मौसम से वसंत
चलो बटोर लाएँ
चलो मिल बटोर लाएँ
मौसम से वसंत
फिर मिल कर समय गुज़ारें
पीले फूलों सूर्योदय की परछाई…
हवा की पदचापों में
चिडियों की चहचहाहटों के साथ
फागुनी संगीत में फिर
तितलियों से रंग और शब्द लेकर
हम गति बुनें
चलो मिल कर बटोर लाएँ
मौसम से वसंत
और देखें दुबकी धूप
कैसे खिलते गुलाबों के ऊपर पसर कर
रोशनियों की तस्वीरें उकेरती है
उन्हीं उकेरी तस्वीरों से ओस कण चुने
चलो मिल कर
-सरस्वती माथुर
जयपुर
पहाड पर बसंत
पहाड़ पर भी
बसंत ने दी है दस्तक
बान के सदाबहार जंगल में
कविता की एक रसता को तोड़ते-से
बरूस के पेड़ों पर
आकंठ खिले हैं लाल फूल
सरसों के फूल बसंत में जहाँ
खेत के कोने की छान को झुलाते होंगे
धीरे-धीरे यहाँ बरूस के लाल रंग ने
आलोड़ित किया है पृथ्वी को
बादल बच्चों की तरह उचक-उचक
देखते बसंत खेल डाली-डाली पर
उम्मीदों-से भरे हैं फूलों के गुच्छे
हर फूल में ढेरों बिगुल-से झुमकों से
करते बासंती सपनों का उद्घोष
सेमल, शाल, पलाश, गुलमोहर को पीछे छोड़
बरूस की लाल मशाल रंग गई बादलों को भी
आक्षितिज बरूस ने
बच्चों के हाथों घर-घर भेजा है
उत्सव का आवाहन
जीर्ण-शीर्ष घरों को
बरूस की बंदनवार रस्सियों ने
बाहों में भर लिया है
बसंत ऋतु के बाद
निदाघ दिनों में भी
बंदनवार में टँगे सूखे फूलों को
मसलकर एक चुटकी लेते
सारी ऋतुओं का रस
टपक पड़ता है जीवन में
— तेजराम शर्मा
बसंत
पहिओं से घिसटता हुआ
आता है हमारे शहर में
तुम्हारी खुशबू में लिपटा
चला आता है धुंआं
मेरे कपड़ों से रेत की तरह गिरते हैं
मेरे छोटे-बड़े समझौते
तुम्हारी लिपस्टिक से उतरती हैं
दिन भर की फीकी मुस्कराहटे
तुम्हारा मोबाईल
तुम्हारी हंसी को बदल देता है
यस सर में मेरा लैपटाप
खींच ले जाता है मुझे तुमसे दूर
अपनी आफिस टेबल पर
अगले दिन शाम ढले
फिर तुम झुकी हुई आती हो
रात गए मैं बुझा सा तुमसे मिलता हूँ
हमारे बीच न स्नेहिल स्पर्श है,
न कातर चुम्बन. न आतुर रातें
शायद वीर्य और रज भी
हमारी किश्तों के भेट चढ़ गए।
-अरुण देव
सपने
एक दिन यहाँ
दीपक की रौशनी में
मिट्टी से दोस्ती करेगा सपना
और अंगुली के इशारे पर
मैं खोदूंगा
गहरे अँधेरे के सीने में
उन सपनों के मिट्टियों को
जहाँ एक जोड़ी ऑंखें
मेरी बाट जोह रही है।
एक दिन यहां
आकाश की तरफ हाथ बढ़ाते
तुम्हारी अंगुलियों की कोमलता को
वक्त का लहू
नग्न वृक्ष में बदल देंगें
और कोरे कागज पर
उतर आयेगा गहराई तक की सारी मिटटी
जिनसे सपने
रौशनी से चौंधिया जायेगा।
यहां एक दिन
सारे वर्जित रास्तों पर
कवितायेँ चीखेगी
और शब्दों के तीरों से
युद्ध में भी बजेगा
वसंतोत्सव के गीत
तब नंगी रात की चीख
मेरे और तुम्हारे सपनों में आकर
मिटटी की बातें बताएगा।
जब वह कहेगा
खलिहान और संसद के बीच
अभी दूरी मिटने ही वाली है
और झोपड़ी से अंतरिक्ष तक
एक रास्ता बनने ही वाला है
तुम्हारी ऑंखें चमक उठेगी
तुम बुनने लगोगे सपने।
मैं सोचूंगा
दीपक की रौशनी में
सर्चलाइट सी ऑंखें
कहीं मेरे सपनों में तो उगी नहीं है
कि नंगी रात की चीख
उमस के सारे काई को
अंतरिक्ष में उड़ाने को तत्पर हो।
मोतीलाल
बिजली लोको शेड, बंडामुंडा
राउरकेला – 770032
मो. 09931346271
E-Mail: motilalrourkela@gmail.com
क्या कभी
क्या कभी ऐसा हुआ है
कि होठों पर वसंत हो
आँखों में वसंत हो
और मन में ना हो…
दरकती धरती पे लहलहा आई
पौध को देख
जबजब पूछा है थके राही ने
जिन्दगी से
जिन्दगी तब तब
मुस्काई है…
-शैल अग्रवाल
आओ ऋतुराज
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग
भर दो प्रमोद जीवन में और मतवाली तरंग
बहे समीर, सलिल आनंद का चारों ओर
हो चेतन में नवसृजन का नव उमंग
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग।
मन विह्वल, भाव प्रांजल मिल जाये गति स्नेह को
स्नेहिल हो सब परस्पर अभिमान न हो देह को
कंटक माल्य से स्वागत अगर हो जीवन पथ पर
फिर भी सतता से कभी न हो मोह भंग
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग।
अधीर भी धीर तुम संग जैसा कि पवन
कर जाओ हृद-मस्तिष्क में नवगुण रोपण
नवाधार बने जीवन का यह संकल्प हो स्थिर
जीवन पुष्प भी खिले लिए अशेष रंग
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग।
— मनोज ‘आजिज़’
पता- आदित्यपुर,जमशेदपुर,
झारखण्ड , भारत
फोन- 09973680146
क्या फागुन की फगुनाई है।
क्या फागुन की फगुनाई है
डाली – डाली बौराई है।।
हर ओर सृष्टि मादकता की-
कर रही फिरी सप्लाई है।।1
धरती पर नूतन वर्दी है।
ख़ामोश हो गई सर्दी है।।
कर दिया समर्पण भौरों ने-
कलियों में गुण्डागर्दी है।।2
मनहूसी मटियामेट लगे।
खच्चर भी अपटूडेट लगे।।
फागुन में काला कौआ भी-
सीनियर एडवोकेट लगे।।3
जानवर ध्यान से रहे ताक।
वह करता दिन भर कैटवाक ।।
नेचर का देखो फैशन शो-
माडलिंग कर रहे हैं पिकाक।।4
इस जेन्टिलमेन से आप मिलो।
एक ही टाँग पर जाता सो ।।
अप्रेन पहने तन पर सफेद-
है बगुला अथवा सी0एम0ओ0।।5
नित सुबह-शाम चैराहों पर।
पैंनाता सीघों को आकर।।
यह साँड नहीं है श्रीमान-
फागुन में यही पुलिस अफसर।।६
दौरों पर करते दौरे हैं।
गालों में भरे गिलौरे हैं।।
देखो तो इनका उभय -रूप-
छिन में कवि, छिन में भौंरे हैं।।1७
जय हो कविता कालिंदी की।
जय रंग-रंगीली बिंदी की।।
मेकॅप में वाह तितलियाँ भी-
लगतीं कवयित्री हिंदी की।।८
वो साड़ी में थी हरी – हरी।
रसभरी रसों से भरी- भरी।।
नैनों से डाका डाल गई-
बंदूक दग गई धरी-धरी।।९
इस ऋतु की ये अंगड़ाई है।
मक्खी तक बटरफलाई है ।।
कह रहे गधे भी सुनो – सुनो!
इंसान हमारा भाई है।।10
-डॉ. डंडा लखनवी
पता: 1/388-विकास नगर
लखनऊ-226022 (भारत)
सचलभाष-0936069753
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