गोवर्धन-पूजा का रहस्य हमारे जीवन की सबसे बडी समस्या है, मन का अनियंत्रण होना.. मनुष्य द्वारा अपने मन और बुद्धि को नियंत्रित न करने पर ये इधर-उधर भटकते रहते हैं और जीवन में बडी-बडी उलझने पैदा खडी कर लेते हैं. यदि इस अनियंत्रित मन के किसी कोने में अहंकार के बीज पड जाएं तो तो वह आदमी को पतन की गहराइयों की ओर घसीटता जाता है और उसे पता ही नहीं चल पाता. इसी क्रम में देवताओं के राजा इन्द्र भी इस अहंकार की चपेट में आ गए थे. परिणाम यह हुआ कि उन्होंने अन्य लोगों को तुच्छ समझना शुरु कर दिया था. इस तरह देवराज में असुरता के बीज अहंकार का स्तर अत्यंत ही उग्र होता चला गया. भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र के इस रोग की चिकित्सा करनी चाही. और दूसरी ओर गोवर्धनगिरि की “चिन्मयता” व्यक्त कर देने की उनकी इच्छा हुई. उन्होंने नन्दबाबा से अनुरोध किया कि हमें इन्द्र की पूजा करने के बजाय गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए,जो हमें अप्रत्यक्षरुप से मदद करते हैं, हमारे पशुओं को वहां हरा भरा-चारा और नदियों के माध्यम से हमें पानी भी उपलब्ध कराते हैं. श्रीकृष्ण कि यह योजना आशुतोष शंकरजी को बहुत अच्छी लगी और वे दल-बल के साथ इस गिरिपूजन में सम्मिलित हुए. गोवर्धन पूजा का यह औचित्य राजर्षियों, ब्रह्मर्षियों, देवताओ और सिद्धों से भी न छिपा था. वे भी बडी प्रसन्नता के साथ इस समारोह में उपस्थित हुए थे. देवगिरि सुमेरु और नगाधिराज हिमालय के लिए भी गोवर्धनगिरि कि “चिन्मयता” व्यक्त की थी, इसलिए उनमें जातिगत द्वेष नही जागा और वे भी बडी प्रसन्नता के साथ इस पूजा समारोह में उपस्थित हुए थे. पूजन के समय स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने विशाल रुप धारण कर अपने को “गोवर्धन” घोषित किया और इस तरह उन्होंने गोवर्धनगिरि से अपनी “अभिन्नता” प्रकट की. देवता ही नही वरन मनुष्य भी इससे कम प्रसन्न नहीं हुए. उन्होंने फ़ूलों और खीलों की मुक्तहस्त वर्षा प्रारंभ कर दी. उधर देवरज इन्द्र का अहंकार का पर्दा इतना घना हो चुका था कि वे गिरिराज की भगवतरुपता तनिक भी नहीं आंक पाए. वे क्रोध और द्वेश की आग में जलने लगे. उन्होंने प्रलयकारी मेघों को आज्ञा दी कि वे पूरे व्रज को ध्वंस कर दें. इतना ही नहीं वे स्वयं अपने ऎरावत पर सवार होकर मरुद्गणॊं की सहायता में आ डटे. त्राहि-त्राहि सी मच गई थी उस समय व्रज में. देखते ही देखते जलप्रलय ने लोगों के घर-बार उजाडने शुरु दर दिया था. चारों तरफ़ अरफ़ा-तरफ़ी मची हुई थी. श्रीकृष्णजी ने तत्काल गोवर्धन-पर्वत को एक हाथ में उठा लिया और लोगों को उसके नीचे आकर शरण लेने को कहा. इस तरह पूरा व्रज उस पर्वत के नीचे आ इकठ्ठा हुआ. भगवान ने मन ही मन श्री शेषजी को और सुदर्शन को आज्ञा दी. वे तत्क्षण ही वहाँ आ उपस्थित हुए. चक्र ने पर्वत के ऊपर स्थित हो जलसम्पात पी लिया और नीचे कुण्डलाकार हो शेषजी ने सारा जलप्रवाह रोक लिया.. इन्द्र ने जब अपनी सारी शक्तियाँ झोंक दी, बावजूद इसके वे वहाँ कुछ नहीं बिगाड पाए, तब जाकर उनको वस्तुस्थिति का बोध हुआ और अहंकार जाता रहा. अब वे अपने आपको एक अपराधी की तरह महसूस करने लेगे थे. केवल और केवल एक अन्तिम विकल्प बचा था उनके पास कि जाकर श्रीकृष्णजी से माफ़ी मांगी जाए. वे तत्काल धरती पर आए और श्रीचरणॊं में आकर गिर गए. उन्होंने अपने कृत्य के लिए क्षमा याचना की. श्रीभगवान ने उन्हें क्षमा कर दिया. इन्द्र ने आकाश-गंगा के जल से श्रीकृष्णजी का अभिषेक किया. इस प्रकार गोकुल की की गयी रक्षा से कामधेनु भी प्रसन हुईं और उसने अपनी दुग्धधारा से श्रीभगवान का अभिषेक किया. इन अभिषेकों को देखकर गिरिराज गोवर्धन के हर्ष का ठिकाना न रहा और वह द्रवीभूत हो बह चला. तब श्रीभगवान ने प्रसन्न होकर अपना करकमल उस पर रखा, जिसका चिन्ह आज भी दीखता है. यथा- “तध्दस्तचिन्हमद्दापि दृश्यते तदगिरि नृप” श्री गोवर्धन की चिन्मयता का स्पष्टीकरण गर्गसंहिता ( गिरिखण्ड ४/१२) में हुआ है. अवतार के समय भगवान ने राधाजी से साथ चलने को कहा था. उस पर श्रीराधाजी ने कहा कि वृंदावन, यमुना और गोवर्धन के बिना मेरा मन पृथ्वी पर नहीं लगेगा. यह सुनकर श्रीकृष्णजी ने अपने हृदय की ओर दृष्टि डाली, जिससे एक सजल तेज निकलकर “रासभूमि” पर आ गिरा था और वहीं पर्वत के रुप में परिणत हो गया था. यह रत्नमय शृंगों, सुन्दर झरनों, कदम्ब आदि वृक्षों एवं कुंजों से सुशोभित था. उसमें अन्य नाना प्रकार की दिव्य सामग्रियाँ उपस्थित थीं, जिसे देखकर राधाजी बहुत प्रसन्न हुईं. इस संदर्भ में एक कथा और है. भगवानश्री के प्रेरणा से शाल्मलीद्वीप में द्रोणाचल की पत्नि से गोवर्धन का जन्म हुआ. भगवान की जानु से वृन्दावन और उनके वामस्कन्ध से यमुना प्रकट हुईं. गोवर्धन को भगवदरुप जानकर ही सुमेरु, हिमालय आदि पर्वतों ने उनकी पूजा की और गिरिराज बना उसका स्तवन किया. एक समय तीर्थ यात्रा के प्रसंग में पुलस्त्यजी वहाँ आए. वे गिरिराज को देखकर मुग्ध हो उठे और द्रोण के पास जाकर उन्होंने कहा:-“मैं काशीवासी हूँ. एक याचना लेकर आया हूँ. आप अपने इस पुत्र को मुझे दे दें. मैं इसे काशी में स्थापित कर वहीं तप करुँगा”. इस पर द्रोण पुत्र के स्नेह से कातर हो उठे, पर वे ऋषि की मांग ठुकरा न सके. तब गोवर्धन ने मुनि से कहा:-“ मैं दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौडा हूँ. आप मुझे कैसे ले चल सकेंगे?”. मुनि ने कहा:-“मैं तुम्हें हाथ पर उठाए चला चलूँगा.”. गोवर्धन ने कहा:-“ महाराज ! एक शर्त है. यदि आप मुझे मार्ग में कहीं रख देंगे तो मैं उठाए उठ न सकूँगा.” मुनि ने यह शर्त स्वीकार कर ली. तत्पश्चात पुलस्त्य मुनि ने हाथ पर गोवर्धन उठाकर काशी के लिए प्रस्थान किया. मार्ग में व्रजभूमि मिली, जिस पर गोवर्धन की पूर्वस्मृतियाँ जाग उठीं. वह सोचने लगा कि भगवान श्रीकृष्ण राधा के साथ यहीं अवतीर्ण हो बाल्य और कैशोर आदि की मधुर लीला करेंगे. उस अनुपम रस के बिना मैं रह न सकूँगा. ऎसे विचार उत्पन्न होते ही वह भारी होने लगा, जिससे मुनि थक गए. इधर लघुशंका की भी प्रवृत्ति हुई. उन्होंने पर्वत को एक जगह रख दिया. लघुशंका से निवृत्त हो उन्होंने पुनः स्नान किया और गोवर्धन को उठने लगे, लेकिन वह टस से मस न हो सका. उसने बडॆ विनीत भाव से मुनि को शर्त की याद दिलाई. इस पर मुनि को क्रोध आ गया और उन्होंने श्राप दे दिया कि तुमने मेरा मनोरथ पूरा नहीं किया, इसलिए तुम प्रतिदिन तिल-तिल घटते जाओगे. उसी श्राप की वजह से गोवर्धन आज भी तिल-तिल घटता ही जा रहा है. इसी क्रम में एक कथा और है कि एक ब्राह्मण अपना ऋण वसूलने के लिए मथुरा आया. लौटते समय उसने गिरिराज का एक गोल पत्थर अपने साथ रख लिया. मार्ग में उसे एक भयंकर राक्षस ने घेर लिया. राक्षस को सामने देख वह कांप उठा. ब्राह्मण को तत्काल कुछ न सुझाई दिया. उसने अपनी झोली में से उस पाषाणखण्ड को निकाला और राक्षस की तरफ़ उझाल दिया. उस पाषाण के अद्भुत प्रभाव से उस राक्षस को नीच योनि से छुटकारा मिल गया और उसकी काया दिव्य हो गयी. उसी क्षण एक विमान आकाशमार्ग से उतरा, जिस पर आरुढ होकर वह “गोलोक” चला गया. शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि गन्धमादन की यात्रा अथवा नाना प्रकार के पुण्यों एवं तपस्याओं का जो फ़ल प्राप्त होता है, उससे भी कोटिगुण अधिक फ़ल गोवर्धन के दर्शन मात्र से होता है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाए जाने वाले इस पर्व अर्थात गोवर्धन पूजन के दिन पवित्र होकर गोवर्धन तथा गोपेश भगवान श्री कृष्णजी का पूजन करना चाहिए. यदि आपके यहाँ गौ और बैल हों तो उनको वस्त्राभूषणॊं तथा मालाओं से सजाना चाहिए. पूजन करते समय इस मंत्र का उच्चारण जरुर करें गोवर्धन धराधर गोकुलत्राणकारक/विष्णुवाहकृतोच्छाय गवां कोटिप्रभो भव अर्थात :-पृथ्वी को धारण करने वले गोवर्धन ! आप गोकुल की रक्षक हैं. भगवान श्रीकृष्ण ने आपको अपनी भुजाओं पर उठाया था. आप मुझे करोडॊं गौएँ प्रदान करें., दूसरी बात यह है कि इस समय तक शरद्कालीन उपज परिपक्व होकर घरों में आ जाती है. भण्डार परिपूर्ण हो जाते हैं. अतः निश्चिंत होकर लोग नयी उपज के शस्यों से विभिन्न प्रकार के पदार्थ बनाकर श्रीमन्नारायण को समर्पित करते हैं. गव्य पदार्थों को भी इस उत्सव में सजा-सँवारकर निवेदित किया जाता है. गोमय का गोवर्धन अर्थात पर्वत बनाकर उसकी पूजा की जाती है. अनन्तकाल से भारतीय आज भी अपने घरों में “गोवर्धन” की पूजा-अर्चना करते हैं. और अपने और अपने परिवार की समृद्दी के लिए प्रार्थना कर अपने को धन्य मानते हैं.
नमस्कारजी,
आलेख प्रकाशन के लिए धन्यवाद.