कविता आज और अभी / अक्तूबर / नवंबर 2014

अघटनीय
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बिना रफ्तार

दौड़ते अँधेरों और

दीवारों से चिपकते सायों का

शहर की तंग गलियों में

दुबकते जाना कब तक?

झिरीठों से निकलती

नुकीली किरणे पकड़े

बंद दरवाज़ों और खिड़कियों में

सिसकती उदासी का

डबडबाना कब तक?

बेबस सी —  बेरुख और सुन्न निगाहों का

आँगन के अँधेरे कोनों  और खुदे आलों में

फड़फड़ाना कब तक?

कहाँ है — ? कहाँ है — ?

रोशनी का वह छलकता पानी

बुहार देती जिसे बहाकर मैं

अपने आँगन का  हर एक दर और ज़मीं

धो देती कोना-कोना इसका |

सजा देती  एक -एक आला और झरोखा

जलते दियों की श्रृखलाएँ रखकर।

खड़ी हो जाती मैं

इस साफ़ सुथरे आँगन के बीच

उठाए हुएअचंभित सी नज़रें

और तब — !

घट के रह जाता

रिक्त आँखों के

स्तम्भित शून्य में

एक निरा, साफ़ और स्पष्ट

नीला आसमान।

 

-मीना चोपड़ा

 

 

 

वर्षा !

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तुमसे करूँ विनती एक,

रुक ना जाना एक जगह पर,

सबको प्यार बराबर देना।

वर्षा !

इतना जल भी ना दे देना जो,

घर घरोंदे,गाँव गली, चौबारे,

खेत किसान , मवेशी सारे,

जल मग्न हो जायें।

नदियाँ उफ़ान लेले

और नाव उसी मे डूबें।

भूखे प्यासे लोग,

पानी मे घिरकर,

पेड़ों पर रात गुज़ारें।

वर्षा !

तुम हर छोर पर जाना,

पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण,

सबकी प्यास बुझाना,

कहीं का रस्ता भूल न जाना,

सब पर प्यार लुटाना,

कहीं भी कुऐं ना सूखें,

नदियाँ  झीलें भरी रहें,

चटके नहीं दरार धरती पर,

कहीं न सूखी धूल  उड़े।

वर्षा !

तुम आगे बढ़ना,

भूल ना जाना मेरी विनती,

सबको प्यार बराबर देना।

वर्षा !

बरसो छम छम छम,छम।

बादल गरजो, बरसो थम थम।

प्यास बुझाओ धरती की तुम।

-बीनू भटनागर

 

 

 

 

हम बेटियों का घर ही धूप में क्यूँ …!
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सहसा उसे

नानी का कथन

याद आ गया

“तेरा ससुराल तो

धूप में ही बाँध देंगे…!”

जब उसने देखा

दूर रेगिस्तान में

एक अकेला घर

जिस पर ना कोई साया

ना ही किसी

दरख्त की शीतल छाया ,

एक छोटी सी

आस की बदली को तरसता

वह घर …….!

और उसमे खड़ी एक औरत …

तो क्या इसकी नानी भी

यही कहती थी…?

पर नानी मेरा घर ही

धूप में क्यूँ ,भाई का

क्यूँ नहीं ….!

शरारत तो वो भी करता है …

इस निरुत्तर प्रश्न का

जवाब तो उसने

समय से पा लिया

पर आज फिर

नानी से यही प्रश्न करने को

मन हो आयाहम बेटियों का घर ही धूप में क्यूँ …!

 

उपासना सियाग ( अबोहर ,पंजाब)

 

 

 

 

औरत को  गढ़ना पड़ता है …
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औरतें  होती है

नदिया सी

तरल पदार्थ की तरह

जन्म से ही

हर सांचे में रम

जाती है …

और पुरुष होते है

पत्थर से

ठोस पदार्थ की तरह ,

औरत को  गढ़ना पड़ता है

 

छेनी- हथौड़ा ले कर

इनको

अपने सांचे के अनुरूप …

एक अनगढ़ को

गढने  की नाकाम

कोशिशों में ,

ये औरतें सारी उम्र

लहुलुहान करती रहती

अपनी उँगलियाँ और

कभी अपनी आत्मा भी …
उपासना सियाग ( अबोहर ,पंजाब)

 

 

 

 

क्यों न करूँ अजन्मी बेटी का वध ?
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राजाजी

आप सही कहते हैं

वेसे भी राजा जो कहता है

सही ही होता है वह

बेटियों को मत मारो

गर्भ में

उन्हें लेने दो जन्म

हाँ मैं भी यही कहती रही हूँ

हाँ में हाँ नहीं मिला रही हूँ

मैं राजा की आज

बहुत पहले से ही मैं

यह कहती रही हूँ

कि मत मारो बेटियों को

गर्भ में

पर राजाजी

बतलाओ तो सही

क्यों न मार डालूँ ?

अजन्मी बेटियों को

गर्भ में ही मैं अपने

जो ख़ुद को मारने जैसा ही है

किसलिए उसको दूँ जन्म?

इसलिए ताकि

तेरी प्रजा

जब चाहे उससे करे बलात्कार!

और अगर किसी तरह

बच जाए चंगुल से बलात्कारियों के

शादी के पवित्र बंधन के नाम पर

कोई राक्षस उसे ठगे

सब्ज़बाग़ दिखलाकर शादी करे

दान-दहेज़ ले

मनमाफिक दहेज़ न मिलने पर

या उसके व्यक्तित्व के सामने बौना पड़ने पर

अपमानित करे उसे ही

उसे प्रताड़ित करे

जब जी में आए

निकाल घर से करे बाहर

उसे छोड़ दे

दर-दर की ठोकरें खाने के लिए

जीवन भर के लिए

या सीधे कर दे उसे

आग की लपटों के हवाले ही

या कर दे मजबूर उसे

चूमने के लिए फंदा फाँसी का

या चुनने के लिए बदनाम गलियाँ

राजा! क्यों जन्म दूँ

बेटियों को मैं?

खाने के लिए दर-दर की ठोकरें

कभी इधर तो कभी उधर

पेंडुलम की तरह

भटकने के लिए जीवन भर

या देखने के लिए उसे

रुकी हुई घड़ी के पेंडुलम की तरह

बदनसीब सुहाग की साड़ी के बने फंदे से

लटकी हुई शांत-स्थिर

क्यों जन्म दूँ जीने के लिए

अभिशप्त जीवन उसे

रोज़ मरने के लिए किस्तों में

या तब्दील होने के लिए

राख के ढेर में

क्यों जन्म दूँ उसे

राजा माना कि तेरा कानून

सक्षम है

लेकिन वह सक्षम है

राजाओं की कुर्सियों के पायों को

मजबूत से मजबूततर बनाने में

किसी बेटी की

फूल सी काया को

उसकी नाज़ुक अस्मत को बचाने में

उसे दिलाने को न्याय

बिलकुल सक्षम नहीं है

कानून तेरा

राजा फिर भी तू ये कहता है

बेटियों को मत मारो

गर्भ में

उन्हें लेने दो जन्म

राजा मुझे नहीं है यक़ीन

कि मेरी बेटी का

थामने के बाद हाथ

तू भी उसे नहीं छोड़ेगा

 

सीताराम गुप्ता

ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,

दिल्ली-110034

फोन नं. 09555622323

 

 

 

 

पानी तो बस पानी

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पानी तो बस पानी

पानी था  जो आँखों से गिरा

पानी वह भी जो उमड़ा-घुमड़ा

आकाश से बरसा नदिया  बना

और नाले नाले तक जा बहा…

नदिया घर या बादल

समरस था वो वीतराग

आग लगाई, प्यास बुझाई

सिंचाई, सफाई में  तत्पर

तारते तृप्त करते पानी की

कोई जिद नहीं, धर्म नहीं

परिस्थितियों की है !

-शैल अग्रवाल

 

 

 

 

लहरों के साथ

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किनारों का धर्म

सागर की मर्यादा

और लहरें  आतुर

लीलने  को किनारे

फेंकती  जातीं

वक्र दृष्टि से

अंतस के रहस्य

उलीच-उलीच

तपती रेत पर

दमित इच्छाएँ

और वर्षों का

ऋषिवत् संयम

डूबें ना कैसे सब संग संग

विवश सीप और मोती

किरकिरे धूलभरे

विषधर, दंशधर।

-शैल अग्रवाल

 

 

 

 

 

मोह नर्तन

 

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नाच नाच पग थक गए

गतिवधियों की ताल पर

सुविधाओं का रंजीत कुमकुम

लगा रह गया भाल पर।

नाच नाच पग थक गए

निद्रित अभिलाषा के सपने सजा रहे

हो भ्रमित कलश भनतुई भांति

सुख की सरिता को

जबरन ही कर अपने वश

पारद की बुँदे क्यों ठहरे

व्यथित समय के गाल पर ।

नाच नाच पग थक गए

पत्थर पत्थर ठोकर ठोकर

गिरि मटकियाँ चूर हो गई

रहरह सरकती चाकी चल गई

गीली आँख बादल की हो गई

अंधे हो जुगनू घूम आए

उजियारे की मशाल पर ।

 

नाच नाच पग थक गए

स्मृतियों को ज्यूं पंख लग गए

पल मे परबत पर उड गई

आज की जो परछाई देखि

कल के अँधियारों मे मुड़ गई

सदियों के चंचल पग फिसले

अज्ञात काल शैवाल पर ।

नाच नाच पग थक गए ।

-सरोज व्यास

 

 

धर्म की जीत

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सौ कौरव

पाँच पांडव

अधर्म बडा

धर्म छोटा।

मन न छोटा कर

भूजबल पर भरोसा रख

किसी को छोटा न मानो

आखिर

कौरव पर पांडव

अधर्म पर धर्म की

जीत हुई

जीत होती रहेगी।

भ्रष्ट नेता और

देश की नादान जनता

यहाँ अधर्म छोटा

यहाँ धर्म बडा

पर यह कलियुग है

यहाँ अधर्म पर धर्म की

जीत नहीं हो रही है

अब अधर्म का संहार करने

कोई कृष्ण भी नहीं अवतारेगा

जनता ही कृष्ण का रुप

धारण करके

अधर्म का संहार करेगी॥

डाँ. सुनील कुमार परीट

वरिष्ठ हिन्दी अध्यापक

सरकारी उच्च माध्यमिक विद्यालय

लक्कुंडी – 591102बैलहोंगल

जि- बेलगांव  (कर्नाटक)

-08867417505, 09480006858

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