सच्चा मानव-धर्म
भारतीय संस्कृति में धर्म/अधर्म के स्वरूप पर विशद चर्चा मिलती है.ऋषियों, मुनियों, मनीषियों, धर्मशास्त्रियों आदि ने अपने-अपने ढंग से ‘धर्म’ शब्द की परिभाषा की है। सबसे सरल भाषा में इस बहु चर्चित शब्द की जो परिभाषा की गयी है, वह है: जो सुख दे वह धर्म हैं: “सुखस्य मूलम्धर्मः” यानी सुख का मूल धर्म हैं| भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो धर्म ‘धृ’ धातु से बना हैं जिसका अर्थ हैं धारण करना अर्थात ग्रहण अथवा अपनाने योग्य गुणों को धारण करना. ये अपनाने/धारण योग्य गुण कौन से हैं? मनु स्मृति में इनका विस्तार से उल्लेख किया गया है: ”धृतिःक्षमादमोस्तेयं शौचम्इन्द्रियनिग्रहः, धीविद्या सत्यम क्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्“.अर्थातधृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण हैं। यदि आप इनका पालन करते हैं तो आप कह सकते हैं कि आप धर्म पर हैं। यहाँ पर धर्म के इन दसों लक्षणों पर संक्षेप में प्रकाश डालना अनुचित न होगा:
१. धृति : सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान इत्यादि में धैर्य रखना। इसी सम अवस्था को गीता में भी समझाया गया हैं। २ क्षमा : समर्थवान हो कर भी दोषी द्वारा क्षमा मांगने पर क्षमा-दान देना धर्म हैं। ३. दम : इन्द्रियों का दमन कर उनका स्वामित्व प्राप्त करना धर्म कहलाता हैं। ४. अस्तेय : विना श्रम/पुरुषार्थ के धन ग्रहण करना अनुचित है। ५. शौच : शरीर की स्वछता बनाये रखना और मन को भी सद्विचारों से स्वच्छ रखना। तन तो साफ़ हैं पर मन में अश्लील विचार भरे हैं तो यह भी अधर्म हैं। ६. इन्द्रियनिग्रहः पांच ज्ञानेन्द्रियो द्वारा अच्छा ग्रहण करना और पांच कर्मेन्द्रियो द्वारा अच्छे कर्म करना ७. धी : बुद्धि को आत्मोन्नति के मार्ग से मेधा, प्रज्ञा और ऋतंभरा तक पहुँचाना। शरीर को दुर्व्यसनो से दूर रखना और वीर्य रक्षा के माध्यम से ब्रह्मचर्य पालन करना ताकि बुद्धि उत्तम होती जाए. सत्संग और अच्छे ग्रंथ (ऋषियोकेआर्षग्रन्थ) के अध्यन से बुद्धि बढती है। ८. विद्या : ईश्वर सम्बन्धी विषयों का उचित ज्ञान करना.जड़-चेतन का भेद, ब्रह्माण्ड के अनादि तत्वों के बारे में जानकारी प्राप्त करना, ईश्वर प्राप्ति की ओर लगकर उस विद्या का लाभ उठाना आदि । ९. सत्य : जो चीज जैसी हैं उसे वैसी ही मानना और पालन करना तथा दूसरों को भी वैसे ही बताना। १०.अक्रोध : क्रोध बुद्धि का नाश करता है । गीता में भी यही कहा गया हैं। क्रोध से बुद्धि का नाश होता हैं। अतः क्रोध पर नियंत्रण रखना धर्म पालन के लिए अति आवयश्क हैं।
हमारे यहाँ धर्मशास्त्रों में सत्य, न्याय, सेवा, सहनशीलता आदि सद्गुण धर्म केआधारभूत तत्त्व माने गये हैं जिन पर धर्म की नीवं टिकी हई है । इन पर चलने से मनुष्य सुख को प्राप्त करता हैऔर इनका विपरीत आचरण दुःख पहुंचाता है। अज्ञानी मनुष्य समझ नहीं पाता कि उसके दुःख का मूल कारण क्या है? वास्तव में, धर्म के विपरीत जो भी कार्य किया जायगा वह ‘अधर्म’ है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उपर्युक्त धर्म के मूलभूत सिद्धांतों पर जो मनुष्य चलेगा उसका शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक विकास होगा और विपरीत आचरण करने वाले को दुःख प्राप्त होगा. यही कारण है कि मनुस्मृति में हमारे आचार-व्यवहार को धर्म से जोड़कर देखा गया है। मनु ने एक स्थान पर बताया हैं : “आचारःपरमोधर्मः” अर्थात (अच्छा)आचरण परम धर्म हैं. | मनु महाराज यह भी कहते हैं कि हमारे वस्त्र, तिलक, माला, आभूषण इत्यादि बाहरी चिन्ह हमें धार्मिक नहीं बनाते, हमारा अच्छा आचरण ही हमें सच्चे अर्थों में धार्मिक बनता है। धर्म पुण्य है, जबकि अधर्म पाप है और कौन नहीं जानता कि पाप से दुःख प्राप्त होता है और हम ईश्वर से दूर जाते हैं। धर्म की सार्थकता के सम्बन्ध में एक और आप्त वचन है:“धर्मो रक्षति रक्षितः” यानी जो धर्म की रक्षा करता हैउसकी धर्म से स्वयं रक्षा होती है।
अंत में एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि धर्म जब एक विचारधारा का रूप ले लेता है तो धीरे-धीरे उसका संप्रदायीकरण होजाता है। हिन्दू,जैन, सिख, पारसी, बौद्ध, वैष्णव, इस्लाम, ईसाई इत्यादि धर्म ऐसे ही अस्तित्व मेंआये है। इन सभी धर्मों केअथवा सम्प्रदायों के अपने सिदांत हैं और अपने अनुयायी हैं। ध्यान से देखा जाय तो सभी धर्म मूलतः आत्मा के विस्तार और मानव-कल्याण की बात करते हैं। दिक्कत वहां पर खड़ी होती है जहाँ पर हम अपने धर्म को दूसरे के धर्म से श्रेष्ठतर सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। मोटे तौर पर हमारी आत्मा की जो आवाज है, वही सच्चा धर्म हैं। अंतर्मन की आवाज़ के विपरीत यदि हम आचरण करते हैं तो वहअधर्म है। यहाँ पर मुझे मेरे पितामह की एक बात याद आ रही है। मैंने कश्मीर १९६२ में छोड़ा है। तब मेरे दादा जी स्व० पंडित शम्भुनाथजी (रैणा) राजदान, प्रधान ब्राह्मण महा मंडल, जम्मू-कश्मीर, जीवित थे। कश्मीर विश्विद्यालय से हिंदी में एम०ए०(प्रथमश्रेणी में प्रथम रहकर) मैं पी-एचडी० करने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय चला आया था। उस जमाने में कश्मीर विश्विद्यालय में पी-एच डी० करने की सुविधा नहीं थी। मे राचयन यूजीसी की फ़ेलोशिप के लिए हो गया था। मुझे याद है घर से विदा होते समय दादाजी ने सर पर हाथ फेरते हुए मुझसे कहा था:” हमसे दूर जा रहे हो बेटा। .हम तो तुम्हारे साथ अब होंगे नहीं। मगर एक बात का हमेशा ध्यानर खना.“औरों के दुःख में दुखी और औरों के सुख में सुखी होना सीखना.सच्चा मानव-धर्म यही है।”
सच्चे मानव-धर्म की इससे और सुंदर परिभाषा क्या हो सकती है?
२/५३७ अरावली विहार,
अलवर ३०१००१
DR.S.K.RAINA
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE
(GOVT.OF INDIA)
2/537 Aravali Vihar(Alwar)
Rajasthan 301001
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