मैं जल्दी पापा बन जाऊँ
मेरे मन में आता है यह –मैं जल्दी पापा बन जाऊं।
पापा बनकर जैसे चाहूं वैसे अपना समय बिताऊं।।
रोज सबेरे मुझे जगाकर,
पापा बहुत सताते हैं।
मुझसे कहते करो पढ़ाई,
लेकिन खुद सो जाते हैं।
मेरे मन में आता है यह- मैं भी यों ही मौज उड़ाऊं।
मेरे मन में आता है यह- मैं जल्दी पापा बन जाऊं।।
आफिस से घर आते पापा,
मम्मी चाय पिलाती हैं।
मैं विद्यालय से घर आता,
होमवर्क करवाती हैं।
मेरे मन में आता है यह- मैं भी चाय पियूं-सुस्ताऊं।।
मेरे मन में आता है यह-मैं जल्दी पापा बन जाऊं।।
पापा की गलती पर क्या-
कोई कुछ कर पाता है।
मुझसे गलती होती है तो-
मुझको पीटा जाता है।
मेरे मन में आता है यह- गलती हो पर मार न खाऊँ।
मेरे मन में आता है यह- मैं जल्दी पापा बन जाऊँ।।
-डॉ. कमलेश द्विवेदी
भगवान का दूसरा रूप
बच्चा सीखकर नहीं आता भाषा-ज्ञान
नहीं लेकर आता मां के गर्भ से
शब्दों का विशाल खजाना
चाहे सही, चाहे गलत
पढ़ाया जाता है नित नया पाठ
‘अ’ से ‘अनार’, तो कहीं ‘अ’ से ‘अमरूद’
‘ब’ से ‘बत्तख’ तो कहीं ‘ब’ से ‘बन्दूक’
‘ई’ से ‘ईख’, तो कहीं ‘ई’ से ‘ईश्वर’
‘ध’ से धन तो कहीं ‘ध’ से धर्म…
बच्चा नहीं जानता
धन और धर्म का अंतर
‘ईख’ और ‘ईश्वर’
जात-पात / ऊँच-नीच
और अच्छे-बुरे के बीच भेद…
पढ़ाया-सिखाया जाता है
इसी धरती पर उसे
स्वार्थ की खातिर
अपने-अपने रंग-ढंग से…
पढ़ाया जाता है ऐसा पाठ
जो धर्म को जोड़ सके नैतिकता से
ईश्वर को तौल सके मानवता से…
और धीरे-धीरे सीख ले वह
पूरी अच्छाई-पूरी बुराई…
मगर यह भी जान लो तुम
कि बच्चा सिर्फ ‘भगवान’ नहीं होता
भावी शैतान भी होता है वह
आखिर किस रूप में देखना चाहते हो तुम
बच्चे को?
भगवान के रूप में
या शैतान के रूप में?
पशु के रूप में या
इन्सान के रूप में!
-सिद्धेश्वर
कक्षा
मेरी कक्षा व मेरे बच्चे,
बारिश का मौसम,
हलकी सी ठंड,
सोचा कुछ किया जाये,
दिया इक विषय
‘‘बड़े होकर क्या बनोगे?’’
सोचने लगे सब बच्चे,
पर वो नन्हा सा बालक,
हाथ खड़ा कर चीखा,
‘‘मैम, मैम’’
इशारा पाकर बोला,
‘‘मैं बड़ा होकर सेना में
जाऊँगा,
दुश्मन के छक्के छुड़ाऊँगा,
पता क्यूँ मैम?
उन्होंने मेरे पापा को मारा है,
पापा कहते थे,
‘‘मैं बेटा हूँ भारत माँ का’’
और मैं बेटा हूँ पापा का।’’
सुनकर उसका जज़्बा
गर्व हुआ मुझे,
दौड़ रहा, खौल रहा
भारत माँ के ज़र्रे-ज़र्रे
का खून।
-शबनम शर्मा
नन्हा सा दिल
ख़्वाबों में डूबा एक नन्हा सा दिल
बड़े मुश्किल सवालात करता है
फिर अपने आसां जवाबों से
मेरी जहानियत को परास्त करता है
ख़्वाबों में डूबा एक नन्हा सा दिल
पल पल हैरानो परेशान करता है
थकके जब हो जाता है बेहाल
गोदी में छुपके आराम करता है
ख़्वाबों में डूबा एक नन्हा सा दिल
बाहों के घेरे में बेफ़िक्र धड़कता है
उसकी साँसों की हल्की गरमाहट से
मेरी ममता का आँचल महकता है
ख़्वाबों में डूबे ए नन्हें से दिल
काश तू जैसा है वैसा ही रहे
तुझमें मैं अपने को पाती रहूँ
तेरी धड़कन में मेरा दिल धड़कता रहे
चिड़िया
जब भी मैं बगिया में जाऊँ
काटूँ घास पत्तियाँ उठाऊँ
आहट सी कानों में आये
पत्ते खड़कें चुप हो जायें
आँख उठाके देखूँ तो, तू बैठी है आके
चिड़िया तू मेरी क्या लागे?
पंख उठाये नाच दिखाये
फुदक फुदक के पीछे आये
पास आऊँ तो उड़े नहीं
छू लूँ फिर भी भी डरे नहीं
मेरी आँखों में तेरी नन्ही सी आँखें ताँके
चिड़िया तू मेरी क्या लागे?
आगे पीछे डोल डोल के याद दिलाए ‘उसकी’
जिसके पीछे मैं घूमा करता था बनके फिरकी
क्यारियों में फूल लगाता, हाथों में शहतूत उठाता
फ़व्वारे से पानी देता, हाथ बँटाता काम बढ़ाता!
बनके छोटी अब ‘वो’ मेरे आगे पीछे भागे
चिड़िया……. तू मेरी नानी लागे
बचपन
शायद भूल चुका हूँ मैं भी
बचपन जिसको कहते थे
आये कोई… याद दिलाये
बचपन किसको कहते थे…
चंदा जब मामा लगते थे
जिन्न चिराग़ में बसते थे
जुगनूँ जब परियाँ लगते थे
“साथ” रुपये से सस्ते थे
आये कोई…याद दिलाये
बचपन किसको कहते थे…
जब दाँव कबड्डी के लगते थे
कँचे जेबें भरते थे
कैरी, जामुन, अमरूदों के
पेड़ों पैरों चढ़ते थे
आये कोई…याद दिलाये
बचपन किसको कहते थे…
समय चक्र का पहिया
लेकिन अदभुत चित्र बनाता
जीवन को जीवन दिखलाने
फिर से जीवन लाता है
हर पल मुझको याद दिलाता
बचपन किसको कहते हैं
डॉ. नीरज शर्मा, मैन्चेस्टर।
बचपन बीत गया !
क्या बचपन मेरा बीत गया
नहीं ! नहीं !
ठहर -ठहर कर यह आता है
ममतामई की याद दिलाकर
शैशव् मन के भाव जगाता है !
बड़ा कहो न मुझको
मैं तो अनजान अबोध
बालपन की मस्ती से
पुलकित है मेरा मन !
सुखा न दे इस बगिया को
शुष्क हवा का झोंका
अधर धरा! में प्राण लटकते
प्रतिपल कम्पित होता उर
नीली -पीली आँखें करके भयभीत करो न मुझको
वही तो नैसर्गिक सुख है मेरा
छीनो मत मुझसे इसको !
सुनो .सुनो पगों की आहट
वह खुद चलकर आया है
कभी न कहना बचपन बीता मेरा
वह तो घुमड़ -घुमड़ कर आया है !
-सुधा भार्गव
खेल तमाशा दुनिया दारी
हमने निभाई हर जिम्मेदारी
बारबार खुद को समझाया
निभ सके जितना निभाया
फिर भी ताने देते अपने
अपनों ने ही मजाक बनाया
यह कैसी जिद कैसा बचपना
छोड़ो अब तुम दुखड़े गिनना
यही तो है जीवन का खेल
जब तक चले चलाओ रेल
चांद तारे गगन पर जो सारे
बचपन से चलते साथ हमारे
अपने ऐसे कि साथ ना छोड़ें
अपनेपन का अहसास दिलाते
दूर पास की बात नहीं
बात है प्यार भरोसे की
सपना नहीं बस यह एक
तस्बीरों से बाहर आ जाता
गले लगाकर हंसता गाता
याद सुहानी बचपन की
सुदृढ़ नींव ये जीवन की
दिल तो अभी बच्चा है
हरी पीली लाल नीली
रंगबिरंगी ये गोलियाँ
रोज ही तो मैं खाता हूँ
कोई दिल को ठीक रखती है
कोई दिमाग को
किसी से पैरों में ऐंठन नहीं होती
किसी से पेट में
कड़वी हैं सभी पर लेमनचूस की गोली-सा
रोज गटक जाता हूँ
स्वाद ठीक करने को अपना
फिर चूरन की गोली भी सटक जाता हूँ
कहीं पर ऱख सामान भूलता हूँ
और कहीं पर ढूँढ़ने जाता हूँ
डांटता हूँ सभीको यूँ ही
फिर सामने पाकर खुद से झेंप जाता हूँ
घंटों बात करता हूँ और सामने वाले का
नाम तक भूल जाता हूँ
शिकायत किससे करूँ पर जो भी है, जैसा भी है अच्छा है
उम्र बढ़ गई है तो क्या , दिल तो अभी मेरा बच्चा है
बैगनी कोट के संग लाल पीली पैंट पहनकर
बिना कढ़े बालों संग अक्लर बाहर घूमने जाता हूँ
जब जी चाहे, जो मन चाहे करने को मुक्त मैं
न किसी का मुझपर ध्यान ना ही मेरे पास वक्त
हंसना मत पर ए मेरे दोस्त तुम मुझ पर
इस धरती पर जबतक जीऊँ , चैन से जीऊँ
इसका बस यही तो एक तरीका है
या तो अकेला बैठा किस्मत को रोऊँ
और गुजरे वक्त का शोक मनाऊँ
या फिर हंसू बोलूँ फैसला यह मेरा अपना है
झरते दांत, बुझती आँखें और यह अकेलापन
सोचूँ और रोऊँ जीवन है या फिर एक पचड़ा है
भूलने को उम्र सैलून में मैं बाल रंगवाने जाता हूँ
फिर नौजवानों के संग पार्क में जाकर दौड़ लगाता हूँ
बैठता हूँ बीच में बीस-बीस बार
हाँफ-हाँफ भी जाता हूँ
पर बहुत चाहता हूँ अपनी
इन रंग बिरंगी शर्ट और पतलूनों को
इसी बहाने इन्हें हवा दिखाता
और खुद पर नाज कर आता हूँ
शीशे के आकर खड़ा होकर
आज भी खुद से घंटों बतियाता हूँ
कहता हूँ कितना हैंडसम है तू
और देख कितना अच्छा है
उदास होने का वक्त नहीं देती जिन्दगी,
जी ले जी भरके
अस्सी, नब्बे, सौ बस मात्र एक गिनती
मत पड़ इस फेर में
जो भी है जैसा भी है, अच्छा है
उम्र बढ़ गई तो क्या,
दिल तो अभी यह बच्चा है
बच्चा
मन के अंदर छुपा बच्चा
नित आँख-मिचौली खेले
हँस-हँस सारे सुखदुख बांटे
खिलौने-सा मुझ संग यह खेले
सिखलाए पर आजभी बहुत कुछ
खेल खेल में कह जाए मुझसे
जीना है तो खुलकर जिओ
बातें बड़ी बनाए
कितना सहज पर इसका दर्शन
मेरे मन को भाए
अपना वही जो रहता संग सदा
रूठे तो झट मन जाए
अपनों -सा व्यवहार करे
साथ खड़ा हो आँसू मुस्कानों में
छल-कपट रहित होकर घर आए
हुलस-हुलस गले लगाए
देखे और मुस्काए
जोगी-भोगी सन्यासी देखे कितने
बस बातें ही थीं वह बड़ी-बड़ी
बच्चा ही तो असली गुरु हमारा
सच कहते हैं ज्ञानी-ध्यानी
ब़ड़े हो जाते झटपट हम यूँ ही
ओढ़ लबादा बुजुर्गियत का
पर शिशुमन बिना दिखती
जीवन बगिया यह रसहीन सदा…
बचपना
यादों के खंडहर बीच
खड़ा अवाक मन
जाने कितनी बिखरती टूटती
धुँधली तस्बीरों में उलझ गया है
समय की नदी को मोड़ने को
बारबार बच्चे सा मचल रहा है
अब कहाँ होती पूजा कथा यहाँ
दीवारों से धुल मिट चुके
बूढ़ी उंगलियों के वो फीके निशान
वो सारी बातें गुजरी गीत कहानियाँ
पर बचपना ही तो आज भी इसका
भटक जाता जो उन पुरानी गलियों में
नहीं वह अल्ल सबेरे नहाई-धोई
मगन आरती गाती माँ और
चंदन की धूप और गुलाब व चमेली के फूलों की
जानी पहचानी महक
केले के चिकने चमकते पावन स्तंभ नहीं
चांदी के सिंहासन और संगमर्मर के फर्श
और आरती व घंटी का मिलाजुला शोर
सहते निरासक्त ठाकुर
कुछ भी तो नहीं पहले जैसा
बस एक ठंडा सन्नाटा पसरा पड़ा
नहीं पूजा में भी माँ की
मुस्कुराती लड़ियाती आँखें कहीं
गोदी वह ढूँढे नहीं अब मिलेगी
खोया बचपन और
जीने के वह पुराने स्तंभ
आज भी पर ढूँढता बावरा
गली-गली हुलस-हुलस।
बचपन
चांद परियाँ और तितली
फूल पंखुरी खुशबू सुहानी
कैसी बगिया थी हरी भरी
पलपल जहाँ खिलखिल बहती
नदी एक अविरल खुशियों की
हर चोट सहलाने को जब बड़े थे
दुःख भय भगाने साथ हमारे खड़े थे
आँसू भी जब मुस्काते थे
क्यारी-क्यारी नम हो-होकर
फूल-फूल खिल आते थे
पोंछ चुभन शूल की जब
मनचाहे पुष्पों से हम
मनचाहा हार बनाते थे…
शैल अग्रवाल