कहानीः भोली भाली गिल्लू-शमशेर अहमद खान, कविताः द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

भोली भाली गिल्लू

बिल्लू अपने मेहनतकश मज़दूर मां-बाप का इकलौता बेटा था। वह उनकी उम्मीदों का सहारा  था। होनहार बिल्लू दिन भर  अपने मां-बाप की मदद करता और शाम को मन लगाकर पढ़ता।  शाम के स्कूल में उसके अच्छे दोस्तों में कालू और ढीलू थे। दिन में जहां वह अपने मां -बाप के साथ रहता वहां पीपल का एक पेड़ था।  उसपर गिल्लू गिलहरी रह्ती थी। बिल्लू अपना बचा हुआ खाना वहां छोड़ आता।  गिल्लू उसे खा जाती।  धीरे-धीरे गिल्लू ,बिल्लू की दोस्त बन गई।

कह्ते हैं सब दिन एक जैसे नहीं होते। बिल्लू और गिल्लू की दोस्ती परवान चढ़ ही रही थी कि किसी की बुरी नज़र उनपर लग गई। गिल्लू अपने दोस्त बिल्लू जैसा बन गई थी। वह भी बिल्लू की ही तरह अन्य पशु- पक्षियों की सहायता किया करती थी। एक दिन जब वह अपने मित्र बिल्लू का दिया हुआ अन्न ग्रहण कर रही थी थका-मांदा कालिया वहां आया और बड़ी ही दीनता से बोला, ‘बहन, गिल्लू! बहुत दिनों से भूखा हूं. मुझे भी थोड़ा सा खाना दे दो. मैं तुम्हारा बहुत्त आभारी रहूंगा.’

गिल्लू में बिल्लू ही जैसी दयालुता थी,  कालिया के हालत पर तरस खाते हुए अपने खाने में शामिल कर लिया। कालिया बहुत धूर्त था। खाना मिलते ही अपनी मक्कारी पर आ गया और पूरे खाने पर कब्जा जमा लिया।

भोली-भाली गिल्लू एक जगह जाकर उदास बैठ गई। उसे पहली बार अपने भोलेपन का पछ्तावा हुआ,लेकिन अब पछताने से क्या होना था जब चिड़िया चुग गई खेत।

 

 

 

14008202-happy-group-of-young-people-in-a-row-isolated-over-white

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।

देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से

सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से

जाति भेद की, धर्म-वेश की

काले गोरे रंग-द्वेष की

ज्वालाओं से जलते जग में

इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो

नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो

नये राग को नूतन स्वर दो

भाषा को नूतन अक्षर दो

युग की नयी मूर्ति-रचना में

इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है

जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है

तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन गति,

जीवन का सत्य चिरन्तन धारा के शाश्वत प्रवाह में

इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना

अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना

सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे सब हैं प्रतिपल साथ हमारे

दो कुरूप को रूप सलोना

तने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

 

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

error: Content is protected !!