सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर
( भिखारी)
(वर्ष 8- अंक 86)
मंथनः शैल अग्रवाल। कहानी धरोहरः पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’। कहानी समकालीनः किशोर दिवासे। कहानी समकालीनः अंद्रे कुमार। धारावाहिकः शैल अग्रवाल। लघुकथाः शैल अग्रवाल, प्राण शर्मा। परिदृश्यः खबरें । हास्य व्यंग्यः संजीव निगम। चांद परियाँ और तितलीः नीतिकथा।
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उपेक्षितः -शैल अग्रवाल
” अवकाश भला हैं किसको, सुनने को करुण कथाएँ बेसुध जो अपने सुख से जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ ” –जयशंकर प्रसाद
आपदा के मारे, तो कभी शैशव से ही मजबूर, एक अवांछित समूह का हिस्सा हैं भिखारी।
समाज पर बोझ की तरह अनदेखे, उपेक्षित और अवांछित ..प्रायः इनकी न तो कोई शक्ल होती है और ना ही ठिकाना। स्टेशनों पर, पुलों के नीचे मंदिरों की छतों के नीचे कहीं भी जीवन निकाल लेते हैं ये और एक दिन सर्दी, गरमी, कुपोषण, किसी भी मामूली बीमारी या आपदा से उठ भी जाते हैं,. मानो वाकई में कोई जरूरत या उद्देश्य नहीं था इनके इस अनचाहे दारुण जीवन का। करुणा तो कभी नफरत पैदा करती, बेहद जिजीषा से भरी और उतनी ही असह्य जीवन शैली है इनकी… बिल्कुल रेगिस्तान में खड़े कैक्टस-सी… समाज में होते हुए भी उसका हिस्सा नहीं। हर व्यक्ति चन्द सिक्के भले ही दे दे, दामन बचाकर ही निकलता है इनसे। इनके बारे में जानने, दुख दर्द सुनने को, इनके हित और जीवन में शायद ही किसीकी रुचि हो!हर कोने हर गली, हर मंदिर , हर मस्जिद और गुरुद्वारे के बाहर खड़े मिल जाएंगे ये। फिर भी कितनी है इनकी संख्या और कैसे जीते हैं ये, शायद ही किसी को पता हो!
कबीर दास ने इनकी व्यथा से द्रवित होकर लिखा था-
‘माँगन गै सो मर रहै, मरे जु माँगन जाहिं ।तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ ‘
हमारे शास्त्र जो मदद और सहअस्तित्व की सीख देते हैं, अपनी बात को पचनीय और अनुकरणीय बनाने के लिए कर्म के साथ फल भी जोड़ देते हैं-स्वर्ग, नरक की कल्पना आदि की तरह… इन सबके रहते इन्हें खाना-पीना भले ही मिल जाता हो वरना तो अधिकतर दुतकार ही मिलती है और जीने की इस लड़ाई में इनमें से कइयों ने धूर्तता, झूठ, अभिनय आदि का भी भरपूर इस्तेमाल करना सीख लिया है। बचपन से ही भिखारियों की फैली हथेली पर कुछ न कुछ रखने की मजबूर आदत से कई बार बेवकूफ बनी हूँ, कई बार अपने ही हंसे हैं, फिर भी मन में संतोष रहा है कि यदि चंद जरूरतमंदों की मदद कर पाई, अथाह और दुखी मानव समाज में, बूंद भर प्रयास भी सही जगह पहुँचा, तो व्यर्थ नहीं। आखिर बूंद-बूंद करके ही तो सागर बनता है।
अक्सर ही इन्हें दया करुणा के साथ-साथ दुत्कार और डाँट-फटकार भी मिलती है। घृणा और हिराकत से ही देखा जाता है। कोढ़ की पट्टियों में लिपटे, तो कभी अंगभंग, अंधे और लाचार, कीडे मकोड़ों की तरह रेंगते और घिसटते , उन्ही की तरह कुचले भी जाते हैं ये। साधुओं को तो जल समाधि मिल जाती है पर इनका अंत प्रायः कचरे की ट्रक में ही होता है। न तो इन्हें देखना अच्छा लगता है और ना ही इनसे मुंह फेरना। कुत्तों की तरह जूठन और टुकड़ों पर पलते और वैसे ही पूरा जीवन निकाल देने को विवश हैं ये और अभ्यस्त भी हो जाते हैं इस नारकीय जीवन से और हम भी इन्हें यूँ ही देखते हुए इनकी तकलीफों से, इनकी जीवन शैली से। प्रायः परिस्थितियों को सुधारने की, इस नरक से निकलने की कहीं चाह नहीं दिखती, ना तो इनके अंदर और ना ही दूसरी दुनिया में जीती सी सरकार या इनके चारो तरफ फैले विकसित सभ्य समाज में।
आदिकाल से ही अस्तित्व में हैं ये दीन हीन। चोर उचक्कों का गिरोह तो है ही। आजकल तो भीख मांगना एक धंधा भी बन चुका है और योरोप वगैरह देशों में तो कला प्रदर्शन का जरिया भी। अक्सर करुणा और घृणा दोनों ही पैदा करता इनका अस्तित्व और अक्सर ही असुविधाजनक भी प्रतीत होता है, विशेषतः तब जब एक को भीख देते ही, अदृश्य दीवारों से सैकड़ों मांगने वाले निकल आते हैं, और तांता खतम ही होता नहीं दिखता। इनकी उपस्थिति सभ्य और सुरुचिपूर्ण समाज में टाट के पैबंद से ज्यादा नहीं। फिर भी रवैया यही है कि जब यूँ आराम से रोटी-रोजी चलती है, तो फिर काम करने की जरूरत ही क्या ? विचलित क्यों नहीं होते यह? क्या यह एक जीने की मजबूरी मात्र है या आलस्य या नाकारापन भी , एक आदत भी!
बनारस में पैदा और पलने बढ़ने की वजह से बहुत देखा है इन भिखारियों को। एक मुख्य धर्म-स्थान होने की वजह से पटा रहता है शहर इनसे। तीर्थयात्री जानते हैं कि यदि स्वर्ग जाना है तो इन्हें भीख तो देनी ही पड़ेगी। फिर शिव तो सदा से ही भूखे-नंगों के संरक्षक रहे हैं और शिव की नगरी है बनारस। हमारे धर्म-ग्रन्थों में भी भिखारी को भूखा न लौटाने की ही सीख है , जाने किस वेश में नारायण आ जाएँ। याद है, बचपन में घर में गाय और कुत्ते के साथ-साथ भिखारी की रोटी भी रोज जरूर ही बनती थी और दो तीन भिखारी नियमित थे। एक तो सी. आई. ए का एजेंट निकला। रोज नाश्ता घर की पौली में बैठकर खाता। ठीक आठ बजे नियम से आता। जानता था कि खाना ताजा और शुद्ध मिलेगा। माँ ध्यान रखतीं कि भूखे बंगाली की रोटी निकल चुकी है या नहीं। बीसियों साल तक यही सिलसिला चला और उसके मरने के बाद जब उसकी तस्बीर , जीवनी के साथ अखबार में निकली तो माँ तक को विश्वास नहीं हुआ कि ‘ भीखा देई माँ’ कहकर रोज मांगकर रोटी सब्जी खाने वाला वह बंगाली, भिखारी नहीं, एक सरकारी अफसर था। धोखेबाज, चोर-उचक्के और साधु-संत सभी अक्सर शामिल हो जाते हैं इस जमात और धंधे में। दूसरा धूनी रमाने वाला साधु, जो गंगा किनारे ही पड़ा रहता था। रोज सीधा ले जाता और खुद ही बनाकर खाता। इसी तरह कानपुर में एक भिखारी की झुग्गी से उसके मरने पर लाखों रुपये मिले वह भी 20 वीं सदी के पांचवे दशक के अन्त में जब यह रकम अच्छा-खासा महत्व रखती थी। कई रोचक किस्से हैं इन अजीबो गरीब प्राणियों के पर फिर कभी सही। हाँ पूस और माह की कड़कड़ाती ठंड में ये यूँ ही न एँठ जाएँ इसलिए बहुतों को कंबल उढ़ाए हैं, पुलों और स्टेशनों पर . मंदिर की सीढ़ियों पर जाकर। स्वर्ग और नरक में नहीं विश्वास करते थे पिताजी पर दूसरों की मदद जितनी हो सके अवश्य करते थे। एकाध को छोटे-मोटे काम पर भी रखा, पर जब खुद उन्हीकी जेब से नोट उड़ाया गया, तो तुरंत पुलिस में देने को भी तैयार हो गए थे। वह तो उसकी आँखों का भय देखकर भयभीत बेटी रोने लगी थी और उसे छोड़ने की प्रार्थना करने लगी थी तो छोड़ भी दिया था, पर थप्पड़ तो पड़े ही थे और जाने से पहले, उसने वह नोट भी उनके पैरों पर वापस लाकर रख दिया था।
माना गरीब देशों में उपेक्षित तबका है यह भूखे और असहायों का। पर सभी असहाय और भूखे हों, यह भी सच नहीं।
सन 63 की बात रही होगी। 15-16 वर्ष की उम्र थी और ताई जी अपनी बहन के यहाँ, मद्रास से लौट रही थीं। कौलेज से लौटते हुए हमें उन्हें स्टेशन से लेकर घर लौटना था। इंटर के इम्तहान चल रहे थे। अप्रैल या मई का महीना था । ड्राइवर ने कहा-बिटिया आप यहीं गाड़ी में इन्तजार करो। मैं पांच मिनट में बड़ी माँ को लेकर लौटा। आप क्या करोगी परेशान होकर।
बात सही लगी और वहीं रुक गई। यूँ तो छांव में गाड़ी खड़ी थी परन्तु गरमी तेज थी, इस लिए कार की खिड़की खोल ली। अचानक एक हट्टी कट्टी औरत गोदी में बच्चे को लिए आई और रिरियाने लगी-‘ ‘ए बहनी, कुछ खाने को दे दे, सुबह से कुछ नहीं खाया है, मेरा बच्चा भूखा है ।‘ बस्ते से निकालकर कुछ देते-देते अनायास ही मुँह से निकला-‘ बच्चे की इतनी ही फिक्र है तो कुछ काम क्यों नहीं करतीं, यूँ भीख मांग-मांगकर बच्चे को कैसे बड़ा कर पाओगी ? ‘
रुपया तो उसने अपनी कांख में रख लिया पर उसका रवैया अब आक्रामक था।
‘ गाड़ी में बैठी-बैठी, रेशमी साड़ी पहने भाषण देती है मुझे… ! ‘ और उसका हाथ झपटकर गले की सोने की चेन पर था । मुझमें भी बला की फुर्ती आ गई। एक हाथ से उसका हाथ पकड़ते हुए, बेहद तेजी से गाड़ी का शीशा ऊपर चढ़ा दिया। अब उसका हाथ फसा हुआ था और वह दर्द से चिल्ला रही थी। दहाड़ें सुनकर एक पुलिस कान्स्टेवल भी मदद के लिए आ गया और उसे ले गया।
हो सकता है कि आज भी बामपंथियों की पूरी सहानुभूति उसी औरत के साथ हो, परन्तु इस तरह का अनैतिक और आक्रामक व्यवहार अपराध ही है। मुझे नहीं लगता कि भाषण दिया था। उसका पूरा दर्द महसूस करके ही कहा था। बहुत बार ठगी और छली गई हूँ यूँ दीन-हीन जानकर लोगों की मदद करते हुए , फिर भी करती हूँ, क्योंकि डरती हूँ कि यदि न की तो कहीं वाकई में जरूरतमंद, मदद से वंचित न रह जाए।
धोखेबाज, चोर-उचक्के, सयाने और साधु-संत अक्सर सभी शामिल हो जाते हैं इस जमात और धंधे में और साधु-सन्यासी , ठग और भिखारियों में भेद कर पाना प्रायः असंभव ही रहता है। किसी सरकार ने कभी इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया है और इन्हें एक व्यवस्थित जिन्दगी के लिए प्रशिक्षित करने की कोई कोशिश नहीं की गई। प्रायः समाज के हताश निराश, अनाथ व ठुकराए मजबूर व्यक्तिओं के पास इस तरह के जीवन के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता, फिर चाहे वे परित्यक्त विधवाएँ हों या अनाथ लावारिश बच्चे या धक्का देकर बाहर निकाले, जीवन से हारे वृद्ध या असाध्य रोग से त्रसित, मरने का इंतजार करते कोढ़ी आदि। मदद नहीं, कई तो व्यवसाय की तरह चलाते है भीख मांगने के धंधे को जहाँ गिरोह के आका चुराए और उठाए बच्चों को बचपन में ही हाथ पैर तोड़कर रीढ़-विहीन और करुणा का पात्र बना देते हैं, ताकि आते जाते लोगों के दया के दरिया में बाढ़ आती रहे और कमाई का कटोरा सिक्कों से भरा रहे। जानवरों की तरह कूड़े से बीनकर यह भी पेट भर ही लेते हैं। परन्तु उपहास और उपेक्षा का पात्र बना इनका जीवन प्रायः अनचाहा और उपेक्षित ही रहता है और कई तो वेश्यावृत्ति और तस्करी आदि के जाल में भी उलझ जाते हैं। सरकार और सक्षम समाज की तरफ से न सिर्फ बुनियादी जरूरतें अपितु सहायता और निगरानी, दिशा निर्देश व शिक्षा, सबका इन्जाम होना चाहिए इन अभागों के लिए।
गरीब और तीसरी दुनिया ही नहीं, अमीर और सभ्य देश भी नहीं मिटा पाए हैं, इन्हें अपने समाज से। यह बात दूसरी है कि इन देशों में यह गरीबी के मारे नहीं बल्कि शराब और जुए के , मादक द्रव्यों के व्यसनी हैं या फिर कलाकार हैं। विद्यार्थी हैं। …अपनी धुन के धुनी, जीविकोपार्जन जैसे नियमित काम के लिए वक्त नहीं दे पाते इन्हें इनके शौक और सध नहीं पातीं इनकी लतें । आम बात है यूरोप के शहरों में तस्बीर बनाते, गिटार पर गाते हुए, बगल में कटोरा रखा दिख जाना, जिसमें आते जातों से इतने पैसे आ ही जाते हैं कि जरूरतें पूरी हो जाएं। वाकई में एक धंधे या शौक की सहूलियत की तरह ही अपना लिया गया है इसे भी।
जब भीख की जरूरतें नई-नई होती जा रही हैं तो मांगने के तरीके भी नए-नए देखने को मिलते हैं। पर्यटक स्थलों पर प्रायः तरह-तरह के कलात्मक रूप धरे खड़े मिलते हैं। जैसे स्टैच्यू औफ लिबर्टी या मदर मैरी।
‘क्या आप मुझे बीयर के लिए एक पौंड दे सकती हैं?’ कितनी बार यहाँ यूरोप के बाजार और दुकानों में ऐसे सभ्य से मंगते मिले हैं और मेरी आँखें आश्चर्य में फटी-की फटी रह गई हैं। पर शराब के लिए एक कौड़ी भी नहीं मेरे पास-कहकर आगे बढ़ गई हूँ हमेशा। भारत में एक-दो बार इनसे बात करके, सलाह देकर बिनाबात मन खारा कर चुकी हूँ।
गर्लफ्रैंड वाला भिखारी का यह चुटकुला शायद इसी दिल फरेब योरोपियन संस्कृति की ही उपज रही होगी- ‘ पांच पौण्ड दे दो। चाय पीनी है।पर चाय तो दो पौण्ड में ही आ जाती है।गर्लफ्रैंड भी तो है साथ में।ओहो , तो अब भिखारियों की भी गर्लफ्रैंड होने लगीं क्या? गलत। गर्लफ्रैंड ने ही भिखारी बनाया है मुझे।‘
यूँ तो अब भारत में भी भिखारियों में परिवर्तन आ रहा है। यदि आप छोटे सिक्के दो तो बजाय आभारी होने के कई उन्हें लौटाने में भी नहीं हिचकिचाते ।
हरियाणवी, जो अपने मुंहफट रवैये और हाजिरजवाबी के लिए जाना जाता है, जट्टपन के लिए जाना जाता है और ‘बछिए के ताऊ ‘ जैसी मौलिक गालियों के लिए जाना जाता है , वहाँ के भिखारी तक उतने ही हाजिर जवाब हैं – तंदुरस्त नौजवान को भीख मांगते देखकर जाट ने कहा – हट्टे कट्टे होकर भीख मांग रहे हो, शर्म नहीं आती ? भिखारी बोला- तो क्या अब भीख के लिए भी हाथ पैर तुड़वाने होंगे ?’ जाट फिर बोला-‘ शर्म नहीं आती दिन-दहाड़े सड़क के बीचोबीच खड़े होकर यूँ भीख मांगने में?’ भिखारी बोला-‘ तो क्या भीख मांगने के लिए औफिस खोलकर बैठूँ ?’
हँसी मजाक एक किनारे, प्रायः चन्द सिक्के उछालकर निजात् पा लेते हैं हम इनके प्रति खुद को बेचैन करते भावों से। सरकार भी आए दिन योजनाएं बनाती है, परन्तु वाकई में कुछ करने की न तो जरूरत ही समझी जाती है और ना ही वक्त ही है किसी के पास…सरकार के पास तो हरगिज ही नहीं। वैसे भी झुग्गी-झोपड़ियों को गिरा कर दुनिया के सामने चमकीला चेहरा प्रस्तुत करने वाली सरकार के बस में तो है भी नहीं यह। आज के राजा ( नेता) तो खुद ही भिखारी हैं। सरकारी कोष का बड़ा हिस्सा उनके उदर में या भाई-भतीजों में बंट जाता है। जनता का, विशेषतः दीन-हीनों का ध्यान रखें इतना नहीं बच पाता।वैदिक काल में जब विद्यार्थी और तपस्वी जंगलों और कंदराओं में जीवन और सृष्टि के रहस्यों में या तप अनुष्ठानों में डूबे रहते थे उनकी पढ़ाई-लिखाई व क्रिया-कलापों के लिए सक्षम वर्ग संरक्षण देता था। भरण-पोषण का जिम्मा राजा और धनाढ्य अपने ऊपर ले लेते थे। जिसके भी द्वार पर भिक्षुक जाते, वह उन्हें भोजन करा देता या राशन पानी दे देता, ताकि वे खुद अपना भरण-पोषण कर पाएँ और जीवकोपार्जन के लिए भटकने में बहुमूल्य ज्ञानर्जन का वक्त न बरवाद करें । यूँ एक सदाशय था इस जीवन प्रणाली में। पर सदाशय से शुरु हुई यह व्यवस्था कब और कैसे वर्तमान स्वरूप की कायर और कभी-कभी तो बेहद करुण, वीभत्स और कुत्सित व्यापारिक व्यवस्था में परिवर्तित हो गई कहना मुश्किल है।
कोई नहीं पसंद करता ऐसा जीवन। दुर्भाग्य, मजबूरी या घोर निराशा ही घसीटती होगी इंसान को भीख मांगने के लिए। भिखारी शब्द ही दयनीय और परावलंबित है और समाज की व्यवस्था और सुचारुता व विकास और सभ्यता पर दाग है। सोचिए जो भूख से बिलबिलाकर हाथ फैलाता है, कितना कष्टकर होता होगा उसका अभावों से भरा तिरस्कृत जीवन। मानो भगवान बनाकर भूल गया हो उन्हें, मानो भगवान है ही नहीं कहीं, वरना इतने दुख, दुत्कार और अपमान, वह भी एक ही जनम में!… ————————————————————————————————————————————————- कहानी धरोहर
ईश्वरद्रोही-पांडे बेचन शर्मा उग्र
एक वर्ष पहले की बात है। कलकत्ता के मछुआ बाजार की एक गली में एक भिखारिन चली जा रही थी। उसके तन पर गन्दा और कई स्थानों पर बुरी तरह से फटा हुआ पुराना चूडीदार पायजामा और उसी तरह का एक कुर्ता था। माथे पर चद्दर के स्थान पर दो हाथ लंबा और हाथ भर चौडा कपड़ा – कपड़ा क्या, चीथड़ा – था। प्रात: नौ-दस बजे का समय था। व्यापार-जीवी जन अपने अपने धंधे की धुन में इधर से उधर और उधर से इधर आ-जाकर गली के शांत हृदय पर अशांति का सिक्का बैठा रहे थे।
एक नवयुवक मुसलमान को अपनी बगल से गुजरते देख भिखारिन ने सवाल किया, ‘खुदा के नाम पर बड़े मियाँ कुछ रहम हो।’
‘क्या?’ नवयुवक ने जरा गौर से सवाल करने वाली की ओर देखा। वह युवती थी।
‘बड़ी भूख लगी है,’ युवक को रुकते देख भिखारिन ने अपने सवाल को दुहराया, ‘कल से ही कुछ खाने को नहीं मिला है। कुछ मेहरबानी हो, खुदा आपको सलामत रखे।’
‘घर पर चलेगी?’ युवक ने भिखारिन से ऐसे स्वर से पूछा जिसमें दया से अधिक शोहदापन था।
युवक की दुष्टता-भरी आँखों और मुसकराते हुए मुख को देखकर भिखारिन के कपोलों पर सुर्खी दौड़ गयी। उसने विनम्र भाव से उत्तर दिया, ‘यहीं कुछ रहम कर दीजिए।’
‘घर पर चल तो सब कुछ किया जा सकता है, यहाँ नहीं। पास में पैसे नहीं हैं।’
‘तो जाने दीजिए। किसी दूसरे दाता का दरवाजा खटखटाऊँगी। (सामने एक मकान की ओर अँगुली दिखाकर) यह मुसलमान का घर है?’
‘तो मेरे घर पर न चलेगी?’
‘नहीं। जरा बतला दीलिए, यह किसी मुसलमान का घर है?’
नवयुवक मुसलमान ने भिखारिन को घर पर चलने पर राजी होते न देख जरा चिढ़कर कहा, ‘हाँ, जाओ। वहाँ तुम्हारी खातिर हो जाएगी। मुसलमान का घर है।’
युवक आगे बढ़ा। भिखारिन भी उस मकान की ओर बढ़ी। मकान का दरवाजा छूते ही खुल गया और सीढ़ियों का सिलसिला दिखाई पड़ा। एक बार क्षण-भर के लिए भिखारिन हिचकी, मगर फिर न जाने क्या सोचकर, धीरे-धीरे सीढ़ियों पर चढ़ने लगी।
सीढ़ियों के सिरे पर दूसरा दरवाजा दिखाई पड़ा जो खुला था। दरवाजे से सटा हुआ, साधारण ढंग से सजा एक कमरा था। आपस में सटी हुई दो-तीन चौकियों पर गद्दे और सफेद चादर बिछे थे, और उस पर मसनद के सहारे बैठा कोई नवयुवक कुछ पढ़ रहा था। युवक लम्बा-गोरा और सुन्दर था। उसकी अवस्था सत्तरह-अठारह वर्ष की मालूम पड़ती थी। भिखारिन दरवाजे के पास चुपचाप खड़ी होकर युवक की ओर देखने लगी, मगर युवक को इस युवती भिखारिन के आने की कोई खबर नहीं। इसी समय मकान के भीतर से आवाज आयी, ‘राम ! बाहर जाना तो मुझसे कहकर जाना। मैं दरवाजा बन्द कर दूँगा।’
‘अच्छा, बाबूजी!!’ कहकर युवक ने अपनी गर्दन फेरी। दरवाजे पर जो नजर गयी तो देखा कि चीथड़ों में लिपटी हुई लक्ष्मी-सी सुन्दरी कोई स्त्री खड़ी है। यह रूप! यह वेश! ! माजरा क्या है? युवक बिना हिले-डुले चुपचाप उस युवती की ओर देखने लगा। युवती के कपोल रूखे थे, मगर थे गुलाबी। होंठ सूखे, मगर थे सरस! उसकी आँखों की चारों ओर कालिमा थी, मगर आँखें बोलती थीं। गन्दे और फटे कुरते और पाजामे के बाहर उसका चम्पक-वर्ण शरीर देखने से मालूम पड़ता था मानो सौन्दर्य फटा पड़ता है। क्षण-भर मुग्ध दृष्टि से उस भिखारिन के सौन्दर्य को देखने के बाद युवक को कर्तव्य का ज्ञान हुआ। वह जरा सँभलकर बैठ गया। उसने उस मुसकराहट के साथ, जिसे हृदय अधिक देखता है, आँखें कम, उससे पूछा – ‘क्या है?’
उसी स्वर और उसी भाव से भिखारिन ने भी पूछा – ‘तुम मुसलमान हो?’
भिखारिन का ‘तुम’ असभ्य था, धृष्ट था, मगर युवक को वह बड़ा ही प्यारा मालूम पड़ा।
उसने उत्तर दिया, ‘मैं मुसलमान नहीं, हिन्दू हँ। क्यों?’
‘नहीं, तुम मुसलमान हो,’ कहकर भिखारिन मुसकरा पड़ी।
युवक चौकी से नीचे उतर भिखारिन के सामने, दरवाजे के पास जा खड़ा हुआ और कहने लगा, ‘आखिर तुम्हें चाहिए क्या?’
‘भीख। पैसे!’
‘तुम भीख माँगा करती हो? तुम्हारी जात क्या है?’
‘देखते नहीं हो! मैं मुसलमान हूँ।’
‘कहाँ घर है?’
‘लखनऊ।’
‘यहाँ कलकत्ता में क्या करती हो?’
‘भीख माँगती हूँ।’
भिखारिन युवक के प्रश्नों का ढंग और उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव देखकर हँसने लगी।
‘कुछ देते हो?’ भिखारिन ने युवक से पूछा।
‘क्या लोगी?’
‘जो दे दो।’
‘अच्छा, जरा ठहरो। बाबूजी को बुलाता हूँ। वही देंगे।’
‘तब मैं जाती हँ। तुम्हें कुछ देना-लेना नहीं है।’ भिखारिन एक सीढ़ी नीचे उतर गयी, मगर लीला से आँखें ऊपर चढ़ाकर। युवक ने उसे पुकारते हुए कहा, ‘जाना नहीं, जाना नहीं। एक बार बाबूजी से पूछ लूँ, फिर तुम्हें कुछ-न-कुछ दूँगा। जरूर दूँगा।’
नवाबजादी
युवक भिखारिन को वहीं छोड़कर के भीतर गया और थोड़ी देर बाद एक दूसरे पुरुष के साथ लौटा। दूसरे पुरुष की अवस्था पचास वर्ष की मालूम पड़ती थी। उसके सिर के आधे से अधिक बाल सफेद हो गये थे। मुख पर बड़ी-बड़ी मूँछें और दाढ़ी थी। उसका चेहरा बड़ा रोबदार मालूम पड़ता था। वही युवक का ‘बाबूजी’ था।
भिखारिन को सिर से पैर तक कई बार देख लेने के बाद उन्होंने पूछा, ‘तुम अकेली हो या तुम्हारे कोई और भी है?’
भिखारिन की नीचे झुकी हुई आँखें इस प्रश्न पर सजल हो गयीं। उसने गम्भीर होकर कहा, ‘इस वक्त मैं दुनिया में अकेली हूँ।’ ‘
तुम्हारा रूप साधारण भिखारिनों से भिन्न है। अनुभवी आँखें इस फटी अवस्था में भी तुम्हें भिखारिन मानने को तैयार नहीं हो सकतीं। तुम्हारे पिता-माता क्या करते थे?’
भिखारिन की आँखों से निकलकर पानी के दो छोटे टुकड़े उसके गुलाबी गालों पर चमकने लगे। युवक ने देखा, सौन्दर्य को जीवन मिल गया! वृध्द ने देखा ! रूप कविता करने लगा!
भिखारिन ने कहा, ‘मेरे पिता-माता दिन में अपनी बदकिस्मती पर रोया करते थे और रात में मुँह छिपाकर – वेश बदलकर – पेट को भरने के लिए, भीख माँगा करते थे!’
‘क्या वे हमेशा के भिखमंगे ही थे?’
‘नहीं!’ एक लम्बी साँस खींचकर भिखारिन ने कहा, ‘हमारे दादा लखनऊ के एक नवाब थे। अवध से नवाबी का खातमा होने के बाद मेरे दादा ने अँग्रेजों का विरोध और लखनऊ के नवाब वाजिद अली का समर्थन किया था। वाजिदअली शाह के कैद हो जाने के पन्द्रह साल बाद दादा की मौत हो गयी। उस वक्त भी मेरे पिता के पास, हमारी जिन्दगी आराम से बसर करने भर को, काफी धन था। मगर पिता में नवाबों का खून था। उन्होंने पैसे को पानी के भाव बहाने का अभ्यास किया था। जब तक उनके पास धन था वे उसकी कुछ भी परवाह न करते थे। आखिर एक दिन हम एकदम भिखमंगे हो गये। दाने-दाने के मुहताज हो गये और हिन्दुस्तान के कोड़ियों नवाबों की तरह हो गये दरवेश। मेरे वालिद और वालदा पर जो-जो मुसीबतें गुजरी हैं उन्हें मैं आपको सुना नहीं सकी। मेरे तीन बड़े भाई और एक बहन एक टुकड़ा रोटी और ‘चुल्लू-भर’ पानी के लिए मर गये। तकलीफें झेलते-झेलते और भीख माँगते-माँगते मेरे माँ-बाप अन्धे होकर, तीन महीने हुए, दुनिया से कूच कर गये! नवाबी के उन लाड़लों को कोई दफनाने वाला भी नहीं था। उनकी वही हालत हुई जो लावारिस मुर्दों की हुआ करती है। ‘वालिद के सामने ही लखनऊ के आवारों और शोहदों को बद-नजर मेरे ऊपर थी। उनके मरने के बाद मेरा वहाँ रहना दूभर हो गया। मेरी बेइज्जती करने की ताक में पचासों बदमाश लग गये। मुझे सहारा देने वाला कोई नहीं। लाचार होकर मुझे लखनऊ से भागना पड़ा। कलकत्ता की मैंने बड़ी तारींफ सुनी थी। सुना था, वहाँ हजारों गरीब दुखिया सुख से जीते हैं। इसीलिए मैं यहाँ भाग आयी। मगर उफ!! यहाँ भी दुनिया का वैसा ही रुख है जैसा लखनऊ में। यहाँ भी रहम करने वाले कम हैं और दोजखी कुत्तों की भरमार है। पन्द्रह दिनों से इस शहर की हालत देख रही हँ। जिसे देखो वही आवाज कसने और बेइज्जत करने को तैयार है, मगर, खुदा के नाम पर किसी गरीब को पनाह देनेवाला कोई नहीं। मैंने न जाने कौन-सा गुनाह किया था जिसका नतीजा इस तरह भुगत रही हूँ। मेरी किस्मत में मौत भी…’
भिखारिन की आँखों के मोती उसके रूखे और गन्दे पैरों पर बरसने लगे।
युवक के बाबूजी ने कहा, ‘इस घर में रहोगी, बेटी?’
‘मैं मुसलमान हँ।’
‘कोई हर्ज नहीं। मुसलमान भी आदमी है, हिन्दू भी। मैं आदमीपरस्त हूँ, हिन्दू या मुसलमानपरस्त नहीं। तुम्हें अगर कोई एतराज न हो तो इस घर में तुम्हारे लिए बहुत जगह है।’
भिखारिन की नीचे झुकी हुई आँखें ऊपर उठीं। वृद्ध की आँखों ने देखा, उस अभागिनी के नेत्रों में एक इतिहास था जिसे ‘हिन्दू’ नहीं, ‘मुसलमान’ या ‘ईसाई’ भी नहीं, केवल ‘आदमी’ ही पढ़ सकता था!
गोपालजी
नवयुवक का नाम था रामजी और उसके बाबूजी का गोपालजी। गोपालजी को उनके वंश का जो कुछ इतिहास मालूम था वह विचित्र था। जिस व्यक्ति को गोपालजी अपना पिता समझते थे उसने अपने अन्तिम समय में उन्हें बुलाकर कहा, ‘बेटा! तुम मुझे ‘बाबूजी’ कहकर पुकारा करते हो। सन्तानहीन होने के कारण मैंने और मेरी स्त्री ने तुम्हें पुत्र की तरह पाला-पोसा और प्यार किया है। मगर तुम हमारे पुत्र नहीं हो, तुम्हारी नसों में इस गरीब व्यक्ति का रक्त नहीं बहता है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि मैं इस बात को तुम पर प्रकट न करता और तुम्हारे हृदय को ठेस न देता, मगर अब मुझे ईश्वर के दरबार में जाना है, किसी को असत्य और अन्धकार में छोड़ देने से पाप होगा।
‘तुम्हारी असली माँ क्षत्राणी थी, मैं वैश्य हूँ। तुम्हारी माता के पति एक देशी रियासत के कर्मचारी थे। उसी रियासत के राजा की नजर तुम्हारी सुन्दरी और युवती माता पर गड़ी थी। वह किसी-न-किसी तरह उन्हें भ्रष्ट करने की धुन में था, मगर तुम्हारी माँ के पति भी वीर थे, क्षत्रिय थे। इसी कारण से राजा की हिम्मत न पड़ती थी। अन्त में राजा ने एक युक्ति सोची। तुम्हारी माँ के पति को एक झूठे बहाने से, रियासत के काम से, परदेश भेज दिया, और वहीं कभी यहाँ, कभी वहाँ डेढ़ वर्ष तक रखा। ‘
पति को विदेश भेज उसकी पत्नी को महाराज ने पहले तो सीधे से लालच दिखाकर और भय दिखाकर अपने काबू में करना चाहा। मगर जब युक्ति से उनकी दाल न गली तब एक रात अपने गुप्त कर्मचारियों को भेज, उन्हें जबरदस्ती घर से पकड़वा मँगाया। किसी को कानोंकान ख़बर भी न हुई। उसी दिन से तुम्हारी माता के पतन का आरम्भ हुआ। फिर वह बिना किसी तरह के एतराज के महाराज की सेवा में बराबर जाया करती थीं। आखिर तुम्हारी सृष्टि हुई।
‘मैं रियासत का दस रुपये महीने का एक साधारण कर्मचारी था। जिस दिन तुमने जन्म लिया उस दिन महाराज ने मुझे बुलाया और मेरे हाथों में पाँच हजार रुपये की एक थैली और तुम्हें देकर कहा कि ‘इस लड़के को लेकर तुम कहीं और जाकर रहो। देखो, यह रहस्य प्रकट न करना।’ बस, मैं तुम्हें लेकर कलकत्ता चला आया। मेरी स्त्री, सन्तान न होने के कारण, तुम्हें पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और हम दोनों ने तुम्हें अपनी औलाद के नाम पर समाज में परिचित कराया, पढ़ाया-लिखाया। यह सब होते हुए भी हमारी सम्पत्ति तुम्हारी ही है। अब मैं मरने वाला हँ, तुम अपने पिता या माता को खोजने की चेष्टा न करना। क्योंकि संसार तुम्हारी बातों को सुनकर केवल हँसेगा, तुम्हारा अपमान करेगा। अस्तु, तुम मेरे पुत्र हो, मैं तुम्हारा पिता हूँ और यह धर्ममाता ही तुम्हारी जननी है!’
यही है वृद्ध गोपालजी का वंश-परिचय। मरने के दो वर्ष पूर्व ही उनके पालक पिता ने उनका ब्याह भी कर दिया था। धर्मपिता की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद उनकी धर्ममाता की भी इहलीला समाप्त हो गयी। फिर गोपालजी और उनकी स्त्री के ही हाथों में उक्त वैश्य-परिवार की बची-खुची सम्पति आयी जिसे गोपालजी ने बढ़ाया भी। एक बार लोहे की दलाली में उन्हें एक लाख रुपये का मुनाफा हुआ। बस, उन्हीं रुपयों को बैंक में जमा कर, गोपालजी समाज से और व्यापार से अलग रहकर जीवन-यापन करने लगे।
समाज और व्यापार से अलग होने का एक कारण था। जब से उन्हें अपने जन्म का इतिहास मालूम हुआ तब से उनकी विचित्र अवस्था हो गयी। वह अक्सर एक ठंडी साँस लेकर अपने किसी मित्र या स्त्री से कहते कि ‘यह संसार धोंखेबाजों, बदमाशों और बेईमानों का अखाड़ा है।’ ईश्वर के तो नाम से उन्हें चिढ़ थी। उनकी चर्चा चलने पर गोपालजी तमककर कह उठते कि ‘सब झूठ है, सब धोखा है, ईश्वर कोई नहीं है, कहीं नहीं है। गरीबों और मूर्खों पर अपनी हुकूमत कायम रखने के लिए अमीरों और दुनिया को नरक बनाने वाले समझदारों की अक्ल ने इस ईश्वर की रचना की है। सब झूठ है, सब धोखा है।’ गोपालजी के हृदय की इस स्पष्ट तसवीर को देखने के लिए समाज तैयार नहीं हुआ।
एक बात और भी थी। केवल ‘मानव-धर्म’ के पुजारी गोपालजी किसी भी जाति के किसी भी आदमी के हाथ से खाना-पानी ग्रहण कर लेते थे। यह समाज के लिए असह्य था। मगर गोपालजी अपने धर्म के पक्के थे। वह समाज की उपेक्षा को उपेक्षा की दृष्टि से देखते और समाज के ढोंगी कर्णधारों से नफरत करते थे। वृध्द गोपालजी की नजरों में धर्म तुच्छ था, धन तुच्छ था, ढोंगियों का समाज तुच्छ था मन्दिर, मस्जिद और गिरजे तुच्छ थे और परम तुच्छ था उक्त सारी खुरांफातों की जड़ ईश्वर।
उनका हृदय आँसुओं के आगे पिघल उठता था, दुर्बलों पर द्रवित होता था। संसार के कमजोर और अपमानित, दरिद्र और पतित उनके ईश्वर थे । मनुष्यत्व उनका धर्म था!
रामजी
रामजी जिस समय पाँच वर्ष का अज्ञान बालक था उसी समय उसकी माता गोपालजी की पत्नी का देहान्त हो गया था। तब से बराबर गोपालजी के ही प्रेम से उसका पालन-पोषण हुआ। पिता का पुत्र और पुत्र का पिता पर अलौकिक प्रेम था। स्त्री का देहान्त हो जाने के बाद, चाहते तो, गोपालजी दूसरी शादी कर सकते थे, मगर उन्होंने वैसा नहीं किया। उनका कहना था कि विवाह का मुख्य उद्देश्य प्रेम होना चाहिए, वासना नहीं। स्त्री के न रहने पर भी उनके प्रेम का पात्र, उनका और उनकी पत्नी का सम्मिलित स्नेह-चित्र रामजी तो था ही। फिर दूसरा विवाह करने की आवश्यकता?
स्त्री की मृत्यु के बाद, पहले कुछ दिनों तक, गोपालजी ने एक अधेड़ ब्राह्मणी को रामजी की देख-रेख और भोजन तैयार करने के लिए नौकर रख लिया था। मगर बाद को यह अनुभव कर कि ब्राह्मणी देवी ‘राम दोहाई’ और ‘भगवान् जानें’ की आड़ में रामजी के हिस्से का दूध, घी और मक्खन अपने या अपने बच्चों के मसरफ में लाती हैं, उन्होंने उसे निकाल बाहर किया और स्वयं रामजी की धात्री और माता बन बैठे। पुत्र का नहलाना-धुलाना, खाना पकाना और खिलाना वह स्वयं करने लगे। सहायता के लिए एक नौकर भी रख लिया। छुटपन से लेकर वयस्क हो जाने तक बराबर वह रामजी को अपने साथ छाती से लगाकर सुलाते थे। उनका ‘राम’ उनकी दृष्टि से इस दुखमय, पापमय और हाय-हायमय संसार का सर्वश्रेष्ठ सुख था। रामजी को देखते ही वह एक अद्वितीय और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करते, प्रसन्न-वदन हो जाते थे। राम को पढ़ाने का उन्होंने यथा-शक्य बहुत सुन्दर प्रबन्ध कर रखा था। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा पास कर द्वितीय वर्ष श्रेणी में पढ़ रहा था। कालेज में उसने अँग्रेजी के साथ संस्कृत ले रखी थी और घर पर गोपाल जी के एक पुराने मित्र मौलवी साहब उसे फारसी पढ़ाया करते थे।
ईश्वरद्रोही गोपालजी का हृदय-सर्वस्व ‘राम’ स्वभावत: हिन्दू था, ईश्वर को मानने वाला था। स्वयं देवी-देवताओं में विश्वास न रखते हुए भी, पुत्र के आग्रह से, वह राम-मन्दिर में भी जाते थे और काली-बाड़ी में भी। कभी-कभी नास्तिक पिता और आस्तिक पुत्र में ‘ईश्वर’ को लेकर बड़ा सुन्दर विवाद हुआ करता था, जिसमें विजयी होने पर भी, गोपालजी को पराजय स्वीकार करनी पड़ती। परन्तु तब जब पुत्र पिता के गले में हाथ डाल, कपोल से कपोल सटाकर कहता था कि ‘बाबूजी, जब तक तुम ‘राम-राम’ न कहोगे मैं भोजन न करूँगा, राम हमारे भगवान हैं।’ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर गोपालजी मुसकराकर ‘राम-राम’ कहकर कहने लगते कि ‘राम तो मेरा दुलारा और प्यारा पुत्र है। भला ‘राम-राम’ कहने में मुझे आपत्ति हो सकती है?’
मौलवी साहब
अभी कल तक कलकत्ता में जिस दंगे का तांडव नृत्य हो रहा था उसके आरम्भ होने के पन्द्रह दिनों पूर्व गोपालजी के पुराने मित्र और रामजी के फारसी-शिक्षक मौलवी सदाअतुल्ला और ईश्वरद्रोही गोपालजी में ‘हिन्दू और मुसलमान’ विषय पर खासी बहस हुई। बहस का आरम्भ मौलवी साहब ने इस प्रकार किया था : ‘आपकी भिखारिन बेटी कैसी है?’
गोपाल – ‘भली-चंगी और प्रसन्न। क्यों?’
मौलवी – ‘मुहल्ले के मुसलमान जानते हैं कि आपकी बेटी हिन्दू नहीं है।’
गोपाल – ‘तो? इसका अर्थ?’
मौलवी – ‘इसका अर्थ तो मैं नहीं जानता। हाँ, लोग आपस में इस बात की सलाह कर रहे हैं कि उसे आपसे माँगकर फिर से दीन इस्लाम में मिला लें। मुसलमान अपनी औलाद को हिन्दू के घर में, हिन्दू की तरह, नहीं देख सकते।’
‘हा हा हा हा!’ रुक्ष अट्टहास करते हुए ईश्वर-द्रोही ने कहा, ‘उस दिन मुसलमान कहाँ थे जब भिखारिन भूखों मर रही थी? उस दिन दीन इस्लाम कहाँ था जब अपने को मुसलमान कहनेवाले कुत्ते उसके पाक दामन को गन्दा करने पर उतारू थे? अरे यारो! बुग्ज, शैतानी, बदमाशी और लड़ाई का नाम ‘दीन इस्लाम’ नहीं है। काहे को खुदा और मंजहब को बदनाम करने पर कमर कसते हो?’
‘यह बदमाशी नहीं है जनाब, इसे अपने मजहब की कद्र करना कहते हैं।’ ‘इनसान का मजहब इनसान की कद्र करना है। जिस धर्म में आदमी की इज्जत नहीं, वह धर्म नहीं धोखा है।’ ‘मुसलमान का धर्म है मुसलमान की कद्र करना। जो मुसलमान नहीं, वह काफिर है।’
‘ठहरिए!’
नास्तिक ने उत्तेजित होकर कहा, ‘किसी को कांफिर समझना आदमीयत का अपमान करना है। वैसे तो मैं किसी भी धर्म और किसी भी ईश्वर को नहीं मानता, मगर…मगर…’ ‘मगर?’ ‘मगर…अगर कोई अपने को मुसलमान, ईसाई या कुछ और कहकर और मुझे ‘हिन्दू’ समझकर अपमानित करना चाहे, तो मुझसे बढ़कर कोई दूसरा ‘हिन्दू’ नहीं। वैसी हालत में मैं बिक जाऊँगा, मगर ‘हिन्दू’ रहँगा…मर जाऊँगा, मगर ‘हिन्दू’ रहूँगा। वैसी हालत में अपमान ‘हिन्दू’ का नहीं, ‘आदमी’ का होता है। मैं आदमी हँ। मौलवी साहब! मेरी नजरों में मजहब की उतनी ही इज्जत है जितनी पोशाकों की। लुंगी लगाने वाला धोती पहनने वाले को काफिर नहीं कह सकता। पगड़ी पहनने वाला तुर्की टोपी वाले को म्लेच्छ नहीं कह सकता। अपनी-अपनी पसन्द है। आप दीन इस्लाम को मानते हैं, लुंगी पहनिए, राम हिन्दू धोती पहने। मैं कुछ भी नहीं हूँ, आदमी हूँ – जो जी में आएगा पहनूँगा। पोशाकों के लिए लड़ना मुसलमानपन नहीं, हिन्दूपन भी नहीं, गधापन है!’
जरा गम्भीर होकर मौलवी साहब ने पूछा, ‘कलकत्ता में अगर दंगा हो तो आप क्या करेंगे?’
‘कमजोरों की तरफदारी, बेगुनाहों की मदद करूँगा और बदमाशों से लड़ूँगा।’
‘बदमाश कौन होगा?’
‘जो लड़ाई छेड़ेगा। वह हिन्दू हो या मुसलमान, कोई चिन्ता नहीं।’
जिस समय मौलवी और ईश्वरद्रोही में बहस हो रही थी उसी समय मकान के भीतर भिखारिन, जिसे अब लोग ‘नवाबजादी’ कहकर पुकारते थे और रामजी में इस प्रकार बातें हो रही थीं।
‘नवाबजादी!’
‘नवाबजादी के मालिक आका!’
‘मुझे मालिक क्यों कहती हो?’
‘मुझे नवाबजादी क्यों कहते हो?’
‘तुम नवाबजादी नहीं हो? तुम्हारे दादा नवाब नहीं थे?’
‘तुम मेरे मालिक नहीं हो? तुमने मुझे पनाह नहीं दी है?’
‘अच्छा भाई, तुम नवाबजादी नहीं, ‘तुम’ हो।’
‘अच्छा भई, तुम भी मालिक नहीं, ‘तुम’ हो!’
‘तुम तरकारी लाने न जाया करो।’
‘क्यों?’
‘मछुआ बाजार के मुसलमान तुम्हें हिन्दू के घर से निकालने की धुन में हैं।’
‘वाह रे निकालने की धुन में हैं! अँग्रेजी राज नहीं, नवाबी है?’
‘अच्छा, तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जातीं?’
‘तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जाते?’
‘मैं हिन्दू हँ और हिन्दू रहने में फख्र समझता हँ।’
‘मैं भी हिन्दू हँ और हिन्दू रहने में फख्र समझती हँ।
जिस धर्म में बाबूजी जैसे लोग हों और ‘तुम’ हो, वह धर्म मेरी नजरों में दुनिया के सब धर्मों से बेहतर है।’
‘दुनिया की नंजरों में तुमने हमें मुसलमान बना दिया है।’
‘और तुमने हमको हिन्दू नहीं बना दिया? तुमने…’
श्रीमती ‘तुम’ के मुख पर हाथ रखकर श्रीमान् ‘तुम’ ने कहा, ‘चुप !’
श्रीमान् ‘तुम’ के मुख पर हाथ रखकर श्रीमती ‘तुम’ ने कहा, ‘चुप !’
दंगे में
कलकत्ता के दंगे का तीसरा दिन था। वृध्द गोपालजी अपनी उसी बैठक में उदास मुँह बैठे थे जिसमें रामजी और भिखारिन की प्रथम भेंट हुई थी। भिखारिन नवाबजादी भी गोपालजी के सामने कुर्सी पर बैठी थी। उसके मुख से भी उदासी और अप्रसन्नता फूटी पड़ती थी।
‘बेटी!’ वृद्ध ने रुध्द कंठ से कहा, ‘मेरा राम आर्यसमाज का जुलूस देखने केवल एक घंटे के लिए गया था, मगर अभी तक नहीं लौटा। जरूर उस पर कोई-न-कोई विपत्ति पड़ी है, नहीं तो, बिना अपने बूढ़े बाप के राम को चैन नहीं पड़ता।’
इसी समय किसी ने दरवाजा खटखटाया। नवाबजादी द्वार खोलने के लिए उठी, मगर बूढ़े ने रोका, ‘तुम न जाओ नवाबजादी, मुमकिन है कोई बदमाश हो। मैं ही जाता हूँ।’
दरवाजा खोलने पर गोपालजी का नौकर नंदन भीतर आया। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। वह इतनी लम्बी-लम्बी साँसें ले रहा था मानो एक साँस में भागता हुआ आया है।
वृद्ध ने पूछा, ‘क्या खबर, नंदन? राम का कुछ पता चला?’
नौकर नीचे सिर करके चुपचाप खड़ा हो गया।
‘बोलता क्यों नहीं रे? मेरा राम कहाँ है?’ नौकर रोने लगा।
गोपालजी का चेहरा, नौकर की हालत देखकर, काला पड़ गया। उन्हें ऐसा मालूम पड़ने लगा मानो उनके ऊपर क्षण-भर बाद निश्चित वज्रपात होने वाला है।
‘नंदन! नंदन!! बोलता क्यों नहीं? वह कहाँ है?’ नवाबजादी ने रुद्ध कंठ और भयभीत हृदय होकर पूछा।
नंदन ने धीरे-धीरे कहना आरम्भ किया, ‘बाबूजी, राम भैया को…।’ इस बार भी वह बात पूरी न कर सका।
अबकी जरा डपटकर गोपालजी ने पूछा, ‘साफ-साफ क्यों नहीं कहता? बेवकूफ।’
नंदन ने अपनी सारी शक्ति मुख में एकत्र कर साफ-साफ कहा, ‘उस दिन जब आर्य समाज के जुलूस पर मुसलमानों ने धावा किया और हिन्दुओं को खूब पीटा तब राम भैया को उनके एक मित्र ने, जो अफीम चौरस्ते पर रहते हैं, अपने घर पर रोक रखा। दूसरे दिन मुसलमानों की ज्यादती बढ़ती देख उनके मित्र और वह अनेक दूसरे हिन्दुओं के साथ मुसलमानों का सामना करने के लिए निकले। उन लोगों ने कई जगहों पर मुसलमान गुंडों का सामना किया, उन्हें हराया और मार भगाया। आज सुबह राम भैया आपसे मिलने के लिए वहाँ से इधर को आ रहे थे, उसी समय एक मुलसमान गुंडे ने उनके पेट में छुरा भोंककर उन्हें मार डाला। इसके बाद उनका क्या हुआ, वह मुझे मालूम नहीं, इतनी ख़बर भी बड़ी मुश्किल से मिली है।’
‘उन्हें मुसलमानों ने मार डाला! उन्हें-उन्हें !’ कहकर नवाबजादी फूट-फूटकर रोने लगी। मगर गोपालजी गम्भीर थे। उनकी आँखों में आँसू नहीं, चिनगारियाँ थीं। क्षण-भर बाद वह अपने स्थान से उठे और नौकर से बोले,
‘घर में जितने शस्त्र हों मेरे सामने लाओ!’
थोड़ी देर में दो-तीन डंडे, दो तलवारें और एक तमंचा गोपालजी के सामने नौकर ने ला रखा।
वृद्ध ने पहले तलवार को उठाकर दो-एक बार घुमा-फिराकर अंदाजा। इसके बाद कपड़े पहनना आरम्भ किया। कपड़े पहनते-पहनते उनकी नजर रोती हुई नवाबजादी पर पड़ी। उन्होंने कहा,
‘बेटी, अब यह घर तुम्हारा है। मैं अपने राम की तलाश में जाता हूँ। अगर मिला तो लौटूँगा, नहीं तो यही हमारी आखिरी भेंट है।’
गोपालजी की ओर अश्रुपूर्ण, रक्त-नेत्रों से देखकर नवाबजादी ने कहा : ‘मैं भी चलूँगी।’
‘तुम कहाँ चलोगी?’
‘उन्हें ढूँढ़ने।’
‘बड़ा मुश्किल काम है, नवाबजादी। तुम औरत हो। मेरे राम को मेरे हिस्से में छोड़ दो। मैं ही ढूँढ़ूँगा।’
‘नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता। जहाँ आप होंगे वहीं पर मैं भी होऊँगी, ठहरिए।’
नवाबजादी घर के भीतर गयी और थोड़ी देर बाद मर्दाने कपड़े पहन और हाथ में एक लम्बा छुरा लेकर वृद्ध के सामने आयी। नवाबजादी के मर्दाने कपड़े वही थे जिन्हें रामजी पहना करता था। राम ही की तरह गोरी, लम्बी और सुन्दरी नवाबजादी को पुरुष-वेश में देखकर और राम को स्मरण कर बूढ़े ईश्वर-द्रोही की आँखों के आँसू, बाढ़ की नदी की तरह, उमड़ चले। संसार से बहुत दूर रहनेवाले राम की तलाश में ईश्वर-द्रोही और नवाबजादी, शस्त्रों से सुसज्जित होकर, चल पड़े।
उस समय वृद्ध गोपालजी के मुख पर वही भाव था जो किसी समय ‘केसरिया बाना’ धारण करने पर राजपूतों के मुख पर होता था। नवाबजादी के बदन पर वही तेज था तो ‘जौहर’ के वक्त राजपूतनियों के बदन पर दिखाई देता था!
‘ युद्धं देहि ‘
वृध्द वीर गोपालजी और नवाबजादी उस गली को प्राय: पार कर चुके थे कि पीछे से पाँच-सात मुसलमानों ने उन पर धावा किया।
‘अली! अली ! अल्लाह! अल्लाह ! मारो सालों को! दोनों के दोनों हिन्दू हैं, काफिर हैं!’
हाथ का डंडा सँभालकर और नवाबजादी को पीछे कर गोपालजी खड़े हो गये और डपटकर उन गुंडों से कहने लगे,
‘हत्यारो! ‘अली-अली’ और ‘अल्लाह-अल्लाह’ क्यों पुकारते हो? ‘शैतान शैतान’ का नारा लगाओ! खून का प्यासा खुदा शैतान है, ईश्वर नहीं। बदमाश पीछे से धावा करते हैं! खड़े हो जाओ सामने और एक-एक कर निपट लो। तुम सात हो, हम दो। तुममें से एक भी जीता रह जाए तो कहना!’
लम्बी तलवार को बगल से खींच बूढ़ा ईश्वरद्रोही शेर की तरह उन गुंडों पर टूट पड़ा। गुंडे भी सावधानी से सामना करने लगे। दोनों और से प्रहार पर प्रहार होने लगे। देखते-देखते उस बूढ़े शेर ने तीन मुसलमानों को जमीन पर सुला दिया। इसी समय उनके पीछे से आवाज आयी,
‘मरी! मरी बाबूजी!!’
गोपालजी ने पीछे घूमकर देखा, दो मुसलमान नवाबजादी के कोमल शरीर पर बड़ी निर्दयता से छुरे चला रहे थे। जब तक वह वीर उस अबला की सहायता के लिए आगे बढ़े तब तक उन दुष्टों ने उसका काम तमाम कर डाला!
गोपालजी झपटकर नवाबजादी के पास पहुँचे। उसकी दोनों आँखें खुली थीं, पर उनमें दर्शन-शक्ति नहीं थी। इसी समय एक मुसलमान ने, पीछे से, गोपालजी की बगल में लम्बा छुरा भोंक दिया। वह ‘हाय!’ करके घूम पड़े। उन्होंने तलवार का एक ऐसा सच्चा हाथ मारा कि वह मुसलमान भी दो होकर नाचने लगा। गुंडों में भगदड़ पड़ गयी। गोपालजी को गहरी चोट लगी थी। उनकी अँतड़ियाँ बाहर निकली आ रही थीं। उन्हें भीतर की ओर ठेलकर बूढ़े ने उसी घाव पर अपने दुपट्टे को कसकर बाँधा और विक्षिप्त की तरह आगे पैर बढ़ाया। कुछ दूर चलने के बाद गली पार हो गयी, सड़क मिली। सड़क पर एक सार्जेंट के साथ पाँच-सात सिपाही खड़े थे। उन्होंने उस वृध्द वीर को रोककर पूछा,
‘कहाँ जा रहे हो?’
‘अपने राम को खोजने।’ लड़खड़ाती आवाज से गोपालजी ने कहा, ‘आज अगर मेरा राम न मिला तो कलकत्ता के सारे मुसलमानों को मार डालूँगा। मस्जिदों को भस्म कर दूँगा। बेटा राम ! प्यारे राम !’
घाव बहुत गहरा था। वृद्ध वहीं गिरकर ढेर हो गया!
उस सड़क के आस-पास की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में बहुत देर तक ईश्वर-द्रोही गोपालजी के अन्तिम शब्द गूँजते रहे – ‘बेटा राम ! प्यारे राम!’
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कहानी समकालीन
खूबसूरत भिखारन-किशोर दिवसे
उखड़े पलस्तर वाली दीवारें….टूटे फ्रेमों वाली खिड़कियाँ…गायब हो चुकी सीढियों की रेलिंग… दीमक के आक्रमण से खोखली होती जा रही दरवाजों की चौखटें…मकड़ी के जालों और धूल के गुबार…. कमोबेश यही नक्शा था एक स्कूल का.बस यहीं पर वह और मैं पहली बार मिले थे.अन्यथा की स्थिति में वह सड़क के किनारे पालथी मारे बैठी नजर आती थी.ढेरों पैबंद लगे नजर आते थे उसकी सलवार-कुर्ती पर.खुले हुए बेतरतीब केश कन्धों पर लटक रहे थे और चेहरे पर जमीं गहरे मटमैलेपन की पर्त को छिपाने की जी तोड़ कोशिश में जुटे थे.मुझे हैरत भी होती थी यह देखकर कि आखिर उसका चेहरा सांवला रंग क्यों पुता हुआ दिखाई देता है !.भिखारन के चेहरे पर यह कुछ अजूबा सा लगता था.उसे देखकर कई बार टीवी सीरियल की ” लागी तुझसे लगन” की एक किरदार नकुशा का चेहरा आँखों के सामने आ जाता था.
सुर्ख रंग की लिपस्टिक पुते उसके ओंठ उस रोज मादकता से चमक रहे थे.चौंककर मैंने उसके चेहरे को कुछ और जानने के उतावलेपन से परखना चाहा.एक- दो.. नहीं न जाने कितनी बार मैंने ऐसा किया .मेरे घूरने का तरीका उसे असहज बना देता… डरा डरा सा… उसकी आँखें भयभीत हिरनी सी नजर आतीं.उसके हाव-भाव और बाड़ी लेंग्वेज से ही मुझे लगा की वह प्रोफेशनल नहीं है .फिर भी उसे ऐसी जिन्दगी की मजबूरी आखिर क्यों आन पड़ी!
मेरे मन को यह सवाल न जाने क्यों असहज कर रहा था.लिहाजा एक दिन मैंने तय किया कि धंधा ख़त्म होने के बाद उसका पीछा करूंगा.उसके हाथ में मैंने दस का नोट थमाया जिसे उसने ख़ुशी से स्वीकार किया.वह मुझे ढेर सारी दुआएं देती रहीं.मैं मुस्कुराकर आगे बढ़ गया ताकि छिपकर उसकी गतिविधियों पर नजर रखने कोई सुरक्षित ठौर तलाश कर सकूं.
कुछ ही पल बाद वह उठी…अपने गंदे और बेहूदा से कटोरे को उठाकर आगे बढ़ गई.उसकी कमर आगे की ओर झुकी हुई थी.अचानक मैंने देखा कि उसकी लम्बी कमीज की जेब से कोई वस्तु गिरी .वह युवती इससे बेखबर थी.मैंने जाकर वह चीज उठाई.” ओह! यह तो कोई पहचानपत्र है”मैंने मन ही मन सोचा और उसे उल्ट-पुलट कर देखा .अत्यंत खूबसूरत युवती जो अमूमन बीस- बाईस क़ी रही होगी… उसकी तस्वीर परिचय पत्र पर मुझे देख रही थी.बाजू में लिखा था” रंजना दुबे ,शोध छात्र मनो विज्ञानं विभाग ,रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर., छत्तीस गढ़.” इसी बीच वह सड़क पार कर अनुपम गार्डन की ओर बढ़ चुकी थी.
उस युवती ने पीछे मुड़कर भी देखा कि कहीं कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है ! मैं भी अपने आप पर उसकी निगाहें पड़ने से खुद को बचाता रहा.कुछ ही देर में वह सडक के दूसरे छोर तक पहुंचकर मोड़ पर कहीं गायब हो चुकी थी.यूं तो सड़क पर हमें न जाने कितने भिखारी नजर आते हैं .हर उम्र के बच्चे …जवान बूढ़े और बेसहारा .कुछ शरीर से अपाहिज होते हैं और कुछ हट्टे-कटते होकर भी भगवान या ” मोबाइल गाड”( छोटी सी टोकरी या कमंडल में दीया और भगवान- देवी की मूर्ती रखकर)हाथों में लिए …दर…दर…दस्तक दिया करते हैं.परम्पराओं को ढ़ोता हमारा समाज भी इस ” स्पेंट फ़ोर्स ” को स्वाभिमान से जीना सिखाने के बजाये अपने लिए पुण्य और दुआएं मांगने का जरिया बना लेता है.
खैर… अचानक हम भी कहाँ फिलासफी में घुस गए! बात हो रही थी उस युवती रंजना दुबे की जिसे मैंने तेज क़दमों से चलकर फिर हासिल कर लिया था.वह आम लोगो की नजर से बचकर आड़ में रखी हुई कार का दरवाजा खोल रही थी . मुझे देखते ही उसे ऐसा लगा मानो उसकी सारी पोल खुल गई हो.वह कुछ झेंप गई थी.जब मैंने उसकी हथेली पर परिचय पत्र रखा और कहा,” नहीं.. नहीं…तुम्हें इतना घबराने कि कोई जरूरत नहीं .
थरथराती अँगुलियों से उसने वह आइडेंटीटी कार्ड थमा और बेहद धीमे स्वर में बुदबुदाई,” थैंक्स!” इससे पहले कि कोई हम लोगों को देख लेता ,मैंने उससे कहा ,” तुम गाडी के भीतर कपडे बदल लो जब तक वह कपडे बदलती रही मैं कार क़ी ओर पीठ कर खड़ा रहा.इसी बीच मैंने उन लोगों के बारे में सोचा जो इर्द- गिर्द छिपकर हम लोगो क़ी गतिविधियों को भी भांप रहे होंगे जिसकी हमने जरा भी भनक नहीं थी.वैसे भी हम इसका एहसास कहाँ कर पाते हैं कि परिस्थितियां और इंसान अपने भीतर कितना रहस्य छिपाए रखती हैं!
अमूमन दस मिनट बाद जब कार का दरवाजा खुला उसके भीतर से बेहद खूबसूरत युवती बाहर निकलकर मेरे सामने खड़ी हो गई.मैंने उसका मासूम सा चेहरा पहचान लिया था.उसने कुछ शरमाकर कहा,”अब हकीकत में जो मैं हूँ वही आपके सामने हूँ.लिहाजा अब एक-दूसरे से सच बयां कर सकते हैं. “अगर तुम बुरा न मानो तो क्या हम नजदीक के किसी रेस्तरां में बैठकर कुछ देर बातें कर सकते हैं?” ” क्यों नहीं!अगर तुम्हें मुझ जैसे अजनबी पर भरोसा हो तब!”- मैंने जवाब दिया.
रास्ते में मैंने उसे बताया कि मैं बिलासपुर में सीनियर जर्नलिस्ट हूँ.” ओह! अब बात समझ में आई.तुमने तो मुझे डरा ही दिया था.मैं तो यह समझी थी कि तुम कोई जासूस या सादे कपड़ों में पुलिस के मुखबिर अथवा इंटेलिजेंस के आदमी हो” उसकी इस बात पर हम-दोनों खुलकर हँसे थे.” आखिर तुम्हे यह शक कैसे हुआ कि मैं भिखारन कि तरह नहीं लग रही हूँ?”- उसके चेहरे पर कौतूहल भरे भाव थे.” मैंने तुम्हारे मेकअप में हुई खामियों पर बारीकी से ध्यान दिया.आज ही तुम अपने होठों से लिपस्टिक हटाना भूल गयीं थीं.” उसकी आँखों में मेरे तेज आब्जर्वेशन के लिए प्रशंसा के भाव थे.”दरअसल अच्छे पत्रकार को अपनी आँखें और कान हर वक्त चौकन्ने रखने होते हैं.वह किसी भी खबर कि सम्भावना को माहौल से सूंघ लेता है.इसे ही कहते हैं- टू हेव अ नोज फार न्यूज ! ” मैंने कहा,” जर्नलिस्ट ऐसे ही होते हैं.”
एक अच्छे से रेस्तरां के सामने हमारी कार रुकी.बाहर निकालकर हम उस रेस्तरां में दाखिल हुए और खाली मेज अपने लिए चुन ली.इससे पहले कि मैं वेटर को दो प्याले काफी लाने का आर्डर देता रंजना ने अपनी पर्स खोली और दस का एक नोट निकालकर मेरी ओर बढाया.पहले तो मैं समझ नहीं पाया कि वह आखिर चाहती क्या है.लेकिन जब उस नोट पर मेरी नजर पड़ी उसके सफ़ेद ब्लेंक स्पेस पर बने स्वस्तिक के चिन्ह से मैंने पहचान लिया कि यह नोट मेरा ही दिया हुआ है.वैसे रहस्य , रोमांच या जासूसी से जुडी बातों की जानकारी या ऐसी हरकतें मैंने इस फन में माहिर अपने एक अखबारनवीस दोस्त से सीखी हैं.
” वैसे कुल मिलाकर मुझे पचीस सौ रूपये भीख में मिले थे.आपका उस रोज बतौर भिखारन मुझे दिया गया दो रूपये का नोट भीमुझे अच्छी तरह याद है.रंजना ने मुझे एक छोटी सी नोट बुक भी दिखाई जिस पर वह भीख से मिले पैसों का ब्यौरा भी लिखकर रखती थी.
” रंजना … अब यह नोट तुम्हारा हो चुका है.अपने सामने बैठी खूबसूरत भिखारन से मैंने कहा.
“सर!” रंजना बोलने लगी ,” मेरे मन में एक विचार आया है आप जर्नलिस्ट हैं आप बेहतर सुझाव दे सकते हैं” रंजना ने काफी के सिप लेते हुए मुझसे पूछा.
” हाँ… रंजना बताओ…क्या सोच रही हो तुम!” मैंने उत्सुकता पूर्वक पूछा.
” सर! रंजना बोलने लगी,”इस रिसर्च के दौरान इकठ्ठा हुई सारी राशि जो मुझे भिखारन समझ कर दी गई, मैं चैरिटी करना चाहती हूँ.”
” रंजना .. यह तो बाद ही नेक आइडिया है ठीक है..मेरा वह नोट भी उसमें शामिल कर लेना.
काफी की चुस्कियों के दौरान हम भिखारियों की समस्याएं, सामाजिक व् मानो वैज्ञानिक पहलू समाज में व्याप्त पाप-पुण्य की अवधारणा.. परम्पराओं और इस संबंद में बने नए कानून के अलावा देश भर में गहराए इस मसले से निजात पाने की शासकीय-प्रशासकीय कोशिशों तथा जनता की भागीदारी पर बातचीत करते रहे.
“रंजना ! यह सब तो ठीक है लेकिन तुमने मुझे अब तक अपने बारे में कुछ नहीं बताया!” मैंने पूछा.
” सर! आपने आइडेंटीटी कार्ड से यह तो जान ही लिया होगा की मैं मनोविज्ञानं में डाक्टरेट कर रही हूँ.मैं रायपुर में बतौर पेईंग गेस्ट एक अच्छे परिवार के फ्लेट में रह रही हूँ.ददसल मैं भिखारिनों के बारे में खास तौर पर पुरुष कैसा बर्ताव करते हैं साथ ही साथ समाज का रुख कैसा है इस सामाजिक व्यवहार का अध्ययन करना चाहती थी.मैंने अपने दोस्तों से यह कार भी इसी उस्द्देश्य से ली ताकि देर होने पर तकलीफ न हो.सर! अब आप भी इस रिसर्च में मेरी मदद कर सकते हैं” रंजना ने यह सवाल कर मुझे हैरत में डाल दिया था.
” कैसे! मैंने उससे पूछा, कहीं रंजना मेरे लिए भी किसी भिखारी का किरदार तो नहीं सोचने लगी है! मन में ऐसा ही लगा था.
” सर! आप छिपकर मेरी गतिविधियों पर नजर रख रहे थे.इसी तरह कुछ दिन और आप यही करते रहिएगा.” रंजना खिलखिलाकर हंसी.मैंने हामी भरी और थीसिस लिखने के मामले में भी उसे पूरी मदद करने का भरोसा दिलाया.वह खुश थी.
” सचमुच सर! इट विल बी रियली हेल्पफुल फार मी. ”
मुझे लगा कि इस बीच उसका आत्म विश्वास भी कुछ बढ़ गया था.सब कुछ ठीक -ठाक चल रहा था.अचानक कुछ याद कर रंजना की आँखें छलछला आईं.शायद वह उसी भरोसे का सिला था जिसके तहत वह दिल खोलकर किसी अजनबी से अपनी भावनाएं शेयर कर रही थी.
” अरे रंजना!… यह क्या.. तुम्हारी आँखें छलछला आई!आखिर क्या हुआ.. मुझसे नहीं कहोगी?उसकी हथेलियों पर मैंने अपना रूमाल रखते हुए पूछा.
” सर! एक रोज सूनी गली से मैं गुजर रही थी .अँधेरा था…. मेरा दिल तेजी से धडक रहा था.अचानक दो युवक बाईक पर आये.उन्होंने सुनसान रास्ता देखकर मेरे इर्द-गिर्द एक गोल चक्कर लगाया. पीछे बैठे युवक ने मेरी ओर वहशियाना नजरों से देखकर मेरे सामने पचास रूपये का नोट निकला .ऐसा लग रहा था मानो वह आँखों ही आँखों में मुझे कच्चा ही चबा जायेगा.मैंने फ़ौरन ही भांप लिया था की उसकी निगाहें कहाँ पर टिकी हैं.मैं दरअसल कमीज के ऊपरी बटन लगाना जल्दबाजी में भूल गयी थी.बाईक रोककर वे नीचे उतरे और मेरे साथ जोर- जबरदस्ती की.यह तो अच्छा हुआ कि” एक कार वहाँ से गुजरी और वे युवक दर के मारे वहाँ से भागे .वर्ना न जाने क्या हो जाता.”
वह एक बार फिर सुबकने लगी थी.मेरी आँखों के कोर भी भीगने लगे थे. उसकी हथेली पर अपनी हथेली रखकर मैंने उसे ढाढस बंधाया..
” रंजना ,तुम्हें बहादुरी से फेस करना सीखना होगा.
” सर! क्या समाज में भिखारिनो के साथ ऐसा ही होता है? ”
उसके इस जटिल सवाल पर मेर मन में विचारों की एक श्रृंखला बन गयी थी.एक बार फिर उसकी आँखें भर आयीं थीं.सब कुछ सुनकर मेरे मन में भी टीस उठ रही थी.उसके गालों पर स्नेह से हाथ रखकर मैंने सांत्वना दी.
संयत होकर रंजना कहने लगी,”सर! मैं अगर भिखारन न बनी होती तो मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ होता ना!”
“लेकिन रंजना ! तुमपर जब युवकों ने जबरदस्ती करनी शुरू की तब तुम चीखी-चिल्लाई क्यूं नहीं?तुमने लोगों को आवाज लगानी थी.”
भावनाओं में बहकर मेरी आवाज तेज हो गयी थी.या मैं खुद भी इमोशनल हो गया था . हमारी टेबल के इर्द-गिर्द बैठे लोगों की नजरें हम पर केन्द्रित होने लगी थीं.
” तुम मेन रोड की ओर दौड़तीं तुम्हारी जरा सी फूर्ती ने तुम्हें बचा लिया होता.”
” सर! मैं बहुत डर गयी थी. वे दो लड़के थे. दहशत से मेरे गले से आवाज तक नहीं निकल रही थी.हो सकता था की कुछ लोग और आते और वे भी मुझपर भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़ते.फिर भी सर! इस हादसे से मुझे यह अनुभव मिल गया की समाज में कई माहिलाओं को कितनी यंत्रणा और असुरक्षित माहौल से गुजरना पड़ता है .अब भी सांप की तरह रेंगते हुए उन दरिंदों के हाथों से मेरे शरीर में झुरझुरी भर जाती है.”
रंजना ने एक बार फिर अपनी भीगी आँखें पोंछी.कुछ पल के लिए मैं भी गूंगा बनकर उसे अपलक निहारता रहा..
” रंजना!आजकल युवतियों और महिलाओं को मार्शल आर्ट जैसे सुरक्षा के उपाय सीखने चाहिए.आड़े वक्त पर ये काफी साथ देते हैं.”
” हाँ सर!अब एकाध घंटा मैं भी मार्शल आर्ट सीखने जाऊंगी….उसने हामी भरी.यूं ही कुछ पल हमारे बीच बातें हुईं.इस बीच काफी का दूसरा प्याला भी ख़त्म हो चुका था.अचानक हमारे बीच एक मौन छा गया.
“सर! आप मेरे पेईंग गेस्ट रूम में आयेंगे तब मैं आपको अपनी रिसर्च से जुड़े दस्तावेज दिखूंगी.आप तो पत्रकार हैं… लिहाजा आप मुझे काफी मदद कर सके हैं.”
रंजना की आँखों में मेरे प्रति पूरा विश्वास और सम्मान की भावना थी.मैं उसका अनुरोध टाल न सका..रंजना के करीब मैं खुद को महसूस करने लगा था….. न जाने किस अनजान रिश्ते के वशीभूत!यूं तो किसी भी रिश्ते को बनने और मजबूत होने में लम्बा फासला तय करना होता है.कई बरस भी लग जाते हैं रिश्ता बनने में .लेकिन जिस रिश्ते को बनने में कुछ साल लगने थे वह फासला हम दोनों के बीच चंद घंटों के भीतर ही समाप्त हो गया था.
” सर! आपसे बातें कर आज मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया. कई दिनों बाद में आज पूरी नींद सो सकूंगी.सर! मुझे पूरा भरोसा है कि जब तक मेरी रिसर्च ख़त्म नहीं होती आप उसी जगह पर जरूर आयेंगे जहाँ मैं भिखारन के वेश में दीपहर से शाम तक रहती हूँ.”
” रंजना हर हाल में मैं वहाँ आता-जाता रहूँगा.लेकिन तुम जरा सतर्क रहना.मैं भी तुम्हें सही भिखारन कि तरह उपहासजनक स्थिति में देखना चाहता हूँ. ऐसी भिखारन जो सचमुच कि भिखारन लगे.!”
” यह क्या कह रहे हैं सर आप?” – रंजना के चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे.
” रंजना … तुम समझी नहीं.” मैंने कहा,”मैंने इसलिए कहा क्योंकि भिखारन को सही मायने में भिखारन के सहज कपडे … हाव-भाव..और बाड़ी लेंग्वेज के साथ होना चाहिए या नहीं?”
” हाँ…सर! आप ठीक कह रहे हैं”
रंजना और मैं खिलखिलाकर हंस पड़े थे.
” लेकिन खबरदार!अपने ओठों पर लगी लिपस्टिक मिटाना भूलना मत!… पिछली बार की तरह…”.
इस बार रंजना फिर खिलखिलाकर हंसी.उसकी हंसी को .तनाव का जरा भी बेसुरापन बाँध न सका था..न ही उस हंसी में किसी हादसे का दर्द छिपा था.और मैं….एक पल यही सोचता रहा की बीस-बाईस बरस की युवती जब बच्चे की तरह हंसती है…. तब क्यों आसमान में सैकड़ों चान्दनियों के झिलमिलाने का एहसास होता है।
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कहानी समकालीन
भिखारी और कुत्ता -अँद्रै कुमार
अपने कमरे की खिड़की से मैं ऐसी जगह देख सकता था, जहां एक गरीब, अकेला, बीमार और बेकार आदमी रहता था। मैंने ‘जगह’ लिखा और यही सही है, क्योंकि जिस आश्रय में वह भिखारी रहता था, उसे ‘घर’ कहा ही नहीं जा सकता। यह एक पुराना मकान था, जिसके अंदर और बाहर भित्ति-चित्र लगे थे। उसकी खिड़कियों के चौखटे नहीं थे और उसकी टूटी फूटी छ्त गिरनेवाली थी। घर के अंदर कूड़ा-करकट था, जिसे उसने, मुझे लगता है, अपने सोने लायक जगह बनाने के लिए एक कोने में इकट्ठा कर के रख दिया था।
वह चिड़चिड़ा और शराबख़ोर आदमी सड़कों पर घूम-घूम कर भीख माँगता और सस्ते काफ़ीघर में अल्प भोजन करता था। होटल अथवा शराबघर में उठते बैठते वक्त, वह अन्य ग्राहकों का भोजन भी चोरी कर लेता था।
लोग कहते हैं कि रोटी या सूप ख़रीदने के बजाय वह पिय्यकड़ भीख में मिले पैसों से शराब ख़रीदता था। और-तो-और, वह अकसर क़र्ज़ की शराब पीता था और क़र्ज़ अदा न करने के कारण दुकानदारों से झगड़ा मोल लेता। आख़िर में शराबघर के मालिक उसे शराबघर से शराबघर से बाहर निकाल देते थे।
एक दब्बू काला दोगला कुत्ता उस आदमी का साथी था, जो उसके पीछे-पीछे चलता था. उस आदमी के साथ कई दूसरे कुत्ते भी चलते थे, लेकिन सिर्फ़ वही एक कुत्ता था, जो सदा उसके साथ रहता था और उसी के साथ सोता भी था।
मुझे यह समझ में नहीं आता कि कुत्ता भिखारी के साथ क्यों रहता था जबकि चिड़चिड़ा होने की वजह से वह कुत्ते के साथ बेरहमी से पेश आता था और बेवजह उसे ठोकरें मारता था। मकान के कोने में, वह कुत्ते को घंटों बांधे रखता और कंबल पर पेशाब निकल जाने की स्थिति में कुत्ता बेहद मार खाता था। भिखारी ने कुत्ते को शायद ही कभी भोजन दिया हो।
अपने मालिक के दुर्व्यवहार के वकत कुत्ता दर्द से कराह उठता और उसका रुदन सुन कर मुझे बहुत दुख होता था; भूखा कुत्ता आदमी से भोजन की उम्मीद रखता होगा। एक तरह से मैं समझ सकता हूँ कि आदमी कुत्ते को खाना क्यों क्यों नहीं देता था। जब कभी उसे थोड़ा-बहुत खाने को मिलता, वह गपागप खाने में जुट जाता; कुत्ते की भीख माँगती हुई आँखें उसे शायद दिखाई ही नहीं देतीं।
कुत्ता बेशक दुखी था क्योंकि उसका पेट और दिल दोनों ख़ाली थे। मैं सोचता हूँ कि अगर आदमी कुत्ते से थोड़ा प्रेम करता तो वह इतना अप्रसन्न न रहता और उसे अपनी भूख इतना न सताती। वह बदनसीब कुत्ता बहुत ही दब्बू और प्यारा था।
तकरीबन तीन हफ़्ते पहले मैंने सुना कि भिखारी मर गया। मैंने सोचा कि उसकी भुखमरी, गरीबी और विषाद ख़त्म हो गए। उसे एक स्थानीय कब्रिस्तान में दफ़ना दिया गया। उस वकत से वह मकान, जिसमे वह रहता था, ख़ाली पड़ा था; कुत्ता वहाँ कभी नहीं दिखा। मैं हैरान था कि दब्बू काला कुत्ता कहाँ गया होगा?
काम पर जाते वकत मैं रोज़ उस कब्रिस्तान के सामने से होकर गुज़रता था। एक दिन, जब मैं उसके फाटक के सामने से गुज़र रहा था तो मुझे एक काली सूरत दिखाई दी जो एक कब्र के ऊपर पड़ी थी। जिज्ञासावश, मैं अंदर पहुंचा। अरे, यह तो वही बेचारा कुत्ता था! अपने मरे हुए मालिक की कब्र पर वह एक ऐसी ग़मज़दा शक्ल लिए पसरा था, जिसे देखकर कोई पत्थर दिल भी रो दे।
अब जब कभी मैं कब्रिस्तान के सामने से गुज़रता हूँ, मुझे वह कुत्ता उसी कब्र के आस पास दिखाई देता है, जैसे उसे विश्वास हो कि उसका मालिक एक न एक दिन ज़रूर लौटेगा; अपने दिल में उसके लिए थोड़ा सा प्यार लेकर।
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धारावाहिकः मिट्टी -शैल अग्रवाल
भाग-11
सहेली की उदासी न देखी गई तो हाथ में हाथ लेकर दिशा बोली, ‘मैं हूँ न , बता तो बात क्या है? ऐसा क्या हो गया है कि सुबह-सुबह नौ बजे ही सारे काम-धंधे छोड़कर तुरंत ही बुला लिया तूने मुझे ?‘
रिमझिम फुहारें लगातार गिर रही थीं और दरवाजे पर खड़ी-खड़ी सहेली भीग रही थी , पहले अंदर ले ले, अपने ही दुख में डूबी नीतू को यह तक न सूझा। दिशा को देखते ही गले लगकर फफक-फफक कर रो पड़ी। दिशा ने भी जी भरकर रो लेने दिया उसे , ताकि मन का सारा गुबार निकल जाए।
बारबार पीठ सहलाने के बाद जब थोड़ी शांत हुई, तो दूध की बोतल और बेटी दोनों को ही दिशा को पकड़ाकर बोली- ‘ आ-अंदर आ। बैठ, सब बताती हूँ तुझे। बहुत सारी बातें करनी हैं मुझे तुमसे और एक वादा भी लेना है । बहुत जरूरत है मुझे आज तुम्हारी। ‘
‘ जैसे क्या? आखिर हुआ क्या है?’
स्थिति का कुछ भी अनुमान लगाने में खुद को असमर्थ पा रही थी दिशा – क्या फिर लड़ बैठे हो तुम दोनों ? पर ऐसा लग तो नहीं रहा। क्या भारत से कोई बुरी खबर आई है? कहीं कुछ अप्रिय अनहोनी तो नहीं हो गई? ‘
बैठते ही पूछा दिशा ने तो बजाय जबाब देने के, देरतक बुतवत् खड़ी-खड़ी सात महीने की बेटी को देखती रही थी नीतू। उसकी आँखों में जमे-थमे लौह इरादे तरल धुंध के बावजूद भी खौफनाक लग रहे थे और विचलित कर रहे थे। उलझनों को महसूस करती, काव्या ने भी माँ के कंधे पर सिर टिका रखा था और वह भी एकटक उसे ही देखे जा रही थी- मानो कह रही हो, घबराओ मत माँ, हम सब हैं ना ! सब ठीक हो जाएगा।
‘ क्या इरादे हैं तेरे, बेटी को आँखों से ही निगल जाएगी क्या ?’ दिशा ने हंसते हुए काव्या को अपने आंचल में छुपा लिया और माहौल को हलका करना चाहा।
‘पहले मेरी तसल्ली के लिए वादा कर । सवाल मत पूछ, सहेली होने का सबूत दे। ‘
नीतू खुद में नहीं थी। सहेली का यह रूप दिशा ने पहले नहीं देखा था। तब भी नहीं, जब राजेश ने अपने हाथ की नस काट ली थी।
‘हाँ बाबा, हाँ, दिया। अब तो बता, यह बेमौसम की बरसात क्यों आज ? ‘
दिशा ने जब दोबारा पूछा तो नीतू खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई, मानो आमने-सामने कहने की हिम्मत नहीं थी उसमें। दिशा ने देखा, नीतू की आवाज भारी थी और आंखें डबडबा रही थीं। दिशा अब वाकई में चिन्तित थी-बात छोटी-मोटी नहीं, इतना तो साफ हो चुका था और कौन-सा दुख का सागर हिलोरें ले रहा था सहेली के अंदर यह जानना भी बहुत ही जरूरी हो चला था।
‘ इतना मन पर बोझ मत ले। बता तो सही, बांटने से हर मुश्किल हल हो जाती है।‘ जैसे-तैसे दिशा बस इतना ही समझा पाई, तब।
‘ वादा कर कि यदि कल मैं न रहूँ, तो तू ही काव्या को पालेगी। गोद ले लेगी इसे और रोली की तरह ही बड़ा करेगी मौसी नहीं, माँ बनकर।‘
‘ ऐसा क्यों कह रही है? कुछ नहीं होगा तुझे !’
सहेली को देख-देख, उसकी बातें सुन-सुनकर अब तो उसका भी गला भरा जा रहा था , परन्तु संभाल लिया दिशा ने खुद को। गला खंखारकर नीतू के उन्माद को भी झिड़कना चाहा। उसे पता था कि कुछ औरतें बच्चे पैदा करने के बाद शरीर में तेजी से चल रहे परिवर्तनों को झेल नहीं पातीं और गहरे अवसाद की मनः स्थिति में चली जाती हैं। अन्य चीजों की तरह कोई जल्दी उबर आता है इस सबसे और किसी को वक्त लग जाता है।
‘ तू कहाँ जा रही है, पगली? माँ और मौसी मिलकर पालेंगी काव्या को ! है न काव्या? ‘
मौसी की गुदगुदी से आठ महीने की काव्या पुनः किलकने लगी। दिशा एकबार फिर सांत्वना देती नीतू के बालों में अपनी उँगली फिरा रही थी। उसे सीने से लगाने को, आंचल में छुपाने को मन मचल रहा था उसका। खुद से साल भर बड़ी, हमउम्र सहेली आज बहुत छोटी और उदास बच्ची-सी लग रही थी उसे, जिसके प्रति खुद को बेहद जिम्मेदार महसूस कर रही थी दिशा।
फूल से गालों में बेहद खूबसूरत गढ्ढे और हीरे सी चमकती आँखें, लार गिराती काव्या ने भी दोनों माँ और मौसी को हाल में ही सीखी अपनी प्यारी –सी मुस्कान के साथ देखा, मानो कह रही हो यह उदासी क्यों, जिन्दगी आज भी बहुत खूबसूरत है। यही नहीं, माँ को उठकर जाते देख, हुलस कर माँ की तरफ बाँहें भी फैला दीं और उसकी गोदी में जाने को मचलने लगी।
‘ ले तू ही संभाल अपनी लाडली को।‘ तब सारे अवसाद भूल नीतू ने भी बेटी को सीने से लगा लिया।
‘तुझसे बिछुड़कर तो मर भी नहीं सकती मैं, कहीं जाना तो बहुत दूर की बात है, मेरी लाडो।‘
नन्ही काव्या को चकित करते अब माँ और मौसी दोनों की ही आंखों से आंसू बह रहे थे जिन्हें अपनी नन्ही-नन्ही हथेलियों से छू-छूकर वह शायद पोंछने का भी प्रयास कर रही थी। नीतू के चेहरे पर फैला नेह बता रहा था दिशा को कि व्यग्रता की आंधी अब थोड़ी थम गई है और मातृत्व की जिम्मेदारियाँ पुनः उसे दुख की गहरी गर्तों से यथार्थ की ओर खींच रही हैं। दिशा ने एकबार फिर सहेली का हाथ अपने हाथों में लेकर थपथपाया और तब काव्या को दिशा के बगल में बिठाकर नीतू उठी और दराज से एक बंडल निकाल लाई, जिसे उसने दिशा के सामने मेज पर फैला दिया। दिशा ने भी बेहद धैर्य के साथ व्योरेबार एक-के-बाद-एक कागज को क्रमशः खोलना और पढ़ना शुरु कर दिया।
अब स्थिति की गंभीरता और जटिलता बहुत अच्छी तरह से समझ में आ रही थी। कुछ पत्र और सूचनाएँ जनरल मेडिकल काउँसिल से थीं तो कुछ राजेश के वकील से। दिशा समझ चुकी थी कि अगला हर कदम बेहद सोच-समझकर ही उठाना होगा।
‘ क्या मैं इन्हें अपने घर ले जाऊँ। गौरव से भी समझ लूंगी। डॉ. होने के नाते उन्हें मेडिको लीगल का बेहतर ज्ञान है। बस एक-दो दिन में ही लौटती हूँ। सही सोचने के लिए वक्त चाहिए मुझे, नीतू। ‘
‘ हाँ –हाँ , क्यों नहीं। तुझपर खुद से भी ज्यादा भरोसा है मुझे। बस जरा जल्दी करना, वक्त नहीं है हमारे पास। वैसे भी तुम्हारे और भगवान के अलावा है ही कौन हमारा यहाँ पर? ‘ कहते-कहते नीतू का गला फिरसे रुँध आया था- ‘सोचती हूँ तो कभी-कभी तो बड़ा तरस आता है राजेश पर । जब सुधर गए थे, बेटी के लाड़ में जी तोड़ मेहनत कर रहे थे, तब यह मुसीबत लग गई जान से । जिन्दगी हमें जीने क्यों नहीं देती दिशा ! ‘
‘ दुख और बीमारी कोई कहकर थोड़े ही आते हैं । तैयारी का वक्त नहीं देते ये हमें। इनसे तो बस जैसे-तैसे निपटना ही पड़ता है। हिम्मत मत हारो, अब तुम अकेली नहीं हो इस लड़ाई में।‘
दिशा ने बंडल उठाया। सहेली का सिर थपथपाया और बाहर आ गई।
घड़ी देखी तो साढे तीन बज चुके थे । बच्चों का स्कूल से लौटने का वक्त हो चला था और आज तो बच्चों को भी उसे ही स्कूल से लेना था। यूँ तो अपनी व्यवस्थित जिन्दगी में सब काम और जिम्मेदारियाँ आधी-आधी ईमानदारी से बांट रखी थी दोनों ने पर अक्सर ही अतिक्रमण और मदद की दोनों की ही जरूरत पड़ती रहती थी । बुधवार और शुक्रवार को गौरव की औपरेटिंग लिस्ट खतम होते-होते पाँच बज जाते हैं और हफ्ते के इन दो दिन दिशा ही लेकर आती है बच्चों को स्कूल से।
दो का ही तो यह क्रू है उनका जीवन जहाज को तूफानों से बचाकर रखने के लिए और खुशी-खुशी अपने-अपने कर्तव्य का निर्वाह भी कर रहे थे दोनों।
परेशानियाँ किसको नहीं उठानी पड़तीं। पर यह नीतू तो… हाथ स्टीयरिंग पर थे और निगाहें सड़क पर, परन्तु दिशा के मन और मस्तिष्क उसे जाने कहाँ-कहाँ भटका रहे थे । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि सहेली नीतू मुश्किलों को ढूँढती फिरती है या वे ही उसे ढूँढ निकालती है।
‘ मिट्टी तो मिट्टी है…पांव में लिपट गई है तो ठीक से धो लेना ही बेहतर होगा नीतू।‘ चलते चलते कुछ ऐसा ही कहा था उसने नीतू से। ‘ हम कोशिश करेंगे कि कीचड़ का एक भी धब्बा न रहे। भले ही उसके लिए हमें सड़क पर आ जाना पड़े। सबके बीच में निर्वस्त्र नहाना पड़े। परन्तु यह झूठे दाग बर्दाश्त नहीं। हाँ , सावधानी और पक्की तैयारी की भी पूरी जरूरत है। मिट्टी है यह। इसकी ताकत और तूफान तू नहीं समझ रही अभी। जरा सी हवा ले ली तो आसमान तक जा पहुँचेगी। सिर पर बैठकर नाचेगी। ‘
मन में ही नहीं, बाहर भी धूल भरी आंधी उड़ रही थी। कार के शीशों को ही नहीं, पूरे-के-पूरे शहर को ही मानो ढक दिया था। कुछ भी तो साफ नहीं। सांस तक लेने में दिक्कत हो रही थी उसे।
‘क्यों इतना कमजोर बनाया तुमने माटी के इस पुतले को और फिर यदि ऐसा बना ही दिया था तो फिर क्यों इतनी धूप और बरखा लिख दी उसकी किस्मत में!’
ऊपर वाले की मर्जी के आगे अनायास ही हाथ खड़े कर दिए उसने। बरबस एक ठंडी आह उठी और उसकी पुतलियों पर जमकर बैठ गई। डबडबाती आँखों को पोंछकर उसने एकबार फिर खुदको याद दिलाया कि-मिट्टी जो हमें गढ़ती है, पालती पोसती है और अंत में अपने आगोश में पनाह देती है, समेटती है, साथ न दे तो, अपनी पर उतर आए तो कितना परेशान भी कर सकती है! – दिशा को सब समझ में आ रहा था अब। दम घुट रहा था उसका इस अनावश्यक जटिल शिकायत से। साथ में सुरक्षा समिति की क्यों जरूरत रहती है डॉक्टरों कों, यह भी।
पर्स के अंदर से जैसे तैसे ढूँढकर पंप निकाली, तब जाकर थोड़ी राहत मिली। हड़बड़ी में पंप निकालते वक्त पर्स में रखी डायरी गिर पड़ी और सामने हाल ही में लिखी उसकी ही एक कविता आंखों के आगे थी, मानो कोई अदृश्य शक्ति समझाना चाहती थी, कुछ कहना चाहती थी उससे-
‘ माना कि हलचल है रुह अंतस् की
स्पंदन है रुह जीवन की
उदास धूल खाती पर यही
बंद किताब है जीवन की। ‘
वह खोलेगी। झाड़ेगी इस किताब को। यही ठीक है। अक्सर चुप ही तो कर देते हैं हम इसे। सुनना नहीं चाहते आवाज को या फिर सुन नहीं पाते, क्योंकि बर्दाश्त नहीं कर पाते सच को। कड़ी चुनौतियों को।
जीवन की गाड़ी चलती रहनी चाहिए बस्स… कौन चला रहा है, कैसे चल रही है, इससे किसी को भी मतलब नहीं। फिर कितना मतलब रखें और कहाँ तक रखें, विशेषतः तब जब गाड़ी दूसरे की जिन्दगी की हो? और मतलब तो बाद की बात है, वक्त ही कहाँ है किसी के पास इस व्यवहारिकता की उर्जा पर लगातार चलते एस्किलेटर से दौड़ते जीवन में कि थमें भी, रुकें और सोचें! दूसरों के लिए तो निश्चय ही नहीं।
पर यदि वक्त पर नहीं संभले, तो ठोकर ही नहीं ,मुँह के बल गिरते भी तो देर नहीं लगती। आज उसकी तो कल हमारी भी तो यही परिस्थिति हो सकती है। दुख भी तो पके फल से ही हैं एक के साथ-साथ चार और गिरने लगते हैं।
अपनों का गिरना और चोट सहृदय दिशा कैसे बर्दाश्त कर पाती ! इस बेगाने देश में यही तो चन्द लोगों का कुनबा था। ये ही चन्द मित्र कहो या रिश्तेदार, थे । उसके अपने थे।
दिशा मन मे संकल्प ले चुकी थी। जितनी और जैसी मदद बन पड़ेगी, करेगी वह। गौरव से भी पूरा और ठीक-ठीक समझेगी । जानेगी और पूछेगी कि राय क्या है उनकी, राजेश से भी बात करनी ही होगी । उसका पक्ष भी सुनना और समझना ही होगा। तभी गांठ सुलझेगी।
असल में तो चारों का ही मिल-बैठकर निर्णय लेना ही उचित रहेगा।… ——————————————————————————————————————————————-
दो लघुकथाएँ
ठगईः शैल अग्रवाल
धूल भरे बाल और गोदी में नाक बहता बच्चा… हजार थेगड़ी लगे मैले कुचैले कपड़ों में वह उतने ही गन्दे चेहरे वाली लड़की हाथ पसारे गिड़गिड़ा रही थी।
‘ मदद करो, दीदी। घर बाढ़ में बह गया है। माँ बहुत तकलीफ में है। भाई आने वाला है और हमारे पास रिक्शे तक के पैसे नहीं। कैसे माँ को अस्पताल ले जाएँ! दो दिन से हमने कुछ खाया भी नहीं है।’
स्कूल जाने के लिए रिक्शे में चढ़ते पैर थम गए। घबराया, किशोर मन करुणा से भर उठा। रात की ही तो बात थी जब कुतिया पिल्ले देने लगी थी और वह विस्मित आँखों से हाथ भर दूरी पर खड़ी प्रकृति का यह अचंभा देख रही थी। कुतिया दर्द से चक्कर काट रही थी और वह कुछ समझे बूझे इसके पहले ही पहला बच्चा ठंडे फर्श पर गिरते ही ढेर हो गया था।
दौड़कर उसने अपनी फ्रौक का घेरा छोली सा फैला दिया था और आने वाले दोनों पिल्ले बच गए थे।
ऐसे में तो तुरंत ही मदद चाहिए, वरना सब बेकार है, जान चुकी थी वह।
बेहिचक, अपना लंच बाक्स और सुबह ही मिली इम्तहान की पूरी फीस, जस-कि-तस दे दीं उसने उस भिखारिन को। अब इसे भटकने की और तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। माँ को अस्पताल भी ले जा पाएगी, और इलाज भी करा पाएगी यह अभागिन। संतुष्ट थी वह खुदसे। पहली बार तो नहीं जब उसने पैसे खोए हैं, शाम को घर पर एक डांट और सही। उसका क्या, उसे तो थोड़ी डांट, थोड़ी सावधानी की सीख के बाद दोबारा फीस के पैसे मिल ही जाएँगे बड़ों से, पर इसे नहीं।
परन्तु अगले ही पल माँ के पास जाने के बजाय, वह लड़की सामने वाली कोठी में चली गई थी और फिरसे वही सब कहकर भीख मांग रही थी।
स्तब्ध थी वह।
‘भूल गई कहीं, खो गया सब।‘ नहीं कह पाएगी वह अब बड़ों के आगे।
खुद को कैसे समझाए, क्या सफाई दे… कैसे तैयार हो, शाम को घर पर एक और डांट और लापरवाही के लिए मिलने वाले लम्बे भाषण के लिए, बारबार ठगी जाने वाली वह क्षुब्ध किशोरी, बेहद मूर्ख महसूस कर रही थी अब। —
लावारिस – प्राण शर्मा
दो दिनों से उसके पेट में अन्न का कोई दाना नहीं गया था। छोटी से छोटी मजदूरी के लिए उसने हर जगह पर हाथ फैलाये लेकिन निराशा का ही सामना करना पड़ा उसे। भूख की आग बुझाने के लिए वह भीख माँगना नहीं चाहता था और न ही चोरी करना चाहता था। बचपन में उसकी माँ ने सीख दी थी – ” भीख माँगने से मरना बेहतर है और भूखे मर जाना लेकिन कभी चोरी नहीं करना। चोरी करने का नतीजा तूने देखा ही है। उसके अपराध में तेरा बापू जेल की सलाखों के पीछे पड़ा – पड़ा मर गया। ”
वह अपनी भूख तो मिटा नहीं सका लेकिन एक नदी के किनारे पर आ कर उसने अपनी प्यास खूब बुझायी।
अचानक उसकी कुछ नज़र कुछ फासले पर पड़े मैले – कुचैले दस पैसे के सिक्के पर जा पड़ी। वह उसकी ओर लपका। चलो , तिनके का सहारा सही। उसमें हिम्मत जागी । पैरों ने गति पकड़ी। जा पहुँचा वह पास ही एक बेकरी की दुकान पर। दुकानदार को सिक्का थमाते हुए वह बोला – ” डबल रोटी के दो टुकड़े दे दो। ”
दुकानदार ने सिक्के को घूरा। आँखें तरेर कर वह गरजा – ” दस पैसों का सिक्का दे कर डबल रोटी के दो टुकड़े माँगता है। चल हट , इतने पैसों से तो एक टॉफी भी नहीं मिलती है। ये ले अपना सिक्का और भाग यहाँ से। ”
” एक ही टुकड़ा दे दो। ”
” कहा न , चल हट। तेरे जैसे कई भिखमंगे आते हैं। नौकरी – वौकरी कर , रोटी – वोटी यूँ ही नहीं मिलती। ”
” नौकरी ही दे दो। ”
” मैंने क्या नौकरी देने का दफ्तर खोल रखा है ? भाग यहाँ से। ”
वह मुँह लटकाये नदी के किनारे फिर आ गया । अटटहास करके सिक्के से कह उठा – ” वाह रे , दस पैसे के सिक्के, मैं भी बदकिस्मत और तू भी बदकिस्मत। हम दोनों का मेल फला नहीं। ”
उसने उसी जगह पर सिक्का फैंक दिया जहाँ से उसने उठाया था .
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परिदृश्य
पूरा गांव ही मांगता है भीख यादवेन्द्र शर्मा
राजस्थान मध्य प्रदेश.
मध्य प्रदेश में एक गांव ऐसा है जहां 400 परिवार भीख मांगकर गुजारा करते हैं.दमोह जिले का एक गांव ऐसा है, जहां रहने वाले नट जाति के 400 परिवार भीख मांगकर ही जीवन-यापनकरते हैं और इसके लिए वे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मुंबई तक जाते हैं.
अपनी जनता को सुविधाएं देने के दम्भ भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार के लिए यह गांव चुनौती बन गया है. गांव के कुंए में पानी नहीं है.यहां से लगभग पांच किलोमीटर दूर पथरिया मार्गपर तिदौनी गांव में नटों के 400 परिवार रहते हैं और इनके बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी भीख मांग कर ही गुजारा करते हैं. इनमें कुछ करतब भी दिखाते हैं, लेकिन उनका कहना है किकरतब देखने के बाद अधिकांश लोग बिना पैसे दिए ही निकल जाते हैं, इसलिए उनके बच्चों को भीख मांगना पड़ती है.
कबीले के मुखिया निर्भय जाट ने कहा कि भीख मांगना उनका शौक नहीं मजबूरी है. उनकी इच्छा है कि कबीले के बच्चे अच्छी शिक्षा पाएं, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से यह संभव नहींहो पाता और उनकी जाति को अब तक पिछड़ी अथवा अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिलने से विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ अथवा छात्रवृत्ति आदि भी नहीं मिलती है. गांव के कुंएमें पानी नहीं है. परिवार की महिलाओं को दूर से पानी लाना पड़ता है.बिजली बिलों के बकाया होने की वजह से पूरे गांव की बिजली काट दी गई है.
दमोह में भीख मांग कर गुजारा करना मुश्किल होता जा रहा है, इसलिए गांव के लोग प्रदेश के अन्य शहरों के अलावा पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात और मुंबई तक करतबदिखाने और भीख मांगने जाने लगे हैं, तब जाकर परिवार की गुजर-बसर होती है.
ग्राम पंचायत कुंवरपुर की सरपंच आनंदरानी ने कहा कि नट जाति के विकास के लिए आदिमजाति कल्याण विभाग से कार्य योजना बनाने की मांग की गई है, हलांकि इस जाति को अबतक अनुसूचित अथवा जनजाति में शामिल नहीं किए जाने के कारण इनके कल्याण अथवा विकास की कोई योजना नहीं है.
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11 Feb 2012:
दिल्ली के कुछ ऐसे भिखारियों के बारे में तो हमने पहले से सुन रखा है, जिनके मरने पर उनके सिरहाने से हजारों रूपए बरामद होते हैं लेकिन आपने क्या किसी ऐसे भिखारी के बारे में भी सुना है, जो बाकायदा करोड़पति है, प्रतिष्ठित है और जिसके घर में कई नौकर-चाकर भी हैं| वह आलीशान बंगलों में रहता है| उसकी बेटी मुंबई में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और बेटा लंदन में पढ़ाई कर रहा है| इन सज्जन का नाम है, मुकुंद गांधी और ये रोज़ 3 घंटे अहमदाबाद के जमालपुर मार्केट में खड़े होकर भीख मांगते हैं| कहते हैं कि जब से मुकुंदजी की पत्नी को देहांत हुआ है, उन्हें एकांत बर्दाश्त नहीं होता| वे अपनी उदासी छांटने के लिए रोज बाजार में जा बैठते हैं|
क्या उदासी मिटाने का यही एक मात्र् तरीका है? तरीके तो हजार हैं लेकिन मुकुंदजी को सिर्फ यही तरीका क्यों सूझा? इसी तरीके से उन्हें संतोष क्यों मिलता है? इस दार्शनिक प्रश्न का उत्तर तो शायद स्वयं मुकुंदजी भी न दे सकें?
लेकिन इस प्रश्न का उत्तर मुझे एक अत्यंत प्रसिद्घ मंदिर के पुजारी ने दिया| यह प्रश्न मुकुंद गांधी के बारे में नहीं था| मुकुंद गांधी की खबर तो अभी मालूम पड़ी है लेकिन पुजारीजी से यही प्रश्न साल भर पहले किसी अन्य संदर्भ में पूछा गया था| उनके उस मंदिर पर भिखमंगों की जैसी जबर्दस्त भीड़ मैंने देखी, शायद उसके पहले किसी अन्य मंदिर पर नहीं देखी| जितने भक्त, उतने ही भिखारी! भिखारी भी ऐसे कि आप पर झपट पड़ें| आप उन्हें भीख में कुछ रूपए न दें तो वे आपके कपड़े फाड़ दें| पुजारी ने मुझसे कहा कि आप इनसे नाराज बिल्कुल मत होइए| हमारे मंदिर के ये भिखारी देश के बड़े जाने-माने लोग हैं| ये आपकी ही जात-बिरादरी के लोग हैं| मैंने उनसे कहा, यह आप क्या बोल रहे हैं? उन्होंने कहा, मैं आपको इनका रहस्य बताता हूं|
पुजारीजी ने बताया कि इनमें से नंगा-भूखा कोई नहीं है| ये सब जन्मजात करोड़पति हैं| पिछले जन्म में इनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई| ये सब करोड़पति से अरबपति बनना चाहते थे| दिन-रात हाय-पैसा, हाय-पैसा का जाप करते रहते थे| हाय-पैसा, हाय-पैसा करते-करते ही ये सब नरक पहुंच गए| इनकी अधूरी कामना पूरी तरह से पूरी हो जाए, इसीलिए भगवान ने इन्हें भिखारी बनाकर मंदिर के द्वार पर बिठा दिया है| अब ये सुबह से शाम तक बस उसी एक मंत्र् का जाप करते रहते हैं| हाय-पैसा, हाय-पैसा, लाओ-पैसा, लाओ-पैसा!
——————————————————————————————————————————————- हास्य व्यंग्य
भिखारी बनना आसान नहीं है , मियाँ।- -संजीव निगम
अपना देश दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा देश होगा जहां भीख मांगने के काम को लगभग एक उद्योग का दरजा प्राप्त है। असंगठित कारोबार के क्षेत्र में तो यह सबसे बड़ा कारोबारी क्षेत्र है। यहाँ भीख मांगने का आलम तो यह है कि कुछ साल पहले तक इस देश की सरकार खुद एक इंटरनेशनल भिखारी थी। हमारी सरकार ने अमेरिका , ब्रिटेन आदि अमीर देशों से इतनी भीख मांगी कि अब वे देश खुद भिखारी हो गए हैं। ये हमारा ही देश होगा जहां नौकरी करने से ज़्यादा सम्मान भीख मांगने को प्राप्त है , ” उत्तम खेती , मध्यम बान , निषिद्ध चाकरी , भीख निदान। ” इस धर्म प्राण देश में भीख लेने और देने दोनों को धार्मिक काम माना जाता है. किसी को भीख देने से स्वर्ग में आपकी सीट पक्की हो जाती है इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान यहाँ के पंडितों से ज़्यादा यहाँ के भिखारियों को है। जिससे यही प्रतीत होता है कि भीख लेने वाला भिखारी भीख लेकर आप पर उपकार ही कर रहा है। अगर वह इस भीख को स्वीकार न करे, तो ऊपर भगवान् भी आपको स्वर्ग में स्वीकार नहीं करेगा। हमारे धार्मिक स्थलों पर तो भवबंधन से आपको तारने वाले भिखारियों की इतनी भीड़ लगी होती है कि अगर आप सबको भीख देना शुरू कर दें तो भीड़ ख़तम होते होते आप खुद उसी भीड़ में खड़े नज़र आयेंगे। वहाँ सारे भिखारी आपको स्वर्ग में स्थान दिलाने के लिए उतारू दिखायी देते हैं और अगर आपने उन्हें भीख नहीं दी तो वहीँ पर आपको गालियों का नरक उपलब्ध करा देते हैं।
शहरों के प्रमुख चौराहों पर किस्म किस्म के भिखारी पूरी कर्मठता से अपने व्यवसाय में लगे मिल जायेंगे। इधर ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती लाल हुई और उधर धपाक से कोई भिखारी आकर आपकी कार का शीशा इतने अधिकार से पीटने लगेगा जैसे कोई सालों से बिछड़ा दोस्त आपसे मिलने को बेताब हो। देश के विभिन्न क्षेत्रों में हुए विकास के अनुरूप इस देश के भिखारियों ने भी अपने ” भीख व्यवसाय ” को नयी नयी दिशाएँ प्रदान की हैं। कोई भिखारी रोते हुए अपने अभिनय से आपके मन में इतना करुण रस जगा देता है कि आप खुद रो पड़ने को तैयार हो जाते हैं। आपका मन और आपके हाथ अपने वश में नहीं रहते हैं और इतने ही स्वाभाविक ढंग से भीख दे डालते हैं , जितने स्वाभाविक ढंग से अपने मकान का किराया देते हैं। कभी कभी कोई भिखारी महिला अपनी गोद में एक सोते हुए बच्चे को लेकर आती है और आपसे इस अधिकार से भीख मांगती है जैसे उस बच्चे के धरती पर आने के लिए आप ही ज़िम्मेदार हों। घबराहट में आपको एन डी तिवारी याद आने लगते हैं और डी एन ए टेस्ट का सोच कर आपकी हवा निकल जाती है।
हरिशंकर परसाईं के ” विकलांग श्रद्धा के दौर ” को अगर किसी ने सच्चे अर्थों में समझा है तो वह भिखारी लोग ही हैं । उन्होंने ही यह जाना कि ‘ विकलांग बनोगे तो श्रद्धा मिलेगी। ‘ इसलिए बड़ी संख्या में विकलांग भिखारी आपको रास्ता रोके मिलेंगे। भीख के लिए अपने ग्राहक को पटाते वक़्त वे अपने शरीर के विकलांग हिस्से को इतनी मजबूती से आपकी आँखों के सामने लाते हैं जितनी मजबूती से बड़े से बड़े वकील अदालत के सामने अपने सबूत नहीं ला पाते हैं। सबसे ज़बरदस्त बात तो यह है कि वे अपनी कृत्रिम विकलांगता को भी ऐसे पेश करते हैं कि ऑर्थोपैडिक डॉक्टर भी पिघल कर भीख दे डाले। कुछ बच्चे भिखारी बड़े पेशेवर स्टाइल से भीख मांगते हैं। वे एक मैला सा कपडा हाथ में लेकर बिना आपसे पूछे आपकी कार के शीशे को इस तरह से साफ़ करते हैं कि वो और गन्दा हो जाता है। उसके बाद वे जब वे हाथ फैलाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे भीख नहीं , मजदूरी मांग रहे हों।
सिर्फ सड़कों – चौराहों पर ही नहीं , विदाआउट टिकट भिखारियों के दर्शन बसों और ट्रेनों में भी जम कर होते हैं। वहाँ इनकी एक और प्रजाति पायी जाती है , वह है बेसुरे गायक गायिकाओं की। वहाँ कई लोग इनका गाना सुन कर नहीं बल्कि गाना सुनने से बचने के लिए घबरा कर इन्हे भीख दे देते हैं। इन्हे भी इस बात का पता होता है इसलिए ये पूरे मन से पूरी तरह से बेसुरा गाते हैं। बिना रिजर्वेशन यात्रियों पर शिकारी कुत्तों की तरह से लपकने वाले घाघ टिकट चेकर भी इन्हे देख कर दुम दबा कर साइड से निकल जाते हैं। उन्हें भी लगता होगा ‘ बेटा , इनसे उलझे तो कहीं लेने के देने न पड़ जाएँ। इसकी जेब से तो कुछ निकलेगा नहीं , लेकिन अगर इसने रोना पीटना शुरू कर दिया , तो अपनी जेब से ऊपरी कमाई के कुछ रुपये ज़रूर निकल जायेंगे। ‘
एक बार मैंने एक भिखारी से कहा , ” यार तुम इस तरह से हाथ फैलाते रहते हो , कुछ काम क्यों नहीं करते ? ” उसने कहा , ” आप ही बताओ क्या काम करूँ। ” मैंने कहा , ” कुछ भी। कहीं मजदूरी कर लो , कहीं नौकरी कर लो , कुछ छोटा मोटा धंधा कर लो , ” उसने तपाक से कहा , ” आप ही दिला दो। ” मैं हड़बड़ा गया। मैंने कहा , ” मैं ? मैं कहाँ से दिलवाऊँ ? ” उसने जवाब दिया , ” नहीं दिलवा सकते तो फिर काहे को ये बिना माँगा ज्ञान दे रहे हो। जिनकी भीख देने की भी औकात नहीं होती है वो ही आपकी तरह मुफ्त में ज्ञान देते फिरते हैं। ” उसके इस उत्तर ने मुझे रुँआसा कर दिया था। अपनी बची खुची इज़ज़त को अपनी खाली जेब में डाल कर मैं फ़ौरन वहाँ से सटक लिया।
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चांद परियाँ और तितली
शिवाजी को बुढ़िया की सीख
बात उन दिनों की है, जिन दिनों छत्रपति शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। एक दिन रात को वे थके- माँदे एक वनवासी बुढ़िया की झोंपड़ी में पहुँचे और कुछ खाने के लिए माँगा। बुढ़िया के घर में केवल चावल था, सो उसने प्रेम पूर्वक भात पकाया और उसे ही परोस दिया। शिवाजी बहुत भूखे थे, सो झट से भात खाने की आतुरता में उँगलियाँ जला बैठे। हाथ की जलन शान्त करने के लिए फूँकने लगे। यह देख बुढ़िया ने उनके चेहरे की ओर गौर से देखा और बोली-‘सिपाही तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी की तरह मूर्खहै।’
शिवाजी स्तब्ध रह गये। उनने बुढ़िया से पूछा- ‘भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी।’बुढ़िया ने उत्तर दिया- ‘तूने किनारे- किनारे से थोड़ा- थोड़ा ठण्डा भात खाने की अपेक्षा बीच के सारे भात में हाथ डाला और उँगलियाँ जला लीं। यही मूर्खता शिवाजी करता है। वह दूर किनारों पर बसे छोटे- छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और हार जाता है।’शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें पूरा करने की रीति- नीति अपनाई। इस प्रकार उनकी शक्ति बढ़ी और अन्ततः वे बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।शुभारंभ हमेशा छोटे- छोटे संकल्पों से होता है, तभी बड़े संकल्पों को पूरा करने का आत्मविश्वास जागृत होता है।
( साभार महापुरुषों की प्रेरक कथाओं से)
बाबाजी की झोली में
बाबाजी की झोली में
चिमटा खड़ाऊँ और बच्चे
दादी के ये किस्से हैं कुछ छूटे, कुछ सच्चे
डरते पर चुनमुन गोपी
बाहर खेलने की अब
जिद भी ना वे करते।
-शैल अग्रवाल
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