ललितः शिबेन कृष्ण रैणा/ अक्तूबर-नवंबर 2014

कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण: रामावतारचरित

 

ramlila-in-varanasiकश्मीर में रामभक्ति का विकास एक सशक्त संप्रदाय के रूप में नहीं हो पाया, इसका प्रमुख कारण है कि कश्मीर-मण्डल शताब्दियों तक शैवमत का प्रधान केन्द्र रहा। यहां के भक्त कवि एवं धर्म परायण प्रबुद्ध जन इसी मत के सैद्धान्तिक चिंतन-मनन तक सीमित रहे। भौगोलिक सीमाओं के कारण भी यह प्रदेश मध्य भारत के वैष्णव भक्ति आंदोलन से सीधे जुड़ न सका। कालांतर में वैष्णव भक्ति की सशक्त स्रोतस्विनी जब समूचे देश में प्रवाहित होने लगी तब कश्मीर-मण्डल भी इससे अछूता न रह सका। दरअसल, कश्मीर में वैष्णव-भक्ति के प्रचार-प्रसार का श्रेय उन घुमक्कड़ साधुओं, संतों एवं वैष्णव भक्तजनों को जाता है जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्यभारत से इस प्रदेश में आए और यहाँ राम/कृष्ण भक्ति का सूत्रपात किया। यहां पर यह रेखांकित करना अनुचित न होगा कि शैव-सम्प्रदाय के समांतर कश्मीर में सगुण भक्ति की क्षीण धारा तो प्रवाहित होती रही किन्तु एक वेगवती धारा का रूपग्रहण करने में वह असमर्थ रही। इधर, जब शैव सम्प्रदाय के अनुयायी विदेशीसांस्कृतिक आक्रमण से आक्रान्त हो उठे तो निराश-नि:सहाय होकर वे विष्णु के अवतारी रूप में त्राण/सहारा ढूंढने लगे। अन्तर केवल इतना रहा कि जिस सगुण भक्ति, विशेषकर रामभक्ति आंदोलन ने, मध्य भारत के कवि को सोलहवीं शती में प्रभावित और प्रेरित किया, उसी आन्देालन ने, देर से ही सही, कश्मीर में उन्नीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया और रामकथा विषयक सुन्दर काव्य रचनाओं की स्रष्टि हुई जिनमें कुरीग्राम निवासी प्रकाशराम कृत ‘रामावतारचरित कश्मीरी काव्यपरंपरा मेंअपनी सुन्दर वर्णन-शैली, भक्ति-विह्वलता, कथा-संयोजन तथा काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है। ‘रामावतार-चरित` भारतीय काव्य शास्त्रीय परंपरानुसार महाकाव्योचित लक्षणों से युक्त है।

काव्यकृति के प्रारम्भ में कवि ने ईशवंदना इस प्रकार की है:–नमो नमो गजेन्द्राय एकदंतधराय चनमो ईश्वर पुत्राय श्रीगणेशाय नमो नम:, गोडन्य सपनुन शरण श्री राज गणीशसकरान युस छुं रख्या यथ मनुष्य लूकस, दोयिम कर सतगोरस पननिस नमस्कारदियि सुय गोर पनुन येमि बवसरि तार।(पृ० २७)(सर्वप्रथम गणेशजी की शरण में जाएं जो इस मनुष्य-लोक की रक्षा करते हैं। तत्पश्चात् सत्गुरू को नमस्कार करें जो इस भवसागर से पार लगाने वाले हैं।)तुलसी की तरह ही प्रकाशराम की भक्ति दास्य-भाव की है। इसी से पूरी रामायणमें वे कवि कम और भक्त अधिक दिखते है। ‘रामावतार चरित` में सम्मिलित स्तुतियों, भक्ति गीतों, प्रार्थनाओं आदि से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ध्यान से देखा जाए तो प्रकाशराम ने संपूर्ण रामकथा को एक आध्यात्मिक-रूपक के रूपमें परिकल्पित किया है जिसके अनुसार प्राय: सभी मुख्य पात्र और कथासूत्रप्रतीकात्मक आयाम ग्रहण करते हैं। सत् और असत् का शाश्वत द्वन्द्व इस रूपक केकेन्द्र में है। ‘रामायनुक मतलब’ (रामायण का मतलब) प्रसंग में कवि की येपंक्तियां द्रष्टव्य हैं:-गोरव गंडमच छिवथ, बोज़ कन दार, छु क्या रोजुऩ, छु बोजुऩ रामावतार।ति बोज़नअ सत्य बोंदस आनंद आसी, यि कथ रठ याद, ईशर व्याद कासी।ति जाऩख पानु दयगत क्या चेह़ हावी, कत्युक ओसुख चे कोत-कोत वातनावी।(पृ० ३३)(गुरूओं ने एक सत्पथ तैयार किया है, जरा कान लगाकर इसे सुन। यहां कुछ भी नहीं रहेगा, बस रहेगी रामवतार की कथा। इसे सुनकर हृदय आनंदित हो जाएगा, यह बात तू याद रख। इससे सारी व्याधियां दूर हो जाएंगी और तू स्वयं जान जाएगा कि प्रभु कृपा से तू कहां से कहां पहुंच जाएगा. . . . . . .।)

एक अन्य स्थान पर कवि कहता है–सोयछ सीता सतुक सोथ रामअ लख्यमनह्यमथ हलूमत असत रावुन दोरज़न। (पृ० ३१) (सु-इ़च्छा सीता है, सत्य का सेतु राम व लक्ष्मण हैं। हिम्मत हनुमान तथा असत्यरूपी दुर्जन रावण है।) प्रकाशराम के राम लोक-रक्षक, भू-उद्धारक और पाप-निवारक हैं। वे दशरथ-पुत्र होते हुए भी विष्णु के अवतार हैं। पृथ्वी पर पाप का अन्त करने के लिए ही उन्होंने अवतार धारण किया है:–रावण के हेतु अवतारी बनकर आए भूमि का भार हरने को आए(पृ० १२०)

‘रामावतर चरित` की कथा ‘शिव-पार्वती` संवाद से प्रारंभ होती है। पूरी कथा आठ काण्डों-बालकाण्ड, आयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्ध काण्ड, उत्तर काण्ड तथा लवकुश काण्ड में विभाजित है। इन काण्डों के अन्तर्गत मुख्य कथा-बिन्दुओं को मसनवी-शैली के अनुरूप विभिन्न उप शीर्षकों में बांटा गया है। इन उप शीर्षकों की कुल संख्या ५६ है। कुछ उपशीर्षक देखिए–विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा, भरत को खड़ाऊं देना, शूर्पनखा को सज़ा देना, जटायु से युद्ध और सीता का कैद होना, लंका की तरफ फौजकशी, कुंभकर्ण के साथ जंग, मक्केश्वर का किस्सा, सीता को जलावतन करना आदि।

‘रामावतार चरित` में वर्णित अधिकांश प्रसंग अतीव मार्मिक एवं हृदय-ग्राही बन पडे हैं जिससे कवि की विलक्षण काव्यप्रतिभा का परिचय मिल जाता है। अयोध्यापति दशरथ की संतान-कामना, कामना पूर्त्ति के लिए व्रतादि रखना, स्वप्न में भगवानविष्णु द्वारा वरदान देना आदि प्रसंग इस कश्मीरी रामायण में यों भावपूर्ण ढंग से वर्णित हुए हैं– ”वोथन सुलि प्रथ प्रबातन नित्य करान श्रानरछन जोगेन, गोसान्यन सत्य थवान ओस ज़ान, स्यठा रातस-दोहस लीला करान ओसशरण सपनुन नारायण पानय टोठ्योस।(पृ० ३७) (राजा दशरथ नित्य प्रभात-वेला में जागकर स्नानादि करते तथा साधु-सन्तों और जोगियों के पास आशीर्वाद लेने जाते। पुत्रसुख के अभाव में उनका मन सदैव चंचल रहता। एक रात स्वप्न में नारायण/विष्णु ने उन्हें स्वयं दर्शन दिए तथा कहा कि मैं शीघ्र तुम्हारे घर में जन्म ले रहा हूं. . . .।)

बचनबद्धता के प्रश्न को लेकर दशरथ और कैकेयी के बीच जो परिसंवाद होता है, उसमें एक पित हृदय की शोकाकुल/वात्सल्य युक्त भावाभिव्यक्तियों को मूर्त्तता प्राप्त हुई है–युथुय बूज़िथ राज़ु बुथकिन्य पथर प्यवत्युथुय पुथ साहिब ज़ोनुख सपुन शव, अमा करुम ख्यमा सोज़न नु राम वनवासमरअ तस रौस वन्य करतम तम्युक पासयि केंछा छुम ति सोरूय दिम ब तसमे छुम अख रामजुव, छुम त्युतुय बस। (पृ० ७७) ( कैकेई का अंतिम कथन सुनते ही राजा लड़खड़ाते हुए अचेतावस्था में मुंह के बल ज़मीन पर गिर पड़े। दयार्द्र स्वर में उन्होंने कैकेई से विनती की-मुझपर दया कर, राम को बनवास न दिला। मैं उसके विना ज़िन्दा न रह सकूंगा। बचन देता हूं कि मेरे पास जो कुछ भी है वह भरत को दे दूंगा।. . . मेरा तो बस एक राम ही सब कुछ है, बस एक राम जी!)

वन-गमन प्रसंग के अन्तर्गत माता कौशल्या की विरह-व्यथा को जिस तन्मयता के साथ कवि ने वर्णित किया है,उससे एक मातृहृदय की तल-स्पर्शी संवेदनाओं का परिचय मिल जाता है–कौशल्यायि हं  दि गोबरोकरयो गूर गूरो।परयो राम रामोकर यो गूर गूरा. . .। कौतू गोहम च त्राविथकसू ह्यक हाल ब बोविथअनी कुस मननोविथकरयो गूर गूरा. . . । (पृ० ८६) (रे कौशल्या के नन्दन!आ, तुझे पालने में झुलाऊंराम-राम पुकारूंआ, तुझे हिण्डोले में झुलाऊं। छोड़ मुझे अकेला कहां गया रे तू? अब यह हाल में अपना किसे सुनाऊं? मनाकर तुझे मैं कैसे वापस बुलाऊं? आ, तुझे पालने में झुलाऊं. . .।) (भावानुवाद  इन पंक्तियों के लेखक द्वारा)

जटायु-रावणऱ्युद्ध वर्णन में कवि की सजीव वर्णन-शैली द्रष्टव्य है–खब़र बूज़िथ गव जटायन खब़रदारकफ़स फुटरुन त लारान गव ब यक़बार, पुनुम चऩ्द्रस येलि बछुन ह्यथ चलान की तदौपुन तस ओय मरुत पापुक गोय हीत, परकि दक सत्य छुस आकाशि त्रावानज़मीनस प्यठ अडजि छुस जोरअ फुटरावान।(पृ० १४५) (खबर सुन सीता-हरण की हुआ जटायु खब़रदार, पूनम-चन्द्र को केतु द्वारा ग्रसित जो देखातो छेड़ दियापापी से युद्ध ज़ोरदार। ‘क्यों पाप करके मृत्यु को बुला रहा है रे मूर्ख? आज होगा अंत तेरा, मिटेगा तू रे धूर्त! आकाश में उछाला, भू पर पटका, पंख के धक्को से उसने कर दिया रावण का बुरा हाल, हड्डियों का भुरकुस निकालकर दिया उसका हाल बेहाल. . .। ) (भावानुवाद इन पंक्तियों के लेखक द्वारा)

यद्यपि ‘रामावतार चरित` की मुख्य कथा का आधार वाल्मीकि कृत रामायण है, तथापि कथासूत्र को कवि ने अपनी प्रतिभा और दृष्टि के अनुरूप ढालने का प्रयास कियाहै। कई स्थानों पर काव्यकार ने कथा-संयोजन में किन्हीं नूतन (विलक्षण अथवा मौलिक?) मान्यताओं की उद्घोषणा की है। सीता-जन्म के सम्बन्ध में कवि की मान्यता यह है कि सीता, दरअसल, रावण-मंदोदरी की पुत्री थी। मन्दोदरी एकअप्सरा थी जिसकी शादी रावण से हुई थी। उनके एक पुत्री हुई जिसे ज्योतिषियोंने रावण-कुल के लिए घातक बताया। फलस्वरूप मंदोदरी उसके जन्म लेते ही, अपने पति रावण को बताए विना, उसे एक सन्दूक में बंदकर नदी में फिंकवा देती है। बाद में राजा जनक यज्ञ की तैयारी के दौरान नदी-किनारे उसे पाकर कृतकृत्य हो उठते हैं। तभी लंका में अपहृत सीता को देख मंदोदरी वात्सल्याधिक्य से विभोर हो उठती है। पंक्तियां देखिये–तुजिन तमि कौछि क्यथ ह्यथ ललनोवनगेमच कौलि यैलि लेबन लौलि क्यथ सोवुनबुछिव तस माजि मा माज़ुक मुशुक आवलबन यैलि छस बबन दौद ठींचि तस द्राव। (पृ० १४५) (तब उस मंदोदरी ने उसे गोद में उठाकर झुलाया तथा पानी में फेंकी उस सीता को पुन: पाकर अपने अंक में सुलाया। अहा, अपने रक्त-मांस की गंध पाकर उस मां के स्तनों से दूध की धारा द्रुत गति से फूट पड़ी. . . .।)

‘रामावतार चरित` में आई दूसरी कथा-विलक्षणता राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में रजक-घटना को मुख्य कारण न मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद (?)को दोषी ठहराया है जो पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट डालती है। एक दिन वह भाभी (सीता जी) से पूछती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। सीता जी सहज भाव से कागज़ पर रावण का एक रेखाचित्र बना देती है जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट डालती है:– ”दोपुन तस कुन यि वुछ बायो यि क्या छुयदोहय सीता यथ कुन वुछिथ तुलान हुय, मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारानवदन वाराह तअ नेतरव खून हारान। (पृ० ३९९) (रावण का चित्र दिखा कर- देखो भैया, यह क्या है! सीता इसे देख-देख रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उसकी आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही है। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह कागज़/चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िन्दा न छोड़ेगी . . . .।)

‘रामावतार चरित` के युद्धकाण्ड प्रकरण में उपलब्ध एक अत्यन्त अद्भुत और विरल प्रसंग ‘मक्केश्वर-लिंग` से सम्बंधित है जो प्राय: अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। यह प्रसंग जितना दिलचस्प है, उतना ही गुदगुदाने वाला भी। शिव रावण की याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर न रखना। लिंग को अपने हाथों में आदरपूर्वक थामकर रावण आकाशमार्ग द्वारा लंका की ओर प्रयाण करते हैं। रास्ते में उन्हें लघु-शंका की आवश्यकता होती है। वे आकाश से नीचे उतरते हैं तथा इस असमंजस में पड़ते हैं कि लिंग को वे कहां रखें? तभी ब्राह्मण-वेश में नारद मुनि वहां पर प्रगट होते हैं जो रावण की दुविधा भांप जाते हैं। रावण लिंग उनके हाथोंमें यह कहकर संभला जाते हैं कि वे अभी निवृत्त होकर आ रहे हैं। रावण लघुशंका से निवृत्त हो ही नहीं पाते! धारा रुकने का नाम नहीं लेती। संभवत: यह प्रभु की लीला/माया थी। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरान्त नारद जी लिंग को धरती पर रखकर चले जाते हैं। तब रावण के खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं है और इस प्रकार शिव द्वारा प्रदत्त लिंग की शक्ति का उपयोग करने से रावण वंचित हो जाते हैं। (पृ० २९५-२९७)

`रामावतार चरित’ में उल्लिखित एक दिलचस्प कथा-प्रसंग लंका-निर्माण के सम्बन्ध में है। पार्वती जी ने एक दिन अपने निवास-हेतु भवन-निर्माण की इच्छा शिवजी केसम्मुख व्यक्त की। विश्वकर्मा द्वारा शिवजी की आज्ञा पर एक सुन्दर भवन बनाया गया। भवन के लिए स्थान के चयन के बारे में ‘रामावतार चरित` में एक रोचक प्रसंग मिलता है। गुरुड़ एक दिन क्षुधा-पीड़ित होकर कश्यप के पास गये और कुछ खाने को मांगा। कश्यप ने उसे कहा-जा, उस मदमस्त हाथी और ग्राह को खा डाल जो तीन सौ कोस ऊंचे और उससे भी दुगने लम्बे हैं। वे दोनों इस समय युद्ध कर रहे हैं। गरुड़ वायु के वेग की तरह उड़ा और उनपर टूट पड़ा तथा अपने दोनों पंजों में पकड़कर उन्हें आकाश-मार्ग की ओर ले गया। भूख मिटाने के लिए वह एक विशालकाय वृक्ष पर बैठ गया। भार से इस वृक्ष की एक डाल टूटकर जब गिरने को हुई तो गरुड़ ने उसे अपनी चोंच में उठाकर बीच समुद्र में फेंक दिया, यह सोचकर कि यदि डाल (शाख) पृथ्वी पर गिर जाएगी तो पृथ्वी धंस कर पाताल में चली जाएगी। इस प्रकार जिस जगह पर यह शाख (कश्मीरी लंग) समुद्र में जा गिरी, वह जगह कालांतर में -‘लंका` कहलाई. . . . .।

विश्वकर्मा ने अपने अद्भुत कौशल से पूरे त्रिभुवन में इसे अंगूठी में नग के समान बना दिया। गृहप्रवेश के समय कई अतिथि एकत्र हुए। अपने पितामह पुलस्त्य के साथ रावण भी आए और लंका के वैभव ने उन्हें मोहित किया। गृह-प्रवेश की पूजा के उपरान्त जब शिव ने दक्षिणास्वरूप सबसे कुछ मांगने का अनुरोध किया तो रावण ने अवसर जानकर शिवजी से लंका ही मांग ली :–दोपुस तअम्य तावणन लंका मे मंजमयगछ्यम दरमस मे दिन्य, बोड दातअ छुख दय, दिचन लवअ सारिसुय कअरनस हवालह, तनय प्यठअ पानअ फेरान बालअ बालह।(पृ० १९६) (तब रावण ने तुरन्त कहा-मैं लंका को मांगता हूं, यह मुझे धर्म के नाम पर मिल जानी चाहिए क्योंकि आप ईश्वर-रूप में सब से बडे दाता हैं। तब शिव ने चारों ओर पानी छिड़का और लंका को उसके हवाले कर दिया और तभी से वे शिव स्वयं पर्वत-पर्वत घूमने लगे।)

‘जटायु-प्रसंग` भी ‘रामावतार चरित` में अपनी मौलिक उद्भावना के साथ वर्णित हुआ है। जटायु के पंख-प्रहार जब रावण के लिए असहनीय हो उठते हैं तो वह इससे छुटकारा पाने की युक्ति पर विचार करता है। वह जटायु-वध की युक्ति बताने केलिए सीता को विवश कर देता है। विवश होकर सीता को उसे जटायु-वध का उपाय बताना पड़ता है–वोनुन सीतायि वुन्य येत्य बअ मारथनतअ हावुम अमिस निशि मोकल नअच वथ, अनिन सखत़ी तमसि, सीतायि वोन हालअमिस जानावारस किथ पाठ्य छुस काल, दोपुस तमि रथ मथिथ दिस पल च दारिथयि छनि न्यंगलिथ तअ ज़ानि नअ पत लारिथ। (पृ० १४६-१४७) (तब रावण ने सीता से कहा-मैं तुझे अभी यहीं पर मार डालूंगा, अन्यथा इससे मुक्त होने का कोई मार्ग बता। सीता पर उस रावण ने बहुत सख्ती की जिससे सीता ने वह सारा हाल (तरीका) बताया जिससे उस पक्षी का काल आ सकता था। वहबोली–रक्त से सने हुए बड़े-बड़े पत्थरों को इसके ऊपर फेंक दो। उन्हें यह निगल जाएगा और इस तरह (भारस्वरूप) तुम्हारे पीछे नहीं उडेग़ा।. . . . .जब तकयह रामचन्द्र जी के दर्शन कर उसे (मेरी) खैर-खबर नहीं सुनाएगा तब तक यह मरेगा नहीं……।)

रामावतारचरित` में कुछ ऐसे कथा-प्रसंग भी हैं जो तनिक भिन्न रूप में संयोजित किए गये हैं। उदाहरण के तौर पर रावण-दरबार में अंगद के स्थान पर हनुमान के पैर को असुर पूरा ज़ोर लगाने पर भी उठा नहीं पाते (पृ० २१२)  एकअन्य स्थान पर रावण युद्धनीति का प्रयोग कर सुग्रीव को अलग से एक खत लिखता हैऔर अपने पक्ष में करना चाहता है। तर्क वह यह देता है कि क्या मालूम किसी दिन उसकी गति भी उसके भाई (बालि) जैसी हो जाए! वह भाई के वध का प्रतिशोध लेने केलिए सुग्रीव को उकसाता है और लंका आने की दावत देता है जिसे सुग्रीव ठुकरा देते हैं। (पृ० २२८) इसी प्रकार महिरावण/अहिरावण का राम और लक्ष्मण को उठाकर पाताल-लोक ले जाना और बाद में हनुमान द्वारा उसे युद्ध में परास्त कर दोनों की रक्षा करना-प्रसंग भी ‘रामावतारचरित` का एक रोचक प्रकरण है (पृ २५९, २८४)। ‘रामावतार चरित` के लवकुश-काण्ड में भी कुछ ऐसे कथा-प्रसंग हैं जिनमेंकवि प्रकाशराम की कतिपय मौलिक उद्भावनाओं का परिचय मिल जाता है। लवकुश द्वारा युद्ध में मारे गये राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मुकुटों को देखकर सीता का विलाप करना, सीता जी के रुदन से द्रवित होकर वशिष्ठजी द्वारा अमृत-वर्षा कराना और सेना सहित रामादि का पुनर्जीवित हो उठना, वशिष्ठ के आग्रह पर सीताजी का अयोध्या जाना किन्तु वहां राम द्वारा पुन: अग्नि-परीक्षा की मांग करने पर उसका भूमि-प्रवेश करना आदि प्रसंग ऐसे ही हैं।

 

कश्मीरी विद्वान डॉ० शशिशेखर तोषखानी के अनुसार ‘रामावचारचरित` की सब से बड़ी विशेषता है स्थानीय परिवेश की प्रधानता। अपने युग के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश का कृति पर इतना गहन प्रभाव है कि उसका स्थानीय तत्वों के समावेश से पूरा कश्मीरीकरण हो गया है। ये तत्व इतनी प्रचुर मात्रा में कृतिमें लक्षित होते हैं कि अनेक पात्रों के नाम भी कश्मीरी उच्चारण के अनुरूपही बना दिए गये हैं। जैसे जटायु यहां पर ‘जटायन` है, कैकेयी ‘कीकी`, इन्द्रजीत ‘इन्द्रजेठ` है और सम्पाति ‘सम्पाठ` आदि। रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेषभूषा आदि में स्थानीय परिवेश इतना अधिक बिम्बित है कि १९वीं शती के कश्मीरका जनजीवन साकार हो उठता है। राम के वन गमन पर विलाप करते हुए दशरथ कश्मीर के परिचित सौन्दर्य-स्थलों और तीर्थों में राम को ढूंढते हुए व्याकुल दिखाए गयेहैं। (पृ० ९२-९३), लंका के अशोक-वन में कवि ने गिन-गिनकर उन तमाम फूलों को दिखलाया है जो कश्मीर की घाटी में अपनी रंग-छवि बिखेरते हैं। (पृ०२००)….राम का विवाह भी कश्मीरी हिन्दुओं में प्रचलित द्वार-पूजा, पुष्प-पूजा आदि रीतियों और रस्मों के अनुसार ही होता है। ”लवकुश चरित“ में सीता के पृथ्वी-प्रवेश प्रसंग के अन्तर्गत कश्मीरी रामायणकार प्रकाशराम ने भक्ति विह्वल होकर ‘शंकरपुर गांव (कवि के मूलविकास-स्थान कुरीगांव-काज़ीगुण्ड से लगभग ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित) में सीता जी का पृथ्वी-प्रवेश दिखाया है।(पृ० ४७.) किंवदंती है कि यहां के ‘रामकुण्ड-चश्मे` के पास आज भी जब यह कहा जाता है-`सीता, देख रामजी आए हैं, तेरे रामजी आए हैं’ तो चश्मे के पानी में से बुलबले उठते हैं।…..हो सकता है यह भावातिरेक-जनित एक लोक-विश्वास हो लेकिन कश्मीरी कवि प्रकाशराम ने इसलोक-विश्वास को रामकथा के साथ आत्मीयतापूर्वक जोड़कर अपनी जननी जन्मभूमि को देवभूमि का गौरव प्रदान किया है। कुल मिलाकर ‘रामावतारचरित` कश्मीरी भाषा-साहित्य में उपलब्ध रामकथा-काव्य-परंपरा का एक बहुमूल्य काव्य-ग्रन्थ है,  जिसमें कवि ने रामकथा को भाव-विभोर होकर गाया है। कवि की वर्णन-शैली एवं कल्पना शक्ति इतनी प्रभावशाली एवं स्थानीय रंगत से सराबोर है कि लगता है कि ‘रामावतार चरित` की समस्त घटनाएंअयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न घटकर कश्मीर-मंडल में ही घट रही हों। ‘रामावतारचरित` की सबसे बड़ी विशेषता यही है और यही उसे ‘विशिष्ट` बनाती है।

२/५३७ अरावली विहार,

अलवर

 

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