मंथनः शांति की तलाश में-शैल अग्रवाल

क्या शांति एकांत का निशब्द सन्नाटा है, जिसके बिना मनन चिंतन संभव ही नहीं या फिर मन और मस्तिष्क की पूर्ण निष्क्रिय और निर्लिप्त वह अवस्था है, जिसमें पहुंचकर मन और मस्तिष्क को दीन-दुनिया का होश ही नहीं रहपाता और दावा किया जाता है कि बेसुधि नहीं, परम आनंद की अनुभूति है यह? वह जमाने दूसरे थे जब ऐसी समाधियाँ लगती थीं कि जीवित मनुष्य की डाढ़ी में चीटियाँ अपने घर बना लेती थीं, उनका नाम वाल्मिकी पड़जाता था और उन्हें खबर तक नहीं होती थी परन्तु आज जमाना साधन और ज्ञान दोनों में ही बहुत आगे निकल चुका है और अब यह मृतप्राय शांति संभव ही नहीं, न तो किसी योग से और ना ही समाधि द्वारा ही। हाँ, नशे और नशीली दवा के उपयोग करने वालों को जरूर कभी-कभी मृतप्राय और बेसुध अवश्य पाया गया है। ऐसी शांति तो सिर्फ एक मुर्दे को ही नसीब है।
जब कोई इंद्रियाँ सचेत ही नहीं तो फिर कैसा आनंद, कैसी सुख-शांति। क्या मृत इंसान इस सबसे परे नहीं जा चुका फिर भी करीब-करीब हर धर्म में मुर्दों तक के लिए शांति-प्रार्थना की जाती है। जलाने या दफनाने आदि जैसी अन्तिम क्रिया से पहले,’-उँ शांति-शाँति-शांति’ या फिर ‘रेस्ट इन पीस’ और मुठ्ठीभर धूल डालने से पहले-‘पीस अपौन हिम’ कहा जाता है। क्या हम अशांत प्रेतात्मा के प्रकोप से डरते हैं या वाकई में चाहते हैं कि मृत इन मोहबंधनों से मुक्त होकर, शांत चित्त से अपनी अगली यात्रा पर जाए।
तो क्या शांति पूर्ण त्याग, इस संसार और सुख-दुख का विसर्जन है, जैसा कि भोगी और योगी दोनों ही कहते हैं । पूर्ण संतोष है, या फिर मनोकामनाओं की पूर्ति और तृप्ति का नाम है? कहीं असाध्य लक्षों की प्राप्ति शांति है, तो कहीं मनचाहे पड़ाव की। कहीं रामराज्य की कल्पना है, जहाँ सबके पास सबकुछ बराबर-बराबर होगा, कोई छोटा-बड़ा या ऊँच नीच नहीं, इनके लिए शांति न्याय है, त्याग है। वो जो क्रोधाग्नि में जलते मन की शांति पूर्ण विध्वंस में ढूँढते है उनके लिए शांति बदला या प्रतिशोध है। एक ही शब्द के कितने भिन्न अर्थ और प्रयोग हैं जीवन में। शांति का विलोम क्लेष है। क्लेष यानी दुख, उद्विग्नता और छटपटाहट और जहाँ ये चीजें नहीं वही सच्ची शांति है। सच्चाई तो यह है कि शांति की तलाश में कोई तर्क नहीं, कोई नियम नहीं। सबकी अपनी अपनी शांति है। बेहद निजी और जरूरत अनुसार मानसिक अवस्था है यह। परिस्थितियों के अनुकूल एक बदलता हुआ अनुभव है शांति। कहीं अन्याय नहीं, भय नहीं, की कल्पना ही राम राज्य है जिसमें सब खुश है, शेर और हिरण एक ही घाट पर पानी पीते हैं, तो कहीं दुश्मन पर गोलियों की बौछार भी है शांति ।
संभव भी है क्या एक आम और जिन्दगी से जूझते आदमी के लिए सदा शांत रहपाना? क्या है आखिर यह रहस्यमय, छलनामय, अति दुर्लभ शांति, जिसे मानव आदिकाल से ढूँढता रहा है और आज भी ढूँढ रहा है ? शब्दकेष में इसकी एक परिभाषा तनावरहित, क्लेष रहित जीवन, युद्धरहित समाज भी दी गई है, परन्तु विरोधाभास ही है यह शांति क्योंकि हमने शांति के लिए भी लड़ाइयाँ लड़ते देखा है लोगों को, परिवार में , समाज में, देश में। अब तो शांति के लिए प्रार्थना सभा तक की जाती हैं। मठ और संप्रदाय बनते हैं, नोबल पुरष्कार दिए जाते हैं। पर सामाजिक व्यवस्था हो या फिर व्यक्ति विशेष, बाह्य शांति मिल भी जाए तो भी बेहद क्षणिक ही रहेगी। शांति को पाने की चाह से अधिक अशांति के बाह्य कारण मिटाने की जरूरत ही रहती है सदा। यदि मन अशांत है, वजह चाहे कुछ भी हो, काम क्रोध मोह में से कुछ भी, शांति नहीं मिलेगी, जबतक निदान या फिर दमन या शमन न हो। अन्यायजन्य आक्रोष हो या रूप का आकर्षण, ईर्षा का विध्वंसक क्रोध हो या फिर प्यार का उन्माद , व्यक्ति थिर व शांत नहीं रह पाएगा।
सोचने की बात यह भी है कि जब कोई मनोभाव स्थाई नहीं, लम्बे समय तक नहीं टिक सकता, वरना आदमी विक्षिप्त या बीमार हो जाए, तो शांति की स्थाई स्थापना कैसे और कहाँ संभव है? सच्चाई तो यह है कि बाहर नहीं, अंदर है शांति। जो हमें सहना और संतुलित रहना सिखाती है । लोगों के साथ सामंजस्य करना, उन्हें क्षमा करना सिखाती है। स्व-अवलोकन और नियंत्रण की ताकत देती है। एक ऐसी आंतरिक और सामूहिक ताकत है शांति, जिसे अन्य गुणों की तरह ही स्वभवाव और सामाजिक व्यवस्था में बेहद धैर्य और सूझबूझ के साथ ही विकसित और स्थापित किया जा सकता है। दृढ़ संयम और आत्मबल की आवश्यकता पड़ती है इसमें, क्योंकि बहुत कुछ तोड़ना और जोड़ना पड़ता है लगातार ही।
आसान तो नहीं, मन के विकार- क्रोध और इर्षा को दबा पाना, भेदभाव अन्याय व अत्याचार को देखते हुए भी मूक व बधिर बने रह जाना। पर इसकी जरूरत भी नहीं। माना आंख के बदले आंख से पूरा जग अंधा हो जाएगा परन्तु अंधों का इलाज न हुआ, तो भी तो वे देख नहीं पाएँगे, खुश नहीं रह पाएंगे। जहाँ अत्याचार और अन्याय है, वहाँ शांति संभव ही नहीं। अकेले टापू पर नहीं, समाज के बीच रहते हैं हम। कितना भी ध्यान दें या न दें, दूसरे के सुख-दुख हमें छूएँगे ही। न्याय-अन्याय के खिलाफ और पक्ष में वार-प्रतिवार होंगे ही। तो क्या शांति एक मनोभाव के साथ-साथ एक सर्वहिताय सकारात्मक सामाजिक प्रक्रिया भी है जिसके लिए निश्छल सच्चाई के साथ-साथ, निष्पक्ष संवेदनशील मन का बली होना जरूरी है? दान-धर्म, परोपकार व क्षमा आज भी शांति के सक्षम सहायक माने जा सकते हैं।
अक्सर देखने में आता है कि आदमी जितना स्वावलंबी होता है, उतना ही शांत भी। सच और झूठ का विवेक तो चाहिए ही, निस्वार्थ भाव से सबके हित में सोचने की, परिणामों के पार देखने की भी सूझ-बूझ का होना भी जरूरी है एक शांत और व्यवस्थित समाज में। अशांत मन और मानसिकता सुलझे फैसले नहीं कर पाती। सबके हित में नहीं सोच सकती। अन्याय से ना हीं लड़ और ना ही जीत सकती है यह। 1947 में किया गया भारत का विभाजन आजभी इसी तरह के एक जल्दबाजी में किएगए अशांत फैसले का ज्वलंत उदाहरण है।
शांति का महत्व इसी से समझ में आता है कि जिस नेता , या प्रचारक ने कोई भी बड़ा शांति-समझौता कर लिया या फिर थोड़े समय के लिए ही शांति हासिल कर ली, वही इतिहास में अमर हो गया। समाज ने इन्हें साक्षात ईश्वर का अवतार या पैगम्बर तक मानकर पूजा। ईसामसीह, गौतम बुद्ध, महाबीर , गांधी, नानक और खुद तुलसी के राम, सभीने सामाजिक अन्याय और कुरुतियों के खिलाफ व पीड़ितों के हित में आवाज उठाई, लड़ाइयाँ लड़ी और अपने-अपने समय में शांति की स्थापना की, परन्तु ऐसा वे इसलिए कर पाए क्योंकि वे सशक्त और निपुण तो थे ही, सहृदय व विवेकी भी थे।
शांति को तलाशते उम्र बीत जाती है जबकि अक्सर शांति आस पास ही होती है। घर में इंतजार करती पत्नि है शान्ति। गोदी में किलकती औलाद है शांति। भूखे को दो जून की रोटी है शांति और भटके को सिर पर पड़ी छत और होठों की तृप्त मुस्कान है शांति। टपकती छत के नीचे भी चैन की नींद है शांति। शांति के भी तो कई प्रकार हैं- बाह्य और आंतरिक। शांति जो कि मनोरम प्राकृतिक स्थल जैसे सुंदर बाग-बगीचे, झरने, समुद्र, पहाण , आकाश , बादल आदि…प्रकृति के पास जाकर मिलती है, बाह्य शांति है। इन जगहों पर जाकर हम वापस अपनी सकारात्मक उर्जा का संचयन कर लेते हैं। दूसरी मानसिक शांति वह है, जो मन को थिर करने से , या फिर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ खुदको समर्पित करदेने से -या यूँ भी कहा जा सकता है कि बजाय लगातार खुद चिंतित रहने के, बिना फल की कामना के कर्म करने से मिलती है। दुखद-सुखद हर चीज को, घटना को, जीवन को उसे ही सौंप देना चाहिए। भगवान या शक्ति विशेष की मर्जी से ही चलेगा संसार- ऐसा मानकर चलने से आदमी निश्चिंत हो जाता है, और किसी भी पाप-पुण्य का खुद को दोषी या कारक नहीं मानता। और इसतरह से दुख, ग्लानि और अहंकार व ताकत के दुरुपयोग आदि से बचा रहता है। यही शांति हमें प्रिय व्यक्ति, वस्तुऔं और रोचक क्रियाओं जिन्हें हम अंग्रेजी में हौबी भी कहते हैं आदि में जुड़ने से भी मिलती है। संगीत, साहित्य, खेल , कला व मनोरंजन आदि उसी तरह की तनाव रहित शांति में मनःस्थिति को ले जाते हैं। इन्हें हम बाह्य और आंतरिक शांति की अभूतपूर्व मिश्रित क्रियाएँ कह सकते हैं। जो तनाव से पूर्ण मुक्ति दे सकती हैं। चित्त को शांत रखती हैं। चौथी शांति है सामाजिक शांति जो बिना क्लेष. विघटन, अन्याय और भेदभाव से चल रहे समाज देश या व्यवस्था में मिलती है।

शांति और अशांति का कारक कोई और कुछ भी हो गृहण करने वाला स्थापित करने वाला, नियंत्रित करने वाला एकमात्र मन ही है। यही शांत और अशांत दोनों रहता व रखता है। जबतक मन में शांति नहीं, जानने और समझौते की चाह नहीं, शांति की कल्पना तक व्यर्थ है। पर सब कुछ हर समय मन-माफिक हो, जीवन में पूर्ण न्याय मिले, यह भी तो संभव नहीं। प्रायः एक विकल्प की, समझौते और सामंजस्य की जरूरत पड़ती ही है। और यही है एक शांत सुखमय जीवन का मूलमंत्र।
एक बार एक राजा ने अपने राज्य में शांति के ऊपर चित्र प्रतियोगिता आयोजित की। तरह तरह के सुंदर झरने, पहाण और बाग-बगीचों के चित्र आए। साथ ही में एक ऐसा चित्र भी था जिसमें मूसलाधार बारिश के साथ आकाश में बिजली कड़क रही थी और पेड़ पौधे तूफान में उखड़े जा रहे थे । राजा के साथ-साथ सभी ने सोचा यह कैसा शांति का चित्र है? तभी वहाँ उपस्थित एक विद्वान ने कहा कि ध्यान से देखो, इस चित्र में तूफान के बावजूद, चट्टान के नीचे एक चिड़िया अपने बच्चों के साथ शांत और सुरक्षित छुपी बैठी, तूफान के गुजर जाने का इंतजार कररही है। यही तो असली शांति का चित्र है-शांति बाह्य नहीं, अंतरिक विवेक और संयम है। शांति सही समय पर सही निर्णय और सही कार्यवाही में भी है। शांति एक ताकत, एक हथियार है जो विवेक देती है और बड़ी-से-बड़ीं लड़ाई से जूझने और जीतने की शक्ति भी।

शांति को जानने और आत्मसात करने के लिए जरूरी है कि पहले हम खुद को जानें। क्या है जो हमारे मन को तुष्ट करता है या फिर दूसरी तरह से कहें तो विचलित और अशांत करता है? क्या यह विरोध है, आलोचना, तिरस्कार और अन्याय है या फिर क्रोध ,कोई पुराना वैमनस्य या ईर्षा है जो विचलित करती है हमें। या फिर बस हमारी अपनी हीन भावना है?
शांति को पाने के लिए पहले हमें अशान्ति को समझना ही पड़ेगा। क्या हैं वे भाव-व्यवहार, या कार्य, जो समाज से या व्यक्ति विशेष से उसकी शांति हर लेते हैं। दमन, शोषण, भेदभाव, अन्यायपूर्ण व अनुचित नियम, सुविधानुसार मनमाफिक भेदभाव- नियमों की तोड़-मरोड़, आंख में धूल झोंकते चयन प्रकरण, ये सभी अशांति के जनक हो सकते हैं और क्रोध घृणा जलन प्रतिकार और अंततः युद्ध को उकसाते हैं। यदि हम अपने जीवन से, आसपास से इन्हें हटा सकें तो खुद ही शांति स्थापित हो जाएगी, परन्तु यह एक आसान काम नहीं। अक्सर आसुरी ताकतों के खिलाफ बल का भी प्रयोग करना पड़ता है। समाज में व्याप्त अशान्ति ही राम के असुर और रावण थे। गोतम और गांधी के मन का दुख या द्वंद्व भी यही हैं और ईसा व मुहम्मद के आंदोलन को भी समाज में इसी शांति की ही तलाश थी और अंततः कृष्ण की बांसुरी और सुदर्शन चक्र का उद्देश्य भी सर्वे भवन्तु सुखिनः ही था। यदि सब सुखी हैं तो शांत भी। अंततः गीता के संदेश का निहितार्थ भी शांति ही तो है।

इतिहास को उठाकर देखें तो बड़े-बड़े विचारक, योद्धा और नेता आदि ने अपने-अपने समय़ में अथक लड़ाइयाँ लड़ी हैं इस शांति के लिए औऱ कइयों ने इसे सफलतापूर्वक स्थापित भी किया है। परन्तु एक छोटे समय के लिए ही रह पाई है यह शांति। चाहे राम-राज्य हो या फिर सम्राट अशोक का शाषनकाल। कहीं न कहीं रावण , कहीं न कहीं कोई धोबी निकल ही आते हैं, और तब सच की सीता चुराई भी जाती है और छीनी भी जाती है …अपने ही घर से अपने ही राम द्वारा निष्काषित और लांछित होने को त्यागी भी जाती है क्योंकि विवेकी भी सामाजिक प्रपंचों में पड़कर कभी-कभी अविवेकी निर्णय लेने को बाध्य होते हैं।
काम, क्रोध, मद, लोभ,मोह आदि मानव-मन के स्वभावजन्य नैसर्गिक विकार हैं और इनके रहते भेदभाव व अन्याय होगा ही और तब दमित, उपेक्षित अपने हक के लिए उठेंगे भी और लड़ेंगे भी। -फलतः शांति की तलाश और स्थापना की चाह भी जारी रहेगी, जब तक मानव जीवन है। असंतोष खुद, मानव स्वभाव का मुख्य गुण है, इसी के सहारे वह आगे बढ़ा है, उसने अपने लिए बेहतर सुख-सुविधाएँ जुटाई हैं। हजार नशीली दवाइयों का उत्तेजक मनोरंजनों का विकास हो चुका हो परन्तु शांति उत्तेजना नहीं है यह भी वह समझ चुका है। फिर यह बात भी तो उतनी ही सच है कि दूसरे के बगीचे की घास सदा अपने बगीचे से ज्यादा हरी ही नजर आती है और आती ही रहेगी।

मानवीय कमजोरियों का…चाह का, उम्मीदों का पूर्ण दमन या अभाव भी तो शांति नहीं। सभ्यता की विकास यात्रा और अनगिनत उपलब्धियों के बाद, आजभी उसके मन की यह बेचैनी या अशांति, आंतरिक उद्वेलन और पारस्परिक स्पर्धा व प्रतियोगिता की भावना ही समाज और जीवन में शांति की सबसे बड़ी शत्रु है और मित्र भी। बिल्कुल एक लाठी की ही तरह इस्तेमाल हुआ है समाज में शांति या समझौते की राजनीति का । कहीं सहारे और उपचार या सुधार के लिए तो कईबार मौका देखकर प्रहार करने के लिए भी । इतिहास भरा पड़ा है ऐसी लड़ाइयों की गाथा से जहाँ दुश्मन के साथ शांति के समझौते सिर्फ इसलिए किए गए ताकि पुनः संगठित होकर आक्रमण किया जा सके ।

कई बार विद्रोह और युद्ध के माध्यम से ही अनीति और अत्याचार का अंत हो पाता है और शांति स्थापित हो पाती है। जैसे अक्सर तूफान के बाद ही तो आकाश पूर्णतः शांत हो पाता है। गीता में भी लिखा है-कि जब-जब धर्म की हानि होती है मैं जनम लेता हूँ, अधर्म से लड़ने के लिए। तो क्या अशांति से ही शांति की जरूरत और शांति जनमती है? हाँ…शायद इसीलिए अन्याय के विरुद्ध की लड़ाई को धर्मयुद्ध कहा जाता है। उसका सारा उद्देश्य ही शांति की स्थापना है। इसीलिए हम सैनिकों को हत्यारा नहीं, वीर और देश का रक्षक मानते है।

अक्सर लगता है जरूरत और सोच ही नियंत्रित करती है जीवन को। मानक निर्धारित करती है। एक ही समाज में एक की शांति दूसरे की अशांति का कारण भी हो सकती है। यह शांति और अशांति की लड़ाई और मनःस्थिति भी तो परिस्थितियों और समय की जरूरत मात्र ही है….अक्सर छोटे-छोटे दैनिक तनाव तक पर्याप्त होते हैं शांति को भंग करने के लिए। विक्षिप्तता की ओर तक धकेल सकते हैं ये हमें। जरूरत बस इस बात की है कि ध्यान रहे कि हम खुद अपने दुश्मन न बनें, जो हमारे अपने हैं, हितैषी हैं उन्हें असमर्थ और असंतुष्ट न रहने दें, न करें।

.मां की गोद हो या प्रेयसी की बांहें या फिर बच्चों की किलकारी…कलकल करती नदियाँ, सुरभित पवन, फूल, पशु-पक्षी, जीवन और दुनिया में सुख और शांति के खजाने व सीमाएं अपरिमित हैं और साथ-साथ मानव मन की भूख भी। शांति के साथ-साथ बात अंततः संतोष पर भी तो आ टिकती है। विवेक और संयम ही नहीं, जहाँ संतोष है वहीं वास्तविक शांति है। हम समझें या न समझें, संत तुलसीदास भी हमें यही समझा रहे थे, जब उन्होंने लिखा –
गोधन, गजधन, बाजधन और रतनधन खान/ जब आवे संतोष धन , सब धन धूरि समान।….
शैल अग्रवाल

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