
‘क्या…? यह सब कब और कैसे ?…बात इतनी आगे बढ़ गई थी और तू मुझे अब बता रही है!‘
एक हलकी प्यार भरी चुटकी दिशा ने ली और आगे बढ़कर सहेली को एक बार फिरसे गले लगा लिया। बात ही कुछ ऐसी थी। दोनों सहेलियाँ बारबार गले मिल रही थीं। हंस-हंसकर अपनी खुशियों का इजहार कर रही थीं।
‘मुझे भी तो अभी पता चला है। अभी तो मैंने भी उसे नहीं देखा। पर परखने की सारी जिम्मेदारी तेरी ही है। बेटी सौंपनी है हमें उसे। सतर्क तो रहना ही होगा। चलती हूँ मैं अब, बहुत से काम पड़े हैं। ‘
दिशा ने भी नहीं रोका सहेली को। मैं क्या बना लाऊं, बताती जा।
तू बस अपना अपसाइड डाउन पाइनैपल क्रीम केक बना लेना। बच्चे बड़े हो गए दिशा। ज्यादा कुछ की जरूरत नहीं।‘ दिशा कुछ और पूछे, इसके पहले ही खुशी से दमकती नीतू ने पलट कर जाते –जाते जबाव दिया।
‘ मगर हम बूढ़े नहीं। ‘
दिशा ने भी वापस जाने को कार में तैयार बैठी सहेली को उतनी ही मुस्तैदी से याद दिलाया।
एकबार फिर दोनों सहेलियाँ खिलखिलाकर हंस पड़ीं।
…
अगली सुबह एक खुशनुमा सुबह थी, ऐसी सुबह जब सांय-सांय करती बर्फीली हवा भी गीत गाती-सी लगती हैं।
कभी गुलाबजामुन तो कभी केक और समोसे खरीदती सर्जरी और मरीजों के बीच से वक्त चुराती नीतू घर के चार चक्कर लगा चुकी थी। इतनी तैयारी तो उसने किसी के लिए भी नहीं की थी। कम से कम ऐसी उमंग तो नहीं ही रही मन में। चार-चार सब्जियों के साथ रात का खाना भी सुबह जल्दी ही उठकर बना लिया था। छोले , दही बड़े सब। शाम को दिशा भी घंटे भर पहले ही आ गई और तब दोनों सहेलियों ने मिलकर जगह-जगह कुछ गुलदस्ते भी सजा दिये।
घर का कोना-कोना स्वागत करता लग रहा था ।
रजत की आँखें भर आईं, इतना अच्छा स्वागत..खुशी और आभार में आखें भर आईं। पर संभाल लिया खुद को उसने। हर कदम फूंक-फूंककर और संभालकर ही लेना था। परीक्षा जीवन की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण परीक्षा थी, जानता था वह। और यह भी कि सफल ही होना है इसमें – जीवन की हर खुशी, सब कुछ दाँव पर लगा था उसका। वक्त भावुक होने का नहीं, अपनों को मनाने का था। अभिवादन में नमस्ते करने के बाद गला खखारकर बोला-
‘ मैं, रजत रामालिंगम एम.बी.ए. के अन्तिम वर्ष का छात्र हूँ। काव्या के साथ ही लिवरपूल में पढ़ता हूँ। हम दोनों एक दूसरे को बेहद चाहते हैं और हम जान गए हैं कि हम दोनों ही एक दूसरे के सच्चे जीवन साथी हैं। आज मैं आपसे इसी की अनुमति और आशीर्वाद लेने आया हूँ।‘
‘देखने में तो ठीक-ठाक ही है, रंग थोड़ा सावला जरूर है, पर आँखों में एक दृढता और सच्चाई है जो चरित्र में विश्वास जगाती है।‘ दिशा ने मन ही मन सोचा। सहेली की तरफ देखा तो उसे अपलक रजत की तरफ देखते पाया। मानो मंत्रमुग्ध हो । तब एक लम्बी सांस खींचकर , सारी हिम्मत समेटकर पहला सवाल भी दिशा ने ही किया- ‘ क्या विशेष दे सकते हो तुम हमारी बेटी को, क्यों हम तुम्हें इस लायक समझें ?’
‘एक खुशहाल और संतुष्ट जिन्दगी। बहुत चाहते हैं हम दोनों एक दूसरे को और यही तो जिन्दगी की सबसे बड़ी नेयमत है। प्यार हो तो सब कुछ जुटा ही लेता है इन्सान। प्यार के सहारे तो पक्षी तूफानों में नीड़ बना लेते हैं, फिर हम तो इन्सान हैं। पढ़े-लिखे हैं। हमारे माँ बाप ने हमें अच्छे संस्कार और शिक्षा दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इससे ज्यादा और क्या आश्वासन दूँ, मैं नहीं जानता, शेष तो भविष्य ही बतलाएगा ?’
रजत ने उसी विनम्रता परन्तु दृढ़ता से जबाव दिया।
‘ काव्या से बात करनी होगी, हमें। ‘ इसबार दिशा नहीं नीतू बोली।
‘ उसकी जिम्मेदारी आप मुझपर छोड़ें मम्मी। ‘
‘स्मार्ट गाई, अभी से मम्मी…अभी हाँ नहीं की है हमने। ‘
दिशा टोके बगैर न रह सकी जो शायद रजत के लिए धीरे-धीरे और संभल-संभल कर बढ़ने की चेतावनी ही अधिक थी।
‘ जानता हूँ आन्टी । पर मुझसे बेहतर दुनिया में कोई भी काव्या की देखभाल नहीं कर सकता-यह तो मैं साबित करके ही रहूँगा।‘
उसकी रसभरी बातों से , हाजिर जवाबी से नीतू और दिशा दोनों ही खुश थीं। कुछ भी तो ऐसा नहीं था कि उसे नापसंद करतीं। दूध में शक्कर-सा घुलमिल गया था वह एक अकेली उस शाम में ही। वक्त कैसे चुटकियों में निकल गया, तीनों में से किसी को भी पता नहीं चला।
रात 11 बजे जब चलने के लिए उठा, तो मना करने पर भी न सिर्फ नीतू ने अगले दिन के लिए खाना बांध दिया साथ में, बल्कि संभालकर कार चलाने की और पहुंचकर फोन करने की अनगिनित हिदायतें भी दे डालीं। रजत को बिल्कुल अपनी चिंतित मां-सी ही लगीं वह उस वक्त।
वाकई में नीतू को भी तो ऐसा ही लग रहा था जैसे कि हमेशा से जानती थी वह उसे…मां थी उसकी।…
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achchi lagee kabhi mauka laga to poora upanyas padna chahungee.