जीवन की नाव
कितनी छोटी नाव जीवन की, कितनी लम्बी झील।
कितने सपनों को खोल रही, उलझी जीवन की रील।।
ज़र-ज़र मिट्टी की काया है, पीछे रेगिस्तान।
कोने-कातर से लटक रहे है, फटे पुराने प्राणा।
क्या कर लू और क्या न कर लूं, दो दिन का मेहमान।
छिटक रहा नित-नित प्याला, अब खाली इसको जान।
कितना चला जब पीछे देखा, कोस, फरलांग, या मील।।
कितने सपनों को खोल रही उलझी जीवन की रील…
जीवन तपिश की धूप में, मिली नहीं कहीं छांव।
घर अपना था जिस जगह, दिखा नहीं वो गांव।
शूल, धूल और भूल डगर पे, नंगे मेरे पांव।
आँख खोल कर देखा जग को, पाती नहीं हे थाँव।
थोथे दंभ, और अहंकार है, झूठी जीवन की शील।।
कितने सपनों को खोल रही उलझी जीवन की रील….
सूखे पत्ते, और टूटी डंडी, ये कैसा मधुमास।
रात धुएँ की छांव ढूँढ़ती, कोई दूर नहीं पास।
अपने अपनों को ही छलते, किसकी करे अब आस।
ऐसे खेतों को कहां ढ़ूढ़ें, बोए जहां विश्वास
अपनी छवि को तरस गई, सूखी जीवन की झील।।
कितने सपनों को खोल रही उलझी जीवन की रील…….
–स्वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’
मैं तो एक नाव हूँ
“एक नाव हूँ मैं
लहरों के संग उठती गिरती हूँ
मेरा मांझी पतवार डाल कर मुझे खेता है
कभी बांध कर तट पर मुझे
बेदर्दी से रेतता भी है
पर सच तो यह है कि
मैं तो काठ की शहतीरों से बनी
एक जलयान हूँ
ओ रे केवट
तू खेता है तो मैं आर पार ले जाती हूँ
लहरों संग बहती हूँ
और बस इतना भर चाहती हूँ
कि मुझे बहने देना बस, बहने देना
बांध दोगे तो मैं जड़ हो जाऊँगी
खोल दोगे तो नदिया पार जाऊँगी
तभी तो बार बार कहती हूँ मैं
नाव हूँ रोको मत मुझे
बस बहने दो
क्यूंकि बहूँगी
तभी लहरों को छू पाऊँगी
और अगर लहरों को छू पाऊँगी
तभी पहुँच पाऊँगी
मैं नए ठाँव में
पार के गाँव में !
-सरस्वती माथुर
नाव हूँ मैं
जड़ न करना
चेतन रहने देना
बांधना मत तट पर
निरंतर बहने देना
जल सिंधु में जीवन मेरा तो है
सही दिशा में बढ़ते रहना
नहीं रुकूँगी कभी
प्रचंड धारा की आँधी में भी
यह है मेरा कहना
क्यूंकी सेतु हो जाती हूँ
दो तटों की और
साधन हो जाती हूँ
मैं आवागमन की
काठ की होकर भी
सशक्त धावक सी जलधाराओं में
मैं एक पथप्रदर्शक भी हूँ
इसलिए चेतन रहने देना
लहरों संग बहने देना
बस लहरों संग बहने देना !
डॉ सरस्वती माथुर
हाहाकार
मन के समंदर में तैरती
हर नैया को किनारा नहीं मिलता
कुछ डूब भी जाती हैं
अपनी नहीं होती हर वह नाव
किनारे तक जो आए
अक्सर ये लंगर तोड़ जाती हैं
डूबती नैया का खजाना
तो अतीत की अमानत है
मत पुकारना पीछे से इन्हें
मुडकर देख भी लें तो क्या
राही कब रुक पाए हैं
कश्तियाँ समंदर में तैरती हैं
कश्तियों में समंदर समा पाते नहीं
इतिहास की चट्टान पर
किस किस ने अपने नाम लिखे
दौड़ी तो थी हर लहर
पर कितनों ने किनारे छुए
इच्छाओं के सीप
बिखरे पड़े हैं समय की रेत पर
और बूढ़ा समंदर रो भी न सका
लहरों के हाहाकार पर
-शैल अग्रवाल
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