केदारनाथ से लेकर कन्या कुमारी तक आज भी चाहे जिधर हम भ्रमण पर जाएँ , महाभारत की कथा के भग्नावशेष और स्मृति चिन्ह हमें चारो तरफ बिखरे नजर आते हैं। विश्व के अन्य देशों में जो बाइबल और कुरान की इज्जत है वही भारत में रामायण और गीता की। भारत के आज भी दो सर्वाधिक मान्य और पढ़-अनपढ़ सभी में बेहद जन प्रचलित ग्रंथ हैं रामायण और महाभारत। भारतीय परिवार और संस्कृति का अहम हिस्सा हैं ये। अब तो बारबार इनका मंचन और टेलीकास्ट सब कुछ हुआ है और सभी ने बेहद मनोयोग से इसे देखा भी है, फिर भी कई अन्य भारतीय परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी घर पर महाभारत का ग्रंथ ऱखने की मनाही थी । गीता और रामायण तो थीं पर महाभारत नहीं, जबकि गीता महाभारत का ही हिस्सा है। दादी का कहना था कि कलह का घर है यह किताब। भरापूरा परिवार था जहाँ दादा, दादी, ताऊजी, ताई जी और चाचा चाची के साथ हम सभी खुशी-खुशी और प्रेम से रहते थे। छोटे-मोटे मतभेद और नाराजगी तो अक्सर ही हो जाती थी जो कि –जहाँ चार बरतन होंगे, खड़केंगे ही- इस कथन के साथ सुलझ भी जाती थी, पर वैमनस्य के लाक्षाग्रह और चक्रव्यूह नहीं बन पाए कभी परिवार में । तब बचपन में समझ में नहीं आती थी दादी की वह बात पर अब समझ में आती है । जहाँ भाईभाई का वध करने का प्रयास करे, तरह-तरह की धोखाधड़ी करे, भाभी के साथ मर्यादा का उल्लंघन करे वह किताब अपरिपक्व और कच्ची उम्र के बच्चों से दूर ही रहे, शायद बेहतर ही था। गूढ़ रहस्यों और संदेशों को समझने की परिपक्वता तो बड़े होकर ही आ पाती है। …ईर्षा लालच और अंधी महत्वाकांक्षा कैसे सब कुछ नष्ट कर देती है इसका ज्वलंत उदाहरण है महाभारत जहाँ छल कपट से लक्ष साधे जाते है और जुए के पासों पर जिन्दगी दाँव पर लगा दी जाती है। कौरव तो कौरव थे ही, सच और धर्म के पक्ष को भी दुश्मन को मारने के लिए अर्धसत्य का सहारा लेना पड़ा था ( अश्वत्थामा मृतः नरो वा पुंगरो…) और छल के बादलों से सूरज को ढका गया था ( जयद्रथ वध) युधिष्ठिर ने राज पाट तो गंवाया ही था चारो भाई और पत्नी तक को नहीं छोड़ा था जुए का दांव लगाते वक्त इतनी निराश और भ्रमित हो चुकी थी उनकी सच और धर्म की साधना।
मेरे ख्याल से तो हम सभी को एक बार अवश्य ध्यान से पढ़ना चाहिए यह रोचक और जीवन के नवोंरसों से परिपूर्ण संपूर्ण ग्रंथ क्योंकि अकर्मण्यता का नहीं कर्म का संदेश देती है यह किताब। अधर्म के विरुद्ध लड़ने और साथ खड़े रहने का साहस और सलाह भी।
हमारा अतीत कितना वैभवशाली था और वैज्ञानिक दृष्टि से भी हम कितनी प्रगति कर चुके थे , इसका भी भलीभांति परिचय मिलता है इस किताब को पढ़ने पर। अग्निबाण और बृह्मास्त्र तो थे ही अकृतिम तरीके से गर्भाधान और टेस्ट ट्यूब बेबी यानी मानव और जीव खेती भी हो रही थी तब। 100 कौरव और उनकी बहन दुशाला का जन्म इसी तरह से हुआ था।
संजय की दिव्य-दृष्टि भी संभवतः आजके वायरलेस का ही रूप था जिसके सहारे वह धृतराष्ट्र के बगल में बैठकर उन्हें युद्ध का आँखों देखा हाल सुना पाते थे। पूरी महाभारत की कथा ही ऐसे वैज्ञानिक चमत्कारों से भरी पड़ी है जहाँ कहीं बाप का बुढापा बेटा ले लेता है और उन्हें अपना यौवन दे देता है ( ययाति और पुरुः )। तो कहीं गर्भ में बच्चे बदल दिए जाते हैं ( कृष्ण और महामाया) तो कहीं गर्भ का मृत बच्चा पुनः जीवित कर दिया जाता है ( परीक्षित)। यही नहीं, सहवास के बाद भी स्त्रियों का कुमारत्व सुरक्षित रह पाता है क्योंकि उन्हें इसका वरदान मिला है (सत्यवती और कुंती)।
वैज्ञानिक या आशीर्वाद व श्राप के चमत्कारों से दूर दो बातें जो मुझे विशेष रूप से आकर्षित और प्रभावित करती हैं महाभारत में वे हैं पात्रों की आपस में और एक दूसरे के प्रति अंधभक्ति और पूर्ण विश्वास व समर्पण। दोस्ती के रिश्ते को सर्वाधिक महत्व दिया गया है इस किताब में, चाहे वह कर्ण और दुर्योधन के बीच हो, अर्जुन और कृष्ण की हो या फिर द्रौपदी और कृष्ण के बीच। बड़ों के प्रति अपार श्रद्धा और उनकी आज्ञा का किसी भी हाल में उल्लंघन न करना फिर चाहे इस वजह से पत्नी को ही क्यों न पांचों भाईयों में साझा करना पड़ जाए. या निर्दयी गुरु के आग्रह पर एक होनहार और महत्वाकांक्षी धनुर्धर को अपना दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर देना पड़े या फिर एक परित्यक्त बेटे से माँ उस समय उसके रक्षक और तेजस्वी कवच व कुंडलों का दान ले ले जबकि उसे उनकी सर्वाधिक जरूरत थी। जहाँ तक रिश्तों में प्रतिबद्धता की बात आती है , महाभारत के ये पात्र निस्वार्थ भाव से बड़े से बड़ा त्याग कर देते हैं और मरते दम तक साथ देते हैं।
कई विचारकों और विद्वानों ने इस ग्रंथ की अपनी-अपनी तरह से विवेचना की है। कुछ तो यह तक कहने में नहीं सकुचाए हैं कि प्रलय के बाद के उस युग में औरतों की कमी थी और एक पत्नी के चार पांच पति होना उस समय साधारण सी बात थी।
पांचाली अकेली नहीं थी जिसके पांच पति थे। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में अभी भी कुछ जातियों में एक औरत का विवाह कईकई भाइयों से कर दिया जाता है। परन्तु इस किताब की पांचाली इसलिए अमर है कि उसने अर्जुन को पति की तरह चाहते हुए भी पांचों पतियों के साथ एकसी निष्ठा के साथ पत्नी का रिश्ता निभाया।
धर्म और अधर्म की यह लड़ाई इसलिए और भी रोचक और उलझी हुई है कि दोनों ही पक्ष मानते थे कि वे सही हैं और उनके बड़े या संरक्षकों ने भी मार्ग दर्शन करने की बजाय एक मूक दर्शक की भूमिका निभाई। जब जब कर्तव्य जानबूझकर आँखें बन्द करलेगा और बहरा और गूंगा बनकर बैठ जाएगा, परिवार कुरुक्षेत्र का मैदान बनेगा ही और संपूर्ण विनाश होगा। जैसा कि महाभारत के युद्ध की इस कथा में हुआ । आजीवन लड़ते रहने और ईर्षा की आग में जलने के बाद 100 कौरव और उनकी औलादों में से कोई नहीं बचा था जीतने या हारने को और पांडवों की तरफ से भी अकेला और पितृहीन परीक्षित ही था जिसने हस्तिनापुर का सिंहासन संभाला था। कृष्ण भी नहीं बचा पाए थे इस विनाश को। सच में जब व्यक्ति आत्मघाती हो जाता है तो बचाना भगवान के बस में भी नहीं।
कइयों ने द्रौपदी को इस लड़ाई का सूत्रधार कहा है , जब उसने अपने मायामहल में दुर्योधन की खिल्ली अंधे का पुत्र अंधा कहकर उड़ाई थी पर मेरे विचार से तो इस वंश के विनाश की नींव सत्यवती की महत्वाकांक्षा में पड़ी थी –जब उसने अपने हक और स्वार्थ को सर्वोपरि रखा। जब उसने भीष्म जैसे योद्धा को सिंहासन से दूर रखा। संरक्षक तो बनाया पर उत्तराधिकार को छीनकर। और यही महत्वाकांक्षा उसके पौत्र धृतराष्ट्र में भी थी जो पूर्णतः अंधी होकर संपूर्ण विनाश का कारण बनी।
महती विषय है और पूर्णतः समझने के लिए गहन चिंतन की जरूरत है, फिर भी लेखनी का यह जो गागर में सागर भरने का लघु प्रयास है, उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि आपकी पसंद पर खरा उतरेगा । प्रस्तुत है आपके लिए, आपकी लेखनी का, अपना महाभारत विशेषांक।
आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। इस अंक में हम वेखनी परिवार में मैनचेस्टर की अर्जना का स्वागत करते हैं जो अपने English article-Draupadi an Enigma , के साथ हमसे जुड़ी हैं। उम्मीद है उन्हें पाठकों का भरपूर स्नेह मिलेगा।
लेखनी का सितंबर-अक्तूबर अंक नारी शक्ति और नारी दृष्टिकोण पर है । आपकी राय में दुनिया की यह आधी आबादी आज भी कितना दखल रखती है, दुनिया को तो छोड़ें, खुद अपनी जिन्दगी पर? रचनाओं का इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि 15 सितंबर।
शुभकामनाओं के साथ,
-शैल अग्रवाल