गीत और ग़ज़ल
1)
इन आँखों से दिन-रात बरसात होगी
अगर ज़िंदगी सर्फ़-ए-जज़्बात होगी …
मुसाफ़िर हो तुम भी, मुसाफ़िर हैं हम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी
चराग़ों को आँखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी
अज़ल-ता-अब्द तक सफ़र ही सफ़र है
कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी
-बशीर बद्र
2)
खाई है चोट दिल पे सँभलने तो दीजिये
हमराह बन सके नहीं नहीं चलने तो दीजिये .
बैठे हैं चुपचाप अजी कुछ तो बोलिए
सवालों को निगाहों में उबलने न दीजिये।
मिल जाउँ चाहे खाक में मर मिटने दीजिये
हक़ीक़त न सही ख़ाब में मिलने तो दीजिये।
हसरत न चाँद तारों की हसरत से देखिये
दामन न अगर थामिये थमने तो दीजिये .
तसव्वुर की तहरीरों को तसल्ली ही दीजिये
‘ मंजरी ,को मुलाक़ात की मोहलत तो दीजिये
डॉक्टर मञ्जरी पाण्डेय
संस्कृत अध्यापिका
केन्द्रीय विद्यालय न. -४
डी एल डब्ल्यू ,वाराणसी .
आवास -‘ मञ्जरी कुञ्ज ‘सा १४/७० एम , बरईपुर ,
सारनाथ वाराणसी .
माह विशेषः
लौटना
देखा है पंछियों को नीड़ में लौटते
जैसे शिशु मां के आंचल में
जैसे प्रिया प्रिय की बांहों में
जैसे खुशी और पीर
लौटती है यादों में
जैसे धूप और बदली के बाद
फिर फिर के आए हरियाली
साल साल पात पात झर जाने पे
लौटते हम ताकि उम्मीद रहे जिन्दा
विश्वास की ना हो हत्या
लौटना है आदत प्रकृति की
लौटना है जरूरत मन की
वरना कैसे होती पूरी
विछोह और मिलन की
पीर और खुशी
लौटते हम पलपल यादों में
भूली-बिसरी राहों में
हर्ष-विषाद और रंग उमंग को तो छोड़ो
ये जो लौटने की लगन ना होती
हम तुम तो होते पर
राग द्वेष का यह सिलसिला….
आकुल वो प्यार और इंतजार
आंखों से बरसात ना होती…
-शैल अग्रवाल
अहसास
लौटे ना कुछ
ना समय ना हम
पवन चुराए पराग को
खुशबू बन के साथ रहे
भाप बनी धुँए सी उठे
आह खारे सागर की
अंतस में बन के प्यास रहे
पल पल ढूँढे हम वो पल
इंद्रधनुषी सपनों से सजा
रीते बादल-सा जो भटकाए
बस्ती दर बस्ती
मन की जड़ों में रिंधा-बिंधा
कली–पुष्प-सा
फिरफिर खिलखिल जाए
बेमौसम बिखरे और बरसे
फिर फिरके नित-नित
उगता आए
नए-नए रूप धरे निराला
आँसुओं औ मुस्कानों में गुंथा-बिंधा
जीता बस एक अहसास रहे…
शैल अग्रवाल
प्रार्थना
जब मैं बुलाऊं तुम्हें कहो,
आओगे राह के चट्टानों को ध्वस्त करती…
जैसे आती है नदी तपती धरती पर
गिरती है आषाढ़ की पहली बारिश
थकी हारी आंखों में जैसे आते हैं मुलायम सपने
जब मैं याद करूं तुम्हें कहो,
लौटोगे कंकपाती ठंढ के बाद
जैसे लौटती है गुनगुनी धूप
बरसात के बाद मुंडेर पर पक्षी
लंबे प्रवास के बाद प्रियजन
गहन उदासी के बाद जैसे लौटती है
होंठों पर मुस्कान
अपरिचित शोर में
मित्र की आवाज़ की तरह
अंधेरी बंद सुरंग में
ताज़ा हवा और रोशनी की तरह
संकट के सबसे काले दिनों में
सबसे अबोध प्रार्थना की तरह
कहो, उठोगे मेरे भीतर
जब मैं भूल जाऊं तुम्हें !
-ध्रुव गुप्त
सावन कैसा होता है
गोरी पूछे साजन से
प्रिये सावन कैसा होता है
बिन भीगे भी सावन में क्या
तन मन भीगा करता है ?
दादी कहती थीं — दुपहर में
साँझ घिरी सी लगती थी
नभ हँसता था कि रोता था
बस झर जहर बूंदें गिरती थीं।
और बताती थीं सावन में
सब बिटियाँ घर आती थीं
पड़े हुए झूले होते थे
गा गा पेंग लगाती थीं।
हाथ पकड़ कर सब आपस में
नाचा गाया करती थीं
नाच गान और पेंगों के संग
बचपन वापस लाती थीं।
दादी कहती थीं बारिश में
हम गाते इठलाते थे
रिमझिम रस सिंचित फुहार पर
मर मर मिट मिट जाते थे।
आज हमें ना सावन दिखता
न दादी की ही बातें
साँझ घिरी सी भी ना दिखती
और न नभ हँसते रोते।
क्या जाने बिटियाँ कब आतीं
कहाँ गये पेंगें झूले
नाच गान औ बचपन क्या है
आज सभी सब कुछ भूले।
-मधुरिमा प्रसाद
बेटी के घर से लौटना
बहुत ज़रूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता…
बेटी ज़िद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन पिता के वजूद को
जैसे आसमान से चाटती कोई सूखी खरदरी ज़ुबान
बाहर हँसते हुए कहते – कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और और एक दिन डूब जाता होगा
पिता का जहाज
वापस लौटते में बादल बेटी के कह के घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रुंध जाता थके कबूतर का
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद बेटी घर से लौटना ।
– चन्द्रकांत देवताले
दरवाज़ा
आज कितने दिन हो गये
उन्हें गये।
हर पल इन्तज़ार है किसी
माँ, बहन या बूढ़े माँ-बाप को,
हर आहट, हवा का झोंका,
पत्तों की खड़खड़ाहट उन्हें
सोने नहीं देती।
वह तो कुंडी भी नहीं लगाते,
धीरे से सांकल लगा, सिर्फ
लेट जाते।
नींद कोसों दूर, ज़रा सी
आहट पर कई आवाज़ें,
बिटुवा, भाई, माँ, बहन
आई है सुनाई देती मुझे,
ये असहनीय, अकथनीय दर्द
जिसका कोई सानी नहीं
क्यूँ दिया प्रभु तूने।
चूंकि, जो चले गये, वो तो
नहीं लौटेंगे, लाख पुकारने
पर भी।
सज़ा भोगते ये मासूम
न जी पाएँगे, न मर पाएँगे
ताउम्र।
-शबनम शर्मा
अनमोल कुंज,
पुलिस चैकी के पीछे,
मेन बाजार, माजरा,
तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र. – 173021
“भीगे सावन में !”
सावन की भीगीरातों में
महके फूल सी खिलती हूँ
जीवन की वर्षा हूँ ऐसी
सीली- सीली सी रहती हूँ
बढ़ा पींगें झूलोंकी मैं
तरुओं संग मचलती हूँ
चाँद को मुट्ठी में ले सकूँ
सपनों से नींदें भरती हूँ
आंधियों में भी हरदम
दीपक बनकर जलती हूँ
नाव काठ की हूँ मैं ऐसी
भंवर उठे तभी चलती हूँ
साँझ का सूर्य मैं सिन्दूरी
सागर में डूब के ढलती हूँ
नदी हूँ मैं मिठास भरी
खारे सागर जा घुलती हूँ !
-डॉ सरस्वती माथुर
बहुत सुन्दर।
आपकी लिखी रचना “पांच लिंकों का आनन्द में” शनिवार 11 नवम्बर 2017 को लिंक की जाएगी ….
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा … धन्यवाद!