द्रौपदी का जन्म एक अवांछित घटना थी। राजा द्रुपद की ग्यारह संतानें थी लेकिन फिर भी उन्हें एक ऐसे पुत्र की आवश्यकता थी जो उसके शत्रु आचार्य द्रोण से उस अपमान का बदला ले, जो आचार्य ने अपने शिष्यों के माध्यम से उन्हें परास्त कर और बंदी बना कर किया था। वृद्धावस्था के कारण अब राजा द्रुपद जैविक संतान उत्पन्न करने में सक्षम नहीं थे अत: उन्होंने यज और उपयज नामक पुरोहितों को उनके सौ शिष्यों के साथ काम्पिल्य से आमंत्रित किया था ताकि वे यज्ञ के माध्यम से, अग्नि के माध्यम से एक अति वीर अयोनिज पुत्र प्राप्त कर सकें।
राजा द्वारा किए गए तीस दिनों के जलाहारी अनुष्ठान और यज्ञ के बाद, आकाशवाणी होती है कि — हे द्रुपद अब तेरे कुलदेवता प्रसन्न हुए हैं और तुम्हें एक ऐसा बलिष्ठ पुत्र देंगे जो तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध लेगा। कुछ क्षणों बाद, अग्नि में से लगभग पाँच वर्ष की वय वाले सुंदर पुत्र की छवि दिखाई देती है जिसने अग्नि के समान ही चमकदार वस्त्र धारण किए हुए हैं। राजा तुरंत उस बालक को ग्रहण करने के लिए – धृष्टद्युम्न की ओर बढ़ते हैं। उसी समय दूसरी आकाशवाणी होती है – राजन, पुत्र के साथ हम तुम्हें एक विलक्षण पुत्री भी उपहार स्वरूप दे रहे हैं जो इस जम्बूद्वीप के इतिहास को बदल देगी और लोक में धर्म की स्थापना के लिए व्यापक संघर्ष करेगी। और तत्काल, अग्नि में धृष्टद्युम्न के पीछे एक साँवली-सी समवय की बालिका भी दिखाई देने लगती है।
राजा, पुत्र धृष्टद्युम्न को गोद में उठा लेते हैं पर पुत्री याज्ञसेनी पर ध्यान नहीं देते। वह भयाकुल, दृढ़ता से अपने भाई का हाथ थामें रहती है। याज्ञसेनी द्रुपद के इस व्यवहार को देख कर, स्वयं को उसी क्षण से ही अवांछित समझने लगती है। पर क्या करे, वह पृथ्वी पर, राजा द्रुपद की पुत्री के रूप में आ तो गई है।
पिता के साथ याज्ञसेनी के सम्बंध कभी भी सामान्य नहीं हो पाए। इसके अतिरिक्त उसे सदा यह भी लगता रहा कि वह सुन्दर होते हुए भी, भाई की तरह गौर वर्ण नहीं है, कृष्णा है।
याज्ञसेनी अब अपनी कहानी स्वयं कहेगी।
वह पंचकन्याओं में से एक है और उसे अपने अतीत का भी थोड़ा-सा स्मरण है।
।। याज्ञसेनी ।।
॥ याज्ञसेनी ॥
चिंतन व्यवस्था में,
न्याय क्यों नारी विमुख सा ही याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
स्त्रियों के जन्म कब चाहे समय ने,
सभ्यता ने और पुरुषों ने
बस देह ही चाही!
पुत्र की ही चाह तब से आज तक है
युद्ध का नायक बनेगा वह!
मृत्यु पर देगा वही
अग्नि, तर्पण, दान, सज्जा भी
श्राद्ध होंगे पूर्वजों के संकल्प से उसके
राज्य का स्वामी बनेगा वह
कुछ नहीं बदला!
उनको स्मरण था वह कथाक्रम —
जब राज्य प्रश्रय के लिए द्रोण आया था
स्वयं चल कर
गुरु पुत्र था वह, मित्र भी था
बालपन में साथ थे वे,
दीक्षित हुए थे एक ही दिन!
और उसको कह दिया उत्तेजना में —
एक राजा निर्धनों को
क्यों करे स्वीकार,
यदि उनका उपयोग ही न हो!
जनहित का दिखावा
घोषणा भर ही तो रहा है
हर समय में
पर द्रोण भूला ही नहीं उस वेदना को!
उद्विग्न थे राजा द्रुपद सम्मान खो कर
वह संग्राम में हारे हुए थे!
आचार्य शिष्यों ने उन्हें बंदी बना कर
राज्य आधा ले लिया था!
पुत्र की इच्छा प्रबल थी
यज्ञ में बैठे हुए थे द्रुपद
स्वस्ति वंदन हो रहा था देवताओं का
आचार्य थे यज और उपयज
धूम्र से महका हुआ था यज्ञ परिसर
मानो नृत्य अग्नि कर रहा था!
कुल देवता अब तृप्त थे हवि से
द्रुपद की याचना से
यह हुई आकाशवाणी – राजन, तुमको मिलेगा
पुत्र ऐसा जो वध करेगा द्रोण का
वीर, कर्मठ, धीर और गम्भीर भी होगा
धृष्टद्युम्न उसका नाम होगा
वही, पाँचाल का राजा बनेगा!
अग्नि में जब स्वर्ण-सी आभा लिए
बालक दिखाई दे गया
दुंदुभि बजने लगी थी
जय घोष से, चारों दिशाएं भर उठी थीं
यज्ञ लेकिन चल रहा था
काम्पिल्य से आए बटुक,
समवेत स्वर में मंत्र वाचन कर रहे थे!
याद है, राजा द्रुपद आगे बढ़े थे
गोद में धृ को उठाने
और मैं भी अयाचित सामने थी,
जन्म था यह द्रौपदी का!
अग्नि से मेरे उदय पर
हैरान थे राजा द्रुपद,
यज और उपयज!
आगमन मेरा रहा इक यक्षिणी-सा
धूम्र में नीला कमल ज्यों खिल रहा था
मैं अयाचित श्याम वर्णा
अब धरा पर आ गई थी!
यह समय का चक्र था
जो घूमता ही जा रहा था
पाँचाल-पुत्री, द्रौपदी, कृष्णा
फिर नए इस जन्म में अभिशप्त थी
भोगने को यंत्रणाएं
स्त्री बन कर!
याज्ञसेनी नाम है मेरा
अयोनिज जन्मना हूं!
कौरवों का नाश हूँ मैं!
यह आकाशवाणी जन्म पर मेरे हुई थी!
यज्ञ तो पूरा हुआ आहूति देकर
पुत्र राजा को मिला
जो शौर्य में पुरुषार्थ में उत्कृष्ट ही था
पर इस खेल से मुझ को मिला क्या?
क्या कामना की थी
किसी ने श्यामवर्णी एक पुत्री की?
स्त्रियाँ क्या मात्र हवि हैं
जो किसी भी यज्ञ में,
अग्नि में डालो, मसल दो
लालसाएं पूर्ण कर लो?
जन्म से ही उपेक्षा का
इतिहास है इस याज्ञसेनी का!
मुझे सदा संघर्ष ही करना पड़ा है
मेरी कहानी है दुखों की, यातनाओं की
पुरुष के वर्चस्व की भी
आओ सुनाती हूँ……..
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
स्त्रियों के जन्म तो होते रहे हैं
स्त्रियाँ ही जन्म देती हैं उन्हें भी
सृष्टि ऐसे ही चली है युग युगों से!
स्त्रियाँ ही राजमाताएँ,
रानियाँ पट-रानिया भी
और वे ही नगर-वधुएँ
इक असंगति सी झलकती है
हमारे धर्म में,
रहा है?
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
नलयानी मेरा नाम था
पिछले जन्म में
निषाद कुल सम्राट,
नल थे पिता मेरे
द्यूत प्रेमी,
जो जंगलों में वनवास जीते थे
और मेरी माँ अलौकिक सुंदरी थी,
श्वेतवर्णा – नाम दमयंती,
देख कर उसको
इंद्र की भी अप्सराएं मुँह छुपाती थीं
शुचिता से भरी वह श्रेष्ठता से पूर्ण थी
त्याग की प्रतिमूर्ति थी वह!
नलयानी सुंदर थी, मुखर थी
माप लेना चाहती थी – हंसिनी-सी
प्रेम का उत्ताल सागर,
अधखिली-सी कुमुदिनी थी!
मौद्गल्य ऋषि से कर दिया परिणय
क्योंकि ऋषि यह चाहते थे
कौन सुनता बात उसकी
राज पुत्री हो भले ही,
अंततः तो स्त्री ही थी
कुष्ठ रोगी थे ऋषिश्वर,
वृद्ध थे, बीमार भी थे
प्रेम क्या अभिसार क्या
रुक्षता, दुत्कार ही था
और मेरी कुंडली में
शुक्र भी तो अस्त ही था!
काम सुख वंचित कली मुरझा रही थी
किंतु धीरज बाँध कर अपने हृदय से
डमगाती, कर्मपथ पर
बस चली ही जा रही थी
एक दिन मौद्गल्य ने देखा ने उसे
करुणा जनित सद्भावना से
अनुभव किया दुख की लकीरों को
मांग लो वरदान कोई
कह दिया उससे!
क्या मांगती नलयानी बोलो
अपने पति से इस अवस्था में?
चिंतित हुई वह,
जानती थी बहुत क्षमता है ऋषि में
उनके लिए बनना युवक भी है नहीं मुश्किल
क्यों न सुखों को जी लिया जाए!
मांग बैठी काम सुख
और तृप्ति वासना की
वह डूब जाना चाहती थी
कामना के उन अनूठे कलरवों में!
वचन से आबद्ध थे मौद्गल्य क्या करते
पर ज़रा भी मन नहीं था वासना में
नलयानी डट कर तैरती थी
उस समंदर में
जो थका था किसी पोखर–सा!
एक दिन झल्ला उठे मौद्गल्य
अक्सर हार जाता था पुरुष उनका
उस नव यौवना से!
बोले – शाप देता हूँ तुम्हें!
वासना जितनी लिए हो
पाँच पुरुषों को भी थका दोगी
बनोगी पाँच पुरुषों की प्रिया तुम
लो तुम्हें मैं, इसी पल
अब भस्म करता हूँ!
इतिहास में जब भी स्वयं से हारता है पुरुष
भस्म होती है कोई नारी
उन पुरुषों के कितने उदाहरण दूँ
नाम गिनकर क्या करोगे?
और मैं अब याज्ञसेनी
आत्मा नलयानी की भीतर समेटे
आ गई हूँ, द्रुपद कुल में
मेरी कथा यह
धैर्य से सुनते रहो तुम!
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
जब यज्ञ की अग्नि से द्रौपदी का जन्म हुआ तो वह लगभग पाँच वर्ष की कन्या थी। वह अयोनिजा थी क्योंकि उसे किसी माँ के गर्भ में रहने का अवसर नहीं मिला था। यज्ञ की समाप्ति पर राजा द्रुपद ने पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री याज्ञसेनी के लिए एक अलग महल और स्नेहमयी धाय का प्रबंध कर दिया। धीरे धीरे समय व्यतीत होने लगा और द्रौपदी सांसारिक सम्बंधों का सत्य समझने लगी। वह अपने स्मरण रह गए अतीत की छाया से भी मुक्त होने लगी। जब वह अपने महल के आस पास सेवकों के शिशुओं को देखती तो निराशा और आक्रोश से भर जाती, उसे अपने शैशव के न होने का दुःख होता। द्रौपदी के चरित्र को समझने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है कि उसे माता-पिता के वात्सल्य का किंचित मात्र भी अनुभव नहीं था। उनके महल में भी पिता द्रुपद की अन्य पत्नियाँ तथा संताने प्रायः नहीं आती-जाती थीं। वे दोनों भाई बहन इस दृष्टि से बहुत अकेले थे। माँ तथा अन्य बहनों के अभाव में द्रौपदी ने सभी सम्बंधों को अपने भाई की दृष्टि से ही समझा और मुझे लगता है द्रौपदी के व्यवहार में आगे भी दृढ़ता और संघर्ष की शक्ति इस पुरुष वृत्ति का ही परिणाम है।
कुछ वर्षों के बाद याज्ञसेनी किशोरावस्था को पार कर यौवन की ओर अग्रसर हो रही थी। पिता ने उन दोनों के लिए योग्यतम शिक्षकों की व्यवस्था की थी जो उन्हें भाषा, इतिहास, काव्यों और दर्शन आदि की शिक्षा दे रहे थे। उनके महल में कई बार शास्त्रार्थ भी होता था जिस में द्रौपदी उत्साह से भाग लेती थी। उसकी चिंतन दृष्टि से गुरुजन भी आश्चर्य चकित हो जाते थे। धृष्टद्युम्न को युद्ध की शिक्षा भी मिलने लगी थी और द्रौपदी नृत्य, संगीत, चित्रकलाआदि सीख रही थी।
वह साँवली कृष्णा अब अत्यंत मादक स्त्री में परिवर्तित हो रही थी। राज्य के कवियों में उसके रूप और यौवन की निरंतर चर्चा थी। उसके जन्म के समय हुई भविष्यवाणी से तो सभी परिचित ही थे। सभी को विश्वास था कि याज्ञसेनी एक विलक्षण स्त्री बनने की प्रक्रिया में है। आईए, सुनते हैं याज्ञसेनी से उसकी अपनी कथा
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
वैभव सिराहने से लगा कर
रात भर सोई नहीं हूँ
चंद्रमा की रौशनी में
स्मरण करना चाहती हूँ
उन पलों को
जो छिपे होंगे कहीं
मेरा अघोषित भूत बन कर
आश्चर्य है,
शैशव विहीना, मैं हुई हूँ क्यों!
महल की प्राचीर के नीचे
उषा की लालिमा में
भूख से व्याकुल
रो रही है एक कन्या
बहुत छोटी, बहुत नाजुक;
माँ स्नेह से व्याकुल लपकती है
हृदय से बाँध लेने को
अपलक देखती है
द्रौपदी इस स्नेह बंधन को
मधुर वात्सल्य का रस है!
चहकते पक्षियों से
ताल पूरा भर गया है
वे पथिक हैं, दूर उड़ कर जा रहे हैं
प्रशस्ति में वरुण की
कूकते हैं वे ऋचाएं
और बादल राग में
मल्हार किंचित गा रहे हैं
मोगरे के फूल सा महका,
खिला मन है
हवा भी कसमसाती है,
द्रौपदी इस भोर में
कुछ गुनगुनाती है!
पुष्प कितने ही खिले हैं
महल के उद्यान में
इंद्रधनु ज्यों आ गया है
मलय के संज्ञान में
एक बाला चाहती है
पकड़ लेना तितलियों को
दौड़ती है, खिलखिलाती है
बहुत निश्छल;
धक्क से होता हृदय है द्रौपदी का,
हे प्रभो! कहाँ है बालपन मेरा?
क्या उदासी
और कुछ संताप ही मेरे लिए है
कौन समझेगा असम्भव भावनाएं
जो इस समय
मेरे हृदय को मथ रही हैं!
मनुष्य का यह जन्म कैसा
यदि अवस्थाएं सभी
तुम जी नहीं पाए
व्यर्थ है धिक्कार है यौवन तुम्हारा
स्नेह माता का
अगर तुम ले नहीं पाए
मेरी कहानी
इस दुख का संतृप्त दर्शन है!
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
द्रुपद चिंतित हैं,
पिता हैं एक पुत्री के
जिसे पाया सुकन्या रूप में
अब हो रही परिपक्व और विकसित!
सनातन संस्कृति और परम्पराओं की
उसे शिक्षा दिलाना भी ज़रूरी है!
आचार्य श्री बैठे हुए हैं उच्च आसन पर
पाठ करते उन ऋचाओं का जिन्हें
संचित किया था पूर्वजों ने
ज्ञान और आदर्श देने को
अर्थ जीवन का दिखाने को
मुदित मन सुन रही हूँ मैं
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
ऋषिवर पूछते हैं—-
कहो पांचाली तुम्हारी दृष्टि में
विन्यास क्या है मनुज जीवन का?
धर्म के संदर्भ कितने दूरगामी हैं?
पुरुष का आचरण क्या है
और मर्यादा बताओ स्त्रियों की तुम?
हे, ऋषिश्वर,
मनुज जीवन
नदी के जल सरीखा सिंधु गामी है
धर्म पथरीला गहन जंगल
पुरुष का आचरण है क्रूर
जिसमें वासना, लिप्सा बसी हैं
आश्चर्य है, इस सभ्यता को
हम स्त्रियाँ तब भी बचाए हैं!
हतप्रभ हैं ऋषिश्वर,
द्रौपदी के ज्ञान के आगे
उन्हें संज्ञान होता है,
याद आती हैं ऋचाएं
जो लिखीं थी मुनि नारद ने
और कितने ही पुराणों में ;
कहा है — याज्ञसेनी, यौगिक अवतार है
धर्म की पत्नी श्यामला का
वायु पत्नी भारती का
इंद्राणी शचि का
अश्विनी भार्या उषा का
और देवी पार्वती का
पंच यौगिक ज्ञान की प्रतिमूर्ति है
यह सुगढ़ नारी
कैसे पढूं
जो कुछ लिखा है भाग्य में इसके!
द्रौपदी ने ज्ञान के
अध्याय सारे पढ़ लिए थे
और दीक्षित हो गई थी
समय की जीवन विधा में
स्तुति शिव की गा रही थी
और आगे बढ़ रही थी वह
तपस्या में!
वीर उसको चाहिए पति रूप में
चौदह गुणों का पुंज हो जो
वह, स्नेह दे सम्मान दे
उसको हृदय से!
वह गुणी थी, श्यामला थी,
सौंदर्य का प्रतिमान भी थी
तप गया था भुवन सारा
साथ उसके इस तपस्या में
शिव बड़े गहरे फँसे थे और चिंतित थे
वह पुरुष खोजूँ कहाँ से
सर्वगुण सम्पन्न हो जो?
पर द्रौपदी हठ पर अड़ी थी!
द्रौपदी क्या थी, स्त्री भर थी?
अंग और प्रत्यंग
क्या कुछ भिन्न थे मेरे?
व्यास का आनंद अपने चरम पर था
चित्र मेरा गढ रहे थे वह आँख मूँदे
श्लोक कितने ही गढे थे
सौंदर्य लिप्सा के
आदिपर्व – क्या श्री की स्तुति भर ही था!
पुरुष की इस लालसा को,
घोर आदिम वासना को
मैं समझती हूँ,
हज़ारों वर्ष से मैं,
स्त्री ही तो हूँ!
लो सुनो क्या व्यास कहते हैं –
नयन मेरे मद भरे हैं, किसी भँवरे से
और पलके पुष्प की कलियाँ
केश ज्यों काली घटाएं हों
नील उत्पल सा खिला चेहरा
और होठों पर सुलगते पुष्प दाडिम के!
वक्ष कुछ उभरे हुए उत्तुंग
और जंघाएं स्फटिक सी
कटि सूक्ष्म किंतु भास्वित है
शब्द मानों शहद टपका हो
निशा में चंद्रमा से
मैं, श्यामवर्णी कामिनी हूँ
गंध जिसकी फैलती है दूर तक
उच्छवास कुछ महके हुए हैं
कवि व्यास की मैं द्रौपदी हूँ!
आश्चर्य है मुझको बहुत
देख कर यह चित्र मेरा!
क्या स्त्रियाँ बस
देह, रस और गंध भर ही हैं ?
इसी छवि के साथ
जीने के लिए अभिशप्त हूँ, मैं
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
इस प्रश्न के संधान में व्याकुल बहुत हूँ
नारियाँ निजता गंवा कर भी
क्यों चाहती हैं पुरुष प्रश्रय ?
मैं क्यों तपस्यारत रहीं
ऐसे पुरुष की कामना में
जो गुणी हो, धीर हो गम्भीर भी हो?
क्या यह नहीं सम्भव
स्त्रियाँ सीख लें वे सब कलाएं
जिन कलाओं का पुरुष उपयोग करते हैं
हो यंत्रणा से मुक्त मानवता धरा पर
और अपने आचरण से
हम विश्व का नियमन करें!
आचार्य ने गम्भीर होकर कहा –
याज्ञसेनी, चिंतन तुम्हारा तर्क संगत
और जनहित से भरा है
किंतु पुत्री, हम पुरुष ही
भोगते हैं राज्य पृथ्वी का
यही क्रम चल रहा है युग युगों से
सहस्रों वर्ष से
जो भोगते आए विजय-ऐश्वर्य
उसे क्या छोड़ देंगे
न्याय संगत तर्क के बल पर?
ज्ञान संचित है तुम्हारे संस्कारों की
सलिल परिकल्पना में
किंतु स्त्रीबोध से ही
तुम नियंत्रित कर सकोगी
उस दरकती सभ्यता को
जिसका अंत द्वापर से जुड़ा है
स्त्रियाँ खिलता कमल हैं
और अग्नि वर्षा भी
याज्ञसेनी इस सभ्यता की
अब तुम नियंता हो!
गुरु के द्वार पर ठिठकी खड़ी हूँ, मैं
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
पाँचाल में द्वारका नरेश श्रीकृष्ण आए हैं। वह राजा द्रुपद की अतिथिशाला में ही ठहरे हैं। याज्ञसेनी की धाय माँ उसे बताती हैं कि श्रीकृष्ण इस समय के आदर्श पुरुष हैं। उनसे अधिक पराक्रमी, गुणी और शास्त्रज्ञ पुरुष इस समय कोई दूसरा नहीं है। वे सदैव धर्म की स्थापना के लिए तत्पर रहते हैं। द्वारका में उनकी आठ पटरानियाँ और अनेक रानियाँ हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि कृष्ण किशोरावस्था में, ब्रज प्रदेश के वृन्दावन धाम में कदम्ब के पेड़ों के नीचे रास रचाते थे। उनकी बाँसुरी की धुन सुनते ही गोपियाँ अचेतावस्था में अपने घरों से निकल कर उनके समीप आ जाती थीं। हर गोपी, कृष्ण को इस नृत्य आयोजन में अपने साथ ही नृत्य करता अनुभव करती थी। याज्ञसेनी कृष्ण के जीवन को इस प्रकार से जान कर अभिभूत हो जाती है। उसे लगता है, कृष्ण और कृष्णा में कोई सम्बंध तो होना ही चाहिए। द्रौपदी इस अलौकिक प्रेम से ही अपने जीवन में, प्रेम का पहला पाठ सीखती है। वह पति रूप में कृष्ण जैसे पुरुष का ही स्वप्न देखती है। आईए मिलते हैं पाँचाली से!
नील पद्मों के महकते ताल पर
संध्या ठहरती है,
लौटते खग वृन्द
करते जुगलबंदी
पवन शीतल बह रही है!
याज्ञसेनी खो गई है
कल्पना के गहन वन में!
एक मनहर साँवला सा पुरुष,
उस के द्वार पर,
बैठा है, प्रणय की याचना में!
देव मंदिर के हृदय में
दीप के आलोक की नव अल्पना में
बाँसुरी-सी बज रही है!
स्नेह की गागर लिए
पीछे खड़ी है धाय माता,
जो जानती है –
स्त्रियाँ इस वय:संधि पर
गहन संवेदना की नदी बन कर
पर्वतों की गोद से
अनजान राहों पर
सदा नीचे फिसलती हैं,
भाग्य जितना भी प्रबल हो,
वे अंततः होकर शिथिल
खारे समंदर तक पहुँचती हैं!
कल रात चर्चा में रहे थे कृष्ण,
राजा द्वारका के,
श्रेष्ठतम योद्धा, गुणों के पुंज
जो हैं कुशल उद्घोषकर्ता धर्म-नीति के,
वह अतिथि बन कर
इन दिनों पाँचाल में आए हुए हैं!
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
मैं जानती हूँ, कुछ अर्थ तो होगा
पिता ने यज्ञवेदी पर
कहा था जब मुझे कृष्णा,
कृष्ण से मेरा
पवन और गंध-सा ही
कुछ अनूठा जादुई
सम्बंध तो होगा!
धाय माता ने बताया था –
कृष्ण की पटरानियाँ हैं आठ
और उनकी प्रेमिकाएं हैं हज़ारों
जो आज भी बाँसुरी की धुन
सहेजें कर्ण-पट पर,
वृन्दावन की कदम्ब कुंजों में
यमुना किनारे जी रही हैं!
मैं समझती हूँ
यह सम्बंध काया से परे
है आत्मा का!
पुरुष की अभ्यर्थना को
कृष्ण की छाया तले मैं आज
अनुभव कर रही हूँ!
पुरुष मुझको चाहिए पति रूप में
बस कृष्ण-सा ही
याज्ञसेनी मैं,
स्वयं से कह रही हूँ!
आज कृष्णा के हृदय से
फूटता है काव्य
जिसके अर्थ की गहराईयाँ हैं
अतल सागर सी
शब्दों में चमकते बिम्ब भी हैं
और रूपक भी!
अश्रु अविरल बह रहे हैं
भीगती है रात की चुनरी
सजी सुंदर सितारों से,
इस प्रेम के मधुपर्क का अनुभव
धरा, पहली फुहारों में
मुदित मन से लजा कर रही है!
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
कृष्ण राजा द्रुपद के साथ आज द्रौपदी के महल में आने वाले हैं। कृष्णा ने अभी तक कृष्ण को कल्पना में ही देखा है। वह सुबह से स्वयं पुष्प चुनकर शिव की पूजा बड़े मनोयोग से करती है। कृष्ण को भेंट करने के लिए भी एक पुष्प-हार तैयार करती है। इस अवसर पर द्रौपदी अत्यंत शालीन श्वेत वस्त्र धारण करती है। वह उन सामान्य राजकुमारियों की तरह नहीं है जो अपने सौंदर्य के बल पर ही किसी पुरुष को प्रभावित करने की चेष्टा करती हैं। द्रौपदी भली-भाँति जानती है कि वह सुशिक्षित और अनेक कलाओं में निपुण है। वह आत्मसम्मान से भरी है पर इन क्षणों मे आत्मविश्वास पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है।
मैं, उत्कंठा लिए अपने हृदय में
प्रतीक्षा कर रही हूँ
उस सखा की द्वार पर
जो सूर्य है ब्रह्मांड का!
कर्म उसके सृजित करती हैं
बुद्धि-मेधा और करुणा
वह अलौकिक वीर है
संसार का!
बस चरण ही देख पाती हूँ
जो ठिठकते हैं अचानक द्वार पर
इंद्रधनु-सा नील नभ पर उदय होता है,
कृष्ण मेरे सामने हैं!
पुष्पवेणी मेरे करों से छूट कर
स्पर्श करती है उनके चरण
वाणी रुद्ध होती है,
बस मेरे ओष्ठ कहते हैं, प्रणाम!
स्नेह से परिपूर्ण मधुकर बोल उठते हैं -
कृष्णा, क्यों लजाती हो,
मैं तो तुम्हारा ही सखा हूँ!
जानता हूँ, तुम अनूठी हो,
विदूषी अग्नि पुत्री हो!
तुम्हारे जन्म का है
अर्थ अभिनव और विलक्षण
इस समय में,
सामान्य स्त्री हो नहीं तुम!
धर्म की संस्थापना
व्यापक विषय है इस जगत में,
हम इसी मंतव्य से भेजे गए हैं
इस धरा पर!
कृष्ण और कृष्णा
बंधे हैं एक ऐसे सूत्र में
देख लेना, महाभारत जन्म लेगा
अब हमारे सोच से!
द्रुपद कुछ हैरान हैं
इस वार्ता को देख सुन कर,
कृष्ण से अनुरोध है उनका –
हे वीर, कृष्णा हो गई है निष्णात
अब वर चाहिए इसको
वीर, धीर, प्रबुद्ध तुम जैसा,
कहो अब क्या करूँ मैं?
राजन, अयोनिज बालिका है याज्ञसेनी
स्वयंवर के बिना
परिणय नहीं सम्भव!
जिस वीर को कृष्णा चुनेगी
वह विष्णु, शिव, ब्रह्मा
और इंद्र की सब शक्तियों का पुंज होगा,
पांडव पुत्र
वह होगा धनुर्धर
वीर अर्जुन
उसका नाम होगा!
स्मरण होगा आपको राजन,
आचार्य द्रोण के आदेश पर
जिसने बंदी बनाया था आपको,
उनका वही प्रिय शिष्य
अर्जुन था!
कृष्ण लेते हैं विदा मुझ से
स्नेह से छूकर मेरा मस्तक!
राजा द्रुपद को सांत्वना है
यह नया सम्बंध
जो पराजय की व्यथा से
उनको मुक्त कर देगा!
मैं फिर वहीं हूँ, महल के द्वार पर,
अब जा रहे हैं कृष्ण
अपनी व्यूह रचना कर!
खिन्न हूँ मैं,
इस भयावह कालक्रम में
बन गई हूँ एक कठपुतली,
समय की डोर खींचेगा
न जाने कौन?
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
—– राजेश्वर वशिष्ठ