कविता का रुदनःडॉ. दीप्ति गुप्ता/ अप्रैल-मई 2015

मुद्दाः मेरा  दरद न जाने कोय…….!

                         

       i queen ‘भरत मुनि ‘ के समय से साहित्य की जिस  उदात्त विधा ‘कविता’ का ‘दर्शन’ जन्मा हो, रमणीय  और सुरुचि सम्पन्न भाषा-शैली से  जिसके कलेवर को बुनने  का निदर्शन हुआ हो,  साहित्य दर्पणाकार ‘विश्वनाथ’ ने  जिसे  ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’  कहकर परिभाषित किया हो,  आज वह ‘कविता’ और  उस  ‘कविता’ मे ‘नारी’  के जिस सुकोमल, सुंदर और संस्कारी उदात्त रूप  का कालिदास, बाणभट्ट, भर्तृहरि, जायसी, बिहारी, केशव, प्रसाद, निराला ने चित्रण किया  हो, जो आज भी कालेजों में  पढाये जाते हो, सराहे जाते हो – अफसोस के, आज वह  गरिमामयी कविता और उसमें चित्रित नारी  जिस नग्नता और अभद्रता के साथ  प्रस्तुत  की जा रही है, वह शोचनीय और निंदनीय  ही नहीं, अपितु  गंभीर  परिचर्चा  का विषय भी  है ! खेद व आश्चर्य  की बात  यह है कि नारी  के  अभद्र  चित्रण, पुरुषों के द्वारा  उतने नहीं जितने कि महिला लेखिकाओं द्वारा, कभी दुःख-दर्द  और कभी  किसी रोग की आड़ में बड़ी अशालीनता  के साथ,  ‘माहवारी’, ‘ॠतुस्त्राव  से  मिनोपॉज़ तक’,  ‘ब्रेस्ट कैंसर’  आदि  विषयों  के  तहत  फूहड ‘ छिछरोक्तियों’  के साथ  कविताओं में परोसे जा रहे  हैं !  इससे कविता   का रूप  और रूह,  दोनों फना  हो रहे  है !  बीसवी सदी के  भारतेंदु, से लेकर प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी  तक और इनके बाद अधुनातम ‘प्रयोगवाद’ के उन्नायक  ‘अज्ञेय’ जी  ने  कविता के  लिए जिन आदर्शो की स्थापना  की थी,  उन सबको दरकिनार कर, आज एक कुत्सित और रुग्ण मनोवृति  वाली जमात साहित्य में गंद भरने में जुटी है ! जिससे न साहित्य का भला हो रहा है और न समाज का ! कविता  का समय के साथ ढलने का  मतलब इन दुस्साहसी  कवियो ने यह कैसे निकाल लिया कि  काव्य में ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ की कोई ज़रूरत नहीं और मनमाने ढंग  से  उसके साथ  दुर्व्यवहार  किया  जा सकता है ! इन लोगो ने  कविता और नारी – दोनों की धज्जियाँ  उड़ाने  में कोई कसर नहीं छोडी है ! क्या वे नहीं जानते कि  सत्यम, शिवम और सुन्दरम के बिना तो कविता, कविता  ही  नहीं ?

कुछ  वर्ष पूर्व, जाने माने  समीक्षक नामवर  सिंह जी  ने पूना  विश्वविद्यालय  में आयोजित  अखिल भारतीय संगोष्ठी  में  अपने व्याख्यान के दौरान एक संदर्भ में कहा  था – ” कविता  मर  गई तो साहित्य मर गया ! ”  यह सुनते  ही  मैं उनके  कथन   पर इतनी  मुग्ध हुई कि  वह हमेशा के लिए मेरे  दिलो-दिमाग में अंकित  हो गया  क्योंकि  कविता सच में साहित्य का  प्राण हैं ! उसका  ‘खत्म  होना’  साहित्य  का खत्म  होना  है !

आज के दौर के  युवा रचनाकारों की रचनाएँ  सिवाय के  भयंकर मानसिक भूकंप  के ‘मलबे’ और कुछ भी नहीं  हैं ! उन्हें  पढ़ कर लगता है  कि कविता मे कोई  महामारी  फैल गई है !  सच कहती हूँ कि आज कविता का  सर्वस्व और वर्चस्व  दोनों खतरे  में है ! रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुन्दरदास, रामकुमार वर्मा, हज़ारीप्रसाद  द्विवेदी  जैसे हिन्दी साहित्य के मनीषी  इतिहासकारों, महादेवी, प्रसाद, पन्त, निराला जैसे ‘कालजयी’ कवियों और ‘गद्य कविता’ के जन्मदाता  भारतेंदु हरिश्चन्द्र  के  अनुसार जो कविता की  ‘उदात्त’ अवधारणा  थी – उस पर  आजकल  जिस कठोरता  से प्रहार  हो रहा  है, उस के कारण   संवेदनशील  एवं विचारशील साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों का वह वर्ग आहत  और  आक्रोशित है जो कविता में समसामयिक  स्वस्थ  परिवर्तन  का  हिमायती तो अवश्य है,  पर  कविता को उसके  मूल  संस्कारो से अलग  किए  जाने  के  पक्ष में नहीं है ! साहित्य  की हर विधा परिवर्तित  समय के  अनुसार अपने को उतना ढालती है, जितना अपेक्षित होता  है  और इस तरह का  स्वस्थ  व  न्यायोचित परिवर्तन सदैव  स्वीकार्य  होता हैं ! लेकिन  इसके परे  कोई भी विधा  और  विशेरूप से  साहित्य का प्राण  कही जाने वाली  ‘कविता’ यदि  नग्न और  बेढब  होती  नज़र  आती है तो,  वह  चिंता  का विषय बन जाती है ! ऐसे संकटकाल में  उसका बचाव  ज़रुरी हो जाता है !

मेरे द्वारा  2010 से  अनवरत   किए जा रहे एक सर्वेक्षण  के अनुसार  90 % सुधीजनो,  साहित्यकारों, समीक्षकों  एवं  प्रबुद्ध पाठकों  को  ‘अशोभनीय’ विषयों पर कविता  बिल्कुल पसंद  नहीं ! उनका ये भी कहना था कि कुछ वर्षों से देखने मे आ रहा है कि आजकल के आत्ममुग्ध कवि और कवयित्रियाँ  शोहरत  की  अदम्य कामना से,चोटी पे पहुँच कर अपना परचम फहराने  हेतु, ‘वर्जित विषयों पर कविताएँ  लिखने लगे  हैं ! वास्तव  में, उन विषयों  पर  वे ज़बरदस्ती थोपे  गए दुःख-दर्द या सुख की  ‘आड़ में  प्रसिद्धि पाने  की  लालसा से ग्रस्त होते हैं !

नि:संदेह, ये एक निर्विवाद सत्य है कि अपने को नवीनता का पुरोधा  मानने वाले औघड कवियों को कविता  में गरिमा, सुंदरता, गहनता. मित्रवत उदात्त सन्देश, पाठक तक पहुँचाने के गुण के होने न होने से कोई मतलब नहीं रहा ! कविता का कोमल कलेवर, उसकी गरिमा  भले ही क्षत-विक्षत  हो जाए, लेकिन उन्हें  येन केन प्रकारेण शोहरत मिल जाए – रचनाकर्म  के पीछे उनका यह स्वार्थ  छिपा होता है !  वे  उन सामाजिक  और सांस्कृतिक  रूप से अशोभनीय  विषयों  (महावारी, स्तन, मीनोपोज़, सहवास  आदि …) पे  कविता लिख कर, साहित्य जगत में ‘क्रांतिकारी  होने’ का सेहरा  किसी तरह अपने सिर पे बाँध ले – यह  कामना  उनके मन में बड़ी  बलवती  होती  दिख रही है ! पर  वे बेचारे  ‘ख्याति  पिपासु’ अपनी इस तरह की निंदनीय  हरकत के प्रतिकूल असर के बारे में तनिक भी  नहीं सोच पाते ! सोचने की  बुद्धि ही  नहीं है,  बुद्धि  होती तो क्या इस तरह की कविताएँ लिखते ? जब  उन  पर  उदात्त  और गरिमामय  साहित्य-सर्जकों के प्रहार  होते है, तब वे पहले तो  अपने ‘दुस्साहस’ को न्यायोचित  ठहराने  की नाकाम कोशिशे करते है और जब  अपनी धज्जियाँ उड़ते देखते हैं तो, मैदाने-जंग से  भाग खड़े होते हैं ! दिमागी तौर पे कंगाल इन  कवियों और कवयित्रियों को  झाड  पे  चढाने वाले  कुछ  शातिर  लोगो का जमावड़ा भी  साहित्य को कुरूप  बनाने में  ‘वाह-वाह ‘ करते  हुए  बड़ी उदारता  और निष्ठा  से  जुटा  हुआ है !

अभी हाल ही में एक ऎसी ही युवा कवयित्री  दामिनी यादव,  किन्ही  लालित्य ललित द्वारा  फेसबुक  पर  महिमामंडित होती हुई नज़र आई ! ललित जी की पोस्ट में उनका परिचय पढकर मुझे बहुत अच्छा लगा,  लेकिन जब मैंने ‘माहवारी’  को कविता का  विषय पाया और बाद में खोज कर कविता भी पढ़ी, तो मेरे मन में जो प्रतिक्रिया उभरी, उसे मैंने अविकल फेसबुक पर अभिव्यक्त कर दिया ! अपनी प्रतिक्रिया देने का अधिकार तो हर किसी को है ! उसे पढ़ कर  दोनों  सफाई पे सफाई  और असंगत  तर्क देने पे आमदा  हो गए  ! मैंने न तो दामिनी से और न ही  लालित्य ललित जी से कोई सफाई मांगी थी,  तो फिर मेरी प्रतिक्रिया पर  उन्हें इतनी सफाई  देने की ज़रूरत क्यों पड़ी,  दोनों  को इतनी  तिलमिलाहट  क्यों हुई ? क्योंकि कहीं तो गड्ढा था, जहाँ पानी  भर  और मर रहा था और अंदर ही अंदर  उन दोनों के    अंर्तमन ने  उन्हें धिक्कारा होगा !  वैसे भी, आजकल  लोग गलत काम बड़े शान से  सीना तान के करते  हैं ! यह  रवैया  बेशर्म ही नहीं,  बल्कि समाज, देश और  समूची मानवजाति के लिए  बड़ा   खतरनाक भी है ! कविता का   जिन्हें  सिर- पैर  भी नहीं पता, ऐसे लोग   ‘महान साहित्यकार’  होने का  ढिढोरा गली- मौहल्ले, चाय के खोके, औफ़िस कैंटीन, काका के ढाबे से लेकर  फेसबुक  तक पीटते फिरते हैं ! दामिनी, अगर साहसी होती, तो मुझे बहुत अच्छा लगता, पर अफसोस के, वह  ‘दुस्साहसी’ है, जो एक नकारात्मक तत्व है !  वे  मोहतरमा दुस्साहसी ही नहीं  है, बल्कि असंगत तर्क करना भी खूब जानती हैं ! कविता के रूप को उसके मूल से काटने की   अपनी निंदनीय हरकत को  वह न्यायसंगत ठहराती हुई, जन्मदात्री माँ को  बीच में घसीट लाई ?  उनकी  उस दलील का भी  मैंने जवाब थमाते  हुए लिखा कि एक माँ बंद कमरे में  डाक्टर के सामने  ही बच्चे को जन्म देती है, किसी सामाजिक मंच पर उसका प्रदर्शन और शोर-शराबा नही करती ! जनता को निमंत्रित नहीं करती – लोगो आओ, मुझे देखो, मैं बच्चे को जन्म देने वाली हूँ ! बच्चे का जन्म माँ का बहुत बड़ा सृजन कर्म है ! और सृजन में हम या  कोई भी, जितने खामोश होंगे, अपने  साथ  होंगे, एकांत में होंगे, सृजन उतना ही उदात्त, निर्बाध    और सुखद होगा ! अपने  शरीर से जुडी कुछ बातों, कुछ अंगों  का  सामाजिक प्रदर्शन न करना ‘संस्कार’ के अंतर्गत आता  है, तथा ‘संस्कार’ स्वस्थ जीवन के लिए वह अपेक्षित तत्व है जो जीवन को संपन्न, समृद्ध और  प्रगत बनाता है !
कविता  लिखते समय  सबसे पहली  बात  आती है  ‘विषय’  की ! अब  अगर  शुरुआत  ही  गलत  हो तो, उसके बाद के सारे कदम टेढ़े ही पड़ते हैं ! साहित्य के  संवर्द्धक  एवं संपोषक लेखको ने आदिकाल से कुछ  विषय कविता के लिए  वर्जित माने हैं !  जिन विषयों पर हम संस्कारवश  अपने बड़ों और छोटो के सामने बात करने से भी कतराते हैं, इसलिए नही कि वे  विषय निकृष्ट हैं या कलुषित है,  लेकिन उनका  खुले आम उल्लेख  कभी भी शोभनीय  नहीं  लगता !  हमारे सामने बड़े  बैठे हो अथवा  छोटे भाई-बहन, बेटे  बैठे हों, तो उनकी उपस्थिति  में हम उन  विषयों का भूले से  ज़िक्र भी नहीं करते  !  उन  विषयों पर  हालात के अनुसार या बढते बच्चो को ‘उचित समय’ पर  जानकारी  देने  की ‘ज़रूरत’  आन  पड़ती है, तो  तब  अलग से  बैठ कर   समझाने जैसी बातचीत होती  है  बस ! लेकिन कुछ  रचनाकार बड़ी उच्छृखलता और अभद्रता से उन वर्जित विषयों  पर  ‘कुछ भी’ उगल कर,  कविता  के साथ  क्रूर खिलवाड  करने पे उतारूँ  है ! अब सोचिए कि  माहवारी, सहवास पे यदि कविताएँ गढी  जायेगी  तो इससे तो बेहतर  है  कि  लिखने वाले  इन  विषयों  पर ‘ख़ास कोटि’ की पुस्तक ही लिख कर अपना ज्ञान, अपने अनुभव दूसरों तक पहुंचा ले, लेकिन  साहित्य पर ज़रा  और  उसमे भी  कविता  पर  ज़रा दया करें ! क्या  गरिमामय कविता इन विषयों  के लिए  है ?

ऐसे लोग क्यों नहीं समझते कि  वर्जित विषयों पे भोंडेपन से कविता लिखना ‘साहित्य और समाज के  सिद्धांतो एवं नैतिकता’ – दोनों ही के  अनुसार असंगत है ! वर्जित विषयों की अपनी एक अलग पवित्रता, गरिमा और सहजता है जिनका  दर्द अथवा  सुख अनुभूति का विषय है, कविता का नहीं ! अपने तक सीमित  रखने का विषय है, तमाशे  का  नहीं ! क्या  दुनिया में  विषयों का अकाल पड़ गया है जो,  ये मतिभ्रम कवि  वर्जित विषयों पे  टूटे  पड  रहे  हैं  ? या इनकी  अक्ल और  आँखे इतनी जड़  हो गई है कि  कुछ  भी  सोच  पाने  और देख  पाने में असमर्थ  है, कि क्या उचित, क्या  अनुचित, क्या  सही है, क्या  गलत  है….?  हर कार्य और वस्तु का  का विधि-विधान, संस्कार, देश व समाज के और इनसे भी ऊपर ‘मानवता’ के  अनुसार निश्चित  हुआ  करता है ! उसमें   बदलते समय की मांग के  अनुसार  थोड़ा-बहुत  उतना परिवर्तन  स्वीकार्य  और  श्लाघनीय  होता है, जो कि उसे  ‘अपरूप’ न बना कर, बेहतर बनाता है ! अब इस  बात को समझदार तो बिना बताए या  संकेत से मात्र से  समझ लेते हैं और कुछ  समझाने पर भी नहीं समझते हैं ! जैसे  नासमझ  लोग,  सबसे  हटकर दिखने के चक्कर में  चेहरे की उल्टी – सीधी  चीर -फाड करवा कर, उसे  ऐसा  कुरूप  बना लेते  है कि  शक्ल दिखने लायक नही रहते, उसी तरह साहित्य के क्षेत्र में  कुछ मगरूर,नासमझ लोग कविता में क्रांतिकारी  परिवर्तन लाने की जिद में,  ‘कविता’ की इतनी चीर-फाड कर  डालते है कि  वह  बदशक्ल होकर रह जाती है !  न उसमे रूप बचता है, न रस, न गंध ! उसका  ये हाल करने वाले  अपने किए पर न सोचते है और न पछताते है कि  उन्होंने ने ‘कविता’ का क्या कर डाला ?  उनके  पास इतना  सोचने –समझने की  क्षमता  ही नहीं होती,  होती  तो वे उसकी दुर्गति ही क्यों करते, पछतावा करने  की बात तो बहुत  दूर  की हैं ! साहित्य का  बेडा  गर्क  करने  पे  आमदा  इन लोगो को सचेत किया जाना चाहिए और तब भी न समझे तो सख्त ‘चेतावनी’ दी जानी चाहिए ! खरपतवार  की तरह ऐसे कवि  हर युग में उगते  रहे  है और विचारशील लोग, साहित्य की  बढ़न  में बाधक  उस  खरपतवार को  उखाड़ते रहे हैं ! एक खरापतवार साफ़ की तो दूसरी उग आई,  अतेव  उसके उगने के साथ-साथ  सफाई का सिलसिला भी चलता रहता  है ! उनके  ही जैसे अपरिपक्व और कंगाल बुद्धि लोग, इस तरह  की  रचनाओं की सराहना करते हुए ‘अटपटे’ से बोल बोलते हैं, तालियाँ बजाते हैं,जैसे कि पहलीबार कोई महान कविता  पढ़ी    हो ! उसका  यशोगान करते नही  अघाते ! लेकिन बदशक्ल  और  गरिमाहीन  होती हुई कविता की  किसी को चिंता नहीं होती !  दम  तोडती हुई  कविता पे किसी को  तरस नही  आता !

कैसी क्रूर बिरादरी है भई ….???

प्रगतिशीलता   का   या   साहित्य  में  कुछ नयापन लाने का मतलब यह नहीं होता कि उसमें मनमाने ढंग    से  ‘ छिछरोक्तियाँ ‘ भर  दी  जाएँ  और संवेदनाओं को मुखर करने वाली सलोनी कविता को कुरूप बना कर उसका  सारा सौंदर्य  उधेड़ कर रख  दिया  जाए  ! कभी करुणा-वेदना  की आड़ में तो, कभी  सुखानुभूति  की  आड़   में  !  ऐसे  लोग अपनी  कुत्सित  सोच  को  कविता   पे बड़ी बेदर्दी  से  थोप रहे  हैं , कविता को विकृत बना रहे  है और  इस तरह  साहित्य की  ‘ प्राण-रूपा ‘ कविता  की  आत्मा  मर जाने से  समूचे साहित्य के  भी मर जाने का  अंदेशा   होने  लगा  है ! क्या ऐसे में हमारा फ़र्ज़ नही बनता कि हम काव्यात्मक और गद्यात्मक साहित्य की रक्षा करे,   और उसे कुरूप होने से, मरने  से  बचाए ?

इस  बिरादरी  को  यह  नहीं भूलना चाहिए  कि   जिस तरह  साहित्य की सुरक्षा के लिए  Copy  Right Act हैं , उसी तरह वर्जित और अशोभनीय  विषयों व  कविताओं के लिए भी IPC  की धारा  नम्बर  294  और 504 हैं ! अभद्र शब्द  (Indecent Expression),  मौखिक  बवासीर (Verbal Abuse )  आदि  सबके लिए नियम कानून  है !

कितने ही युग बीत  जाएँ, समय और पीढियाँ बदल जाएँ, किसी भी विधा का वह मूल आधार नहीं बदला करता जिससे वह जन्मी है ! कविता  ही क्यों सृष्टि को ही ले लीजिए – सूरज  सदियों से पूरब से निकलता आया है, तो  आज भी वह वही से जन्मता  है, ये नही कि  अपने स्रोताधार ‘पूरब’ को त्याग दे  और  पश्चिम दिशा से  उगने की हठ  ठान ले ! इसी तरह  चाँद  सदियों से रात को निकलता आया है,  उसका रात में ही निकलना  श्रेयस्कर  भी है – तभी तो वह चमकता है, वरना दिन में निकलने का  दुस्साहस करेगा तो,  फीका पड़ा जायेगा, धुंधला जायेगा ! बीज से सुंदर, कोमल, रंग-बिरंगे फूल, हरे-भरे पेड-पौधे उगते आए हैं, तो वे ही उगगे, न कि कीड़े  और केचुएँ ! प्रकृति से सीखिये कि नियम विधान क्या होता है और उसे तोड़ने का हश्र क्या होता है ! जिस तरह  सृष्टि ने अपने  विभिन्न अवयवों के लिए विधान नियत किए है, उसी तरह आदिकाल से  आधुनिक काल तक,  साहित्य के प्रणेताओं ने भी साहित्य के विधान तय किए ! जैसे प्रकृति के विधान तोड़ेने का  प्रयास हुआ तो  – पर्यावरण  विषाक्त  हुआ !  उसी तरह जब  भी  कविता के विधान को तोडने का  ‘दुस्साहस’ किया गया तो – वह विषाक्त हुई और उसका पतन हुआ ! उदाहरण के लिए,  हिन्दी साहित्य के इतिहास में कुछ समय के लिए  नए भावो,  नयी  परिस्थितियों, नए तथ्यों को  ‘यथार्थ’  की भूमि पर  प्रतिष्ठित  करने वाली ‘नई कविता’ का  दौर  आया था – ठीक  दामिनी की  ‘माहवारी’ कविता  की तरह !  उन  चिंतनहीन  नए  कवियों ने  इतना  नग्न, अभद्र,  वितृष्णा  जगाने वाला  ‘यथार्थ ‘ अभिव्यक्त किया  कि कविता     का ‘विकृतिकरण’  होने लगा ! उनके यथार्थवाद का दर्पण  ‘अति यथार्थता’ से  चूर-चूर हो गया  और  ‘नई कविता’  कविता न रह कर अभद्रता, निकृष्टता  की हद तक पहुँच गई  ! ‘नई कविता’  अज्ञेय जी  के  मानदंडो की अवहेलना करती हूँ, फूट  निकली और  जल्द  ही  अपने तरह-तरह के  कचरे  के  कारण  सडांध से भरकर समाप्त  हो गई ! उसका  प्रवाह  ही बंद  हो गया ! कविता की अवधारणा  को रूपाकार देने वाले कवियों द्वारा  प्रतिष्टित कविता  के विविध आयामों  और मानदंडों की अवहेलना करना, उन प्रणेताओं   और  कविता – दोनों का  निरादर करना  है ! आज कविता की  ऎसी दुर्गति  देख कर,  प्रसाद, पन्त, महादेवी  और निराला  की  आत्मा  कलपती होगी !

कहने का तात्पर्य यह है कि  काव्य सृजन ऎसा  हो  कि  ‘कामायनी’  की  तरह युगों तक  याद किया जाए ! ‘परिमल’ , ‘सरोज-स्मृति’ की तरह पढ़ने वालों की स्मृति में छाया रहे !  इसलिए  एक बार  फिर दोहराना चाहूँगी  कि यदि  कविता अपने  ‘संस्कार’  और ‘सौंदर्य’ की ‘जड़ों’ से  कटी, ‘संवेदना’ से  अलग हुई   तो, उसे  ‘मरते’  देर  नहीं लगेगी  और  कविता मरी तो,  आने  वाले समय  में  साहित्य के  भी मर जाने  का  अंदेशा  मुँह बाये  खड़ा होगा ! क्या ऐसे में  प्रबुद्ध साहित्यकारों  और  पाठकों   का  फ़र्ज़ नही बनता कि  हम  सब  साहित्य  की  रक्षा करे, उसे कुरूप होने से, मरने से बचाए ? क्या हम और आप इतने कमज़ोर  है कि एक सही  बात  के  लिए अपनी  आवाज़  नही  उठा  सकते ?                                          .                                     ………………………..O ………………………..

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