विमर्षः युद्ध करो अर्जुन-डॉ. इन्द्रदत्त पाण्डेय

Kurukshetraमहाभारत के युद्ध में अर्जुन के संशय एवं विषादग्रस्त होने पर श्रीकृष्ण उसे बार-बार उद्बोधित- अनुप्राणित करते हैं कि नपुंसक मत बनो हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ, तैयार हो जाओ,युद्ध करो – तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, ततो युद्धाय युज्यस्व, तस्मात युद्ध्स्व भारत । आखिर ये कैसा युद्ध है – जिसमें लड़ने के लिए भगवान प्रेरित कर रहे हैं ? अर्जुन लड़ना नहीं चाहता था वह धनुष फेंककर रथ के पिछले भाग में बैठ गया श्रीकृष्ण तरह- तरह से उसे उद्बोधित – प्रबोधित करते हैं और लगभग सोलह बार कहते हैं कि- अर्जुन तू युद्ध कर । महाभारत का युद्ध तो एक ऐतिहासिक घटना है – युद्ध तो हुआ ही,इसमें संदेह नहीं । पर इसका एक शाश्वत भाष्य भी है – एक रूपक,प्रतीक और अलंकारिक कथन के रूप में ।
हमारे सम्मुख आज युद्ध जैसी कोई परिस्थिति तो है नहीं और अगर सूक्ष्मतापूर्वक हम समझें तो तब भी वही परिस्थिति थी जैसी आज ज्यों की त्यों है । इसमें एक शाश्वत युद्ध का परिचय है जिसमें एक बार विजयी हो जाने पर चिरन्तन विजय की प्राप्ति होती है । यह क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का युद्ध है,प्रकृति और पुरुष का संघर्ष है जो अंत:करण में अशुभ का अंत और शुभ परमात्म स्वरूप की प्राप्ति कराता है । चित्त को सब ओर से समेटकर हम हृदय-देश में ध्यान करने लगेंगे तो काम- क्रोध-राग- द्वेषादि विकार हमारे चित्त को एकाग्र होने नहीं देंगे । उन विकारों से संघर्ष करना उनका अंत करना ही युद्ध है । शांति तभी मिल सकती है जब हमारी आत्मा अपने शाश्वत को पाले । यही एकमात्र शांति है, जिसके बाद फिर कोई अशांति नहीं है । किन्तु यह शांति साधन गम्य है उसी के लिए तो नियत कर्म का विधान किया गया है । इससे ही ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है । आइंस्टीन से हाकिन्स तक वैज्ञानिक भी तो इसी ऊर्जा की खोज में हैं जिसे उन्होंने यूनिफाइड इनर्जी कहा है । इस ऊर्जा की आवश्यकता मानव- जीवन में अनवरत बनी हुई है । हम देख रहे हैं कि चित्ताकर्षक भव्यता के पृष्ठ पर भयावह अशांति के उद्रेक से मानवता अपने को ठगी सी महसूस कर रही है । गीता एक प्रकाश स्तम्भ है – इसकी प्रतीकात्मकता को विश्व के अनेक विद्वानों ने शिरोधार्य किया है ।ज्ञानेश्वर की ‘ भावार्थ दीपिका ‘ तो विलक्षण है, गीता के अमेरिकी भक्त थोरो को तो ऋषि कहा जाता है, उनमें शिष्य इमर्शन गीता को मानव मात्र का मित्रग्रन्थ मानते हैं । आँद्य शंकराचार्य, विवेकानन्द, डा० राधाकृष्णन, महात्मा गांधी एवं स्वामी अड़गड़ानन्द प्रभृति चिन्तकों ने इसे स्मृति कहा है । वेदों के सार हैं उपनिषद और उपनिषदों का नवनीत है – गीता । इसके सभी पात्र अमूर्त योग्यताओं के मूर्त रूप मात्र हैं । गीता के प्रारंभ में लगभग ३५ पात्रों के नाम हैं जिनमें आधे विजातीय हैं, कुछ पांडव पक्ष के हैं व कुछ कौरव पक्ष के । विश्व रूप दर्शन में ५ नाम फिर आए हैं, अन्यथा समग्र गीता में अर्जुन ही ऐसा पात्र है जो प्रारंभ से अंत तक योगेश्वर कृष्ण के समक्ष हैं ।
अर्जुन ईश अनुरागी का प्रतीक है – वह कोई व्यक्ति विशेष नहीं है । प्रारंभ में वह कुल धर्म के लिए विकल है पर कृष्ण ने इसे उसका अज्ञान बताया है और निर्देश दिया है कि आत्मा ही सनातन है, शरीर नाशवान है । इस आदेश से यह तो यहाँ स्पष्ट नहीं है कि केवल कौरव मरे । पांडव पक्ष के भी तो शरीर धारी ही थे , दोनो ओर ही संबंधी थे । जब शरीर नाशवान है, जिसका अस्तित्व नहीं है, तो अर्जुन कौन था ? श्रीकृष्ण किसकी रक्षा में खड़े थे ? वस्तुत: अनुराग ही अर्जुन है । अनुरागी के लिए योगेश्वर खड़े हैं ।
संजय संयम का प्रतीक हैं । दस दिनों तक संजय युद्ध में ही थे ।दसवें दिन भीष्म रथ से गिरा दिए गए । भीष्म भ्रम का ही प्रतीक हैं । संजय ने दस दिन बाद समाचार शुरू से सुनाना प्रारंभ किया था । व्यास ने उन्हें दिव्य दृष्टि दी थी । ग्यारहवाँ दिन अर्थात दस इंद्रियों के बाद । ई० पू० ३००२ वर्ष के मार्गशीर्ष की शुक्ल एकादशी को युद्ध शुरू हुआ था और पौष अमावस्या को समाप्त हुआ था, दो तिथियों की हानि थी, १८ दिन युद्ध चला । भीष्म युद्ध समाप्ति के ग्यारह दिनों बाद दिवंगत हुए । ये सब भी प्रतीकात्मक अर्थों से ओत- प्रोत हैं । कौरवों की ओर से ग्यारह अक्षौहिणी एवं पांडवों की ओर से सात अक्षौहिणी सेना लड़ रही थी । ग्यारह इन्द्रियाँ हैं और सात सात्विक भाव हैं, अक्षौहिणी का अर्थ है अक्ष अर्थात् दृष्टिकोण । हृषिकेष श्रीकृष्ण नें पांचजन्य शंख बजाया । पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को पंच तन्मात्राओं ( शब्द- स्पर्श- रूप- रस- गंध ) के रसों से समेटकर अपने जन ( भक्त ) की श्रेणी में ढालने की घोषणा की । धनंजय ( दैवी संपत्तियों को अपने अधीन करने वाले अनुराग ) अर्जुन ने देवदत्त शंख बजाया, भीम ने पौण्ड्र ( प्रीति ) , युधिष्ठिर ( धर्म रूप ) ने अनंत परमात्मा में स्थित स्वरूप अनन्त विजय, नियम रूपी नकुल ने अशुभ शमन रूप सुघोष तथा सत्संग रूपी सहदेव नें मणिपुष्पक ( सांस पर नियंत्रण ) शंख बजाया । इनके साथ हैं – धृष्टद्युम्न ( अचल मन ) ,विराट ( ईश्वर का प्रसार देखने की क्षमता ) , द्रुपद ( अचल पद दायक ) , द्रौपदी के पाँच पुत्र ( सहृदयता, वात्सल्य , लावण्य , मौम्यता , स्थिरता ) , अभिमन्यु ( अभय मन ) और सात्यकि ( सात्विकता ) । इसी प्रकार आसुरी भावों में अश्वत्थामा ( आसक्ति ), कर्ण ( विकर्म ), द्रोण ( द्वैत ) , दुर्योधन ( मोह ), धृतराष्ट्र ( मन) , आदि दूसरी ओर हैं ।
इस युद्धस्थल पर श्रीकृष्ण यज्ञ,जप,सन्यास,वर्ण, वर्णसंकर , निष्काम कर्म आदि की ही बातें कर रहे हैं । कैसा है – ये संग्राम ? जिसमें किसी खून खराबे की तो बात ही नहीं है । अध्यात्म- वैराग्य की बात हो रही है । यज्ञ नियत कर्म को कहा गया है । नियत कर्म है – अराधना । इसे ही यज्ञार्थ कर्म, तदर्थ कर्म , मदर्थ कर्म और कार्यम कर्म भी कहा है । यही निष्काम कर्म भी है । इस कर्म के साधकों को चार श्रेणियों में बाँटा गया है यही है चार वर्ण । सबसे उन्नत साधक ब्राह्मण, उसके बाद क्षत्रिय तथा वैश्य । अल्पक साधक को शूद्र कहा गया । कर्म – पथ से च्युत होना ही वर्णसंकर होना है । कर्म की साधना इतनी सूक्ष्म हो जाए कि सर्व संकल्पों का अभाव हो जाए – यही है सन्यास । यदि हम मात्र गीता में प्रयुक्त यज्ञ और कर्म इन दो शब्दों का ही यथार्थ अर्थ समझ लें तो युद्ध, वर्ण व्यवस्था, वर्णसंकर,ज्ञान- योग, कर्म योग संक्षेप में संपूर्ण गीता का अर्थ हमारे लिए खुल जाए । धर्म क्षेत्र एवं कुरुक्षेत्र का भी अर्थ हम जानें , शरीर के अंत:करण में दो पुरातन प्रवृत्तियाँ हैं । आसुरी सम्पद् का बाहुल्य होने से यह शरीर कुरुक्षेत्र बन जाता है , दैवी सम्पद् के बाहुल्य से यही धर्मक्षेत्र कहलाता है । गीता के द्वादश अध्याय में आए श्लोक ग्यारह से उन्नीस तक अष्टामृत कहे गए हैं । इस धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से आचरण में ढाल लेने वाले भक्त को कृष्ण अनन्य श्रद्धा परायण श्रेष्ठ पुरुष मानते हैं । ये ही स्वरूपस्थ महापुरुष हैं । वही सुखी हैं वही वास्तव में नर( न रमण करने वाला ) हैं योग से युक्त हैं , जिनके पीछे कोई भी दुख नहीं है । जीते जी ही इस सुख की प्राप्ति का विधान गीता में कई आयामों में हमें बताया गया है । परधर्म से स्वधर्म को श्रेष्ठ बताया गया है । सजातीय वृत्तियों को उभारना ही स्वधर्म है । यहाँ का विराट दर्शन योगी के हृदय में ईश्वर के द्वारा दी गई अनुभूति है । समग्र गीता प्रकट तो हुई है भारत में पर यह विश्व मनीषा की धरोहर है । हम भी अर्जुन की तरह लड़ें, क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के संघर्ष में यदि शरीरांत हो गया तो दैवी संपद् तो हृदय में ढ़ल ही जाएगी और शरीर के रहते संघर्ष में सफल हो गए तो ब्रह्मत्व प्राप्त होगा । जीते तो सर्वस्व हारे तो देवत्व । अत: युद्ध करो अर्जुन ,उठो, सन्नद्ध हो जाओ –

हतो वाया प्राप्स्यसिस्वर्ग, जित्वा वा मोक्ष्यसे महीम ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृत निश्चय: । … गीता-2-37

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