शक्ति और क्षमा
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन
तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता
उसके पीछे जब जगमग है।
रश्मिरथी-षष्ट सर्ग-भाग 10
साधना को भूल सिद्धि पर जब
टकटकी हमारी लगती है,
फिर विजय छोड़ भावना और कोई
न हृदय में जगती है।
तब जो भी आते विघ्न रूप,
हो धर्म, शील या सदाचार,
एक ही सदृश हम करते हैं
सबके सिर पर पाद-प्रहार।
उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,
होती है इन्हें कुचलने में,
जितनी होती है रोज़
कंकड़ो के ऊपर हो चलने में।
सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे
नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?
जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,
छोटी बातों का ध्यान करे ?
चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,
जानता नहीं, क्या करता है,
नीच पथ में है कौन ?
पाँव जिसके मस्तक पर धरता है।
काटता शत्रु को वह लेकिन,
साथ ही धर्म कट जाता है,
फाड़ता विपक्षी को अन्तर
मानवता का फट जाता है।
वासना-वह्नि से जो निकला,
कैसे हो वह संयुग कोमल ?
देखने हमें देगा वह क्यों,
करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?
जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,
माँड़ी बन कर छा जाता है
तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े
दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।
फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव भी
नहीं धर्म के साथ रहे ?
जो रंग युद्ध का है, उससे,
उनके भी अलग न हाथ रहे।
दोनों ने कालिख छुई शीश पर,
जय का तिलक लगाने को,
सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,
विजय-विन्दु तक जाने को।
इस विजय-द्वन्द्व के बीच
युद्ध के दाहक कई दिवस बीते;
पर, विजय किसे मिल सकती थी,
जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?
था कौन सत्य-पथ पर डटकर,
जो उनसे योग्य समर करता ?
धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,
अपना नाम अमर करता ?
था कौन, देखकर उन्हें समर में
जिसका हृदय न कँपता था ?
मन ही मन जो निज इष्ट देव का
भय से नाम न जपता था ?
कमलों के वन को जिस प्रकार
विदलित करते मदकल कुज्जर,
थे विचर रहे पाण्डव-दल में त्यों
मचा ध्वंस दोनों नरवर।
संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त,
सारे जीवन से छला हुआ,
राधेय पाण्डवों के ऊपर
दारूण अमर्ष से जला हुआ;
इस तरह शत्रुदल पर टूटा,
जैसे हो दावानल अजेय,
या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से
उतर मनुज पर कात्र्तिकेय।
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