धारावाहिक मिट्टी-भाग-18- शैल अग्रवाल/ जून-जुलाई 2015

मिट्टी भाग 18-

मन का अवसाद भय बन कर कमरे की हवा तक में घुलमिल चुका था और अब तो हर सांस के साथ तनमन को भी बोझिल कर रहा था।

‘ क्या पूरी तरह से उबर भी पाएगा कमाल कभी इस आपदा से ?’

‘ क्या उचित जगह और सम्मान दे पाएगा एक स्वप्नदर्शी विकलांग युवा को क्रूर समाज ? ‘

कुछ पल पहले ही रोजलिन द्वारा उठाए गए सवाल अब अजगर-से अक्षत से लिपट चुके थे और कानों में लगातार हिसहिस कर रहे थे।

परेशान अक्षत ने जिद्दी सोच को परे झटक दिया और दरवाजे पर अभी-अभी डाला गया ताजा अखबार उठा लिया। शायद ध्यान ही बंटे ! मिनटों में तो नहीं सुधरते बिगड़े पल। वक्त चाहिए हर दुर्घटना के बाद गाड़ी को वापिस पटरी पर आने के लिए भी– इतना तो वह भी जानता था।

अखबार में भी तो वही दुःख दर्द और अमानवीय दास्तानें ही थीं। आदत के खिलाफ, वैसे ही वापस पटक दिया उसने उसे वहीं जमीन पर। मानो तनमन की सारी शक्ति ही निचुड़ चुकी थी उसकी।

अब पूरा अखबार सामने पन्ने-पन्ने पसरा पड़ा था। नजरें न चाहते हुए भी बारबार घूम-फिरकर वहीं पहुंच जा रही थीं। पूरा-का-पूरा ही खून-खराबा और आतंक की खबरों और तस्बीरों से ही सना-पुता था अखबार।

‘कैसा खूंखार वक्त है यह भी ?’

एक ठंडी आह बारबार चश्मे को धुंधला रही थी। जब और बर्दाश्त न हुआ तो चश्मा उतारकर वहीं रखा और खिड़की के पास आ खड़ा हुआ अक्षत।

पर मन अभी भी वैसे ही बेचैन था और निरर्थक ही आकाश घूरती आँखों में अभी भी कई बेबस सवाल  ज्यों- के-त्यों ही तैर रहे थे।

‘ लगता है फिर एक कबूतर बिल्ली की भूख चढ़ गया है…जंगल राज ही है चारो तरफ। किस-किस से और कबतक व कैसे लड़ पाएगे हम ?’

ताजे बिखरे पंख और दूर कहीं से आती चिड़िया का चीत्कार में मिली जुली रोजलिन की आवाज से तंद्रा टूटी उसकी। रोजलिन गरमागरम कौफी के साथ लौट चुकी थी और कौफी की प्यालियां मेज पर रखकर अब उसके बगल मे ही आ खड़ी हुई थी। कुछ और न सही तनाव ही कुछ कम हो, इस उम्मीद में उसके कंधों को हल्के-हल्के दबा रही थी ।  कोई असर होता न देख, शांत शब्दों में डूबी सी फिर बोली-

‘मुठ्ठी भर आदमी हैं ये, भटके या भटकाए गए लोग। बस स्वभाव पड़ गया है इनका- न तो चैन से जीएंगे, ना ही जीने देंगे।… फिर आतंक और हिंसा किस युग में नहीं थे, अक्षत ! रामराज्य में भी तो राक्षस थे ही। हर युग को खुद ही और अपने तरीके से निपटना सीखना पड़ता है। जीने के लिए डरा नहीं, जीता जाता है इन्हें। वक्त यदि सुख लाता है तो दुःख और समस्याएँ भी तो।’

‘कहाँ जाकर रुकेगी, पर इनकी यह खूनी पिपासा, रोजलिन ?’

अभी वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि अक्षत का मोबाइल बज उठा। फोन घर से था और स्क्रीन पर माँ की तस्बीर  थी।

‘दिशा आंटी और इस वक्त, सब ठीक तो है? ’ देखते ही रोजलिन भी खुद को पूछने से न रोक सकी।

‘मां तो कभी ड्यूटी के वक्त फोन नहीं करतीं ’ – अक्षत को भी कम आश्चर्य नहीं था और उससे अधिक थी किसी अनजाने अशुभ की आशंका। हमेशा मन डरता रहता है मम्मी पापा को लेकर। उसे उन्हें अकेले नहीं छोड़ना चाहिए अब। सच, जितना प्यार उतने ही भय…जैसे-तैसे मुंह से सहमा-सहमा हैलो ही निकल पाया।

‘सुन अक्षत, मैं हीथ्रो जा रही हूँ। ’ मां रुंआसी थी।

‘नीतू आ रही है। मुस्तफा के साथ। उन्हें लेने और उनकी मदद करने। अच्छा रखती हूँ, ज़रा जल्दी में हूँ। फिक्र मत करना। पहला मौका मिलते ही फोन करूंगी तुम्हें, तभी विस्तार से बातें होंगी। ’

‘क्या हुआ नीतू आंटी को और मुस्तफा को? ’ –अक्षत पूछ भी पाए, इसके पहले ही मां फोन रख चुकी थीं। इतनी जल्दी में थीं। एक क्षीण मुस्कान फैल गई अक्षत के चिंतित चेहरे पर। वक्त ही तो नहीं आज किसी के पास और एक मां हैं, जिनके पास अपने अलावा सबके लिए वक्त ही वक्त है।

वैसे जल्दी तो अक्षत को भी थी। घड़ी देखी तो नौ बज चुके थे। दोनों का ही वार्ड राउन्ड का वक्त हो चला था। उठ खड़े हुए वे। पर चलते-चलते पलटकर बोला-

‘कुछ खास न कर रही हो तो शाम को आ जाना । साथ-साथ एकबार और कमाल से मिल आएंगे। कुछ और तो कर नहीं सकते, थोड़ा मन ही हल्का हो जाएगा उसका। ’

‘ हाँ, हाँ, क्यों नहीं। शाम को पांच बजे।’

कहती तेजी से वार्ड की तरफ लपकती रोजलिन को अक्षत तबतक देखता रहा, जबतक कि वह आंखों से ओझल न हो गई।

वह पूरा दिन एक उधेड़बुन में ही बीता था। न चाहते हुए भी दिनभर मां के फोन का, किसी खबर का इंतजार करता रहा था वह। साथ-साथ में यह प्रार्थना भी कि कोई बुरी खबर न देना भगवान।

बुरी खबर नही मिली थी उसे क्योंकि खबर आई ही नहीं ।

मां का फोन नहीं आया तो नहीं ही आया और अक्षत आदतन् परेशान, अनजान अनहोनी से कांपता जब तब फोन को घूरता रहा, जाने क्यों बेवजह ही उससे डरता भी रहा।

‘ यह नीतू आंटी भी समस्याओं को ढूँढ-ढूँढकर सहेजती हैं रोजमर्रा के जीवन में भी और हौलीडे पर जाएं, तो वहाँ भी। पिछले वर्ष ग्रीस गईं तो मुस्तफा को साथ लेकर लौटीं। मुस्तफा जो अफ्रीका से आए अवैध लोगों की नाव में था पर नाव उलट गई थी किनारे पर लगने से पहले ही। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि जान-बूझकर डुबो दी गई थी वह सैकड़ों अवैध लोगों से भरी, भटकती नाव।’ – न चाहते हुए भी बारबार अक्षत खुद भी तो दिनभर डूबा रहा था कल और आज के कई प्रसंगों में।

‘ उस नाव से बस तीन व्यक्ति ही जीवित मिले थे ग्रीक औथोरिटी को, जिनमें से एक बालक मुस्तफा भी था। 11 वर्ष का अकेला नीली आँखें और भूरे बालों वाला मुस्तफा, भूखा-प्यासा, रोता-बिलखता और बेहद गुमसुम व उदास। मां, बाप, बहन सबको अन्य 129 लोगों के साथ समुद्र लील गया था। और तब उसे देखकर नीतू आंटी का मोम सा मन पिघल-पिघलकर आँखों से बह निकला था। उसी पल निर्णय ले लिया था उन्होंने कि इस एक भटकते अनाथ बच्चे की जिम्मेदारी तो वह लेंगी ही। काव्या भी पास नहीं अब तो। अपने घर-परिवार में रम चुकी है वह और वैसे भी बिल्कुल अकेली ही तो रहती हैं अपने बड़े महल-से घर में वह।

और तबसे आजतक मुफ्ती ही उनके साथ है। उनका सहारा है। …हाँ यही नाम दिया था हम सबने मिलकर उसे। वाकई में मुफ्त ही तो मिला था उन्हें वह ग्रीस में। वह भी खिसयाता नही अपने इस नए नाम से, मुस्कुराकर झट से गोदी में आ बैठता है। पूरी तरह से परिवार में रच बस गया है मुफ्ती।

पर अब यह किस नई मुसीबत में फंस गई हैं नीतू आंटी कि मां को यों आनन-फानन जाना पड़ रहा है।’ –रहस्य जितना वह सुलझाने की कोशिश करता, उतना ही उलझता जा रहा था अक्षत के लिए ।

…..

‘ चलें जनाब, या यूँ अपनी समस्याओं में ही खोए रहेंगे ?’

रोजलिन जाने कबसे सामने खड़ी अपलक उसे ही देखे जा रही थी। भावों के ज्वार-भाटे में एक योगिनी-सी सामने खड़ी-खड़ी खुद भी तो डूब-उबर ही रही थी वह भी।…

‘ हाँ-हाँ, बस अभी तुरंत। ’

झेंपता सा अक्षत उठा और बगल की कुरसी रोजलिन के लिए आगे बढ़ा दी। फिर जल्दी-जल्दी दस्तक करके आखिरी मरीज की डिस्चार्ज शीट भी पूरी कर ली और सामने फैली सारी फाइलें बन्द करता, रोजलिन के साथ औफिस से बाहर निकल आया।

कमाल का वार्ड उसके औफिस से ज्यादा दूर नहीं था। पर कमाल के बेड के चारो तरफ परदा खिंचा हुआ देखते ही दिल धक से रह गया दोनों का।

‘ अब क्या हुआ कमाल को ?’ दोनों एक साथ ही डरे-डरे से बोल पड़े।

‘ कुछ नहीं यार। इतनी जल्दी तो मैं तुम्हें छोड़कर नहीं ही जाने वाला। अभी तो मुझे तुम्हारे बच्चों को भी खिलाना है! बोलो, यह मौका तो दोगे ना!’

तसल्ली कमाल दोनों ही मित्रों को दे रहा था पर आंखें बच्चों के उल्लेख मात्र से रोजलिन के गुलाबी गालों पर आती-जाती रंगत का जायजा ले रही थीं ।

‘ हाँ, हाँ क्यों नहीं। तू बस अब रेशमा भाभी को जल्दी से बुला ले, फिर देखना तेरे मेरे बच्चे साथ-साथ ही स्कूल जाया करेंगे। ’

‘ सच , क्या तू अब भी ऐसा ही सोचता है, भरोसा भी है तुझे अपनी इस बात पर अक्षत ?’

पूछते-पूछते रो पड़ा था कमाल। और इस बार ‘ हाँ’ कहकर आंसू पोंछे थे रोजलिन ने।

‘ कहो तो मैं बात करूँ रेशमा से।’ रोजलिन भी अब उतनी ही व्यग्र थी जितना कि कमाल।

‘ क्या करोगी रोजलिन यह सब करके। मैं अब किस काम का… .’

कमाल की आँखों में काले अवसाद की गहरी बदली घिर आई थी। मित्र युगल को दुख की इस बूंदाबादी से बचाने के लिए उसने अपना मुँह सूप की प्याली की ओट में कर लिया, पर सूप में गिरते आंसू रौजलिन ने भी देखे और उसका यह दुख उसे अंदर तक चीर गया। पर वह कहाँ हार मानकर चुप बैठने वाली थी। उसदिन जब पुलिस आई थी तो सारे नम्बर लिए थे उसने। रेशमा का नंबर अभी भी सुरक्षित था मोबाइल में। तुरंत ही मिला दिया। और फोन भी रेशमा ने ही उठाया। रोजलिन ने भी बिना किसी भूमिका के, ‘ लो बात करो। ’ कहकर फोन कमाल को पकड़ा दिया।

गूंगे के मुंह में गुड़ की डली हो, कुछ ऐसी ही हालत हो चली थी अब कमाल की। फोन कानों पर लगा हुआ था । आखों से अविरल आंसुओं की धार बह रही थी और मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था। उधर से आती बस रेशमा की लगातार की हलो-हलो की आवाज ही गूंज रही थी उसके कानों में ।

‘ कहीं फोन रख न दे । कुछ बात करो कमाल । ’

रोजलिन ने झकझोरा था तब उसे और बिस्तर का परदा पूरा खींचती, अक्षत को लेकर तुरंत ही बाहर निकल आई थी। उसके बाद तो घंटों बातें हुई थीं उनकी। जब वे लौटे तो सारी तकलीफों के बाद भी कमाल के मुंह पर एक संतुष्ट मुस्कान थी।

बिना कुछ कहे सुने , अगले दिन फिर आने का वादा करके दोनों मित्र लौट आए। संतुष्ट थे दोनों। उम्मीद की एक किरण दिख गई थी उन्हें भी। जान गए थे कि वक्त ही बुरे वक्त का इलाज है। कमाल के घाव अभी ताजा और गहरे थे, और भरने के लिए निजी वक्त चाहिए था उसे।..

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