आज की सुविधा-परस्त संस्कृति पूर्णतः परिणाम-उन्मुख होती जान पड़ती है। लगता है जैसे ध्येय ही धर्म बनता जा रहा है। इसमें कोई बुराई भी नहीं, यदि हम याद रख पाएं कि नियमित संसाधनों वाली यह धरती सहभोग्या है और हम सभ्य कहलाए क्योंकि हमने दूसरों को कुचल-निगल कर रहने की बजाय साथ रहना और बांटना सीखा। सहयोग करना सीखा। पर अब लगता है एकबार फिरसे उल्टी दौड़ शुरु हो चुकी है। सहिष्णुता खतम होती जा रही है । हर आदमी या संप्रदाय चाहता है कि उसका ही धर्म सर्वोपरि हो और दुनिया उसके ही धर्म को सर्वश्रेष्ठ माने। इसके लिए न तो वह दूसरों के इष्ट को विस्थापित करने में हिचकिचाता है और ना ही पूरे के पूरे समुदाय को मिटाने में। संवेदनशीलता तो इस हद तक कुंठित हो चुकी है कि हाल ही में दिल्ली के एक चिड़ियाघर में जहां दर्शकों की भीड़ थी, चीते की मांद में जब एक 20 वर्षीय अति उत्साही युवक (अपनी वैवकूफी से ही सही) गिर गया तो उसकी सहायता किसी ने नहीं की, हाँ विडियो अवश्य खींच लिए गए।
-क्या है मानव का धर्म या अधर्म ? क्या इसका काम समाज को सुधारना और मानव और सृष्टि को उत्कृष्ट व सहज करना है या फिर इसका उद्देश्य मात्र आधिपत्य और मनमानी है और इसके नाम पर चाहे जितने अन्याय और तोड़फोड़ किए जा सकते हैं, पर इसके नाम पर कबतक कितनी बलि की अनुमति होनी चाहिए ? समाज इसका कारक और धारक होना चाहिए या फिर मानव खुद ? क्या खयाल या आदर्श था जिसपर धर्म की नींव पड़ी होगी?कैसे इस धर्म-अधर्म को निर्धारित करें …कौन लिखता है ये नियम -व्यक्ति या समाज और कौन किसका सम्बल है? क्या खयाल या आदर्श जिन्हें धर्म मानकर व्यक्ति अपना जीवन न्योछावर कर देता है , उसी को नहीं निगल जाते अक्सर? और तब क्या जीत या ध्येय ही अन्त मैं एकमात्र धर्म नहीं बन जाते ? यदि ऐसा है तो फिर मानवता- दया धर्म और सहिष्णुता आदि की क्या जगह और उपयोगिता रह जाती है हमारे जीवन में ?
…अनेक सवाल हैं जो अक्सर विचलित करते हैं और आज के समाज में लोहार के हथौड़े की गूंज की तरह इन प्रश्नों की चोट दिन-प्रतिदिन और और तीव्र व असह्य ही होती जा रही है। इतनी तीव्र और विष्फोटक कि मानवीय गुण जैसे दया, क्षमा, सहिष्णुता ही नहीं, पूरी मानवता का भविष्य ही खतरे में दिखाई देने लगा है। स्थिति और भ्रामक हो जाती है जब किसी एक परिस्थिति में किया कर्म, धर्म तथा दूसरी परिस्थिति में वही कर्म अधर्म बन जाता है। आज इन्सान ही इन्सान का अपहरण , बलात्कार और खून कुछ भी करने में नहीं हिचकिचाता यदि इससे उसे सुख मिलता है, ध्येय प्राप्ति होती है। जीव हत्या अधर्म है, सभी जानते हैं पर लड़ाइयों में सैकड़ों को मारने वालों को बहादुर और हीरो कहा जाता है, विशेषतः तब जबकि दुश्मन को जानते तक नहीं, उसने व्यक्तिगत रूप से हमारे साथ कोई गलत काम नहीं किया। कोई दुश्मनी नहीं। फिर एक का अधर्म दूसरे का धर्म क्यों और कैसे?
तो क्या धर्म परिस्थिति जन्य है या फिर वैयक्तिक निर्णय व संयम और व्यवहार? क्या होनी चाहिए अब इस नए युग में धर्म की परिभाषा..ताकि रुक सके यह फिसलन और विनाश? वाकई में क्या है यह धर्म-अधर्म -और कैसे निर्धारित किया जाना चाहिए एक नए सिरे से इसे? क्या वक्त नहीं आ गया जब हम लड़ाइयों और दुखों को मिटाने के लिए मानवता को ही सर्वोपरि धर्म मान लें, ताकि अपने ही नहीं, दूसरे के सुख दुख में भी हंसना रोना सीख सकें!
हो सकता है आप सहमत न हों फिर भी आपके साथ बांटना चाहूंगी हाल ही में लेखनी के एक युवा पाठक के साथ हुई अपनी एक बातचीत को-
‘ जिसे हमारी आत्मा सहर्ष स्वीकार करे वह धर्म और जिसे धिक्कार दे वह अधर्म। इसे हमारी आत्मा निर्धारित करती है।‘
‘आत्मा क्या कभी कभी बाह्य दवाब से अंधी बहरी भी हो जाती है जैसा कि आज कुछ धर्म विशेष के लोगों में नजर आ रहा है या फिर निष्पक्ष और निश्चल है?’
‘ शायद कुछ लोगों की आत्मा पर कलयुग हावी है।‘
‘ हम हर बात कलयुग पर तो नहीं थोप सकते?‘
‘ लेकिन धर्म की जीत अटल है।‘
‘हाँ पर सिर्फ सब खतम होने के बाद ही क्यों ?’
‘ ये सही कहा आपने। ऐसा नहीं है।‘
‘ इतिहास तो यही बताता है… ‘
‘ सत्य को मानते ही हैं, सब खोने के बाद।‘
‘ जी। यही तो मेरा सवाल है तो क्या सत्य कमजोर है?’
‘ईसा मसीह की जब तक सांस चली पत्थर मिले लेकिन आज ‘ गौड ’ हैं।’
‘जी, और राम को बनवास व गांधी को गोली।’
‘गांधी को गोली मिली उनके कर्मों की और लाल बहादुर शास्त्री जी को मौत मिली तो अधर्म के विरोध की।’
…
बहस आज भी लम्बी और कभी खतम होने वाली नहीं, क्योंकि हमारे अपने-अपने, निजी अनुभव, पूर्वाग्रह और समुदाय हैं , जिनमें हम मनसा-वाचा-कर्मणा आकंठ डूबे हुए हैं, पर एक बात तो माननी ही पड़ेगी, अपनी-अपनी तरह से जो भी, जहाँ भी, चाहे जिस देश और संस्कृति में अधर्म के खिलाफ लड़ा, हश्र एक ही रहा। जीत या मान्यता जीते-जी तो नहीं ही मिली उन्हें। फहरिश्त बहुत लम्बी है। क्योंकि कहीं न कहीं मानव धर्म का एक और व्यवहारिक पहलू भी है, जहाँ ताकत ही धर्म है। धर्म की भी तो अलग राजनीति रही है। इरादा प्रचार और प्रसार या आधिपत्य ही रहा है हमेशा अधिकांशतः का और हथियार लालच, या फिर भय और विभ्रम। इतिहास साक्षी है। शायद इसीलिए धर्म अधर्म का यह मसला आज भी वैसे ही उलझा और अनिर्णित ही है। एकबार फिर अंधे युग में रौशनी को नमन। रौशनी की शुभकामनाएँ।
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