‘खुशी खुशी का थैला ‘
अक्सर जिंदगी मेरा रास्ता रोक कर ऐसा सवाल कर देती है, जिसका जवाब मैं भी जानता हूँ और जिंदगी भी… फिर भी जिंदगी को जवाब की तलब बनी रहती है.
मुश्किल यह है कि अगर मैं सच बोल दूंगा तो मुझे तकलीफ हो जाएगी और अगर झूठ कहा तो जिंदगी नाराज़ हो जाएगी.
अक्सर ऐसे में मैं जिंदगी की ओर पीठ फेर कर चुप रह जाता हूँ. जब जिंदगी की ओर से दुबारा कोई चाबुक नहीं चलता तो मुझे इत्मीनान हो जाता है, कि चलो, एक और ‘ग्रे’ दिन खुशी खुशी निकल गया. ‘ग्रे’, यानी जो न काले हैं न सफ़ेद.
इस तरह न जाने कब से मेरी पीठ पर ‘ग्रे’ दिनों का थैला लदा हुआ है जो खुशी खुशी भारी होता जा रहा है.
एक दिन, शाम को घर जाते जाते, एक अलगोजा बजाते फकीर ने मुझे रोक लिया. मैं रुक गया. वह मुस्कुराया. उसने कहा कि उसके पास मुझसे संबंधित एक जिज्ञासा है. उसने यह भी कहा कि जिज्ञासा सवाल नहीं होती, इसलिए मुझे परेशान होने की ज़रूरत नहीं है.
मैंने कहा, “पूछो…”
उसने कहा, “ जानते हो, कि तुम बहुत बूढे लग रहे हो, सूखे हुए और नीरस..बस, इतनी कम उम्र में..?”
“ हां “ मैंने कहा, “ वक्त सबको कभी न कभी बूढा बना ही देता है..कौन बचा पाता है अपना हरापन, अपना रस, इस जंजाल समय में, इस उम्र तक आते आते. ?”
वह फकीर न संतुष्ट हुआ न निरुत्तर. उसने बात जारी रखी,
“ वक्त ने तुम्हें बूढा नहीं बनाया है, बनाया है तुम्हारी पीठ पर लदे इस ‘खुशी’ के बोझ ने. क्यों बढाते जा रहे हो इसका वज़न.. “
“ क्या करूँ… क्या मेरे उतारने से यह थैला उतर जाएगा ?. तुम क्या जानो,इस पर मेरा बस नहीं है.” यह मेरा सवाल था और मुझे तुरंत हैरत हुई थी कि मुझमें किसी से भी सवाल करने का हौसला कहाँ से आ गया.
“ बस है, अरे, न कुछ तो जिंदगी को कुछ झूठ-मूठ कह दिया करो. तुम्हारा यह बोझ तो तुम्हारी चुप्पी का है.”
“ वो तो है, लेकिन तब जिंदगी बुरा मान जाएगी, ..” मैंने कहा.
“ तुम्हें जिंदगी की इतनी फिकर है क्या, लगता तो नहीं. अगर है तो सच जवाब दे दिया करो. “
मैं चुप रहा.
“ डरते हो..? “ मैंने सिर हिला कर सहमति जताई.
“ किस से ज्यादा डरते हो, सच से या अपने आप से ?”
मैं फिर चुप रहा. चुप रहना मेरे खून में है जैसे. मैं जिंदगी से भी चुप रहता हूँ और अपने आप से भी.
“ जानते हो, सच से डरना और अपने आप से डरना, दोनों एक ही बात है. और अगर यह डरना छोड़ दोगे तो यह ‘ग्रे’ गठरी अपने आप सिकुड कर छोटी होती जाएगी. बात खत्म”
मुझे थोडा हौसला मिला लेकिन अभी भी एक संशय था…
“ तब तो जिंदगी हरदम मेरे आगे सवाल फेकती रहेगी, एक के बाद एक …नहीं क्या ?”
अब वह फकीर ठठा कर हंसा.
‘अरे नादान इंसान, सवालों का सामने करना ही तो जिंदगी का सामना करना है. तुम तो ‘ग्रे’ दिनों का बोझ लादे जिंदगी से भाग रहे हो. इसीलिए तेज़ी से बूढे होते जा रहे हो… प्यार किया है कभी…?”
मैं हठात चौंक पड़ा. यही सवाल तो जिंदगी मुझसे न जाने कब से पूछ रही है. एक बार, दो बार, न जाने कितनी बार पूछ चुकी है.
फिर पता नहीं क्या हुआ मुझे… मैंने लपक कर उस फकीर से उसके हाथ का अलगोजा छीना और उसे उल्टा सीधा बजाते हुए उस तरफ दौड़ पड़ा जिधर से एक अजीब सी खुश्बू मुझ तक न जाने कब से आ रही है.
मुझे भागता देख कर वह फकीर ताली बजा बजा कर गाने लगा. इस भगदड़ में मेरी पीठ पर लदा वह थैला शायद कहीं गिर गया है. लेकिन मैंने पलट कर कभी देखा ही कहाँ…मैं तो वहां से निकल कर किसी और ही दुनिया में आ गया हूँ. सवाल तो यहाँ भी हैं लेकिन नज़ारा ‘ग्रे’ नहीं है.
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