दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांगउटांग!
स्वप्न के भीतर स्वप्न,
विचारधारा के भीतर
और एक
अन्य सघन विचारधारा प्रच्छन!!
कथ्य के भीतर एक अनुरोधी
विरुद्ध विपरीत,
नेपथ्य संगीत!!
मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क
उसके भी अन्दर एक और कक्ष
कक्ष के भीतर
एक गुप्त प्रकोष्ठ और
कोठे के साँवले गुहान्धकार में
मजबूत…सन्दूक़
दृढ़, भारी-भरकम
और उस सन्दूक़ भीतर कोई बन्द है
यक्ष
या कि ओरांगउटांग हाय
अरे! डर यह है…
न ओरांग…उटांग कहीं छूट जाय,
कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो।
क़रीने से सजे हुए संस्कृत…प्रभामय
अध्ययन-गृह में
बहस उठ खड़ी जब होती है–
विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
सुनता हूँ ध्यान से
अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और
पाता हूँ अक्समात्
स्वयं के स्वर में
ओरांगउटांग की बौखलाती हुंकृति ध्वनियाँ
एकाएक भयभीत पाता हूँ
पसीने से सिंचित
अपना यह नग्न मन!
हाय-हाय औऱ न जान ले
कि नग्न और विद्रूप
असत्य शक्ति का प्रतिरूप
प्राकृत औरांग…उटांग यह
मुझमें छिपा हुआ है।
स्वयं की ग्रीवा पर
फेरता हूँ हाथ कि
करता हूँ महसूस
एकाएक गरदन पर उगी हुई
सघन अयाल और
शब्दों पर उगे हुए बाल तथा
वाक्यों में ओरांग…उटांग के
बढ़े हुए नाख़ून!!
दीखती है सहसा अपनी ही गुच्छेदार मूँछ
जो कि बनती है कविता
अपने ही बड़े-बड़े दाँत
जो कि बनते है तर्क और
दीखता है प्रत्यक्ष
बौना यह भाल और
झुका हुआ माथा
जाता हूँ चौंक मैं
निज से
अपनी ही बालदार सज से
कपाल की धज से।
और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो
करता हूँ धड़ से बन्द
वह सन्दूक़
करता हूँ महसूस
हाथ में पिस्तौल बन्दूक़!!
अगर कहीं पेटी वह खुल जाए,
ओरांगउटांग यदि उसमें से उठ पड़े,
धाँय धाँय गोली दागी जाएगी।
रक्ताल…फैला हुआ सब ओर
ओरांगउटांग का लाल-लाल
ख़ून, तत्काल…
ताला लगा देता हूँ मैं पेटी का
बन्द है सन्दूक़!!
अब इस प्रकोष्ठ के बाहस आ
अनेक कमरों को पार करता हुआ
संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में
अदृश्य रूप से प्रवेश कर
चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!!
सोचता हूँ–विवाद में ग्रस्त कईं लोग
कईं तल
सत्य के बहाने
स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना।
अहं को, तथ्य के बहाने।
मेरी जीभ एकाएक ताल से चिपकती
अक?? विरक्ति-सी होती है
और मेरी आँखें उन बहस करनेवालों के
कपड़ों में छिपी हुई
सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखती!!
और मैं सोचता हूँ…
कैसे सत्य हैं–
ढाँक रखना चाहते हैं बड़े-बड़े
नाख़ून!!
किसके लिए हैं वे बाघनख!!
कौन अभागा वह!!
अंधेरे में (भाग 1 )
ज़िन्दगी के…
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
बार-बार….बार-बार,
वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता,
किन्तु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्-धक्
पूछती है–वह कौन
सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह–
ख़ुद-ब-ख़ुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है !!
कौन मनु ?
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब…
अँधेरा सब ओर,
निस्तब्ध जल,
पर, भीतर से उभरती है सहसा
सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
और मुसकाता है,
पहचान बताता है,
किन्तु, मैं हतप्रभ,
नहीं वह समझ में आता।
अरे ! अरे !!
तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष
चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक
वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,
शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर
चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्–
वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक
तिलस्मी खोह का शिला-द्वार खुलता है धड़ से
……………………
घुसती है लाल-लाल मशाल
अजीब-सी अन्तराल-विवर के तम में
लाल-लाल कुहरा,
कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
रहस्य साक्षात् !!
तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
विलक्षण शंका,
भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
गहन एक संदेह।
वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।
प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी,
इसी लिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सज़ा दी !
किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
आँखों में बँध गयी,
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में
गिरा दिया गया मैं
अचेतन स्थिति में !
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