सम्मोहित आलोक
कविता में जहाँ शब्द रखा है
चिमटे से उठाकर वहाँ अंगारा रख दो
अर्थ के सम्मोहित आलोक में
जहाँ मर्म खुलता दिखता हो
दीवट में उसके थोड़ा तेल भर दो
कुछ पल रुककर
गौर से देखो उस तरफ
जो झिप रहा
वह नेह भर बाती का उजाला है
जो चमक रहा
वह सत्य की दिशा में खुलने वाला रास्ता है।
पनघट
अगर आप इस कविता से
उम्मीद करते हैं यहाँ पानी मिलेगा
तो आप ग़लती पर हैं
तमाम दूसरे कारणों से उभर आयी
प्यास के हिसाब का
लेखा-जोखा भी नहीं मिलेगा यहाँ
मल्हार की कोई श्रुति छूट गयी हो
ऐसा भी सम्भव नहीं लगता
यह कविता का पनघट है
शब्दों की गागर भरी जाती यहाँ
डगर भले ही बहुत कठिन क्यों न हो।
अव्यक्त की डाल पर
अव्यक्त की डाल पर
रोशनी के फूल उगे हैं
फूलों के आलोक-वृत्त में
सयानी चिड़ियों का बसेरा है
चिड़ियों के बसेरे में
प्रश्नों का जीवन्त कलरव है
कलरव के उल्लास में
निर्भय का अमिट स्वर है
स्वर के वितान पर
प्रतिरोध का आलाप उभरता है।
क्या तुम
क्या तुम सिर कटा सकते हो
क्या तुम आग में चलकर मेरे पास आ सकते हो
क्या तुम बिना छत का घर बना सकते हो
क्या तुम मुझे सोते से जगा सकते हो
क्या तुम सचमुच मेरी प्यास बुझा सकते हो
क्या तुम प्यार में धोखा खा सकते हो
छोड़ो यह सब छोड़ो
बस इतना बताओ
क्या तुम सच बोलकर
बचे रहने की कला सिखा सकते हो?
कामना
एक सूई चाहिए
हो सके तो एक दर्ज़ी की उंगलियाँ भी
सौ सौ चिथड़ों को जोड़कर
एक बड़ी सी कथरी बनाने के लिए
एक साबुन चाहिए
हो सके तो धोबिन की धुलाई का मर्म भी
बीसों घड़ों का पानी उलीचकर
कामनाओं का चीकट धोने-सुखाने के लिए
एक झोला चाहिए
हो सके तो कवियों का सन्ताप भी
अर्थ गवाँ चुके ढेरों शब्दों को उठाकर
नयी राह की खोज में जाने के लिए
सूई साबुन पानी और कविता के अलावा
कुछ और भी चाहिए
शायद भाषा का झाग भी
मटमैले हो चुके ढाई अक्षर को चमकाकर
एक नया व्याकरण बनाने के लिए।
एक मैली चादर
एक मैली चादर थी हमारे पास
बड़े जतन से ओढ़ते आये थे
पीढ़ियों से हम उसे
एक ओढ़नी भी कुछ पुरानी सी पड़ती
जिसके सलमों-सितारों ने
धागों का छोड़ दिया था दामन
एक घाट भी था घर के नज़दीक ही
जहाँ कोई न जाता था धुलने अपना भीतर-बाहर
और एक हम थे खुद में डूबे हुए
कुछ ऐसे जैसे जीवन हो विपुल इस धरती पर
और बार-बार बिछाने के लिये
वही एक मैली चादर।
बाज़ार में खड़े होकर
कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के खिलाफ़ देखो
उन चीज़ों के खिलाफ़
जिन्हें पाने के लिए आये हो इस तरफ़
जरूरतों की गठरी कन्धे से उतार देखो
कोने में खड़े होकर नकली चमक से सजा
तमाशा-ए-असबाब देखो
बाज़ार आए हो कुछ लेकर ही जाना है
सब कुछ पाने की हड़बड़ी के खिलाफ़ देखो
डण्डी मारने वाले का हिसाब और उधार देखो
चैन खरीद सको तो खरीद लो
बेबसी बेच पाओ तो बेच डालो
किसी की खैर में न सही अपने लिये ही
लेकर हाथ में जलती एक मशाल देखो
कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के खिलाफ़ देखो।
हमन को होशियारी
बचे रहने के लिए थोड़ी होशियारी भी चाहिए
थोड़ी दुनियादारी और दुश्मनों से यारी भी
और कबीर की तरह
कुछ यूँ बेपरवाह सब-कुछ को देखना
जैसे आखिर में जीवन पीछे मुड़कर
भागते हुए बचपन की ओर देखता है
बचे रहने के लिए थोड़ा बचपना भी चाहिए
थोड़ी जिद और बेहोशी भी
और सूफियों की तरह
कुछ यूँ अलमस्त हो सबसे प्रेम भर मिलना
जैसे लम्बे सफर को पार करते हुए
एक मुरीद अपने पीर से मिलता है
बचे रहने के लिए थोड़ी मस्ती भी चाहिए
थाडे़ी फक्कड़ी औरबेकरारी भी
और मिरासियों की तरह कुछ ऐसे
दर-दर अनजानी पीर में भटकना
जैसे सबद और बानियों में घुला हुआ
राग और संगीत मिलता है।
काशी मगहर और अयोध्या
काशी मगहर और अयोध्या
कुछ अलग से नगर हैं सब
यहाँ मन का कपास रंगा जाता है
आस्था के भार से लंद-फंद
इन नगरों के जीर्ण पुरातन मन्दिरों में
चढ़ने वाली ढ़ेरों फूल मालाएँ भी
खिला नहीं पातीं थकान से बोझिल
हुआ जाता एक भी चेहरा
फिर भी खीझती हुई सनातनता से
काशी मगहर और अयोध्या
कुछ न कुछ रंगते रहते हैं
चाहे मन हो या आदमी का चोला
घण्टियाँ गंगाजली फूलों से सजी डलियाँ
और ललाट पर चन्दन सजायी मूत्र्तियाँ भी
कहाँ समझा पाती हैं
किसी सिरफिरे बावरे या अवधूत को
जब वो यह पूछना चाहता है
मगहर में मरकर भी जीवन का
कौन सा रंग बचा रह पाता है
जबकि काशी अयोध्या और मगहर में
मन का कपास रंगा जाता है।
न जाने कौन सा धागा है
न जाने कौन सा धागा है
जो बाँधे रखता हमको
दुनिया भर के तमाम रिश्तों में
न जाने किस फूल से उपजा कपास है
जो ढके रखता हमारी तार-तार हो चुकी
गाढ़े प्रेम की रेशमी चुनरी
न जाने कहाँ से आये हुए लोग हैं
जो थामे रहते हमारी जीवन-तानपूरे की
खुलती जाती जवारी।
बिना डोर की गागर है
बिना डोर की गागर है
बिना धूप का आँगन
बिना जल की बावड़ी है
बिना हरे का सावन
बिना रात का ग़ज़ब अन्धेरा
बिना चेहरों का दरपन
बिना नींद के सपन हमारे
बिना नैन का अँसुवन
बिना बात का मर्म घनेरा
बना साज का गायन
समझ सको तो गौर से समझो
तेरा-मेरा यह जीवन।
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