अपनी बात/ लेखनी-जून-जुलाई 2015

ganga-3 july8   ये नावें…

जाने कितने अनजान किनारों के सुख-दुख भरे रोमांचक किस्से हैं इनके हिस्से में कि  सदा ही एक रूमानी अहसास जुड़ा  रहता है इनसे , चाहे तट पर बंधी एक अकेली नाव हो लहरों के साथ साथ हवा के संगीत पर हिलती झूमती, मानो कहीं जाने के लिए बेचैन, दूर किनारों के सपने संजोए, चंचल और प्रतीक्षारत, या फिर नदी किनारे डूबता सूरज और उमड़ते-घुमड़ते सुनहरे गुलाबी बादल और उन सबके बीच मित्र व परिजनों के साथ घंटों का नौका बिहार… कौन है जिसके पास स्मृतियाँ नहीं, जो इन स्मृति से पुलकित व रोमांचित न हुआ हो !

नावें सपने दिखाती हैं, नावें पार लगाती है। मानव के सपने, सूझबूझ और साहस का अद्भुत प्रतीक हैं ये नाव ।

जब जहाज और रेल आदि का अविष्कार नहीं हुआ था, तो इन्ही नावों पर प्रियतम दूर देश रोटी-रोजी कमाने जाते थे …एक से एक बढ़कर खूबसूरत और मनछूते गीत व कविताएँ हैं नाव पर जिनमें यात्रा का आनंद है, विरह का दुख है और मिलन की आस भी ।

किसी एक प्रेरक पल में एक आदमी ने पतवार हाथों में ली होगी और उस एक ही  पल में  इसने इन्सान को खुद खिवैया बना दिया अपनी जिन्दगी का,  अपनी जरूरत और सपनों का।

ये न सिर्फ स्वप्न दिखाती हैं दूर देश और अजनबी जगहों के, उनतक पहुंचाने की सामर्थ भी रखती हैं। इनके साथ आस और विश्वास का रिश्ता बना लिया है चतुर मानव ने। पतवारों का सहारा लेकर उसकी हिम्मत बड़े-से-बड़े तूफान पार करती नए और अनजाने तटों तक जा पहुँची है। नई संस्कृति और नई सभ्यताओं से जुड़ी है। इन्ही के सहारे तो अपने पूर्वज कोलम्बस और वास्कोडिगामा ने संभावनाओं के अभूतपूर्व द्वार खोले थे हमारे लिए। इन्ही के सहारे उसने तूफानों से जूझना और जीतना सीखा है। कागज की नाव भी मात्र बचपन का एक खेल नहीं, इसी आसभरे स्वप्न का कल्पनिक विस्तार है । अबूझ का रोमाच लिए उल्लास की तरंगों पर तैरती…  अपनी सामर्थ और सूझ-बूझ की पतवारों के साथ सुदूर यात्राओं और अन्वेषण पर गया  है इन्सान इनमें बैठकर।

कहते हैं दुनिया हो या खुद हमारा अपना शरीर, तीन चौथाई पानी है और एक चौथाई अन्य तत्व। इसी से हम नावों के महत्व और जरूरत को समझ सकते हैं। जीवन और अस्तित्व के इस अथाह सागर में यही तो हमें पार लगाती हैं और निर्मम परिस्थितियाँ या दुराग्रही इच्छाएँ हो जाएँ, तो कभी-कभी बीच मझधार या किनारे पर डुबो भी देती हैं।

इनमें बैठकर हमने सैर की हैं –नए-नए देशों की खोज की है, लड़ाइयाँ लड़ी व जीती और हारी हैं। कभी मानव सभ्यता की शुरुवात में छोटी-छोटी एक तने से उकेर कर या एक झप्पर या डलिया की नावें रही होंगी, अब तो इतने बड़े-बड़े पोत या जहाज बनने लगे हैं कि पूरे के पूरे शहर समा जाएँ इनमें। अब इनका इस्तेमाल समन्दर की लहरों पर मौज-मस्ती के लिए होता है, देश की सीमा रेखा की सुऱक्षा के लिए होता है और एक साथ कई-कई बडे-यातायात और व्यापार तक के लिए होता है। हैलीपैड से लेकर, भांति भांति के बाजार, तरह तरह के रेस्तोरैंट, थियेटर, सिनेमा, लाइब्रेरी, अस्पताल, सभी जरूरी और आरामजनक सुविधाओं से लैस होते हैं ये आधुनिक जहाज। हजारों कर्मचारी इनमें काम करते हैं और इनसे ज्यादा लोग इन क्रूज शिप में समुद्र किनारे-किनारे बसे कई देशों के शहरों में एकसाथ घूम सकते हैं। मिसाइलों और पनडुब्बियों से सजी, आधुनिकतम संचार तंत्र व आधुनिकतम शस्त्रों से लैस नौसेना किसी भी देश की आज बड़ी ताकत है और देश की सुरक्षा में बड़ा हाथ रखती है। बड़ी नावें या इन जहाजों का विकास पिछली शताब्दी में अधिक हुआ है। इसके पहले भी कई तरह की नावें थीं । पुराने समय से ही सामान और यात्रिओं को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने में, मछली आदि पकड़ने में इनका इस्तेमाल हुआ है। वास्कोडिगामा और कोलम्बस ने इन्ही नावों के द्वारा इतिहास रचा था… नए देश , नए किनारों को ढूंढकर हमें एक दूसरे का पता दिया था।

पर आजकल एक और नई तरह की नावें दिख रही हैं समुद्र में , नए दुख और समस्याओं से लदी-फंदी, जिनकी वजह से हम और हमारी यह अपने विकास पर गर्व करती इक्कीसवीं सदी, शर्मसार है। ये नावें लोगों से भरी हुई हैं पर इनका कोई गन्तव्य, देश नहीं। कोई किनारा लंगर नहीं डालने देता क्योंकि कोई देश इन्हें अपनाना या आश्रय देना नहीं चाहता। दुनिया की नजरों से दूर समुद्र में ही खोए जा रही हैं ये अपने ही आंसुओं में डूबी-

बहुत दूर से

बहुत मजबूर हो

आया हूँ तुमतक मैं

लहर लहर, हर लहर से

एक आस लिए, विश्वास लिए

अपने ही आंसुओं में

कहीं डूब न जाऊं मैं

किनारों को चूम लेने दो मुझे

कल तक जिऊं ना जिऊँ

कुछ पल ही सही,

जी लेने दो मुझे…

 

जिस समुद्र से आस बांधकर ये भागे थे नई जिन्दगी की खोज में, वही इन्हें अब भूखा-प्यासा भटका रहा है। कैसे रोकें अब हृदय को , समुद्र को, हजारों लाखों का कब्रिस्तान बनने से – करुणा न सही, मानवता और दुनिया के हित में सोचना होगा हमें, दुनिया के हर देश को। वरना आह और नफरतों का उठता यह बवंडर, इन नावों को ही नहीं, एक-न-एकदिन हम सभी को ले डूबेगा।

140314-152609-शैल अग्रवाल

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