मुख्य ग्रंथः महाभारत-शैल अग्रवाल

11 mahabharat

भारत के सबसे प्रसिद्ध महाकाव्यों में से एक है महाभारत। विस्तार और शब्दों की संख्या में यह होमर की ओडेसी से भी कहीं अधिक बड़ा है।

सर्वप्रथम् वेदव्यास द्वारा रचित एक लाख श्लोको और १०० पर्वो का “जय” महाकाव्य, जो बाद मे महाभारत के रुप मे प्रसिद्ध हुआ। सम्भावित रचना काल-(३१०० इसवी ईसा पूर्व)

दूसरी बार व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा पुनः इसी “जय” महाकाव्य को जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि मुनियो को सुनाया तब यह वार्ता “भारत” के रुप मे जानी गायी। सम्भावित रचना काल-( ईo ईसा से 3000 साल पूर्व)

तीसरी बार फिर से ‍वैशम्पायन और ऋषि मुनियो की इस वार्ता के रूप मे कही गयी “महाभारत” को सुत जी द्वारा पुनः १८ पर्वो के रुप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि मुनियो को सुनाना। सम्भावित रचना काल-(२००० इसवी ईसा पूर्व)

सुत जी और ऋषि मुनियो की इस वार्ता के रुप मे कही गयी “महाभारत” का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत मे हस्तलिखित पाण्डुलिपियो के रुप मे लिपी बद्ध किया जाना| सम्भावित रचना काल-(१२००-६०० इसवी ईसा पूर्व)

इसके बाद भी कई विद्वानो द्वारा इसमे बदलती हुई रीतियो के अनुसार फेर बदल किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियो मे कई भिन्न भिन्न श्लोक मिलते है, इस समस्या से निजात पाने के लिये पुणे मे स्थित भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियो (लगभग १०,०००) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी मे एक ही समान पाये जाने वाले लगभग ७५,००० श्लोको को खोज निकाला और उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया, कई खण्डों वाले १३,००० पृष्ठों के इस ग्रंथ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया।

सत्यवती और महर्षि पराशर के पुत्र वेदव्यास ने रचा था इस महाग्रंथ को और कई विद्वान इसे पांचवाँ वेद मानते हैं। न सिर्फ नैतिकता, अच्छे और बुरे कर्म व उनका परिणाम समझाने की कोशिश की गई है, विजय अंत में सत्य की ही होती है क्योंकि सत्य के साथ ही ईश्वर होता है यह भी समझाने की कोशिश की गई है इस किताब में । हिन्दुओं का यह प्रमुख काव्य ग्रंथ है और स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल “भारत” कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है और इसे यद्यपि साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय प्रेरणा स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है और गीता का आज भी वही महत्व है भारतीय संविधान में जो अन्य देशों में बाइबल या कुरान का है। इसपर हाथ रखकर आज भी सच बोलने की कसम खाई जाती है।

पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक है। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार मान्यता है कि वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया था। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पन्द्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ।
हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्यमें वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र,शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं

महाभारत के कई भाग हैं जो आमतौर पर अपने आप में एक अलग और पूर्ण पुस्तकें मानी जाती हैं। मुख्य रूप से इन भागों को अलग से महत्व दिया जाता है:-
1. भगवद गीता श्री कृष्ण द्वारा भीष्मपर्व में अर्जुन को दिया गया उपदेश।
2. दमयन्ती अथवा नल दमयन्ती, अरण्यकपर्व में एक प्रेम कथा।
3. कृष्णवार्ता : भगवान श्री कृष्ण की कहानी।
4. राम रामायण का अरण्यकपर्व में एक संक्षिप्त रूप।
5. ॠष्य ॠंग एक ॠषि की प्रेम कथा
6. विष्णुसहस्रनाम विष्णु के १००० नामों की महिमा शान्तिपर्व में।

महाभारत के दक्षिण एशिया मे कई रूपान्तर मिलते हैं, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैंड, तिब्बत, बर्मा (म्यान्मार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत मे अधिकतम १,४०,००० श्लोक मिलते हैं, जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर मे १,१०,००० श्लोक मिलते हैं। महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का सन्दर्भ भी आता है जैसे चीन का गोबी मरुस्थल, मिस्र की नील नदी,, लाल सागर हैं तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है,

“सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्। ”
—वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश (खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है:

महाभारत में कई घटना, संबंधों और ज्ञान-विज्ञान के रहस्य छिपे हुए हैं। महाभारत का हर पात्र जीवंत है, चाहे वह कौरव, पांडव, कर्ण और कृष्ण हो या धृतदुमन्य, शल्य, शिखंडी और कृपाचार्य हो। महाभारत सिर्फ योद्धाओं की गाथाओं तक सीमित नहीं है। महाभारत से जुड़े शाप, वचन और आशीर्वाद में भी कईृ-कई रहस्य छिपे हैं।

कई रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य मिलते हैं हमें इस किताब से। पृथ्वी का मानचित्र जैसी कि वह अंतरीक्ष से दिखता है वह ज्यों का त्यों अंकित है। यही नहीं पृथ्वी से सूरज और चांद आदि अन्य ग्रहों की दूरी करीब-करीब सही संख्या में है। सारे घटनास्थल आज भी भारत में मौजूद हैं।
एक रहस्य अट्ठारह की संख्या का भी है। महाभारत की कई घटनाएँ 18 की संख्या से जुड़ी हुई हैं।
1: महाभारत की पुस्तक में 18 पर्व (अध्याय) हैं।

आदि पर्व, सभा पर्व, वन पर्व, विराट पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, अश्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशाशन पर्व, मौसल पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, स्वर्गारोहण पर्व तथा आश्रम्वासिक पर्व।

2: कृष्ण ने 18 दिन तक अर्जुन को ज्ञान दिया था और गीता में अठ्ठारह अध्याय हैं- अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानकर्मसन्यासयोग, कर्मसन्यासयोग, आत्मसंयमयोग, ज्ञानविज्ञानयोग, अक्षरबृहामयोग, राजविद्यराजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शनयोग, भक्तियोग, क्षेत्र, क्षेत्रविभागयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग, दैवासुरसम्पद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग, मोक्षसन्यासयोग

3: महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक हुआ था।

4: कौरवों और पांडवों की सेना में 18 अक्षोहिनी सेना थी जिनमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 अक्षोहिनी सेना थी।

5: इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 ही हैं।
धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दुह्शासन, कर्ण, शकुनी, भीष्मपितामह, द्रोणचार्य, कृपाचार्य, अश्वस्थामा, कृतवर्मा, श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी एवं विदुर।

6: महाभारत के युद्ध के पश्चात् कौरवों के तरफ से तीन और पांडवों के तरफ से 15 यानि 18 योद्धा ही जीवित बचे थे।

7: महाभारत को पुराणों जितना सम्मान दिया जाता है और पुराणों की संख्या भी 18 ही है।

शायद नौ अंक अपने में संपूर्ण है या फिर ज्योतिष शास्त्र में नौ अंक सेनापति का द्योतक है और महाभारत का ग्रंथ तो निश्चय ही एक युद्ध की गाथा है ; वजह जो भी हो यह अठ्ठारह का अंक सिर्फ महाभारत में ही नहीं, वेदव्यास की सभी रचनाओं से जुड़ा हुआ है।

आशीर्वाद और श्रापों का चमत्कार तो है ही, उनकी वजह से कहानियों के अंदर से कई कई और पिछले जनम की कहानियाँ भी निकल आती हैं, जो कि ग्रंथ को और भी रोचक और रहस्यमय बनाती हैं।

करीब 35 हजार साल पुरानी इस कहानी में यह दिखलाया गया है कि कैसे अंधी महत्वाकांक्षा और परिवार की पारस्परिक ईर्षा निम्नतम अंधेरों में ले जा सकती है और कैसे एक बृहद और पराक्रमी कुल तक का सर्वनाश कर सकती है। कौरवों के अंदर अपने चचेरे भाई पाण्डवों के प्रति पनपती इर्षा ही इस कुलविनाशी युद्ध का कारण बनी और यह युद्ध परिवार के बीच हस्तिनापुर के साम्राज्य को लेकर बिगड़ते रिश्तों की वजह से हुआ। यूँ तो लालच ईर्षा और जलन ने बचपन से ही कौरवों को पाण्डवों से अलग कर दिया था परन्तु पांचाल नरेश की पुत्री द्रौपदी से पांचों पाण्डवों के विवाह उपरान्त इनके बीच कुछ ऐसी बातें हुयीं, जिन्होंने इस आग को और भड़काया और इस भयंकर युद्ध की आधारशिला रख गई । कई घटनाएं इंगित करती हैं कि यज्ञकुण्ड से उत्पन्न द्रौपदी महाभारत के युद्ध का बड़ा कारण थी और कौरवों को अपने पापों की सजा दिलाने के लिए ही उसका जन्म हुआ था।

शुरुवात पाण्डवों के इंद्रप्रस्थ महल से हुई। इसकी रचना मय दानव ने की थी जहाँ हर चीज ही मायावी थी। जल में थल और थल में जल का भ्रम होता था। जब युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो रहा था तो दुर्योधन भी पहुँचा और महल के मायाजाल में फंसकर तालाब को फर्श समझकर वह उसमें गिर गया। द्रौपदी ने ‘ अंधे की औलाद भी अंधी’ कहकर भरी सभा में उसका खूब उपहास किया था और तब वहीं, उसी पल दुर्योधन ने प्रण किया कि वह इस अपमान का बदला अवश्य ही लेकर रहेगा।

दूसरी घटना कौरवों और पाण्डवों के बीच द्यूत क्रीड़ा की थी, जिसमें शकुनी मामा के चाल भरे पासों के चलते युधिष्ठिर अपना समस्त राजपाट ही नहीं, द्रौपदी को भी हार गए थे। तब भीष्म पितामह, विदुर और उसके पांचों पतियों के समक्ष ही रजस्वला द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटकर सभा में लाया गया था, निर्वस्त्र करने की कोशिश की गई थी। कर्ण ने पांच पतियों की पत्नी वैश्या ही तो कही जाएगी-कहकर उसका अपमान किया था और दुशासन ने उसे अपनी जांघ पर बिठाने की कोशिश की थी। तब अपमानित द्रौपदी ने अपने पतियों को ललकारा था कि यदि वे शूरवीर हैं तो पत्नी के अपमान का बदला लें और दुशासन का वध करके उसका खून लाकर उसे दें, तभी वह अपने बालों को इसके रक्त से धोकर बांधेगी वरना आजीवन खुला ही रखेगी।

वह उनके साथ अज्ञातवास पर भी इसीलिए गई थी, ताकि उसके खुले बाल उन्हें दुशासन के कुकर्म और उसके द्वारा उनसे मांगा हुआ उसका वध वाला वचन उन्हें याद दिलाते रहें। इसी अज्ञातवास काल में जयद्रथ की नजर द्रौपदी के अद्वितीय रूप पर पड़ी थी और अकेली पाकर पहले तो उसने उसे बातों द्वारा बहलाने फुसलाने की कोशिश की थी, तरह-तरह के प्रलोभन दिए थे, परन्तु जब द्रौपदी उसके साथ नहीं गई तो बात न बनती देखकर, कामांध जयद्रथ द्रौपदी को जबर्दस्ती अपहरण करके ले गया था। पता चलते ही पांचों पाण्डवों ने उसका पीछा किया और उसे पकड़ लिया। मारा इसलिए नहीं क्योंकि वह कौरवों की एकमात्र बहन दुशाला का पति था, जिसे अर्जुन भी अपनी बहन मानते थे। पांडवों द्वारा पीटे जाने पर और भीम द्वारा सिर मूंडकर पांच चोटी छोड़कर कुरूप व तिरस्कृत करके समाज में मुंह दिखाने लायक न छोड़ दिए जाने पर जयद्रथ ने बहुत अपमानित महसूस किया और वह अपने इस अपमान को आजीवन नहीं भूल पाया। उसने इसका बदला कुरुक्षेत्र में निहत्थे और चक्रव्यूह में फंसे द्रौपदी और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को मारकर लिया।
कोई द्रौपदी को तो कोई भीष्म को तो कोई धृतराष्ट्र को इस महाभारत का असली कारक मानता है परन्तु शायद इसकी नींव इनसे भी पहले सत्यवती की महत्वाकांक्षा में पड़ चुकी थी।

शुरु से अंत तक प्रतिशोध और प्रतिबद्धता की ही कहानी है महाभारत। जहाँ अभिमन्यु और एकलव्य की प्रतिबद्धता आँखों में आँसू लाती है, सत्यवती की हैरत में डाल देती है, भीष्म की हताशा से भर देती है, शकुनी की आक्रोष से।

भीष्म इसलिए कुछ नहीं बोले थे क्योंकि हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति वचनबद्ध थे वे। और शकुनी मामा इसलिए शकुनी मामा बने क्योंकि उनके पिता ने उनके भूखे भाइयों का गोश्त खिलाकर उन्हें जीवित रखा था ताकि वह परिवार के अपमान का बदला ले सके। साथ में उनकी टांग भी तोड़ दी थी कि उठते-बैठते. चलते-फिरते शकुनि को याद रहे कि बहन की ससुराल में क्यों पड़ा है वह।

कहते हैं पुराने जमाने में कन्या पक्ष के लोग तबतक ही बेटी की ससुराल में रहते थे जबतक उनकी आवभगत होती थी या खाना मिलता था। भीष्म गान्धारी के मायके वालों से इसलिए नाराज हो गए थे क्योंकि उन्होंने एक विधवा से उनके भतीजे धृतराष्ट्र की शादी कर दी थी। विधवा इसलिए क्योंकि गान्धारी की पत्री में लिखा था कि उसके पति की मौत हो जाएगी और तब धृतराष्ट्र के साथ शादी से पहले एक पशु से उसकी शादी करके उसकी बलि दे दी गई थी। ( सिर्फ गान्धारी की आंख पर ही पट्टी नहीं बंधी थी और भी कई पट्टियाँ थीं इस कहानी में जिन्होंने गान्धारी के पिता को स्वयं उन पासों में ला बिठाया था और कुरु परिवार के विनाश का बड़ा कारण बना।

गलत लोगों का साथ कैसे योग्य पुरुषों का भी पतन और विनाश करता है महाभारत इसका भी ज्वलंत उदाहरण है। कर्ण, द्रोण और अश्वत्थामा सभी योग्य और वीर आत्माएँ थीं। पर दुर्योधन का साथ देकर उन्होंने भी दुख सहे। सच और धर्म का साथ देने का साहस सिर्फ दोनों दासीपुत्र विदुर और युयुत्सु में ही था।

महाभारत में सिर्फ पुरुष ही नहीं कई महिलाओं के भी अमर चरित्र हैं जिन्होंने साहस और बुद्धि का अद्भुत परिचय दिया है। ये हमें याद दिलाती हैं कि जिन्दगी कैसे निर्भीकता से जीनी चाहिए। यह महिलाएं अपने समय से बहुत आगे थीं और पुरुषसत्तावादी समाज के खिलाफ अपनी आवाज़ उठना जानती थी। मुखर, साहसी, वफादार, और जीवन के प्रति पूर्णतः समर्पित महिलाएँ थीं ये। पुरुषों के समाज में सर्व शक्तिशाली पुरुषों की परवाह न करते हुए अपनी शर्तों पर उनके साथ रहीं और जीवन जिया इन्होंने। अबला नहीं सबला थीं ये। सत्यवती, कुंती, गान्धारी, उल्लूपी आदि कई ऐसे चरित्र हैं जो आज भी स्त्री और पुरुष दोनों को ही बहुत कुछ सिखा सकती हैं। एक और बात जो मुझे बहुत अच्छी लगी इस महा ग्रंथ में वह थी कि दोस्ती के रिश्ते को सर्वोपरि महत्व दिया गया है , चाहे वह कृष्ण और अर्जुन के बीच हो, दुर्योधन और कर्ण के बीच हो या फिर कृष्ण और द्रौपदी का हो। हर रिश्ता पूर्णतः वफादार और बेमिसाल है।
केदारनाथ से लेकर कन्या कुमारी तक आज भी चाहे जिधर हम भ्रमण पर जाएँ , महाभारत की कथा के भग्नावशेष और स्मृति चिन्ह हमें चारो तरफ बिखरे नजर आते हैं। विश्व के अन्य देशों में जो बाइबल और कुरान की इज्जत है वही भारत में रामायण और गीता की। भारत के आज भी दो सर्वाधिक मान्य और पढ़-अनपढ़ सभी में बेहद जन प्रचलित ग्रंथ हैं रामायण और महाभारत। भारतीय परिवार और संस्कृति का अहम हिस्सा हैं ये। अब तो बारबार इनका मंचन और टेलीकास्ट सब कुछ हुआ है और सभी ने बेहद मनोयोग से इसे देखा भी है, फिर भी कई अन्य भारतीय परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी घर पर महाभारत का ग्रंथ ऱखने की मनाही थी । गीता और रामायण तो थीं पर महाभारत नहीं, जबकि गीता महाभारत का ही हिस्सा है। दादी का कहना था कि कलह का घर है यह किताब। भरापूरा परिवार था जहाँ दादा, दादी, ताऊजी, ताई जी और चाचा चाची के साथ हम सभी खुशी-खुशी और प्रेम से रहते थे। छोटे-मोटे मतभेद और नाराजगी तो अक्सर ही हो जाती थी जो कि –जहाँ चार बरतन होंगे, खड़केंगे ही- इस कथन के साथ सुलझ भी जाती थी, पर वैमनस्य के लाक्षाग्रह और चक्रव्यूह नहीं बन पाए कभी परिवार में । तब बचपन में समझ में नहीं आती थी दादी की वह बात पर अब समझ में आती है । जहाँ भाईभाई का वध करने का प्रयास करे, तरह-तरह की धोखाधड़ी करे, भाभी के साथ मर्यादा का उल्लंघन करे वह किताब अपरिपक्व और कच्ची उम्र के बच्चों से दूर ही रहे, शायद बेहतर ही था। गूढ़ रहस्यों और संदेशों को समझने की परिपक्वता तो बड़े होकर ही आ पाती है। …ईर्षा लालच और अंधी महत्वाकांक्षा कैसे सब कुछ नष्ट कर देती है इसका ज्वलंत उदाहरण है महाभारत जहाँ छल कपट से लक्ष साधे जाते है और जुए के पासों पर जिन्दगी दाँव पर लगा दी जाती है। कौरव तो कौरव थे ही, सच और धर्म के पक्ष को भी दुश्मन को मारने के लिए अर्धसत्य का सहारा लेना पड़ा था ( अश्वत्थामा मृतः नरो वा पुंगरो…) और छल के बादलों से सूरज को ढका गया था ( जयद्रथ वध) युधिष्ठिर ने राज पाट तो गंवाया ही था चारो भाई और पत्नी तक को नहीं छोड़ा था जुए का दांव लगाते वक्त इतनी निराश और भ्रमित हो चुकी थी उनकी सच और धर्म की साधना।
मेरे ख्याल से तो हम सभी को एक बार अवश्य ध्यान से पढ़ना चाहिए यह रोचक और जीवन के नवोंरसों से परिपूर्ण संपूर्ण ग्रंथ क्योंकि अकर्मण्यता का नहीं कर्म का संदेश देती है यह किताब। अधर्म के विरुद्ध लड़ने और साथ खड़े रहने का साहस और सलाह भी।
हमारा अतीत कितना वैभवशाली था और वैज्ञानिक दृष्टि से भी हम कितनी प्रगति कर चुके थे , इसका भी भलीभांति परिचय मिलता है इस किताब को पढ़ने पर। अग्निबाण और बृह्मास्त्र तो थे ही अकृतिम तरीके से गर्भाधान और टेस्ट ट्यूब बेबी यानी मानव और जीव खेती भी हो रही थी तब। 100 कौरव और उनकी बहन दुशाला का जन्म इसी तरह से हुआ था।
संजय की दिव्य-दृष्टि भी संभवतः आजके वायरलेस का ही रूप था जिसके सहारे वह धृतराष्ट्र के बगल में बैठकर उन्हें युद्ध का आँखों देखा हाल सुना पाते थे। पूरी महाभारत की कथा ही ऐसे वैज्ञानिक चमत्कारों से भरी पड़ी है जहाँ कहीं बाप का बुढापा बेटा ले लेता है और उन्हें अपना यौवन दे देता है ( ययाति और पुरुः )। तो कहीं गर्भ में बच्चे बदल दिए जाते हैं ( कृष्ण और महामाया) तो कहीं गर्भ का मृत बच्चा पुनः जीवित कर दिया जाता है ( परीक्षित)। यही नहीं, सहवास के बाद भी स्त्रियों का कुमारत्व सुरक्षित रह पाता है क्योंकि उन्हें इसका वरदान मिला है (सत्यवती और कुंती)।
वैज्ञानिक या आशीर्वाद व श्राप के चमत्कारों से दूर दो बातें जो मुझे विशेष रूप से आकर्षित और प्रभावित करती हैं महाभारत में वे हैं पात्रों की आपस में और एक दूसरे के प्रति अंधभक्ति और पूर्ण विश्वास व समर्पण। दोस्ती के रिश्ते को सर्वाधिक महत्व दिया गया है इस किताब में, चाहे वह कर्ण और दुर्योधन के बीच हो, अर्जुन और कृष्ण की हो या फिर द्रौपदी और कृष्ण के बीच। बड़ों के प्रति अपार श्रद्धा और उनकी आज्ञा का किसी भी हाल में उल्लंघन न करना फिर चाहे इस वजह से पत्नी को ही क्यों न पांचों भाईयों में साझा करना पड़ जाए. या निर्दयी गुरु के आग्रह पर एक होनहार और महत्वाकांक्षी धनुर्धर को अपना दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर देना पड़े या फिर एक परित्यक्त बेटे से माँ उस समय उसके रक्षक और तेजस्वी कवच व कुंडलों का दान ले ले जबकि उसे उनकी सर्वाधिक जरूरत थी। जहाँ तक रिश्तों में प्रतिबद्धता की बात आती है , महाभारत के ये पात्र निस्वार्थ भाव से बड़े से बड़ा त्याग कर देते हैं और मरते दम तक साथ देते हैं।
कई विचारकों और विद्वानों ने इस ग्रंथ की अपनी-अपनी तरह से विवेचना की है। कुछ तो यह तक कहने में नहीं सकुचाए हैं कि प्रलय के बाद के उस युग में औरतों की कमी थी और एक पत्नी के चार पांच पति होना उस समय साधारण सी बात थी।
पांचाली अकेली नहीं थी जिसके पांच पति थे। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में अभी भी कुछ जातियों में एक औरत का विवाह कईकई भाइयों से कर दिया जाता है। परन्तु इस किताब की पांचाली इसलिए अमर है कि उसने अर्जुन को पति की तरह चाहते हुए भी पांचों पतियों के साथ एकसी निष्ठा के साथ पत्नी का रिश्ता निभाया।

धर्म और अधर्म की यह लड़ाई इसलिए और भी रोचक और उलझी हुई है कि दोनों ही पक्ष मानते थे कि वे सही हैं और उनके बड़े या संरक्षकों ने भी मार्ग दर्शन करने की बजाय एक मूक दर्शक की भूमिका निभाई। जब जब कर्तव्य जानबूझकर आँखें बन्द करलेगा और बहरा और गूंगा बनकर बैठ जाएगा, परिवार कुरुक्षेत्र का मैदान बनेगा ही और संपूर्ण विनाश होगा। जैसा कि महाभारत के युद्ध की इस कथा में हुआ । आजीवन लड़ते रहने और ईर्षा की आग में जलने के बाद 100 कौरव और उनकी औलादों में से कोई नहीं बचा था जीतने या हारने को और पांडवों की तरफ से भी अकेला और पितृहीन परीक्षित ही था जिसने हस्तिनापुर का सिंहासन संभाला था। कृष्ण भी नहीं बचा पाए थे इस विनाश को। सच में जब व्यक्ति आत्मघाती हो जाता है तो बचाना भगवान के बस में भी नहीं।
कइयों ने द्रौपदी को इस लड़ाई का सूत्रधार कहा है , जब उसने अपने मायामहल में दुर्योधन की खिल्ली अंधे का पुत्र अंधा कहकर उड़ाई थी पर मेरे विचार से तो इस वंश के विनाश की नींव सत्यवती की महत्वाकांक्षा में पड़ी थी –जब उसने अपने हक और स्वार्थ को सर्वोपरि रखा। जब उसने भीष्म जैसे योद्धा को सिंहासन से दूर रखा। संरक्षक तो बनाया पर उत्तराधिकार को छीनकर। और यही महत्वाकांक्षा उसके पौत्र धृतराष्ट्र में भी थी जो पूर्णतः अंधी होकर संपूर्ण विनाश का कारण बनी।

यूँ तो पूरी महाभारत की कहानी ही प्रतिशोध की कहानी है परन्तु इसमें कई नाजुक प्रेमकथाएँ भी हैं जो ग्रंथ को रोचक और कोमल बनाती हैं। जैसे कि शांतनु और गंगा की कहानी या फिर सत्यवती और शांतनु की कहानी। अर्जुन की चारो प्रेमकथाएँ आदि। दूसरा जो महाभारत का सशक्त पहलू है वह है रिश्तों में पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता। पात्रों ने जैसे ही कोई वचन दिया या किसी जिम्मेदारी को उठाया तो फिर किसी भी हालत में उससे पीछे नहीं हटते थे, यहाँ भी हमें वही प्राण जाए पर वचन न जाई –त्रेता युग के दशरथ वाली ही मानसिकता मिलती है। इसके कईृ-भीष्म, शल्य आदि बेबस उदाहरण हैं जो अपनी मर्जी के खिलाफ न सिर्फ अधर्म के साथ खड़े हुए , अपितु उनकी सेना के सेनापति और सारथी तक बने क्योंकि वे वचन-बद्ध थे। इस तरह से देखा जाए तो युयुत्सु अकेला ऐसा पात्र था जिसमें इतना विवेक और साहस था कि आखिरी क्षण पर भी, अधर्म को छोड़कर धर्म का साथ निभाया उसने। यह बात दूसरी है कि धर्म और अधर्म की परिभाषा इस ग्रंथ में कई जगह बेहद गडमड है और धर्म की सेना व पाण्डवों ने भी कई जगह अधर्म को मिटाने के लिए खुद ईश्वर की सलाह पर अधर्म यानी अर्ध सत्य और छल का सहारा लिया । द्रोणाचार्य और जयद्रथ का वध इन्ही सहारों के साथ संभव हो पाया था। इसके उपसर्ग गीता के एक-एक श्लोक की जितनी तरह से व्याख्या हुई है , शायद ही किसी ग्रंथ की की गई हो और आश्चर्य की बात यह है कि जिसने जो खोजा है वही पाया है गीता में। एक तरफ जहाँ जीवन मृत्यु दर्शन, समाजशास्त्र का एक बेहद व्यवहारिक दृष्टिकोण है इसमें, वहीं योग का चरमोत्कर्ष भी है, जो बिना फल की कामना के कर्म की शिक्षा देता है। कितना कठिन है यह , यह हम सभी भलीभांति जानते हैं। विवेकानन्द, गांधी, अरविंद, राधाकृष्णन , बिनोबाभावे और दयानंद सरस्वती जितने खुद भिन्न तरह के व्यक्ति थे उतनी ही भिन्न इन सबकी इस ग्रंथ की व्याख्या भी हैं।

अंततः सभी को गीता में वही मिला है जिसे वे ढूँढ रहे थे। आज भी अरबों भारतीयों का आत्मबल और प्रेरणा है गीता। एक ही ग्रंथ में इतनी विविधता और सभी रस गुण व भावों का सम्मिलन निश्चय ही 3500 पुराने ग्रंथ महाभारत को भारत का ही नहीं विश्व के महाग्रंथों के समकक्ष खड़ा कर देता है।

शैल अग्रवाल
आणविक संकेत shailagrawal@hotmail.com

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