कहानी समकालीनः मौसम का सफरः देवी नागरानी

मौसम का तालुक दिल के मौसम से भी होता है. मनमौजी झोंके दुख सुख की याद के गलियारे से गुजरते हुए, दर्द के फफोलों पर शीतल मरहम सा काम कर जाते हैं.
पेड़ों के झुरमुट तले, शाम के वक्त खुली हवा में बहार का मौसम, हवा में हिचकौलों के साथ डाली डाली पर फूल पत्तों को झूला झुलाते हुए ज़मीन पर एक मखमली कालीन बिछा रहा था. जन्नत जहन्नुम, ये फ़क़त नाम मात्र उपयोग की अवस्थाओं को नहीं दर्शाता, पर उन हालातों में कुछ गहराई से कयामत की पगडंडियों पर लाकर छोड़ देता है, जहां से वापस लौट आने के निशान तक बाकी नहीं दिखते. रिश्ते भी भूलभुलैया की तरह-घुमा फिरा कर उसी मोड़ के किनारे लाकर पटकते हैं, जहाँ से मन भाग निकलने के रास्ते ढूंढने में प्रयासरत रहता है.
आज के इस मशीनी दौर में वृद्धावस्था एक दुशाला बन गया है जिसे एक बार पहन लिया सो पहन लिया. उतार फेंकने का अवसर फिर हाथ आने से रहा.
रिश्तों के जंगल का वह भी एक बूढ़ा वृक्ष है-जड़ें फिर भी ज़मीन से जुड़ी हुईं. जब तक जुड़े रहने की संभावना बनी रहती है तब तक पौष्टिकता मिलती रहती है. सूर्य की ऊष्मा, बरसात का पानी, बहार व् खिज़ां के परिवर्तनशील झोंकों से खुद को बचाने की आस्था बनी रहती है. वरना बूढ़े पेड़ों को मात देकर ज़मीन पर गिराने के लिए एक झोंका आंधी का बहुत है.
आज मैंने उसे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे देखा-निरीह, असहाय अवस्था में. मैला कुचैला अंगोछा कंधे पर पसरा हुआ, पीठ तने से टिकी हुई, टांगे सपाट सीधी सामने फैली हुई जैसे खड़े होने की असमर्थता ने उसे सहारा देकर बैठने पर मजबूर किया हो.
आदमी को बूढ़ा होने की उम्र के पड़ाव का इंतजार करना पड़े ऐसा कतई नहीं है. होने के कारण कई बन जाते हैं, सामाजिक व्यवस्थाएं, सियासती धारणाएं, व् अपनी ही परिधि के आसपास पाए जाने वाले अपने-पराये और परिवार नामक संस्था के सदस्य भी.
अब यह कहना मुश्किल है कि कौन किस ‘कारण’ का शिकार बना है. पर इस ‘काका’ को मैं जानती हूँ और थोड़ा बहुत पहचानती भी हूँ. अपने समय से समय निकालकर किसी कमतर के काम आने में पहल करने वालों में से थे. गली के नुक्कड़ पर किसी को चोट लगे तो भागे भागे घर से पानी, रुई, लाल दवाई ले आते. जख्म भरे न भरे पर उन पर मरहम जरूर लगा देते. ठंडा पानी बिना पूछे पिला देते. कोई जान पहचान वाला अस्पताल में हो तो उसे शाम के समय ज़रूर मिलकर आते. पूछने पर कहते ’उसका भी भरे जहान में कोई नहीं, कुछ पल पास जा बैठा, दो चार बातें कीं, वह भी बहल गया और मैं भी!” सुनकर अच्छा लगता था.
चालीस बरस से एक गली में रहते रहते एक मोह का धागा इंसान को बांध ही लेता है. और वही बंधन निभाने की कोशिश में ‘काका’ की पहल काबिले-तारीफ थी. पत्नी साथ निभा न पाई, परमात्मा के पास चली गई. संवेदना मन में भर गई. नितांत: अकेलापन, उसकी हड्डियों में निर्बलता भर गया और वह कार्य शक्ति को कम करने में सहकारिणी बनी. ध्यान जो पत्नी रखा करती थी, प्रेम से परोस कर पेट भरने तक- ‘यह खाओ, थोड़ा और लो, खाने के बाद कुछ मीठा, कुछ मुखवास, क्या कुछ नहीं पाया उस परस्पर साथ के मोह में. पर जिंदगी का नियम, कठोर नियम कहां किसी के साथ रियायत करता है?
पत्नी परमात्मा को प्यारी हो गई. उसे जाना था वह गई और उसके स्थान पर बेटों की पत्नियां आ गई. घर में दो-दो मालकिनों के बीच एक अकेला मर्द, दिन भर घर में पड़ा रहता, बस बेकार सा, किसी अनचाही, अनुपयोगी चीज़ की तरह.
‘ मैं कुछ कर दूं.? कुछ बाहर का काम हो तो बताना बहू.’ कहता फिरता जब भी उसकी बहुएं सामने से दनदनाते हुए गुज़रतीं.
‘हाँ पिताजी, आप धोबी के कपड़े दे आएं. पर गिनकर देना और गिनकर ले आना.’-एक कहती.
‘अब क्या काम कहें आपसे. आप अपने कपड़े खुद ही धो लें तो बेहतर होगा बाबा. गंदे दाग होते हैं, धोने पर घिन्न आती है.’ कहते छोटी बहू नाक पर उंगली रखते हुए सामने से निकल जाती.
कपड़े धोना सुखाना, यह काम तो पत्नी के होते हुए उसने कभी किया ही नहीं. वह फक़त बाहर से सामान ले आता, कभी उसके बीमार पड़ने पर रसोई घर में कुछ मदद कर दिया करता. तब दोनों बेटे भी छोटे थे 12 और 15 साल के. और अब बढ़ते हुए कामों का निस दिन नया ताँता रहता. बेकार बैठने की भी तो कीमत चुकानी पड़ती है या नहीं?
-मुन्नी को स्कूल छोड़ आएं और वापसी में सामने वाली दुकान से ब्रेड भी लेते आइए बाबा .
-पानी बंद होने वाला है, बाथरूम में खाली बाल्टियां भर दें.
-मुन्नी को स्कूल से लाना न भूलियेगा. मैं किटी में जा रही हूँ.
वह अपने तन के कवच में सिकुड़ता जाता, ऐसे जैसे उसका अस्तित्व एक बेकार, बेजान, घर में पड़ी चीज़ सा होता गया.
खाना खाते समय भी एक उसे परोसती तो दूसरी कहती-‘एक और रोटी चाहिए? ‘
‘हाँ एक रोटी देना.” उसका धीमा स्वर होता.
‘कुछ और चाहिए?
पहले तो वह हामी भरते हुए ले लेता, पर फिर ‘यह चाहिए, वह चाहिए, सुनते सुनते अपनी ही आना की शर्मिन्दगी में डूबने लगा, और धीरे-धीरे उसकी हर चाहत सिकुड़ते हुए मरती गई. वैसे भी मांगें तो ज्यादा नहीं थी, पर खाना तो जिस्म की ज़रूरत है. पर उसमें भी ‘चाहिए’ का परचम टंगा हुआ मिलता. हर दिन, हर समय, कानों में जैसे “चाय चाहिए, नाश्ता चाहिए, कुछ और चाहिए”, की आवाज़ सुनते सुनते वह अपनी हर चाह को दबाकर हाथ के इशारे से हर ‘चाहिए’ के उत्तर में हाथ हिलाकर कहता- “बस”.
बस वह जिंदा था, और जानता था उसे वह सब कुछ चाहिए जो एक आदमी को, आदमी को क्यों घर के हर सदस्य को चाहिए. घर के उस पालतू कुत्ते को भी चाहिए, जो कुछ उसकी तरह ही दरवाजे के पास न जाने क्या-क्या सोचते सोचते , पूँछ हिलाते हिलाते अपनी बेज़ुबानी में समेटे लेटा पड़ा रहता.
उसके ज़हन पर वे दिन उतर आते, जब कोई फकीर उसके द्वार पर आता. वह अपने हिस्से की रोटी का टुकड़ा उसे देते हुए कहता- ‘भाई अगर कभी इधर आओ तो सेवा का मौका ज़रूर देना.’ आज हालात का पासा पलटा है. अपना पेट भरने के लिए कितने घूंट पानी के पी जाता, जिसमें उसके अनगिनत आंसू भी घुले रहते. यही उसकी मानसिक वेदना भी बन गई जो उसे दीमक की तरह खोखला किए जा रही थी.
अंतर्मन की वेदना से भीगी पलकें, पेड़ तले बैठ, बैठकर साँसों की घुटन से रिहाई का रास्ता ढूंढती रहती. एक दो बार मेरे पूछने पर आंसू पोछते हुए कह देता-’ अरविंद भाई, पत्नी की याद आ जाती है अक्सर.’
उसके बाद मैंने कभी नहीं पूछा- ‘कोई क्या पूछे किसी और से जब उसकी आप बीती, अपनी आपबीती बन जाए. मेरी पत्नी भी मुझे छोड़ गई, पंद्रह साल के तन्हा तवील सफ़र के बाद यह जान गया हूँ कि जीवन के सफर में पत्नी हमसफर होती है और बाकी अधिकतर नाते स्वार्थ के पैमाने पर निर्वाह कर लेते हैं.
इस ज़िंदगी के लिए इसके सिवाय क्या कहा जाय:
चंद सांसों की देके मोहलत यूँ
जिंदगी चाहती है क्या मुझसे?
और एक सुबह मैंने उसे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे नहीं देखा-जैसे हमेशा देखता रहा. निरीह, असहाय अवस्था में. मैला कुचैला अंगोछा कंधे पर पसरा हुआ, पीठ तने से टिकी हुई, टांगे सपाट सीधी सामने फैली हुई जैसे खड़े होने की असमर्थता ने उसे सहारा देकर बैठने पर मजबूर किया हो.
आज वह पाँव पसारे लेटा हुआ था. तन सफ़ेद चादर से ढका हुआ. घर के सामने खलबली से मची हुई थी, कुछ लोग इर्द गिर्द बाहर भीतर आते जाते देखे. यकीनन उस बूढ़े वृक्ष का टिमटिमाता दिया बुझ गया था. अब वह दफनाया जायेगा और साथ में उसके उसकी हर हर मांग, हर चाहत, सभी कुछ. मौसमों के सफ़र का अंत यही है, बहार से लेकर खिज़ां तक.
देवी नागरानी


देवी नागरानी जन्म: कराची, सिंध में (तब भारत), हिन्दी, सिंधी तथा अंग्रेज़ी में समान लेखन अधिकार, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी काव्य-The Journey, 2 भजन-संग्रह, 5 कहानी संग्रह, २ हिंदी से सिंधी अनुदित कहानी संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंध की अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद.(२०१६, श्री नरेन्द्र मोदी के काव्य संग्रह ‘आंख ये धन्य है का सिन्धी अनुवाद(२०१७), चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक, धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल, सागर व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।
सिन्धी अनुदित कथाओं को अब “सिन्धी कथा सागर” के इस लिंक पर सुनिए.
https://nangranidevi.blogspot.com/
(अनुवादित कहानियां: देवी नागरानी (Translated Stories: Devi Nangrani)
contact:dnangrani@gmail.com

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