इला कुमार अरसे से लिख रही हैं। ‘जिद मछली की’ संग्रह के साथ उनका कविता के परिसर में आगमन हुआ था। पर पहचान मिली ‘किन्हीं रात्रियों में’ से। इस पर ‘पुस्तक वार्ता’ के एक आलेख ‘कविता उजेरे की नसेनी है’ में मैंने चर्चा की थी। उसके बाद ‘ठहरा हुआ अहसास’ और ‘कार्तिक का पहला गुलाब’ दो संग्रह और आए। वे लगभग अनदेखे ही गुजर गए। अब यह पांचवां संग्रह ‘आज पूरे शहर पर’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
‘लेखनी’ के इस स्तंभ के अंतर्गत नंद किशोर आचार्य, अरुण कमल, वर्तिका नंदा, भगवत रावत, विनोद कुमार शुक्ल, ओम भारती, प्रतापराव कदम, संजय कुंदन, तजिन्दर सिंह लूथरा,ज्ञानेन्द्रपति, नरेश सक्सेना, अशोक वाजपेयी, एकांत श्रीवास्तव,सवाईसिंह शेखावत, सविता भार्गव, लीलाधर जगूड़ी,प्रभात त्रिपाठी,अरुण देव, सविता सिंह, ज्योति चावला, पवन करण, मंगलेश डबराल, यतीन्द्र मिश्र व पुष्पिता अवस्थी के बाद ”आज पूरे शहर पर” पर ओम निश्चल का आलेख : प्रेम आया मेरे करीब बादाम के खुले पत्तों की सतह पर ठहरी चमक जैसा ।।
आज पूरे शहर पर
प्रेम आया मेरे करीब बादाम के खुले पत्तों की सतह पर ठहरी चमक जैसा ।
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आज पूरे शहर पर
कवयित्री: इला कुमार
प्रकाशक:अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा.लि.
अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य रु.150/-
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इला कुमार भौतिकी और कानून की छात्रा रही हैं पर वे साहित्य की जैसे एक अधिकृत नागरिक लगती हैं। ”किन्हीं रात्रियों में” पर लिखते हुए मैंने महसूस किया था कि इला की काव्यात्मक अंतश्चेतना को समझ सकना आसान नही है। वे कविता के आसान फार्मूलों से बचती हैं और उद्धरणीयता के तो बिल्कुल विपर्यस्त उनका कवि मिजाज़ है। इस बीच उपनिषद और योगवशिष्ठ के अध्ययन ने उनके कवि हृदय को और कसा मांजा और परिष्कृत किया। वे जाने अजाने ऐसे लोक में ले जाती हैं जहां यथार्थ अपने स्याह संवेदन के साथ उनकी चेतना को उद्वेलित करता है। वे समकालीन कविता के मुहावरे से दूर छिटकी हुई ऐसी कविता लिखने का जतन करती हैं जिसके लिए एक अलग किस्म की एकाग्रता चाहिए। वह एकाग्रता जो एकांत में अपने अस्तित्व को तिरोहित करके आती है। जहां उस एक का भी अंत हो जाता हो।
इला कुमार के कविता रचने का ढंग कुछ अलग है। वे जीवन के रहस्यों को जैसे अँधेरे बियाबान से खींच कर अनावृत करना चाहती हों। एक अनाम कोशिश उनकी कविताओं में इस अर्थ में दीख पड़ती है कि उन्हें देखने का तरीका कुछ अलग होना चाहिए। उनकी कविताओं में इसीलिए बहुत कुछ अनकहा रह जाता है जिसके रिल्के की कविताओं के सान्निध्य में भी रही हैं। उनकी कविताओं का अनुवाद किया है। मुझे कोलकाता में उनका पुस्तकालय देखने का सुअवसर मिला है। रसोई कला में वे निष्णात हैं। उपनिषद, वेद, पुराणों के अलावा संस्कृत के क्लासिक्स एवं सर्वाधिक योग वशिष्ठ में उनकी अनुरक्ति देखते ही बनती है तो उनके पतिदेव के संग्रह में शिकार से जुड़ी अलभ्य किताबें मौजूद हैं। उनसे मिलते हुए आपको लगेगा आप औपनिषदिक काल की किसी विदुषी से मिल रहे हैं। आंखों में वही अन्वेषी भाव, केशों में वही खुलापन और बिखराव, चेहरे पर अनुभव-पगी स्निग्धता लिए इला कुमार कविता के किसी अलक्षित प्रयोजन की सिद्धि में निमग्न दिखती हैं। भारत के कोने कोने में घूमी टहलीं इला कुमार ने प्रकृति को बहुत नजदीक से देखा है। रेल यात्राओं ने उन्हें यायावर बनाया है। कविता के प्रति अनुरक्ति ने कवि-हृदय दिया है। वे पारस्परिक वार्ता में उच्छल जलधि भाव से बोलती हों किन्तु कविता पाठ में वे धीरज से काम लेती हैं। वे चाहती हैं कि कविता को जरा आहिस्ता आहिस्ता पढ़ा जाए। मेरे देखे साहित्य की दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं जिनमें इला कुमार जैसी ललक भरी हो।
वे प्रेम की कवयित्री नहीं हैं किन्तु संग्रह को विहंगम उलटते पलटते हुए प्रेम पर उनकी इन पंक्तियों पर मेरी निगाह रुकती है:
आओ।
अब मैंने तुम्हें वाकई पहचान लिया है।
तुम यहां मेरे वजूद के हर हिस्से में रहो।
रोमावलियों के हर छिद्र में सुकून की तरह समा जाओ।
अब तुम कहीं जाना नहीं। लुकना छिपना नहीं।
मेरी पलकों की ओट में ठहरी पनीली पर्त की तरह।
तुम आजन्म सात जन्मों तक मेरे संग रहो।
प्रेम ।
मैने तुम्हें पहचान लिया है।(पृष्ठ 103)
यह कविता निरी प्रेम की सादा सहल अभिव्यंजना के कारण उल्लेख्य नहीं है। उल्लेख्य यह है कि प्रेम को यहां विज्ञान की प्रयोगशाला से गुजरते हुए महसूस किया गया है तभी लगता है यह कवयित्री प्राय:फूल पत्तियों और तितलियों के बीच मंडराते आश्रय खोजते प्रेम का भाष्य नहीं करती। वह उसे विज्ञानसम्मत बनाना चाहती है। तभी तो कहती है:
प्रेम आया मेरे करीब
बादाम के खुले पत्तों की सतह पर ठहरी चमक जैसा
होली की रंगी शाम में खुली छत के विस्तारपर
ठिठकी चंद्रकिरणों जैसा
इंजन के रेडियेटर में भरे गर्म पानी के दबाव तले थमी हुई
मंडराहट जैसा मंडराता (वही, पृष्ठ 102)
अब रेडियेटर के गर्म पानी के दबाव तले होती मंडराहट को प्रेम के सापेक्ष देखना एक नयी बात है। वे प्रेमी युगल के बीच सरकती वय के बीच यह बहुधा महसूस करती हैं कि जैसे इन्हीं अनजाने प्रहर के किन्हीं निमिषों में पेड़ पौधे उल्लसित हो उठते थे। जैसा मैने कहा विज्ञान के साथ प्रकृति भी है पर वे खुद कहती हैं: ”मैंने प्रेम की धड़कनों को पुष्पों, वृक्षों, चिड़ियों के संग पहचानना चाहा ही नहीं।” असली बात यही है कि प्रेम ऐसे दबे पांव चला आए जीवन में यह उन्हें स्वीकार्य ही नहीं है। लेकिन कहते हैं बैर, प्रीति और मदपान छुपते नहीं, लोग पहचान लिए जाते हैं। कवयित्री कहती है: ‘वक्त हारा लेकिन वह न हारा।’ इस तरह इस अपराजेय आस्था ने उनके भीतर प्रेम के लिए एक जगह बनाई। इसे केवल प्रेम के साथ नहीं, बल्कि समूची कविता के साथ किया गया बर्ताव माना जाए। वे कविता को भी ऐसे नहीं उगाहना चाहतीं। चालू काव्ययुक्तियों से बचते हुए वे कुछ अलग-सा रचना, पाना चाहती हैं। इस रचाव में उनकी भाषा भी अलग दिखती है। वे तरंगायित, चक्रायित, समन्वयित, सौंदर्यित, गुलामियत, आभिजात्यिक, भोगव्य, भवितव्य और द्रष्टव्य जैसे कुछ अटपटे शब्द भी लिखना पसंद करती हैं। जबकि आसानी से तरंगित, चक्रिल, समन्विति, सुशोभित या सुगठित, गुलामी, अभिजात, भोक्तव्य आदि से काम चल सकता था।
उनकी कविताओं में निहायत वर्तमान नहीं है, बिल्कुल नहीं है। वह शाश्वत संवेदना से रूबरू होती हैं। कहीं कहीं वे नास्टैल्जिक भी होती हैं जब वे सपनों के विस्मृत संसार की जरूरत महसूस करती हैं जहां मां हों माथे पर झूमते घूंघर और पल्ले से लटकती चाभियों की झनकार लिए। वे चाहती हैं पूड़ी और परवल कभी भुजिया में डूबी सुबहें लौट आएं। ‘मैं लौटती हूँ कविता’ बचपन के इसी विस्मृत होते संसार में लौट जाने की अभीप्सा है। जहां माटी-लिपा फर्श और खुले आंगनों वाला घर था, तुलसी चौरा और वह मिट्टी के आंगनवाला घर । वह पूछती हैं, खुले दरवाजों वाले कमरों सजा बरामदा न जाने अब कहां है? वह घर आज के स्वप्नों को ठकठकाने वाला ऊष्मित गृह, इस पृथ्वी पर सुख-स्वप्नों भरे शरीरवाला घर अब कहॉं है? यह उस स्त्री की चाहत है जो तमाम घरों, ठिकानों में अपनी रिहाइश बदलती हुई भी अपना बचपन का ठीहा नहीं भूली। तुलसी चौरा और प्रशस्त आंगन नहीं भूली। वह रपट जैसी रपटीली कविताएं नहीं लिखतीं। न स्त्री विमर्श के पैरोकार के रूप में अपनी शक्ति जाया करती हैं। कविता उनके लिए किसी जिरह का प्रारुप नहीं है, वह संवादमयता का अटूट हिस्सा है। पर ‘क्या चाहती है स्त्री’ जैसी कविता में वे स्त्री के सपनों के भाग्यविधाता को बखूबी चिह्नित करती हैं।
इला कुमार के अवलोकन सूक्ष्म हैं। वे चिड़िया को भी निहारती हैं तो अपलक उसकी भावभंगिमा का अवलोकन अध्ययन करने लगती हैं। शाखों के पीछे चिड़िया जितनी भी छिपी हो, उसकी एक एक चपल गतिविधि कवयित्री दर्ज करती है। कवयित्री इस सृष्टि के रहस्य को भी जानना चाहती है। ‘कौन वह’ कविता में। वह पूछती है: ‘ आत्मन्वेषी दृष्टि, पृथ्वी, बादल, आकाश के संग/ एक ही पल में मूर्तन-अमूर्तन के बीच कोई है तो जरूर। ‘ वे समुद्र के किनारे और नदी तट की सांझ का दृश्यालेख उकेरती हैं तो सहजन के अनगिनत नन्हें पुष्पों की मदमाती गंध बिखेरती हुई सौंदर्यमंडित शाम का भी। पहलगाम में उन्हें चिनार के वृक्ष बुलाते हैं तो शाल-वन के पेड़ों के बीच जुगनू टिमटिमाते हुए एक अनूठा सौंदर्य बिखेरते हुए दिखते हैं। इला कुमार, जैसा कि कहा मैंने, वे वर्तमान या आसन्न वर्तमान की कवयित्री नहीं हैं। पर ऐसा भी नही है कि वे वर्तमान से अपनी दृष्टि ओझल रखती हैं। वे इसका प्रमाण ‘ आपके लिए’ कविता में देती हैं जहां मजदूर सड़क बना रहे हैं। ‘वैशाली की व्यथा’ में देती हैं, जिसे लिखते हुए भोगवादी सभ्यता पर वे कातर प्रहार करती हैं। वे कहती हैं,
आज भी आवेष्टित है कातर अनुगूँज
अबला की
शहर के आरपार
युगों के बाद भी जन्मते पुरुषों को
बना डाला है निवीर्य/
भर गयी हे उनकी नसों में अनजानी कायरता का दंभ/
आज भी, अपने अजन्मे बालक की अनकही माता कहलाने को व्याकुल वैशाली
समस्त पौरुष और पुरुषत्व को धिक्कारती है। (पृष्ठ 47)
वे कोर्टरूम में न्याय के लिए आई स्त्री की कातर पीड़ा को दर्ज करती हैं और लोकतंत्र की विसंगत न्यायप्रणाली पर सवाल उछालती हुई पूछती हैं, कब डोलेगी पृथ्वी/ एक बार फिर सीता और मनुष्य के स्वत्व के पक्ष में।(पृष्ठ 40)
इस संग्रह में शाल-वन, पहलगाम, कहा मैंने शहर से, शाम होते ही, वैशाली की व्यथा, मैं लौटती हूँ, ज, अपूर्णन, क्या चाहती है स्त्री, काले सूर्य की परछाईं जैसी तमाम कविताएं हैं जिससे इलाकुमार की कविता के सेनटेक्स को पढा और विवृत किया जा सकता है। इला कुमार का कवि मन अपने समकालीन कवयित्रियों से अलग है। वही इलाका होते हुए भी अनामिका की अनुभूति की बनावट अलग है तो सविता सिंह की मनोभूमि अलग। न उनके यहां सविता सिंह की कविताओं जैसे उदास रंग हैं न अनामिका के रुनझुन से बजते शब्द। मैं नहीं जानता कि उनकी कविताएं कहां से रसद पानी और प्रेरणा लेती हैं। पर इतना यकीन के साथ कह सकता हूँ कि इलाकुमार में रचने की अपनी जिद है। अपना शिल्प है। दूसरों से अप्रतिहत और अप्रभावित।
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डॉ.ओम निश्चल,
जी-1/506 ए,
उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059
मेल: omnishchal@gmail.com
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