श्रद्धांजलिः ललित शुक्ल/ अप्रैल मई 2015

lalit shukla8 जनवरी, 1937, नेवादा,प्रतापगढ़ उत्‍तर प्रदेश में जन्मे  ललित शुक्‍ल जी अब हमारे बीच नहीं रहे। आप सुपरिचित कवि कथाकार आलोचक थे। ललित शुक्ल ने हिंदी में प्रबंधकाव्‍यों से शुरुआत करके हिंदी संसार को कई स्‍फुट काव्‍यकृतियां दी हैं।
काव्‍य:
स्‍वप्‍ननीड़,
समरजयी,
अंतर्गत,
सागर देख रहा है,
सहमी हुई शताब्‍दी ।
कहानी संग्रह: धुँधलका, आँच के रंग
उपन्‍यास: दूसरी एक दुनिया,
शेष कथा।
सहमी हुई शताब्‍दी का कथ्‍य हमारे समय की विडंबनाओं से प्रेरित है। उसमें आज का  यथार्थ बोलता है। सप्‍तकों के बाद कविता संचयनों में ऐतिहासिक महत्‍व रखने वाली ”त्रयी” की तीसरी कड़ी में जगदीश गुप्‍त ने उन्‍हें शामिल किया है, इसी से ललित शुक्‍ल के काव्‍य का माहात्‍म्‍य समझ में आता है। मैकमिलन पब्‍लिशिंग हाउस से प्रकाशित उनकी समालोचनात्‍मक कृति ”’नया काव्‍य नए मूल्‍य”’ चर्चित कृति रही है जिसमें आधुनिक व नई कविता के समस्‍त आंदोलनों की व्‍यवस्‍थित चर्चा शुक्‍ल जी ने की है। उन्‍होंने हमारे समय के अनेक कृति रचनाकारों भगवती प्रसाद वाजपेयी, आचार्य कृष्‍णशंकर शुक्‍ल, जयशंकर त्रिपाठी पर समावेशी ग्रंथोंका संपादन किया है। सियारामशरण गुप्‍त पर उनका शोध ग्रंथ एक प्रामाणिक मूल्‍यांकन है।
ललित शुक्‍ल ने अनियतकालिक पत्रिका ‘अनाहूत’ के कई अंक संपादित किये हैं जिनमें वाम कविता का अंक काफी चर्चित रहा है। वे दिल्‍ली की साहित्‍यिक संस्‍था : ‘लेखनी’ के संस्‍थापक संयोजक हैं जिसने गत दशक में अनेक साहित्‍यिक कार्यक्रमों का आयोजन किया है।  वाम चेतना के धनी कवि ललित शुक्‍ल जी का  27 अप्रैल को रात साढ़े बारह बजे दिल्‍ली में हृदय गति रुकने से निधन हो गया। ललित जी के परिवार में उनके सुपुत्र रूपाभ शुक्‍ल, बेटियां गायत्री शुक्‍ल, रूपम शुक्‍ल व पत्‍नी शांति शुक्‍ल हैं।  लेखनी परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि उन्ही की दो कविताओं द्वारा,
–संपादिका, लेखनी
 कविता की वसीयत ।।

ये कविताऍं उनकी हैं
जो आजीवन प्रेम में निर्झर खोजते रहे
उनका भी अधिकार है इन पर
जो कहना तो चाहते हैं
पर कह नहीं पाते
उन कबूतरों के गले में बांधना चाहता हूँ इन्‍हें
जो साग बनने के लिए अभिशप्‍त हैं
उन आंतों की भाषा लिखेंगी ये
जो कुलबुला कर अपने होने का
आभास देती हैंये कविताऍं उनकी नहीं है
जो अक्षरों का अहं पाले हैं
उनकी भी नहीं हैं जो ठकुरसुहाती के
मचान से बोलते हैंउन सालजयी आलोचकों के लिये नहीं हैं ये
जो दफ्ती की तलवारों से
कविता को घायल कर रहे हैं
ये कविताएं उनकी हैं जिनकी आंखों में
अपनापे की रंगत हैपरायेपन का नाम जिन्‍हें नहीं पता है
धरती की उर्वरक बनेंगी मेरी कविताएं
फूलों सी मुसकाऍंगी ये
उदास चेहरों के लिये।
 जरूर आयेगी चिड़िया ।।
 

 

 

 

 

 

घनी पत्‍तियों वाले गाछ पर बैठ
रोज एक चिड़िया गाती है
पता नहीं क्यों दो रोज़ से
हरे हरे पत्‍तों के बीच से उसका
स्‍वर बाहर नहीं आया

पूछता हूँ
कहॉं गई वह चिड़िया
कोई बोलता ही नहीं
धुऍं की पर्तों में छिप गया है चेहरा
या फिर वह गाना नहीं चाहती

अकेला स्‍वर
कितना तो असरदार था
गाछ भी अब उदास रहता है
धुऍं में क्‍यों आएगी चिड़िया
पर वह जहॉं होगी गा रही होगी

मेरा चैन चिड़िया के साथ
उड़ गया है

लगता है
कल जरूर आयेगी चिड़िया
जरूर गायेगी चिड़िया।

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