दो पाटन बिच आये के …. !
चार दिन! केवल चार दिन!! . . . . इन चार दिनों में मैं स्वयं अपने को कितनी छोटी हो गयी महसूस कर रही हूं! कहने को मैं, नीलिमा खरे, लंदन के भारतीय हाई कमिशन में फ़र्स्ट सेक्रेटरी हूं। कग़ज़ों से जूझना, उलझना बच्चों के खेल जैसा मेरा रोज़ का काम है। मगर इंसानों से निपटना, उन्हें कोई कठिन फ़ैसला सुनाना मुझे बहुत भारी लगता है। कोरा काग़ज़ होता है अंधा, गूंगा, बहरा! मगर उसपर लिखी लिखाई बोलती है! . . . . और इंसान? वे देखते, बोलते, सुनते हैं और जो वे सुनते हैं, उन्हें सहना भी पड़ता है।
चार दिन पहले की ही तो बात है। मेरे ऑफ़िस में मेरे सामने बैठी हुईं थीं, रश्मि चावला. . . देखने में उम्र होगी यही कोई सत्तर और अस्सी वर्ष के बीच या शायद उससे भी ज़्यादा . . . शिथिल, कमज़ोर देह और समय की मार खाये चेहरे पर झुरियों का हजूम! अपने साथ वे कुछ काग़ज़ तो लाई ही थीं मगर अपनी बात वे पूरे विस्तार से ज़ुबानी भी समझाना चाहती थीं।
वे सुना रही थीं और मैं सुन रही थी —
“भारत और पाकिस्तान दो देश! . . . दोनों की अलग अलग सरकारें!! दोनों की सरकारी चक्की के दो पाटों में आ गये हैं हम दोनों मां, बेटा!!! पाकिस्तान की सरकार न मुझे छोड़ेगी न मेरे बेटे जावेद को। आई॰ एस॰ आई॰ के पालतू भेड़िये ॰ ॰ ॰ वे लश्कर, वे मुजाहिदीन ॰ ॰ ॰ वे कहीं भी आकर हमें दबोच सकते हैं। ॰ ॰ ॰ और मैं पगली, यहां आपके पास आ तो गयी हूं और डरती भी हूं कि आज जो आप सुनेंगी और मेरी पेटिशन में जो आप पढ़ेंगी, उसके बाद आपकी सरकार हमारा क्या हश्र करेगी!”
फिर रश्मि जी ने अपना परिचय दिया, “लाहौर के जाने माने प्रोफ़ेसर बृजेश चावला को तो बहुत लोग जानते हैं। आप भी जानती होंगी। मैं उनकी पत्नी हूं।”
एक झटका सा लगा ! क्या कह रही हैं ये मैडम? बृजेश चावला? . . . लाहौर वाले प्रोफ़ेसर बृजेश चावला? बृज अंकल तो विदेश मंत्रालय में मेरे सहयोगी और मित्र योगेश के डैडी हैं। कभी हम दोनों के बीच एक अफ़ेयर भी चल रहा था। हमारी दोस्ती केवल साउथ ब्लॉक तक ही सीमित नहीं थी। घरों में आना जाना भी था। मैं अब भी उसे ‘योगी’ कहकर पुकारती हूं
और मैं हूं उसके लिये, वही पहले वाली ‘नीलू’! यह और बात है कि योगी की शादी कहीं और हो गयी। कमला ऑंटी और बृजेश अंकल ने मुझे अपनी बहू तो बनाया नहीं, बेटी बना लिया। बेटा और बहू दफ़तर में भी एक साथ हों और घर में भी, यह उन्हें मंज़ूर नहीं था और मैं काम से इस्तीफ़ा देने को तैयार नहीं थी। बस यहीं आकर बात टूट गयी। योगी इस्लामाबाद के भारतीय हाई कमिशन में फ़र्स्ट सेक्रेटरी है और मैं यहां लंदन आ पहुंची। हम दोनों के बीच वह पहले वाला सम्पर्क ढीला पड़ गया है। दीवाली और नव-वर्षकेकार्डोंकाआदानप्रदानतोहोताहीहै, कभी-कभारफ़ोनपरबातेंभीहोजातीहैं।जब योगी ने फ़ोन पर बताया कि उसके यहां बेटा हुआ है और उसके मम्मी, डैडी भी अपने नये पोते का मुंह देखने के लिये इस्लामाबाद पहुंचे हुए हैं तो मैंने उन्हें बधाई दी और फिर उन सब से बातें भी हुईं।
मुझे टोकना पड़ा, “देखिये मैडम, मैं उस परिवार को जानती हूं। बृजेश अंकल और कमला ऑंटी मुझे अपनी बेटी मानते हैं। उनका बेटा योगेश मेरा सहयोगी और मेरा अच्छा मित्र भी है और आजकल इस्लामाबाद में नियुक्त है।”
उन्हें बुरा लगा। झट अपने बैग में से एक फ़ोटो निकाल दिखलाया, “मैं उनकी पहली पत्नी हूं और यह रहा इसका सबूत।”
एक बहुत पुरानी काली-सफ़ेद तस्वीर थी जो अब धुन्धला गयी थी – भूरी पड़ गयी थी। तस्वीर में रश्मि जी दुल्हन बनी पूरे शृंगार में थीं और साथ में दूल्हा बने बैठे थे बृजेश अंकल! दोनों के गले में फूलों के हार थे। तब उन मैडम ने स्वयं तस्वीर को पलट दिया। उसके पीछे ‘अमृत स्टुडियो, गवालमंडी, लाहौर’ की मुहर, ऑर्डर नंबर और तारीख़ लिखे मिले . . . तारीख़ थी, ’10 मार्च, 1946’।
मैं सोचती रही कि अंकल, ऑंटी ने तो पहले कभी नहीं बताया कि कमला जी उनकी दूसरी पत्नी हैं!
“तस्वीरें मेरे पास और भी थीं मगर वे लाहौर में ही राख हो गयीं। वही सब ॰ ॰ ॰ बैंड, बाजा, बारात ॰ ॰ ॰ घोड़ी पर सवार बृज ॰ ॰ ॰ अग्नि के गिर्द हमारी परिक्रमा ॰ ॰ ॰ मेरी मांघ में लगता सिंदूर। कम से कम बीस तस्वीरें थीं! हमारी शादी की मेरे पास अब यही एक निशानी रह गयी है और अपने अन्तर में मैंने संभाल रखा है उनका महीनों का पति-प्रेम और उम्र भर का बिछोह।”
पल भर का मौन! फिर रश्मि जी ने कहना शुरू किया –
“मुझे मृत समझकर उन्होंने दूसरा विवाह रचा भी लिया तो इस में दोष न उनका था, न कमला का और न ही मेरा! मेरा दोष तो बस यही था कि बटवारे के समय मैं गर्भवती पीछे छूट गयी थी। तीन महीने का गर्भ था। बीमार रहने लगी थी। आपके बृजेश अंकल मेरे लिये दवाई लेने निकले . . .”
मैंने फिर टोका, “देखिये, आप मुझे ‘आप’ कहकर मत पुकारिये। एक तो आप मुझसे उम्र में बड़ी हैं। आप बृजेश अंकल की पहली पत्नी हुईं, तो फिर आप मेरी बड़ी ऑंटी लगीं और कमला ऑंटी हुईं मेरी छोटी ऑंटी।”
रश्मि ऑंटी कहती गयीं, “हमारे घर से कोई बहुत दूर नहीं थी डॉक्टर अरुण और उनकी पत्नी डॉक्टर उषा सहगल की क्लिनिक। तुम्हारे बृज अंकल मेरे लिये दवाई लेने गये। तभी गली मेंदंगे शुरू हो गये। वे उनकी क्लिनिक पर पहुंचे और देखा कि वे दोनों तो स्वयं भागने की तैयारी कर रहे थे। बृज भी साथ हो लिये। क्लिनिक के एक मुसलमान कम्पाउंडर के हाथ एक स्लिप छोड़ गये, ‘बाहर बहुत ख़तरा है और मैं इन दोनों की कार में अमृतसर जा रहा हूं। दो चार दिन में जब हालात सुधरेंगे तुम्हें भी निकाल लाउंगा।’
“मुझे छोड़ गये पड़ोसियों के भरोसे जो वे समझते थे बहुत भले लोग हैं। उन्हीं ‘बहुत भले’ लोगों में था, यूसुफ़ क़ुरैशी, साथ वाले घर का हमारा पड़ोसी! उसी पर इनका सबसे अधिक भरोसा था। वही निकला सबसे बड़ा दग़ाबाज़! बृज की वह स्लिप, जोतीन चार दिन बाद मुझे लैटर बॉक्स में से मिली, मेरी क़िस्मत तो नहीं बदल सकती थी! वह हर रात मेरे पास आ जाता और मेरे साथ ज़बरदस्ती करता। मजबूर थी, हो गया समझौता!॰ ॰ ॰एक मूक समझौता, जो होता है एक मेमने का क़साई और उसकी छुरी के साथ! फिर बिना तलाक़ और बिना निकाह के मैं ‘रश्मि चावला’ से ‘रेशमा क़ुरैशी’ बना दी गयी। उसने हमारी शादी का हर नामोनिशान मिटा डाला सिवाय इस तस्वीर के जो उसकी नज़रों से दूर मैंने किसी तरह से छुपाकर रख ली थी!
“ ॰ ॰ ॰ एक और निशानी मेरे पास रह गयी थी। उसे वह कैसे जलाता? मेरे दिन पूरे हुए और मेरी गोद में आया हमारा – बृज का और मेरा बेटा, जावेद। यूसुफ़ ने उसका यही नाम रखा था।
“मज़हब बदल गया था और नमाज़ के तौर तरीक़े मुझे सिखा दिए गये थे। फिर भी मैं मन ही मन सवेरे शाम गायत्री का पाठ भी करती, गीता के श्लोक भी दोहराती! . . . कुछ काम न आया – न वो नमाज़ें, न गायत्री मंत्र, न गीता के श्लोक!॰ ॰ ॰ और बलात्कार होता रहा!”
ऑंटी जी ने याद दिला दीं मेरे जन्म से बहुत पहले की वे बातें जिनके बारे में मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा था, आज उनसे सुन भी लिया —
“देश-विभाजन से कुछ समय बाद दोनों सरकारों के बीच समझौता हुआ था कि दोनों तरफ़ की पीछे छूट गयी अपहृत रश्मियों, रेशमाओं को निकाल कर उनके परिवारों को लौटाया जाये और इस काम के लिये एक संयुक्त फ़ौजी संगठन बनाया गया। समझौता नेक था, मगर नीयतें ख़राब ॰ ॰ ॰ नीयतें, लड़कियों के अपने रिश्तेदारों की और उनके शिकारियों की! उनके सगे संबंधी जानबूझ कर उन तक नहीं पहुंचे। फेंक दिया उन्हें, जैसे दुकानदार अपने गले सड़े फल, तरकारी फेंक देते हैं। हज़ारों लड़कियां अपने जल्लादों के फंदों में फंसी रहीं!
“मैं सोचा करती, क्या मैं भी हूं एक गली सड़ी तरकारी? कोई मुझे भी लेने आएगा? मेरा भ्रम ग़लत निकला। कोई चौदह महीने बाद तुम्हारे अंकल मुझे लेने आए थे। गवालमंडी की हमारी गली में लाऊडस्पीकरों पर ‘मिसेज़ रश्मि चावला वाईफ़ ऑफ़ प्रोफ़ेसर बृजेश चावला’ की गुहार लगती रही। मगर मैं तो दबोच ली गयी थी, लूट का माल थी। यूसुफ़ के बराबर वाले घर के गोदाम में छुपा दी गयी थी। मेरी गोद में जावेद ॰ ॰ ॰ मुंह में ठूंसा गया कपड़ा, और यूसुफ़ के छुरे की नोक मेरी गर्दन पर! मैं आवाज़ भी कैसे करती?
“मेरी बारी आई तो धरा रह गया वह काग़ज़ी समझौता। बृज ख़ाली हाथ लौट गये। बस समझ लिया कि दंगों में जहां घर गया, जायदाद गयी, वहां पत्नी भी गयी!”
ऑंटी जी रो रही थीं। मेरी आंखें भी छलक गयीं। मैंने उन्हें पानी का गिलास पेश किया, कुछ अपने को संभाला। तभी कमरे में आ घुसा मेरा सेक्रेटरी ॰ ॰ ॰ मेरे मातहत का मेरी आंखों में आंसू देखना मुझे अच्छा नहीं लगा! मुझे और भी बुरा लगा जब उसने याद दिलाया कि पंद्रह मिनट में मुझे हाइ कमिशनर साहिब के ऑफ़िस में अफ़सरों की मीटिंग में शामिल होना है।
अभी मुझे मीटिंग की तैयारी करनी थी और समय बहुत कम था। पल भर को मैंने सोचा और वह कर दिया जो यदि ऑंटी की जगह कोई दूसरा होता तो मैं कभी न करती। अपना कार्ड उन्हें थमाकर कह दिया, “ऑंटी जी, आपकी बात तो बहुत लम्बी लग रही है। अभी तो आपने यह भी नहीं बताया की भारत और पाकिस्तान की सरकारों से आपका झगड़ा क्या है। कल शनिवार है, परसों इतवार। इन दो दिनों में फ़ोन करके आप कभी भी घर आ जाइये। तब आराम से बेरोक-टोक आप से बात हो सकेगी।”
वे गिड़गिड़ायीं, “लेकिन बेटी, क़यामत खड़ी है सिर पर! कोई फ़ैसला जल्दी करना होगा।” तब जल्दी में मेरे मुंह से निकल गया, “आपने मुझे ‘बेटी’ कहा है ना? भरोसा रखिये, जो भी मुझसे बन पड़ेगा, मैं अवश्य करूंगी।”
शनिवार को सवेरे सवेरे ही ऑंटी जी ने फ़ोन कर दिया और आधे घंटे बाद वे आ भी गयीं। चाय, पानी के बाद अभी बात शुरू भी नहीं हुई थी कि मेरे मियां जी ने मुझे कमरे से बाहर बुलाया।
लगे डांटने, “अब तक तुम ऑफ़िस का काम घर ले आती थी, मैंने कुछ नहीं कहा। आज तो तुमने घर में ही कचहरी लगा ली। मैंने सोचा था कि आज अच्छी करारी धूप है, अनिता और सुमिता (मेरी दो बेटियां, उम्र पांच साल और तीन साल) को ब्राइटन ले चलेंगे।”
उन्हें समझाना पड़ा कि यह बाहर की कचहरी नहीं, एक तरह से घर ही का मामला है।
वे तीनों चले गए और हमारी बातें शुरू हुईं।
“जावेद मेरे पास रह गया ॰ ॰ ॰ आधी हिंदू, आधी मुसलमान मां और गांधीवादी बृजेश चावला का बेटा, हम दोनों के अनुरूप कहां रहा? जावेद तो अच्छा मुसलमान भी न बन सका। उसने शादी नहीं की, बस जिहाद का नारा अपना लिया और बन गया पक्का आतंकी।”
ऑंटी ने एक ठंडी आह भरी —
“किस किस की शिकायत करूं? यूसुफ़ ने मुझे ख़राब किया, वह फिर भी बेगाना था। मेरी कोख और मेरा ख़ून भी तो बेवफ़ा निकले! मैं ग़लत समय पर गर्भवती हुई और जो जिहादी बेटा पैदा हुआ, वह भी तो ग़लत निकला!
“क़िस्मत का एक और छलावा ॰ ॰ ॰ बृज के बिना एक उम्र गुज़र गयी और भी गुज़र जाती मगर तीन महीने पहले, एक दिन अचानक गवालमंडी की हमारी गली में वे एक बार फिर अपनी पुरानी दहलीज पर आ खड़े हुए। यह वही घर था जो उनके पिता जस्टिस चावला ने हमारे विवाह पर उपहार दिया था। उसके गेट पर ‘बृज-रश्मि’ — हम दोनों के नाम की संगमरमर की शिला लगवा दी गई थी। वही घर का नाम भी था और हमारा पता भी! अब वहां उन्हें लगी मिली एक दूसरी शिला, ‘यूसुफ़ मंज़िल’। उनकी सोच तो यही थी कि मैं दुनिया में नहीं रही! वे मुझसे मिलने नहीं आये थे! बस सोचा लिया लाहौर तो देखना ही है, अपना पुराना घर भी देख लूं। यही तमन्ना उन्हें वहां खींच लाई।
“हमारे घर की घंटी बजी। जावेद ने दरवाज़ा खोला। उन्होंने यूसुफ़ से मिलना चाहा। जावेद ने कह दिया, अब्बा तो बरसों पहले इंतक़ाल फ़रमा गये। तब उन्होंने अन्धेरे में तीर छोड़ा, ‘मेरी उम्र का कोई तो अन्दर होगा? उन्हें ख़बर कर दो कि भारत से बृज चावला आया है। शायद वो मुझे पहचान लें ‘।
“खुले किवाड़ से आवाज़ें भीतर भी आ रही थीं। जावेद ने आकर मुझे बतलाया कि बाहर एक बूढ़ा खड़ा है। भारत से आया है। कोई चाय वाला है। अपना नाम बृज बतलाता है। वह बक गया, ‘हमें नहीं चाहिये किसी काफ़िर के हाथ की चाय! मैं बाहर से ही टरका देता हूं।’
“एक उम्र के बाद मेरे पति घर आये थे। उन्हें दरवाज़े से ही कैसे टरकने देती? मैंने डांट लगाई, ‘घर आए महमानों को दरवाज़े से भगा देने की रिवायत नहीं है, हमारे यहां! वो इतनी दूर से आए हैं, उन्हें महमानख़ाने में बिठाओ।’
“हम दोनों की नज़रें मिलीं और एक दूसरे पर टिकी रह गयीं। जावेद से झूठ बोलना पड़ा कि ये चावला साहिब हैं . . . प्रोफ़ेसर बृजेश चावला! बंटवारे से पहले यह हमारे पड़ोसी थे, बग़ल वाले घर में रहते थे।’
“बृज को जावेद का परिचय कुछ यों दिया, ‘यह हैं हमारे बरख़ुरदार, जावेद क़ुरैशी! माशाल्लाह, पचास साल के हो गए हैं ।’ यह उन्हें इशारा था कि दाढ़ी के पीछे छुपे अपने बेटे का मुखड़ा पहचान लो। यह वही है जिसे तुम मेरे गर्भ में छोड़ गये थे!
“चाय की मेज़ पर उन्होंने बताया कि वे इस्लामाबाद में अपने बेटे के पास ठहरे हुए हैं जो भारतीय हाई कमीशन में फ़र्स्ट सेक्रेटरी है। मैं समझ गयी, बृज ने दूसरी शादी कर ली है और इनका बेटा योगेश एक बड़ा आदमी हो गया है! इनका दूसरा विवाह स्वाभाविक था, होना ही था। एक चुभन सी महसूस हुई। मेरा जावेद तो कुछ भी न बन सका! विभाजन के समय बृज बिछ्ड़े न होते तो योगेश के स्थान पर हमारा जावेद होता!
“वे क्लिफ़्टन होटल में ठहरे हुए थे। पाकिस्तान सरकार की आज्ञानुसार वे लाहौर में सात दिन ही रुक सकते थे। मुझसे रहा नहीं गया, बस कह दिया कि यहां अपना घर है तो आप होटल में क्यों रहें?॰ ॰ ॰ और वे अपने पुराने घर में अपनी पत्नी के ‘महमान’ आ बने! जावेद को यह बात ज़हर लगी पर वह लाचार क्या करता?
“अगले दिन सवेरे सवेरे जावेद अपने काम पर चला गया और हम दोनों भी सैर को निकल पड़े। दोनों के बीच वह ज़रा सी झिझक अब भी बाक़ी थी। लगता था जैसे दो अजनबी राह में मिल जाएं और एक साथ चलने लगें। फिर उन्होंने ही झिझक तोड़ी और बतलाया कि मेरे बिना वे बिना पतवार की नाव हो गए थे। उन्हें दूसरा विवाह करना पड़ा। एक नया परिवार संजोना पड़ा। मैंने भी कह दिया कि तुम्हें तो पतवार भी मिल गयी और परिवार भी! मुझे क्या मिला? मैं बन गयी आंधी की धूल! बुहार कर फेंक दी गयी। उनकी उदास आंखें मुझे ताकती रहीं ॰ ॰ ॰ उन स्नेहल आंखों में हमदर्दीथी, मजबूरीथी!
“गोपनीयता भी एक तरह का झूठ होती है, मौन झूठ! घुटे घुटेसे स्वर मेंवेकहगए, ‘मेरे नयेपरिवारमेंकोईनहींजानताकिमेरापहलेविवाहहुआथा!’
“मेरेमुंहसेनिकलगया, ‘तुमनेतोमेराअस्तित्वहीनकारदिया॰॰॰कहदेतेमैंदंगोंमेंमरगयी!’
“सात दिन तो क्या, जावेद ने दूसरे ही दिन बवाल खड़ा कर दिया। उसकी शिकायत थी कि एक ‘काफ़िर, पराए मर्द’ के साथ मैं क्यों बाहर जाती हूं। गली में लोग उंगलियां उठा रहे हैं।’ उसकी शिकायत तो मुझसे थी मगर वह चीख़ चीख़ कर बृज को सुना रहा था। मैंने कहा भी कि यह कैसा इल्ज़ाम है? मैं मां हूं तुम्हारी? वह बकवास करता रहा।
“बृज सहम गए। मुझे टैक्सी मंगवाने को कहा। मेरा जी भर आया। उनके कानों में फुसफुसा दिया, ‘फिर से ज़िंदगी भर के लिये छोड़े जा रहे हो! मेरे हिस्से के सात दिन पूरे करके जाओ। जावेद आख़िर है तो हमारा ही बेटा! हमारी शादी की एक तस्वीर अभी भी है मेरे पास। अब तक छुपाकर रखी हुई थी। कल उसे दिखा देंगे। वह सब समझ जाएगा।’
“बृज रुक तो गए पर उनका अगला दिन नहीं आया। सुबह उठी तो न वे अपने कमरे में मिले, न उनका सामान। वहां जावेद था, एक बाल्टी थी और बाल्टी में लाल पानी! जावेद फ़र्श पर झुका ख़ून के छींटे धो रहा था। मुझे देखते ही बोला, ‘अम्मी, शुक्र मनाओ! भारत सरकार का ख़तरनाक जासूस निकला यह महमान! इस्लामाबाद से ही हमारे जासूस उसके पीछे लगे हुए थे। मुझे कल शाम पता चला और हुक्म हुआ कि रातों रात इसे ख़त्म करदो। वह डींग मार रहा था, ‘किसी सोये हुए को ख़त्म करनाकितना आसान है! न कोई झगड़ा, न हाथापाई। ख़ंजर का एक वार सीने के पार और काम तमाम ! अब तक तो हमारे आदमी उसकी लाश भी ठिकाने लगा चुके होंगे!’।
“जावेद का एक एक शब्द मेरे गले से तेज़ाब की तरह उतर गया और मैं चीख़ उठी, ‘ऊपर गोदाम में पुराने बड़े स्टील ट्रंक की तह में उस ‘ख़तरनाक जासूस’ की एक तस्वीर है। यहां उठा लाओ, तसल्ली हो जाएगी। वह तस्वीर ले आया।
“जावेद नेसिरपीटलिया!वह चीख़ा, ‘गुनाहे-अज़ीम हो गया!’ उसकातलख़सवालथा, ‘अम्मीआपनेपहलेक्योंनहींकहा?’ मैंनेभीकहदिया, ‘तुम्हें तोएककाफ़िरकेहाथकीचायभीमंज़ूरनहींथी। काफ़िरमांकैसेमंज़ूरकरलेते? मैं भी तो सोई पड़ी थी। आसान काम कर देते,मेरे सीनेमेंभीख़ंजरउतारदेते!’
“हमदोनोंमां-बेटारोरहेथे। मैंनतोबृजकेअन्तिमदर्शन कर सकी, न उनके अंतिम संस्कार! हम तो ठीक से उनका मातम भी न कर सके। दरवाज़े की घंटी बजी और हमें झकझोर गयी। दरवाज़े पर था जावेद के बचपन का दोस्त, पुलिस इंस्पेक्टर हमीद! तभी से मैं उसकी ‘ख़ाला’ रही हूं। सरकारी हलक़ों में सोचा जा रहा था कि बृज मुझे ही क्यों मिलने आये? उनकी ‘जासूसी’ में मैं भी शामिल थी और रातों रात मेरी गिरफ़्तारी के वॉरंट निकाल दिये गये थे। पुलिस की वैन गली की नुक्कड़मेंखड़ीथी।उसकाज़मीरकैसेमानताकिअस्सीसालकीअपनीमुंहबोलीख़ालाकोहथकड़ीलगवाये।उसनेकुछमिनटोंकीमोहलतदी और हमें पिछले दरवाज़े से भाग निकलने को कहा। वह ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ कहकर चला गया।
“हमेंभागनापड़ा। जल्दी जल्दी में जो भी हम समेट सके, सूटकेस में भरा। मेरी शादी में मिला सोना तो युसुफ़ हज़म कर चुका था। जावेद के पास पड़े थे लश्कर के कोई पांच हज़ार डॉलर। तुम्हें क्या बताऊं किस किस को घूस दी, किस किस को बेवक़ूफ़ बनाया। लुकते, छुपते किसी तरह से हम यहां इंग्लैंड आ गये हैं। पाकिस्तान के हम दो भगोड़े तीन महीनों से यहां हैं – अवैध, ख़ानाबदोश! अब न कोई अपना घर रहा, न ठिकाना, न कोई अपना देश! पल्ले कोई पैसा भी नहीं बचा और वहां हम लौट नहीं सकते।”
ऑंटीजीफफक फफककररोनेलगीं।उनकीहालतमुझसेदेखीनहींजातीथी। उनसे तो अब बोला भी नहीं जा रहा था। मुझे ही कहना पड़ा —
“मैं आपकी स्थिति समझ गयी हूं। आज तो मैं कुछ नहीं कर सकती, ऑफ़िस बंद है। परसों पांच बजे इंडिया हाउस आ जाइये। सब ठीक हो जायेगा। मैं आपकी पूरी मदद करूंगी।”
ऑंटी गदगद हो गयीं, “हम उम्रभरतुम्हाराअहसानमानेंगे।मैंजावेदकोभीसाथलेआऊंगी।तुमउससेभीमिललेना।” मैंने ऑंटी को सहारा दिया और अपनी कार में समीप के अंडरग्राउंड ट्यूब स्टेशन तक छोड़ आई।
मुझे इस्लामाबाद में योगी और कमला ऑंटी का ख़याल आया। उनपर क्या गुज़र रही होगी। विश्वास नहीं होता था कि बृज अंकल अब दुनिया में नहीं रहे। पाकिस्तान में रात हो चुकी थी। इतवार को तड़के सवेरे ही इस्लामाबाद का नम्बर मिलाया।
कमला ऑंटी ने फ़ोन उठाया। वे बिलबिला उठीं, क्या बताऊं बेटा? तुम्हारे अंकल हफ़्ते भर के लिये लाहौर गये थे। तीन महीने से ऊपर हो गये। उनकी कोई ख़बर नहीं। मालूम नहीं कहां गुम हो गए।योगेश से भी बात हुई। उसका व्यथितस्वरभीसुना —
“क्लिफ़टन होटल में कमरा बुक किया था। होटल से पता चला कि वे घंटे भर के बाद ही चेक आउट कर गए थे। पाकिस्तान सरकार से मदद को कहा। वे कहते तो हैं कि उन्होंने लाहौर के सभी होटलों, हस्पतालों में छानबीन कर ली है । कुछ पता नहीं चला। अब वे हमीं से पूछ रहे हैं कि क्या उनका स्वास्थ्य और दिमाग़ी संतुलन ठीक थे, घर में कोई झगड़ा तो नहीं हुआ था?”
उसने फ़ोन रख दिया। यह सब तो मैं पहले से जानती थी। उन्हें सांत्वना देना भी ज़रूरी था। मैंने दोबारा फ़ोन कर दिया और झूठमूठ की तसल्ली दे डाली, “योगी, तुम हिम्मत रखो। भगवान पर भरोसा रखो। अपनी मम्मी को सहारा दो। अंकल ज़रूर आ जाएंगे।”
X X X X
रश्मि ऑंटी की लम्बी चौड़ी याचिका ने खड़े कर दिए हैं कुछ ऐसे प्रश्न, कुछ ऐसी समस्याएं जिनका मेरे पास कोई समाधान नहीं! अपनी याचिका के अंतिम पैराग्राफ़ों में वेलिखतीहैं —
“ ॰ ॰ ॰ जावेद हम सब का मुजरिम है – अपने पिता का, मेरा, मिसेज़ कमला चावला का मिस्टर योगेश चावला का और भारत सरकार का! वह स्वयं अपने को क्षमा नहीं कर सकता। कभी मुझसे क्षमा मांगता है, कभी सज़ा! मैं, उसकी मां, न उसे माफ़ कर सकती हूं, न सज़ा दे सकती हूं। बेटे की सज़ा मां भी तो झेलती है! मिसेज़ कमला से पहले बृज मेरे पति थे। वे मां, बेटा उसे कभी क्षमा नहीं करेंगे। भारत सरकार का क्या रवैया होगा, सोचकर डर लगता है!
“असली मुजरिम पाकिस्तान में हैं। वहां के धर्मांध सरकारी चमचों का खिलौना बना मेरा जावेद! न वे मुजरिम भारत सरकार को मिलेंगे और न पाकिस्तान में हुए इस जुर्म के सबूत। मैंक़ानूनीदावपेचनहींजानती फिर भी समझतीहूंकिमेरीयहयाचिकाजावेदकाइक़बाले-जुर्मनहींमाना जा सकता।
“भारत सरकार कहती आई है कि जो आतंकी हथियार छोड़कर सामने आ जायेंगे, उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा और वे फिर से समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकेंगे। जावेद सरकारकीइसकसौटीपरपूराउतरताहैऔरहरतरहसेदयाकापात्रहै। जैसे गल गल कर सोना खरा होता है, पश्चात्ताप की अग्नि में जलकर फ़ीनिक्सकीतरहराखसेएकनयाजावेदउठखड़ाहुआहै! भारतकेक़ौमी निशान मेंअंकितगुरूमंत्र ‘सत्यमेव जयते’ से प्रेरित होकर मैंने निस्संकोच सत्य उगल दिया है। मगर जावेद कहता है कि अम्मी आप फ़िज़ूल काग़ज़ काला कर रही हैं। सरकारें जो कहती हैं, वो करती नहीं! मेरा भी यही प्रश्न है कि क़ौमी निशान का यह गुरू-मंत्र क्या महज़ दिखावे का है?
“पाकिस्तान का इल्ज़ाम है कि मैं भारतीय जासूस हूं। ऐसा होता तो क्या भारत सरकार इस रहस्य में मेरे साथ शामिल न होती? मैं तो भारत की नागरिक भी नहीं!!
“मैं अब भी अपने को भारतीय मानती हूं। बृजेश चावला विख्यात भारतीय थे। मैं भी भारतीय थी। मैंने अपनी भारतीयता त्यागी नहीं थी। वह मुझसे एक बलात्कारी ने छीन ली थी। अब दुनिया की हर न्याय-व्यवस्था से दूर वह अपनी क़ब्र में दफ़न है। जावेद की भारतीयता भी उसके जन्म से पहले ही उससे छिन गयी थी। मुझे भारत का वीज़ा या असाइलम नहीं चाहिये। मेरी अपील है कि हमें हमारी भारतीयता वापस करो। जो भी अनर्थ हुए हैं कभी न होते और हम एक सुखी परिवार होते, यदि विभाजन के समय मैं भी अपने पति के साथ भारत आ सकती।
“देश-विभाजन जनित परिस्थितियों का शिकार एक मासूम मुजरिम, जावेद अंजाने में अपने पिता की हत्या कर बैठा। मैंने अपनी याचिका में यही समझाने का प्रयत्न किया है।
“दो सरकारों की चक्की में आ फंसे हम मां-बेटा! भारत सरकार के हाथों में है हमारा निस्तार। आशा है फ़ैसला हमारे हक़ में होगा,
विनीता,
रश्मि चावला ”
X X X X
मैं अपना दोष स्वीकरती हूं कि रश्मि ऑंटी की अर्ज़ी पढ़े बिना, उनकी बेबस भीगी आंखें पढ़ लीं और झूठा वचन दे बैठी कि मैं उनकी पूरी मदद करूंगी! बस सोच लिया कि परिस्थितियों के मारे ये बेगाने लोग, दरअसल हैं तो अपने ही!
मेरे हाथों में कुछ भी नहीं! एक तरफ़ है ऑंटी की काग़ज़ पर लिखी लिखाई और दूसरी तरफ़ पत्थरकी लकीरें! ॰॰॰लकीरें अंधेक़ानूनोंकी और उनकेतहतघड़ेगए अंधेनियमोंकी!!
‘मासूम मुजरिम’, जावेद भारत आ भी जाए तो उसका फ़ैसला हमारी न्याय-संहिता के अनुकूल किसी कोर्ट-कचहरी में होगा। ॰॰॰ और रश्मि ऑंटी?हमारे क़ानून और नागरिकता-नियमों में कोई सीधा, टेढ़ा उपाय नहीं है कि विभाजन के इतने वर्षों बाद उन्हें भारतीय नागरिकता मिल सके।
यही हैं वे कम्बख़्त चार दिन जिनमें मैं बहुत छोटी हो गयी हूं! मैं अपने ऑफ़िस में हूं। रश्मि और जावेद से पांच बजे मिलने का वायदा है – वायदा ‘पूरी मदद’ का!. . . बस कह दिया, ‘सब ठीक हो जाएगा’!
क्या ठीक हो जाएगा?
ज़्यादा से ज़्यादा मैं उनकी याचिका दिल्ली भेज सकती हूं। वहां मेज़ों, मंत्रालयों के बीच भटकते फिरेंगे ये काग़ज़ के टुकड़े। वहां इंसान भी काग़ज़ समझे जाते हैं। ॰ ॰ ॰ फिर महीनों बाद फ़ैसला आएगा जो मैं अभी से जानती हूं!
पांच बजने वाले हैं। वे मां-बेटा अब आते होंगे और मेरे दिमाग़ में है ख़यालों का बवंडर!क्या कहूंगी मैं उनसे और कैसे कहूंगी? ॰ ॰ ॰ और जो मैं कहूंगी, वे सुन पायेंगे, सह पायेंगे? ऑंटी तो जैसे बुझ जायेंगी। जावेद को मैंने कभी नहीं देखा। उसे मैं नहीं जानती। कल्पना में है उसकी तस्वीर। उसकी आवाज़ भी मेरे कानों में गूंज रही है,‘अम्मी, मैंने कहा था न कि सरकारें जो कहती हैं, करती नहीं। कुंद छुरी से हलाल होने, हम यहां क्यों आये हैं?’
मैं सिर से पांव तक कांप जाती हूं ॰ ॰ ॰ काग़ज़ के टुकड़े नहीं हैं ये लोग ॰ ॰ ॰ जीते, जागते इंसान हैं ॰ ॰ ॰ जीती जागती सच्चाइयां!
कमला ऑंटी और योगी से आमने सामने तो बात होगी नहीं। जब भी कहना है, जो भी कहना है, फ़ोन पर कहना है। लेकिन कब और कैसे? फ़ोन पर दिया गया अपना कल वाला फ़रेब ‘अंकल ज़रूर आ जाएंगे’ मैं कब तक पालूंगी? कब और कैसे उन्हें बताउंगी कि बृजेश चावला अब इस दुनिया में नहीं हैं। वे कभी नहीं आएंगे!
इसी उधेड़-बुन में घबराई सी आंखें मूंदे कुर्सी से पीठ लगाये बैठी सोच रही हूं। माथा, पसीने से तर-बतर है। मैं पसीना पोंछती हूं। मुझे अभी एक और फ़रेब गढ़ना पड़ेगा। एक सरकारी फ़ॉर्मुला है मेरे पास॰॰॰वही चलेगा।फ़ॉर्मुला पुराना है, मगर है ज़बर्दस्त! हमारे दफ़तरों में इसे‘ स्लो पॉयज़निंग ’ भी कहते हैं।
मैं फ़ोन उठाती हूं —
“रिसेप्शनिस्ट?”
“यस, मैडम।”
“पांच बजे मिसेज़ रश्मि चावला और मिस्टर जावेद क़ुरैशी मुझ से मिलने आएंगे।”
“मैडम, दोनों यहां खड़े हैं।आपके पास भेज दूं?”
“नहीं, कह दो मैं उनसे नहीं मिल सकती। उनका मामला विचारधीन है।”
किन फ़रेबों में जी रही हूं मैं!
तेरा क्या होगा, नीलिमा खरे? ये सच्चाइयां और तेरे झूठ! इनमें घिरी अपने झूठों के साथ तू भी चक्की के दो पाटों में फंसी बैठी है!
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स्वरचित, अप्रकाशित – महेन्द्र दवेसर “दीपक“
पूरा पता: 70 Purley Downs Road, South Croydon, Surrey, UK, CR2 ORB.
e.mail: mpdwesar@yahoo.co.uk॰ Phone: 00(44) 020 8660 4750
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