दो बाल कविताः शील निगम

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कहानी चुहिया की.
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चुहिया रानी बड़ी सयानी,

सारे जंगल की वह  नानी.
एक दिन  जिद कर बैठी,
सिनेमा घर में जा बैठी.
चूहे राम ने बहुत समझाया,
उसकी समझ कुछ न आया.
घूंघट की ओट में न देख पाई,
बिल्ली मौसी  भी थीं सपरिवार,
‘म्याऊँ’ सुन कर भागी चुहिया,
चूहा रह गया अकेला बेचारा,
मौसी ने उस पर झपट्टा मारा,
इंटरवल में ‘नाश्ता’खूब उड़ाया,
चुहिया रह  गयी अकेली बेचारी.
फिर कभी सिनेमा में न बैठी,
सिर मुंडा कर हरिद्वार जा बैठी,
आज भी चूहे राम की याद में ,
बहुत-बहुत आँसू बहाती है,
रोज सुबह शाम पूजा से पहले,
पावन गंगा में डुबकी लगाती है.
जंगल की पंचायत.
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जंगल में  पंचायत लगी पर
राजा को  नहीं मिला न्योता,
गुप-चुप,गुप-चुप,मिले सभी
पर शेर- शेरनी थे नदारद.
बन्दर मामा बने  थे सरपंच,
भालू चाचा ने दिया प्रस्ताव,
“जंगल का राजा शेर हुआ बूढ़ा,
शेरनी करती हम  सबको हैरान.”
हाथी दादा ने भी  लगायी चिंघाड़ ,
“अब  नहीं चलेगा  शेरनी का राज.”
बाकी सभी ने किया अनुमोदन
पर सभी थे सोचने को मजबूर
कैसे हों सब  इस भय  से दूर?
तभी दौड़ता खबरी  भेड़िया आया.
आते ही शुभ समाचार सुनाया.
“शेरनी फँसी है जाल में शिकारी के.”
पुरखों की रीत निभाने की आदत से
 चूहा भागने लगा जाल काटने,
गीदड़ भागा चूहे के पीछे,रोकने,
“रुको- रुको, मियां चूहे, न भागो,
जंगल की रीत बदल गयी है.
फँसने दो, मरने दो शेरनी को
अब न सहेंगे अत्याचार कभी.”
सरपंच बन्दर का सुन  अनुमोदन,
बंदरिया मामी भी नाच उठी,
मामा को मिला बड़ा अधिकार.
सबको अपनी बात मनवाने का,
सबके ऊपर हुकुम चलाने का,
जंगल में  न्याय सुनाने का.
मामी भी रहतीं क्यों पीछे?
सोते हुए  खरगोश को जगाया,
उस पर अपना रौब जमाया,
कान पकड़ कर  याद दिलाया.
“भूल गए अपने  पुरखों की रीत?
फिर मज़ा चखाओ बूढ़े  शेर को,
कूँए में गिराओ,परछाईं दिखा कर,”
तभी दहाड़ सुनाई पड़ी शेर की,
सभी छुपे मिली जगह जहाँ पर,
नन्हा चूहा पड़ा, शेर के हाथ,
कब तक खैर मनाता अपनी?
काटना पड़ा, शिकारी का जाल.
पंचायती राज के सभी सपने
रह गए अधूरे,जंगल में अब भी
बूढ़ा शेर दहाड़ता है,आज भी
शेरनी सबको दौड़ा-दौड़ा कर
हैरान करती है,शिकार करती  है.

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