माह विशेषः गोवर्धन यादव

जन्माष्टमी के पावन पर्व पर विशेषः    कर्मयोगी श्रीकृष्ण

Krishna

 

कृष्ण का व्यक्तित्व एकदम निराला-अद्भुत और अनूठा है।  देवताओं और अब तक हुए अवतारों की परम्परा में वे अन्यतम व्यक्ति हैं। उन्होंने जीवन को गहराई से उतरकर, उसको समग्रता मे देखा और जिया। जहाँ राम मर्यादापुरुषोत्तम के रुप में जाने गए, बुद्ध करुणा के सागर कहलाए, लेकिन उन्हें पूर्णावतार न कहकर अंशावतार ही कहा जाता है।  क्योंकि वे अपनी-अपनी मर्यादाओं में बंधे रहे,जबकि श्रीकृष्ण ने किसी बंधन को स्वीकार नहीं किया , इसलिए वे पूर्णावतार कहलाए। उन्होंने मनुष्य जीवन को भरपूर उत्साह के साथ जिया. अतः वे कभी अप्रांसगिक नहीं हो  सकते।

श्रीकृष्ण ने जीवन को उसके समस्त यथार्थ के रुप में देखा और विभिन्न परिस्थितियों से स्वयं गुजरते हुए उसे हमारे सन्मुख प्रस्तुत किया।  दूसरी ओर इन्होंने कभी भी मौतिक जीवन का न तो निषेध किया और न ही बचने की बात की. कभी वे कालियादह में उतरकर कालिया से जा भिडते हैं, तो कभी गोपियों के सिर पर रखी दूध-दही-माखन की मटकियां को फ़ोड देते हैं और तो और वे अपने ही घर में, ऊँचे सींकचें पर रखी माखन की मटकी उतार अपने ग्वाल-बाल मित्रों को खिलाते हैं।  अखाडॆ में उतरकर अच्छे-अच्छे सूरमाओं को धूल चटाते हैं, तो कभी कुंज-गलियों में बांसुरी बजाकर अपने से अधिक उमर की गोपियों के संग रास रचाते हैं।  जरुरत पडने पर उन्हीं के हाथों से निकला सुदर्शनचक्र मानवता के शत्रुओं की गर्दन उतारने में देर नहीं लगाता, तो कभी वे गोवर्धन पर्वत उठाकर अभय का प्रतिरुप बन जाते हैं।  अपने भाई बलदाऊ के साथ वे निशंक मथुरा में प्रवेश करते हैं और दुष्ट कंस को यमलोक पहुँचाते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं।  वे पाडवॊं के शांतिदूत हैं, वहीं वे संघर्ष की प्रेरणा देने वाले कर्मनिष्ठ भी हैं..बडॆ-से बडॆ संकट से घिर जाने पर पाण्डवों के मन में धीरज बंधाते हैं, अभिमन्यु, घटोत्कच की मृत्यु पर वे जिस सहानुभूति और संवेदना का परिचय देते हैं और हतोत्साहित पांडवों की मुरझाई चेतना में नया उत्साह-नया जोश भरते हैं..अपने बुआ के लडके शिशुपाल द्वारा उनका घोर विरोध करने और अपमानित करते रहने पर भी, वे जिस धैर्य और अनुशासन का प्रदर्शन करते है, यह हमें एक संदेश और सबक देता है। उस जमाने में सारथी को हेय दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन धर्म की संस्थापना के लिए उन्होंने अपने बाल सखा अर्जुन का सारथी बनने में तनिक देर नहीं लगाई। उनके लिए लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में अपमानजनक कुछ भी नहीं था। पांडव भी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि बिना कृष्ण के वे महाभारत जीत नहीं सकते. उन्होंने उनके विश्वास को बनाए रखा और अपनी कूटनीति की अनूठी प्रतिभा का परिचय देते हुए, उन्हें विजयी बनाया। युद्ध में शस्त्ररहित रहने का वचन देते हैं तो वहीं दूसरी ओर वे शस्त्र धारण करके अपनी प्रतिज्ञा तो बेहिचक तोड भी देते हैं। युद्ध के पश्चात वे पांडवों द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में किस तरह कुशल संयोजक की भूमिका का निर्वहन करते हैं, और स्वयं अपने लिए काम की तलाश करते हुए अतिथियों की जुठी पत्तलें उठाने में तनिक भी संकोच नहीं करते।  हम सभी जानते है. यही एक मात्र कारण है कि आज पांच हजार साल बीत जाने के बाद भी, वे हमारे जीवन के प्रतिनिधि बने हुए हैं और बने रहेंगे।

हम उनके द्वारा रची गई लीलाओं को केवल चमत्कार की श्रेणी में न रखते हुए, उसे अपने जीवन से जोडकर देखें तो ज्ञात होता कि उनका जीवन अपने समय से बहुत आगे का था। उनके चरित्र की हर बात हमें अपने वर्तमान का प्रतिनिधित्व करती दिखलायी पडती है।  बकासुर, कागासुर,धेनुकासुर आदि का वध करने के पीछे का प्रमुख कारण यह था कि वे फ़सल, बाग-बगीचों पर अपना आधिपत्य जमाए हुए थे और जनता का शोषण कर रहे थे।  अतः इन आततायियों को मार गिराना जरुरी था। कलिया-मर्दन के पीछे जो सूत्र काम कर रहा था, वह यह था कि उसने यमुना का सारा जल प्रदुषित कर रखा था। आज ठीक इससे उलट हो रहा है। हम आज बडी ही बेशर्मी से सारा गंधा जल नदियों में प्रवाहित कर रहे हैं और प्रदूषण फ़ैला रहे हैं।  हमें श्रीकृष्ण की इस लीला से सीख लेने की जरुरत है। गाय चराने वन में जाना, ग्वालबालों के साथ वनभोजन करना और बंसी बजाने के पीछे उस सत्य को खोजना होगा कि आखिर एक राजकुमार को यह सब करने की जरुरत ही क्या थी? लेकिन उन्होंने वह किया और हमें संदेश दिया कि गाय का महत्व एक माँ से कम नहीं होता। उसका दूध पीकर, घी खाकर हम अच्छा स्वास्थ्य अर्जित कर सकते हैं। उनसे प्राप्त गोबर की खाद बनाकर उन्नतवार खेती की जा सकती है। पर आज क्या हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। पशुधन अब बूचडखाने में भेजे जा रहे हैं।  खेतों में अब गोबरखाद की जगह यूरिया जैसी घातक खाद को प्रयोग में ला रहे हैं,जो खेत को बंजर बनाने का काम कर रही है।  दुधारु गाय के न रहने पर आज हमारे शिशुओं को नकली दूध पीना पड रहा है। गोवर्धन पर्वत को धारण करने की कथा के द्वारा श्रीकृष्ण पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं। अपने बचपन के मित्र सुदामा के आने की खबर पाकर वे दौडे चले आते हैं उन्होंने उनका स्वागत-सत्कार ही नहीं किया बल्कि .अपने सिंहासन पर बैठाया और बडॆ प्रेम से अपनी पत्नियों के साथ उनके चरण पखारते रहे थे.और बिदाई के समय उन्हें अकूत धन-दौलत भी दी।  क्या हम और हमारे मित्रों के बीच इतने प्रगाढ संबंध सुरक्षित बच पा रहे हैं? कंस के मारे जाने के बाद, महल में रह रही सोलह हजार कन्याओं के साथ उन्होंने विवाह रचाकर उन्हें ससम्मान समाज में जीवन यापन कर सकने का हक प्रदान किया।  द्रौपदी ने उन्हें रक्षासूत्र बांधते हुए अपना भाई बनाया था। वह दृष्य तो आपको याद ही होगा कि जब दुर्योधन ने दुशासन को भरी सभा में निवस्त्र करने का आदेश दिया था, तब उन्होंने अपनी बहन की लाज बचाने के लिए दौडकर आना पडा था।  क्या हो गया है आज के भाईयों को कि उनकी बहनों की इज्जत सरे आम लूटी जा रही है और वे एक ओर खडॆ तमाशा देख रहे है.? महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद जब वे शोकसंतप्त धृतराष्ट्र और गांधरी को सांत्वना देने पहुँचे तो गांधारी के श्राप से बच नहीं पाए थे और उन्होंने मुस्कुराते हुए उसे स्वीकार किया था।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         कभी किसी ने उन्हें गोपाल कहकर पुकारा, किसे ने माखनचोर कहा,किसी ने घनश्याम.नन्दलाल, गोपीवल्लभ, गोपबंधु,राधावल्लभ तक कहा. वे सारे नाम- उपनाम को सहर्ष स्वीकारते हुए, सबके दुलारे, सबके चहेते बने रहे. यही सारी खूबियाँ उन्हें पूर्णावतार का रुप देती है और लोक में अनश्वर बनाती है एवं अभिनव समकालीनता प्रदान करती है. उनकी लोकचेतना को यदि हम अपने जीवन के साथ जोडकर देखें तो पाते हैं कि वे बिल्कुल अकेले और अनोखे हैं. जब कर्म ही ईश्वर है और मेहनत ही पूजा है तब पग-पग पर श्रीकृष्ण कर्मयोगी सन्यासी की तरह यथार्थ की कठोर धरती पर पूरी दृढता के साथ खडॆ दिखाई देते हैं, बिना किसी अलौकिकता के साथ।

हम आज चाहे जितने मन्दिर बना लें,और उसमें अपने राधामोहन को प्रतिष्ठित कर सुबह-शाम घंटॆ-घडियाल बजा-बजा कर उनकी पूजा अर्चना करते रहें, तब भी बात कुछ बनती दिखाई नहीं देती,जब तक की हम उनकी खूबियों को अपने चरित्र में उतारकर उसका अनुसरण नहीं करते, तब तक उस विराट व्यक्तित्व के स्वामी की सच्ची सेवा नहीं हो सकती।

आज जन्माष्ठमी है,हम सब मिलकर यह प्रतिज्ञा करें कि हम उनके बतलाए हुए मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को धन्य बनाएंगे।

जै श्रीकृष्ण।

गोवर्धन यादव

१०३,कावेरीनगर,छिन्दवाडा

२०/०८/२०१३

1 Comment on माह विशेषः गोवर्धन यादव

  1. लेख प्रकाशन के लिए धन्यवाद.// गणेशोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएं //आशा है, सानंद-स्वस्थ हैं

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