…” गीत गोविन्द लिखे!” ….
फागुन पीले गीत लिखे
मौसम में फूल खिला कर
बगिया के अनुकूल
हर पल नया संगीत लिखे
कूके कोयल डाली डाली
शब्दों को बांध कर सुर में
हरी भरी धरती पर
हतप्रभ मौसम को निहारती
चिड़ियां पंख फड़फड़ा कर
शस्य डाल पर
खुशबू की तरह
नववर्ष का नव सृजन का
मंगलदीप जला कर
गये साल की विदाई पर
अभिनन्दन शुभागमन का
फिर फागुनी गीत गोविन्द लिखे !
“बसंत- बसंत !”
मैं बसंत हूँ
बसंत- जो तितली की तरह
उडता है
आम अमरूदों के
दरख्तों पर
फागुनी दोपहर में
एक चित्र बनाता है
धूप की कलम से
गुनगुन संगीत का
सृजन करता है
सुबह की पहली किरण सा
जाग कर चहचहाता है
पक्षियों सा
कभी फूलचुही सा
मंडराता है फिजां में
महकता है गुलाब सा
और फिर कभी सूरज सा
चढ़ते हुए आसमान पर
बिखर जाता है
धूप के टुकड़े सा
फैला कर फूलों पर
इन्द्रधनुषी रंग
दस्तक देकर
फागुनी मौसम की
दूर कहीं कोयल भी
गा उठती है
मधुर स्वर में
बसंत… बसंत…!
“सृज़न के उन्माद में! ”
“सकपकाई सी
एक चिड़िया आई
ताकती रह देर तक
पतझड़ के झड़े
भूरे पतों को
हवा बुहार रही थी
तब सन्नाटा
अटक गये थे चिड़िया के
सुर भी कंठ में पर
मौसम के गलियारों में
महक थी सूखे पत्तों क़ी
उम्मीद थी जल्दी ही
फिर फूल आयेंगे
तितलियों उनमे
ताजगी तलाशती मंडराएगी
कोयलें कूकती
हरियाली पी लेंगी
सृज़न के उन्माद में
फिर फूटेंगे अंकुर
फुलवारी में उगेगा
इन्द्रधनुष
रंग – बिरंगी तितलियों का
चिड़िया ने भी
अपने से संवाद किया कि
अब आ गया है वक्त
घरोंदा बनाने का
इस विश्वास के साथ
उल्लासित हो
वो उड़ गयी
बसंत के बारे में
सोचेते हुये !
डॉ सरस्वती माथुर
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