दो लघुकथाएः अनीता रश्मि

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समझौता

 घर के बगल में मार-पीट हुइ, पड़ोसी ने ऑंखें बंद कर लीं। चीख- पुकार मची, उसने कानों में रुई ठूंस ली। भगदड़ मची, उसने घर के दरवाजे पर ताला जड़ दिया। हत्या हुई, वह धृतराष्ट्र बन गया ।
वह आज का समझदार व्यति   था। किसी के झमेले में पड़ अपनी जान जोखिम में कभी नहीं डालता था । एक अव्यक्त   समझौता उसने आज के समय के साथ कर लिया था। समय ही बेईमान था। कोई करे तो क्या करे। बूढ़े-बुजुर्गों की चिन्ताओं में घुल रहा था – आज किसी को किसी से मतलब नहीं…… हमारे जमाने में तो पूरा गॉंव-कस्बा अपना रिश्तेदार…..हारी-बीमारी, के समय सब साथ खड़े। किसी के घर मौत होने पर सब के घर चूल्हा उपास …..

हॉं, तो क्या कह रही थी यह कथा?…घर के बगल में मार-पीट हुइ, उसने ऑंखें बंद कर लीं। चीख- पुकार मची, उसने कान में रुई ठूंस ली। भगदड़ मची तो दरवाजे पर ताला भी जड़ दिया।
हत्या हुई तो….।

एक दिन उसके घर से थोड़ी दूर की दुकान में आग लगी। आग की लपटें ताला का कहा तो मानतीं नहीं, लांघकर उसके घर तक आ पहुँचीं. वह बहुत चीखा- चिल्लाया। लेकिन …….

लोकतंत्र

 -साहब, स्थिति हमारे फेवर में एकदम नहीं है.
एक घबराई आवाज तेजी से कॉरीडोर से गुजरते हुए अंदर तक साथ चली आई।
– तो?
-इस बार हार निश्चत है। हमारे जीतने का जरा भी चांस नहीं है।
आवाज की घबराहट और बढ़ी.
– क्यो? दूसरी गुप्त बैठक में व्यस्त आवाज को जरा फर्क नहीं पड़ा।
– राघव सिंह के  भाषणों-वक्तव्यों से… प्रभावित होकर सब उधर ही मुड़ गए….. लाखों की भीड़ जुटी.
पहली आवाज अस्त-व्यस्त पहले से थी. अब पस्त भी होने लगी।
– जरुरी तो नहीं भीड़ जीत की पहचान हो। इस आवाज की बेफिक्री काबिले-गौर!
– नहीं साहब, पक्की खबर है कि हम हार रहे हैं. हर हाल में हार रहे हैं। अब जीतना असंभव!
-तुम्हारी डिक्शनरी में यह असंभव लफ्ज़ कहॉं से आ गया रवि?
तुरंत वे बगल की कुर्सी पर जमे महोदय की ओर मुखातिब हुए। मुस्कुरा कर उन्हें देखा… यह वही मुस्कान थी, जिसे सयाने लोग शातिर मुस्कान कहते हैं.
– रविया बहुत जल्दी घबरा जाता है, हमारी देश की जनता को अभी नहीं पहचानता न, इसीलिए…लोकतंत्र को एकदम नहीं समझता है पट्ठा! नौसिखिया…… जाइए, बंटवा दीजिए अंगूर की बेटी की पेटी को……आखिर इन्हें सालों-साल अनपढ़- बुड़बक बनाकर क्यों रखा जाता है, आप तो जानते ही हैं।
और उन्होंने आगत जीत के स्वागत में शैंपेन की बोतल खोल ली। झागदार शैंपेन बोतल से बाहर जन सैलाब की तरह बह आया।
दारु ने ऐसा रंग दिखलाया कि वे हारते- हारते रातों-रात चुनाव जीतने की स्थिति में आ गए।
इस लोकतांत्रिक व्यवस्था से नौसिखिया रवैया एकबारगी राजनीति का भयंकर पंडित बनकर उभरा।

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