अपना वतन
उकड़ूँ बैठे बैठे उसके घुटनों में दर्द होने लगा था,, जोरों से प्यास भी लगी थी,-कंठ सूखा जा रहा था,पानी पीने की कोशिश भी जानलेवा साबित होती,–बाहर बरसती तड़ तड़ गोलियां किसी भी क्षण उसका सीना छलनी कर देतीं,- – उस छह फ़ीट लम्बे गबरू जवान मंजीत की आँखों में आंसू थे,उसने कभी भी अपने आपको इतना विवश और निरुपाय नहीं पाया था,-यही हाल उसके अन्य साथियों का भी था,,,,कम्पनी के निचले हिस्से के गोदाम में -सिकुड़े सिमटे -दस भारतीय युवकों का एक दल भयभीत –निराश , ,हताशा के एक एक कठिन दौर से गुजर रहा था —मिटटी की टोंटी वाली मटकी सामने थी,- – उनके और प्यास बुझाने के बीच की दुरी -बहत मामूली लेकिन दर्दनाक अंत या हादसे को न्योता देने वाली थी,फतेहअली के हाथों में गोली लगी थी,-उसे बुखार भी हो आया था ,बार बार पानी की रट लगता,और फिर अपनी व् साथियों की बेबसी जानकर चुप हो जाता,,,,तभी अनीस ने चुप रहनेका इशारा किया – – भारी बूटों की आवाज पास आ रही थी ,सभी दम साधे पड़े थे -जिंदगी की एक एक साँस भारी पड़ रही थी,–इराकी सैनिक विद्रोहियों की तलाश में यहाँ तक आ पहुंचे थे,- – पर इस सुने अधजले गोदाम में भी कोई हो सकता है,इससे बेपरवा वे दूसरी ओर निकल गए ,,,सबने राहत की साँस ली,बाहर गहरा सन्नाटा था,और अँधेरा भी घिर रहा था ,मंजीत ने हिम्मत दिखाई और मटकी तक पहुँच कर दो घूंट पानी पिया फिर अपनी पगड़ी का एक सिरा फाड़ कर पानी से तर किया,और वापस लौट आया-फतेहअली के मुंह में पानी की कुछ बूंदें निचोड़ी,तो वह शांत हो गया,भींगे कपड़े से उसका बदन पोंछ ,वाही टुकड़ा घाव पर बांध दिया,सभी एक एक करके पानी पीकर वापस आये -मटकी में पानी बचाना भी जरूरी था,पता नहीं कब तक इस जलालत भरी कैद से मुक्ति मिलेगी,—मंजीत ने दीवार से सिर टिका लिया -तीन दिन से भूख-प्यास से बेहाल वह और उसके साथी मारे मारे फिर रहे थे,–तीन साल पहले बड़े उत्साह और जोशोखरोश से उसके दस साथी बगदाद के लिए रवाना हुए थे —एयरपोर्ट तक पहुँचाने गांववाले भी आये थे,–”जो बोले सो निहाल-सत सिरी अकाल”से पूरा हवाई-अड्डा गूंज गया था,–खालसा के वीर सिपाही रोजी रोटी की तलाश में परदेश जा रहे थे पर अपना अपनाअमन चैन अपने वतन की धरती के हवाले कर -अपनों की सुरक्षा और कुशलता अपने पिंड को सौंप कर…वापस घर-परिवार की खुशियां लेकर लौटने की उम्मीद देकर …
वे सभी मेहनती थे -मंजीत,गुरुदास ,अनीस काके,चरणजीत,दलजीत,मिंकू,सुमिरन,फतेहअली -मेहनत के बल पर पैसा भी कमाया और घर के हालात सुधारे,- – फिर अचानक आई यह विपत्ति -विद्रोह-हिंसा,-रोज सैकड़ों मारे जाते ,-आते -जाते अपने सामने सड़कों पर पड़ी लाशें देख उनका कलेजा दहल जाता,–खून से सड़कें रंगी होती–न जाने कौन ,कब आकर मौत का खुनी खेल खेल जाता था,हर वक्त फौजियों के बूटों की टाप टाप -और बख्तरबंद गाड़ियों की आवाजा ही उन्हें दहशत में डाल रही थी ।
वह मनहूस दोपहर मंजीत आज भी नहीं भूला –जब अच्छे भले चल रहे कारखाने की मशीने अचानक बंद हो गईं ,-सभी हैरान-परेशान –मजदूर डर से भागने लगे,-भगदड़ मच गई ,,,जब तक कोई कुछ समझ पाता बेतरह गोलियों की आवाज से कारखाना गूंज उठा –तब मंजीत दोपहर की रोटियां खा रहा था –आचार का स्वाद मुंह में घुल रहा था –बेबे ने बना कर दिया था,पर सारा सुख किरकिरा हो गया जब फतेहअली दौड़ता हुआ आया,-उसके हाथों में गोली लगी थी,और खून के फौव्वारे छूट रहे थे उसने अपना पट्टा फाड़कर बांधते हुए सभी साथियों को आवाज लगाई –वे जब तक निकल पाते -सैनिक अंदर आ चुके थे ,वे डर के मारे दीवार से चिपके चिपके बड़े कमरे की ओर बढ़े-मशीनों की तेल सनी गंध से कमरा महक रहा था -सभी एक जगह बैठ गए -हतप्रभ से ,,ये क्या हो गया ?,,हर वक्त लड़ाई,-दंगा–गोलीबारी से बेजार होने पर भी केवल पैसे कमाने की धुन में उन्होंने सामाजिक जिंदगी भी भुला दी थी ताकि परिवार सुख की रोटी खा सके,–कभी किसी झगड़े में नहीं फंसे कि पराये मुल्क में कोई अपना नहीं होता -जब तक नेह का नाता न बने ,लेकिन नफरतों -दहशतगर्दी के बीच प्रेम की कोंपलें भी जायेंगे फूटने से डरती हैं —वे फूंक फूंक कर कदम रख रहे थे,–चारो तरफ भगा-दौड़ी मची थी,–निरीहों की चीख पुकार भी कभी सुनाई पड़ जाती थीं,- – पास ही में गोदाम था निचे के तले में,सभी वहीँ दौड़कर चले गए जोरों से हांफते फतेहअली को बेहोशी आ गई –पानी छिड़क कर होश में आया ,उसके हाथ में गोली अभी भी फांसी हुई थी,–मंजीत ने अपने काम करने वाले पेचकसनुमा हथियार से गोली निकाली थी -खुद भी पसीने पसीने हो गया था -लेकिन साथी की जान बचानी जरुरी थी, फ़तेह अली दांत दबाये दर्द सहता रहा–गोली निकलने के बाद आँखें खोल मुस्कराया -सभी ने चैन की साँस ली,मंजीत ने उसे दर्द सहने के लिए शाबासी दी,फिर माफ़ी भी मांगी ”
यादों में खोये मंजीत की आँखें भर आई थीं ।
अनीस फुफ्फुसाया –”हम यहाँ कब तक रहेंगे मंजिते ?”
”रब जाने । लेकिन हम आखिरी साँस तक अपने वतन लौटने की आस नहीं छोड़ेंगे ”
सबने हाँ में सिर हिलाया।
गुरुचरण गुस्से में बोल उठा –”कौन है यह बगदादी ? आई एस आई एस क्या बला है ? हमने क्या बिगाड़ा है इसका? मेहनत करते हैं,किसी पचड़े में नहीं पड़ते फिर भी मारे जाते हैं। ”
सद्दाम के देश में शिया-सुन्नी के झगड़े में भारतीय यूँ मारे जायेंगे किसी ने सोचा न था ,तेल के अकूत भंडार वाला देश-जो अपनी बेपनाह दौलत और रुतबे के दम पर दुनियां के हजारों नौजवानों को अपनी ओर खींच रहा था -नौकरी के लालच में ये नौजवान सिर्फ पैसा कमाने की धुन में -खून पसीना एक कर रहे थे,पर शायद वाले खतरों से अनजान थे –वह सुनहला सपना यहाँ की धरती पर कदम रखते ही मेहनत की रोटी और पसीने को खून बना ,सड़कों पर बहा देने के दुःस्वप्न में बदल गया,था,सोनेके देश की जनता आज भी गरीबी का ही जीवन जी रही थी,पैसा तो था,पर आये दिन संघर्षों और जाती परक विद्रोहों सांप्रदायिक झगड़ों की भेंट चढ़ जाता –रोटी सिर्फ पेट भर सकती थी,-ऐशो-आराम नहीं दे सकती थी, फतेहअली कराहा -आह !”
-”क्या हुआ फत्ते ?,,”मंजीत ने पूछा –”कुछ नहीं यारां –अपने वतन की याद आ रही है,अमीना बिटिया …”
वह बोल न सका -अबकी ईद पर जाने की तैयारी की थी,अमीना के लिए गुलाबी फ्रॉक खरीद ली थी पर अब ….”
दल का सबसे छोटा सदस्य अठारह वर्षीय मिंकू गा रहा था,–‘ऐ मेरे प्यारे वतन -ऐ मेरे बिछुड़े चमन ,तुझ पर दिल कुर्बान ,माँ का दिल बनकर कभी सीने से लग जाता है तू,-औरकभी नन्हीं सी बेटी बनकर याद आता है तू”
इस मुसीबत में भी वह गा रहा था -अपने -साथियों के सुकून के लिए। अचानक सभी सुबकने लगे।
मिंकू तो गायक था,अपनी गायकी का कमाल दिखाकर पैसे कमाने आया था। अरबी,फ़ारसी की गजलें कशिश के साथ गाना उसका शौक था पर वह क्या जानता था कि एक दिन मुल्क की मिटटी के लिए भी तरसना पड़ेगा, अनीस ने मिंकू को गले लगा लिया ।
तभी लगा जैसे कोई दरवाजे पर हल्के हल्के दस्तक दे रहा हो,–आवाज तेज होती जा रही थी -सबके प्राण कंठ में आ गए थे जैसे। सामने वाले रोशनदान से कुछ कुछ ऊपर का दृश्य दीखता था,कुछ बंदूकें -वर्दीधारी सैनिकों की वर्दी का रंग,साफ साफ नजर आ रहा था। लगता था मौत करीब आ गई है। अब नहीं बचेंगे ।आवाज फिर सुनाई दी —
”यहाँ कोई है ? जवाब दो,-हम मददगार हैं,”-कोई है ?”
अबकी बार दलजीत उठकर बोला –“हाँ ,जी,हम हैं, हम जिन्दा हैं,”
सबको काठ मार गया, क्योंकि तब तक दलजीत दरवाजा खोल चुका था। सामने दो स्टेनगन धारी सैनिक और सफेदपोश कुछ अधिकारी जैसे लोग थे । वे अंदर आ गए ।
‘डरो मत ,हम आपकी मदद करने आये हैं –आप लोग भारतीय हैं ?-क्या पंजाब से ?”
”हाँ,जी,”—अबकी मंजीत ने जवाब दिया।
”आपकी सरकार आपके लिए चिंतित है,-हम लोग कोशिश कर रहे हैं आपको सुरक्षित निकलने की –आप बाहर आइये ”,,हमारे साथ,हम आपको सही ठिकाने पर ले चलते हैं,”
किसी ने विश्वास नहीं किया ,सभी ने हाथ जोड़ लिए दया की याचना में –”हमे छोड़ दीजिये साहब,हम चुपचाप अपने वतन चले जायेंगे हमने किसी का कुछ बुरा नहीं किया,”
उन दो अधिकारीयों में से एक ने अपना परिचय पत्र दिखाया –‘हम दूतावास से हैं,-भरोसा रखो हम पर -हम अपने लोग हैं,”
सभी धीरे धीरे बाहर आ गए ,फतेहअली स्ट्रेचर पर आया,-उन्हें एक बहुमंजिली इमारत में ले जाया गया,–यह भी एक सुरक्षा थी जो किसी कैद से कम नहीं थी -लेकिन जान बच बच गई तो एक दिन अपना वतन जा सकेंगे यह उम्मीद तो बंध गई थी। उन्हें नान और नमक वाले उबले आलू दिए गए -तीन चार दिनों से भूखे लड़के उन पर टूट पड़े -मंजीत ने मांगकर फ़तेह को दूध पिलाया।
”सब ठीक हो जायेगाफत्ते -अब सो जा।”
उन मददगारों ने उनके ठिकाने का पता पूछा -”हम आपका सामान लेने आएंगे -आप रात बारह बजे तैयार रहें -लौटने के लिए। ”
तब सबके चेहरों पर ख़ुशी छा गई,–लेकिन जब सामान मिला तो सबके पासपोर्ट गायब थे ,अब क्या होगा -एक हताशा सी फ़ैल गई सबके दिल में । घर लौटने की आखिरी उम्मीद भी टूट गई,और अपने मददगारों पर फिर अविश्वास की कड़ियाँ जुड़ने लगीं –”क्या इन्होने ही ?–कौन हैं ये ?”,
लेकिन उन मददगारों ने भरोसा दिलाया –”आपके डायरेक्ट टिकट की व्यवस्था हो गई है,–आप तैयार रहें -इस कमरे से बाहर न निकलें। ”
बाहर गोलियों की तड़ तड़ आवाजे –धमाके –और अंदर विश्वास और अविश्वास की डरावनी दुनिया के बीच एक उम्मीद की छोटी किरण–अभी तक रोशन थी । वे रात होने तक संशय में पड़े रहे। रात बीतती जा रही थी । करीब पौने दो बजे -वे सभी फिर आये और उन्हें चलने को कहा । दूतावास की विशेष गाड़ी में चुपचाप चलता हुआ ये कारवां फिर एक सुनसान मकान के आगे रुका जहाँ से तीन लोग गाड़ी में चढ़े। वे सभी बीमार लग रहे थे । इस समय सुबह के चार बज रहे थे -मतलब उन्हें चलते हुए दो घंटे हो चुके थे ।
हवाई जहाज में चढ़ना यानि जिंदगी की ओर एक कदम बढ़ाना । मंजीत पागलों की तरह उन अधिकारीयों के गले लग फूट फूट कर रोने लगा –”साहब जी ,आप लोग फ़रिश्ते हो ,इंसानियत आप जैसों से ही जिन्दा है । नहीं चाहिए हमे पैसा। अपनों की गोद में मेहनत की सूखी रोटी भी अमरित सा स्वाद देती है साहब जी । अब हम समझ गए हैं –इस नफरत और हिंसा से किसी का भला नहीं होना । अपने वतन की मिटटी पर ही अब हम अपने सपनों के बीज बोयेंगे । ”
जहाज उन्हें लेकर उड़ चला -अपने वतन की ओर …
–पद्मा मिश्रा -LIG-114,रो हाउस,आदित्यपुर -2-जमशेदपुर -13
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