कविता धरोहरः सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, प्रसाद, सुमन/ लेखनी जून/ जुलाई 2015

 

एक सूनी नाव

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एक सूनी नाव

तट पर लौट आई।

रोशनी राख-सी

जल में घुली, बह गई,

बन्द अधरों से कथा

सिमटी नदी कह गई,

रेत प्यासी

नयन भर लाई।

भींगते अवसाद से

हवा श्लथ हो गईं

हथेली की रेख काँपी

लहर-सी खो गई

मौन छाया कहीं उतराई।

स्वर नहीं,

चित्र भी बहकर

गए लग कहीं,

स्याह पड़ते हुए जल में

रात खोयी-सी

उभर आई।

एक सूनी नाव

तट पर लौट आई।

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

 

 

 

ले चल वहाँ भुलावा देकर

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ले चल वहाँ भुलावा देकर,

मेरे नाविक! धीरे धीरे।

 

जिस निर्जन मे सागर लहरी।

अम्बर के कानों में गहरी

निश्‍चल प्रेम-कथा कहती हो,

तज कोलाहल की अवनी रे।

 

जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,

ढोले अपनी कोमल काया,

नील नयन से ढुलकाती हो

ताराओं की पाँत घनी रे ।

 

जिस गम्भीर मधुर छाया में

विश्‍व चित्र-पट चल माया में

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,

दुख सुख वाली सत्य बनी रे।

 

श्रम विश्राम क्षितिज वेला से

जहाँ सृजन करते मेला से

अमर जागरण उषा नयन से

बिखराती हो ज्योति घनी से!

-जयशंकर प्रसाद

 

 

 

 

तूफानों की ओर

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तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

-शिवमंगल सिंह सुमन

 

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