कहानी समकालीनःध्रुवताराः शैल अग्रवाल

ध्रुवतारा
 राघवन् गाँव के हर आदमी से कतराता है; अप्पा, अन्ना से भी। अप्पा की सोच अब उन्ही की तरह बूढ़ी और बेकार हो चली थी। जब डाँटते-डाँटते थक जाते तो वही पुराना दार्शनिक फलसफा चालू कर देते। भला अब इन्हे कौन समझाए समझाये कि कहानी के राजकुमार के पर जल गए थे क्योंकि वह सिर्फ पँखों के सहारे उड़कर सूरज छूने गया था। आजकल तो जहाज और अँतरिक्ष-यान का युग है। कुछ कर गुजरने का युग है, जलने, झुलसने का तो सवाल ही नहीं उठता। अक्सर ही वह सोचता और सोचता रहजाता –आखिर इस धरती और आकाश की बन्द डिबिया के भीतर ही क्यों, बाहर भी क्यों नहीं ? वहाँ भी तो जरूर कुछ और ज्यादा सुखद और रोमाँचक हो सकता है ? घर से बाहर निकलता तो उसे लगता कि उसी एक छोटी-सी डिबिया से निकल कर फिर एक बड़े डिब्बे में बन्द हो गया । फिर वही सब  जाना-पहचाना चारो तरफ। वही अप्पा-अन्ना। वही अप्पा की पुरानी लकड़ियों की टाल। वही अन्ना की आटे-दाल की काँयकाँय और वही पुराने-जाने-पहचाने, पीले-दाँत वाले किशन और माधवन्। उसका मन हर पल एक नयी दुनिया में जाने को तरसता। दूर–आकाश के ऊपर और उससे भी परे। वहाँ जहाँ चिकनी ग्लौसी मैगजीनों सी अमीरों की दुनिया है। एक साफ-सुथरी और चमकदार दुनिया है। ऐ·श्वर्य रॉय सी सँजी-सँवरी, सुन्दर वह दुनिया आखिर उसकी भी क्यों नहीं ? राघवन् बाहर आते ही रौशनी से बचने के लिए आँखों पर धूप का काला चश्मा चढ़ा लेता। अब ठीक है, कम-से-कम जैसा चाहो वैसा तो दिखता है। ऐसी कड़ी धूप से क्या फायदा कि आँखें ही चुँधिया जाएँ ? कभी-कभी तो घर के अँदर भी चश्मा उतारना भूल जाता और अप्पा देखते ही बरसने लगते, ” क्यों चमगादड़ बना घूमता है हरदम ? आखिर इन आँखों को कभी तो ताजी हवा लगने दिया कर।” यह असीम और दुर्लभ को छूने की, मनमानी करने की ललक, अब राघवन् को दिन-रात परेशान करती। अन्ना ज्यादा परेशान हो जातीं तो अप्पा को समझाने बैठ जातीं, ” इतनी फिकर मत किया करो तुम राघवन् की। चढ़ती उमर में सबके साथ ऐसा ही होता है। बड़ा होगा तो खुद ही समझ जाएगा–सम्भाल लेगा खुद को भी, और तुम्हारे घर-बार को भी। जरा काम-धँधे में लगने दो, सब ठीक हो जाएगा। तुम कहो तो शादी कर दें, इसकी। बहू खुद ही सँभाल लेगी सब कुछ। याद नहीं तुम्हें, तुम भी तो पहले ऐसे ही थे–बागड़-बिल्ले से। यार दोस्तों से ही फुरसत नहीं मिलती थी तुम्हें भी तो। ” ” यही तो परेशानी है, बावली। तेरे बेटे का तो कोई यार-दोस्त ही नहीं। ” सर खुजाते अप्पा, हमेशा की तरह गहरी ठँडी साँस लेकर चुप हो जाते। राघवन् की घुटन और बेचैनी उम्र के साथ और भी बढ़ती ही जा रही थी। अपनी बेचैन सोच के कारण वह कहीं भी तो नहीं ठहर पा रहा था। शादी हुई। मुँबई भी रहा–पर बस चार-पाँच साल ही। खुदको एक व्यवस्था–एक परँपरा– एक साँचे में नहीं ढाल पा रहा था वह। -ढाँचा- तो मानो शब्द से ही नफरत थी उसे। पर कैसे बना होगा वह भी बिना किसी साँचे-ढाँचे के ? भगवान कोई बस एक राघवन् तो बनाता नहीं ? मास प्रोडक्शन में लगा रहता है हर दम। जाने कितनी तरह के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु बनाता है? काफी खुरापाती जीव लगता है यह भगवान भी। –सोचते-सोचते राघवन का सूनापन तक मुस्कुरा उठता। आँवे से लुढ़के, अधपके खिलौने की तरह अधूरा ही तो था वह। बिना आँख-कान का, खिंचा-खिंचा, गुमसुम और अटपटा-सा। एक आधा-अधूरा अँतस लिए हुए। बाप की लकड़ियों की टाल पर बैठता तो गाहकों से पैसे लेने भूल जाता। मा के कहने पर मछलियाँ पकड़ने जाता तो दिन भर समुन्दर की लहरें गिन कर, रातको खाली हाथ ही वापस लौट आता—सूखे जाल को कँधे पर डाले, रास्ते से समेटे जँगली फूलों को सूँघता-सहलाता। राका, पत्नी उसे देखती और परेशान हो जाती। वक्त-बेवक्त समझाने की कोशिश भी करती- ” यूँ अपने आप में हमेशा अधूरे क्यों रहते हो राघवन् ? जरा ठहर कर, सँपूर्ण होकर देखो। अपने मुरलीधर का बाप बनकर देखो। यह जीवन, ये सारे रहस्य जिनके पीछे तुम इस तरह भटकते रहते हो, खुद ही समझ में आ जाएँगे। ” पर जीवन तो रस्सी के बल-सा राघवन् के लिए और भी उलझता ही चला गया। अक्सर वह थकी-फटी आँखों से आकाश में उड़ते पक्षी देखता और खुद को धिक्कारता, जब यह इतने छोटे और असमर्थ होकर भी मनचाही उड़ान ले सकते हैं, क्षितिज छूकर आ सकते हैं तो वह क्यों नहीं ? आखिर ये भी तो अपने पेट लायक खाना जुटा ही लेते हैं। एक घोंसला बना ही लेते हें। धिक्कार है इस छह फुटे जवाँ मर्द को। इस ह्मष्ट-पुष्ट शरीर और इन हाथ-पैरों को। गाँव की सीमा तक लाँघने का साधन नहीं जुटा पाते यह तो-! पर जाने क्यों मन के इस दुस्साही कोने पर राघवन् को वि·श्वास हो चला था। जान गया था वह कि इस गाँव में– गाँव की इस धरती में कितनी भी घुटन क्यों न हो, पर वह यहाँ सिर्फ अपनी मर्जी से ही है, किसी मजबूरी में नहीं और एक दिन वह भी इन्ही आजाद पक्षियों-सा आकाश में जरूर ही उड़ेगा– अनन्त छूकर आएगा। अब तो राका भी समझ गई थी कि वह रोज अपने पति से नहीं, एक ऊँची ईंट की जड़ दीवार से बातें करती है। जान गई थी कि इस छोटे से बेकुल गांव में, इस घर में, उसके पति का मन बिल्कुल नहीं लगता। वैसे बेकुल आज भी उत्तरी केरला के समुन्द्र तट पर बसा एक बेहद सुन्दर-सा गाँव है और इन साफ-सुथरे मन लुभाते तटों की खबर अब तो विदेशियों को भी लग चुकी है। तभी तो रोज ही जहाज भर-भरकर आजाते हैं — गिटपिट-गिटपिट करते हुए। ध्यान देकर सुने तो राघवन भी उनकी बातें समझ लेता है। वैसे मतलब तो वह चेहरा पढ़कर ही निकाल सकता है। आखिर बारहवीं क्लास तक पढ़ा है और यही नहीं हमेशा स्कूल में अव्वल से अव्वल नम्बर भी लाया है। अकल की तो कोई कमी नहीं है उसके पास। मास्टरजी कहते थे अँग्रेजों जैसी अँग्रेजी बोलता है वह। पिछले जनम में जरूर अँग्रेज ही रहा होगा शायद। इनके साथ रहे तो शायद थोड़ी बहुत फ्रेंच और जर्मन भी आ जाए उसे ? वो तो अप्पा ने स्कूल छुड़वाकर घर में बिठा लिया, वरना जरूर लँडन या पैरिस जाकर ही अपना घर बनाता। आखिर यह फिरँगी भी तो आए थे — पूरे-के-पूरे वतन को घर बना लिया। सुनते हैं इस बेकुल के किले को भी ईस्ट-इँडिया कम्पनी वालों ने मिनटों में ही हथिया लिया था और अपना वह राजा कुछ भी नहीं कर पाया था, उलटा तोहफा लेकर ही पहुँचा होगा उन साहब लोगों के पास। मुबारकें दी होगी उन्हें, ‘जी बड़ी दया की आपने जो हमें अपना गुलाम बना लिया, वरना हम गरीब तो खाने-पीने लायक भी नहीं थे। ’ राघवन् सोचता और सुलगता रह जाता। जब वह मरियल, बेवकूफ वीरप्पा लँडन पहुँचकर घर बना सकता है तो वह क्यों नही ? वीरप्पा तो आज भी सिवाय अपने नाम के, कुछ नहीं लिख सकता। वह तो हिन्दी, अँग्रेजी सब फर्राटे से जानता है। मलयालम के साथ फ्राँसीसी में भी नाम लिख सकता है। उसकी बोंज्यो मौंशियर सुनकर ही तो उस दिन वह इटैलियन इतना चहका था –” बौंज्यो मौंशियर—मी नो फ्राँसिसी, मी इटैलियानो। ” कह कर हाथ मिलाया था उससे। और उसके बाद तो वह हर साल ही जुलाई में आ जाता था वहाँ पर, बात-बातपर ग्रात्सिया-ग्रात्सिया करता हुआ। और फिर आते ही, उसे ही ढूँढने लगता था मानो बेकुल के समुन्द्र की ताजी हवा के साथ राघवन् की भी बेहद जरूरत थी उसके पीले सड़े फेफड़ों को। अप्पा की नाव भी तो अब मछली पकड़ने में कम, इन टूरिस्टों को घुमाने के ही ज्यादा काम आती थी। गाँव के और लड़कों की तरह उसे भी समुन्दर की पूरी जानकारी थी। आखिर लहरों का सीना चीरकर तैरना सीखा था उसने– इन्ही तूफानों से जूझता बड़ा हुआ था वह भी। तभी तो उस दिन, उस डर-से डुबकी मारते फिरँगी को बीच समुन्दर से खींचकर वापस ला पाया था वह, वरना तैरता-तैरता बह जाता स्साला, उसी दिन अपनी रँग-बिरँगी इटली में वापस। हम हिन्दुस्तानियों की तरह हमारे समुन्दर की भी तो थाह नहीं इन फिरँगियों को। अगले दिन बस हजार लीरा देकर टरका रहा था राघवन् को –मानो बस इतनी-सी ही कीमत हो इसकी दो कौड़ी की जान की। पर राघवन् ने भी तो आखिर बेशरम होकर सबकुछ उगल ही डाला था कि उसे रुपयों की नहीं, बाहर की–एक नयी दुनिया की जरूरत है। जहाँ से वह रोज ही क्या, हर साल आता है वह। मौजमस्ती करता है। जेब भरकर बिना गिने पैसे खर्च करता है। उसके जैसे बड़े साहब के लिए कोई बड़ी बात नहीं है यह सब। कोई मुश्किल भी नहीं। भीख नहीं माँग रहा वह। बस जरा-सी मदद चाहिए। एक पासपोर्ट और बीसा चाहिए उसे। पेट तो वह खुद भी भर सकता है अपना—भर ही लेगा। गाड़ी चलानी आती है। खाना बनाना आता है। और जो कहो, वही काम सीखने की क्षमता है उसमें। कहीं भी नौकरी कर लेगा, कुछ भी कर लेगा शुरु में तो वह। हाँ एक दिन जब उसके पास थोड़े-से पैसे हो जाएँगे तो शायद गाँव के वीरप्पा की तरह एक होटल खोलेगा -‘ राघवन्स डिलाइट्स ‘, यहाँ नहीं, वस वहीं पैरिस में या फिर लँडन जाकर। और तब पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदते, खुद में डूबे राघवन से एँटोनी ने बस इतना ही कहा था-” ठीक है-ठीक है— हम कोशिश करेगा कि तुमको इँगलैंड या फ्राँस में सैटल करा सके। पर इतना आसान मत समझो। कमसे कम पचास हजार रुपए का बन्दोबस्त तुम्हें भी करना होगा। हम तुम्हें फ्लोरेंस जाकर चिठ्ठी लिख पाएगा कि क्या सँभव है, क्या नहीं।” मिनटों में ही, बाहर जाने के उत्साह में राघवन ने अप्पा की आँख बचाकर, शादी में मिली घड़ी, अँगूठी, चेन सब बेच डालीं—वह भी उसी अनजान एँटनी को ही। चमकती लालची हरी-नीली आँखों से घूरते हुए उसने पूछा था, “–क्या असली है– आई मीन ट्वेंटी फोर कैरेट गोल्ड ?” और फिर खुद ही अपने बेतुके सवाल पर हँस भी पड़ा था वह, मानो खुदसे ही पूछ रहा हो इस गुदड़ी में लाल कैसे? भिखारी के घर में इतने मँहगे जेवरात् कहाँ से ? राघवन सब समझता था पर चुपचाप बिना कुछ कहे सारा अपमान सह लिया उसने। चालीस हजार रुपए कसकर पकड़े और भागता-भागता उस विÏल्डग से बाहर निकल आया, मानो उस विदेशी ने घडी अँगूठी ही नहीं, उस तक को खरीद लिया था–सब कपड़े, पैंट तक उतार ली थी उसकी। वैसे भी इतने सारे रुपए राघवन ने एकसाथ कभी नहीं देखे थे। दौड़ते हाँफते राघवन् ने बारबार खुदको धिक्कारा था, ‘ क्यों नहीं खुश रह पाता वह, जो है उसी में—क्यों भागता फिरता है बेमतलब और बेकार—आवारा गली के इन बच्चों की तरह। दिनभर जैसे ये आपस में ही नहीं, खुद से भी जूझते रहते हैं–क्यों लड़ता रहता है वह भी खुद से? अगर उसकी किस्मत में यूँ योरोप में ही रहना लिखा था, तो क्या वह भी इसकी तरह वहीं पैदा नहीं होता ? पर किस्मत बदली भी तो जा सकती है ‘ और सामने कूड़े के ढेर पर चैन से सो रहे पिल्ले को कसकर एक लात जमा दी राघवन् ने। ” देखना यहीं पड़ा-पड़ा सड़ जाएगा एक दिन तू, अब भी यहाँ से हिला-डुला नहीं तो। ” और अधमरा पिल्ला हलकी सी कूँ-कूँ करके फिरसे सो गया– बिना आँख खोले ही, बिना रा़घवन् की तरफ देखे ही, बिना उसका फलसफा और शिकायत सुने बगैर ही। राघवन अँदर ही अँदर भभक उठा ‘ मरने दो स्सालों को– आदमियों की कौन कहे इस देश  के तो जानवर तक आलसी हो चुके हैं। सबको बस आराम चाहिए। कुछ नहीं हो सकता इनका, इनके देश का। बड़ा देवताओं का देश है न यह— बस देवताओं की तरह ही आराम से अपने पुराने मँदिर में धरे रहो, बिना जरा भी हिले-डुले–बाहर की दुनिया देखे बगैर। ‘ गुस्से में बड़ी सी पिच्च् अपने ही पैर पर मारकर राघवन् आगे बढ़ गया। वक्त नहीं था उसके पास कि ज्यादा रुके और  ज्यादा सोचे। अभी दस हजार रुपए का और इँतजाम करना है और जल्दी ही करना है। इस शहर में अब और ज्यादा नहीं ठहर सकता वह। अचानक राघवन का मन बाप की टाल में, उसकी लकड़ियों में रमने लगा। अब तो वह किसीसे कुछ भी नहीं पूछता था, लकड़ियाँ क्यों और कितनी चाहिएँ, घर में चूल्हा जलाने के लिए या मुर्दा फूँकने के लिए–कोई फरक नहीं पड़ता था उसे।-किसी में उसकी रुचि नहीं थी। बस एक ही लगन थी उसकी, बिकती रहनी चाहिएँ। गाहकों से कहता–ज्यादा से ज्यादा खरीदो, सस्ती पड़ेंगी, बची तो अगली बार काम आ जाएँगी। दुबारा लेने नहीं आना पड़ेगा। अपनी धुन में उस दिन तो उस बूढ़े बाप के आँसू तक नहीं दिखाई दिए थे उसे जो अपने जवान बेटे की मौत पर लकड़ियाँ खरीदने आया था। और तब अप्पा ने अलग ले जाकर डाँटा और टोका था उसकी उस अँधी एकाग्रता को। ‘ धन्धा ऐसे तो नहीं किया जाता, राघवन्। कुछ उसूल होते हैं इसके भी। वक्त की नाजुकता देख-समझकर बात किया करो।’ वही तो देख रहा था राघवन्। यह वक्त की नाजुकता ही तो थी जिसके चलते वह इन सूखी लकड़ियों के बीच बैठा सूख रहा था। एक-एक रुपए को छह-छह बार गिन रहा था– अपनी ही आग में सुलगता और जलता-सा। बारह महीने कब निकल गए राघवन को पता ही नहीं चला। पर दस की जगह अब बीस हजार रुपए थे उसके पास। अन्ना और राका तो तिरुपति जाकर प्रसाद तक चढा आए थे। बेटे को होश जो आ गया था। काम-धँधे में मन लगने लगा था अब उसका। राघवन् का मन धरती-आकाश के बीच झूलता लम्बी पेंगे ले रहा था। पँख फुलाई चिड़िया सा लम्बी उड़ान भरने को तैयार था। उस दिन टोनी साहब को देखते ही लपक कर सामान उठा लिया उसने और नाव में घुमाने के पैसे भी नहीं लिए। वहीं होटल के कमरे में पहला मौका मिलते ही दस हजार रुपए चुपचाप उसकी हथेली पर रख दिए। कबूतर-सी आतुर आँखों से उसे देखता वह बस बचैनी से हिलता ही रह गया। “यू कलर्ड बास्टर्ड।  तुम लोगों को हर काम का ही जल्दी होता है। शादी करेगा तो बहुत जल्दी। बच्चे पैदा करेगा तो जल्दी। मरेगा तो वह भी बहुत ही जल्दी। पेसेंस माई बॉय पेसेंस । वैसे यह वर्ड सुना है क्या कभी तुमने ?” राघवन् अब काबू के बाहर था–” क्यों नहीं साहब खूब सुना है –बारबार ही सुना है। हमारे पास बस एक यही चीज तो इफरात में होती है। जहाँ तक बात रही कलर्ड बास्टर्ड की तो वह तो आप लोग हमसे भी ज्यादा हैं। हमारा बस एक बाप होता है जिसका हमारी माँओं को ही नहीं सबको पता होता है।  आप लोगों की तरह हमारी माएँ –” मा शब्द के साथ चाहकर भी वह कुछ उलटा सीधा नहीं जोड़ पाया वह और गुस्से में भी वाक्य अधूरा ही छोड़कर आगे बढ़ गया दूसरे मुद्दे की ओर– ” देखा है मैने आपलोगों को भी, और आपके इस रँग-बिरँगे चरित्र को भी – रोज देखा है तुम्हें गिरगिट की तरह पल-पल रँग बदलते और साँप की तरह केंचुल पलटते। पैदा होते हो तो तुम साले लाल-गुलाबी। गुस्से में नीले-पीले –दर्द-चोट में हरे बैंगनी। डर के मारे मरे जैसे नीले-पीले। सड़े चूहे से, पीले–चितकबरे तुम, हमें कलर्ड कैसे कहते हो? हम तो काले हैं बस काले। रँग नहीं बदलते तुम्हारी तरह। सुना नहीं तुमने ‘ सूरदास प्रभु कारी कमरिया चढ़े न दूजो रँग। ‘ब्लैक इज ओनली ब्लैक। इट कैन नॉट बी कलर्ड–डू यू अँडरस्टैंड मी।” एँटनी समझ नहीं पाया कि गुस्से और आवेश में हाँफता राघवन् क्या कुछ कह गया पर इतना जरूर जान गया था कि सामने खड़ा यह हिन्दुस्तानी खतरनाक था। इसके अँदर की धधकती आग में आज जो वह हाथ-पैर सेंक रहा है–कल जल भी सकता है। आम हिन्दुस्तानियों की तरह ठँडा बुझा नहीं है यह। इसके साथ खेला गया हर खेल पेचीदा और खतरनाक मोड़ ले सकता है। थोड़ा और सुयोजित होना होगा उसे–शतरंज के खेल की तरह अगले दस हमलों से बचने के लिए सावधान। ” ठीक है– ठीक है। सुबह-सुबह जल्दी आ जाना। क्या करना है, समझा दिया जाएगा। ” टेबल पर पड़े रुपए गिन सँवारकर जेब में रख लिए फिरँगी ने। खिड़की के पास खड़ा-खड़ा बिना मुड़े ही बोला ” बादल घिर आए हैं। आज बोटिंग पर जल्दी चलेंगे। चार बजे आ जाना– समोसे और फिश-पकौड़ों के साथ। अच्छा कुक है तुम्हारा वाइफ। ” ‘ तेरे बाप के नौकर हैं न हम सब।’ राघवन का मन किया डुबो दे स्साले को। पर नहीं, अभी नहीं। अभी इसी के सहारे यूरोप पहुँचना है। राघवन ने औपचारिक मुस्कुराहट के पीछे सारा गुस्सा सँभाल कर समेट लिया और चुपचाप जुड़े हाथों सँग बाहर निकल आया। दूर छत पर बैठी वह कबूतरी अब भी जाने किसका इँतजार कर रही थी–राघवन् जान नहीं पाया कि यूँ सुबह से एक अँधी आस में अटकी कमबख्त जिन्दा भी थी या नहीं। पर उसके सपने और सच में तो अब बस मात्र एक रात की ही दूरी रह गई थी और वह इस दूरी को और बढ़ाना नहीं चाहता था। राघवन् समझदार हो गया था –जान गया था कि सपनों के रँगीन कालीन चाहे जितनी हिफाजत और सँलग्नता से बुने जाएँ, आहिस्ता से बिछाए जाएँ, उन्हें पैरों के नीचे आना ही पड़ता है और उनपर धब्बे भी पड़ते ही हैं। फिर कच्चे धब्बे तो छूट जाते हैं पर कइयों को सहने की आदत डालनी पड़ती है, आँखों से भी और मन से भी। क्योंकि ताने-बानों में रिसे ये धब्बे भी मन के घावों जैसे ही तो होते हैं। बगावत नहीं सँयम की रस्सी से बाँध लिया राघवन् ने खुद को अपने सामान की तरह ही। तैयारी का नहीं यह तो चलने का समय था। अन्ना ने भीगी-आँखें छुपाते हुए बाँह पर बालाजी की ताबीज बाँधी। अप्पा ने गले की तड़कती नस में फँसी आवाज को खँखार कर साफ करते हुए हर तरह के खतरे से सावधान रहने की हिदायत दी और चुपचाप गनपति को हथेली पर रखकर राका ने सुबह-सुबह उदास आँखों से दही-मझली खिलायी, जैसे वह हमेशा तूफानी रात में समुन्दर में मझुआरों के सँग जाते वक्त खिलाती थी। राघवन् जानता था इन औरतों के टोने-टोटकों में भी बहते आँसुओं-सी ही शक्ति होती है तभी तो एक खरोंच तक नहीं आई थी उसे कभी। फिर आज तो वह पुरानी नाव में नहीं, एक चमकते नए जहाज में जा रहा था, वह भी साहब बनकर। साहब के साथ। इस पगली को पर कौन समझाए-? सुबह टोनी साहब के सामान के साथ ही राघवन का भी सामान बुक हुआ, उन्ही के नाम और उन्ही की टिकट पर। राघवन् कृत्-कृत् था। कितना अपना समझता है , वरना कहाँ उसकी टूटी सँदूकची और दरी में लिपटा कनस्तर और कहाँ चमचमाचती सैम्सोनाइट की अटैची ? आखिर इतने खराब तो नहीं होते यह फिरँगी भी। शायद यही वजह थी कि हवाई अड्डे के कर्मचारियों के एक इशारे पर वह उनकी मदद के लिए दौड़ पड़ा। आखिर उसके बेकुल की तरह यह हवाई अड्डा भी तो छोटा-सा ही है। क्या पता काम-करने वालों की कमी पड़ गई हो ? लपक कर सारा सामान उठा लिया उसने। होल्डर में चढ़ कर फुर्ती से सरियाने लगा। पर इसके पहले कि वहाँ से वह उतर पाए, कैंची से नुकीले वे दरवाजे, पल भर में ही एक डरावने षडयँत्र-से बँद हो गए। आश्चर्य और डर से खुली आँखों से बस वह देखता ही रह गया। होश आने पर केकड़ों जैसे पँजों में जकड़ा पाया था उसने खुद को। डरा-सहमा राघवन् झटपटाता रहा, दरवाजे पीटता रहा और सब आवाजें, चीख-पुकार अनसुनी कर जहाज आकाश में उड़ चला। राघवन् भी आखिर आज उड़ ही रहा था पर एक आजाद पक्षी की तरह नहीं, कैद और लाचार होकर। पर उसकी सपने देखती आँखों ने अभी हिम्मत नहीं हारी थी- कोई बात नहीं कुछ ही घँटों की तो बात है ये भी कट ही जाएँगे। मशीन ही तो है आखिर। कहीं कुछ गलत बटन दब गया होगा, कोई खराबी आ गई होगी ? अंधेरा है , कुछ दिखाई नहीं देता तो सोया भी तो जा सकता है। जरूरी तो नहीं जगकर सब कुछ देखा ही जाए? अगले कुछ ही घँटों में वह लँडन या पैरिस में होगा। बस यही तो चाहा था उसने सारी जिन्दगी। इसी पल का तो इन्तजार किया था उसने। फिर अब फिकर किस बातकी ? पता नहीं राघवन का ठँड से ठिठुरता शरीर पहले हारा या पैरिस और लँडन के सपने देखती आँखें। थका-लस्त राघवन उन्ही अटैचियों के बीच लुढ़क गया। ठँडे-नीले पड़ते शरीर को अब तो चोट भी नहीं लग रही थी। सब कुछ शान्त और सुन्न हो चुका था। बस चारो तरफ के अँधेरे ने खुली और बन्द आँखों के सारे भेद मिटा दिए थे। और तब पहली बार राघवन ने अपनी बन्द आँखों से सब कुछ साफ-साफ देखा- कैसे उसने चलते समय कोने में सहमे खड़े अपने मुरलीधरन को गोद में भी नहीं उठाया था। पूछा तक नहीं था कि वहाँ से क्या-क्या भेजे– कौन-कौन से खिलौने लाए। सायरन बजाती गाड़ी या रँग-बिरँगी बत्तियों के सँग उड़ने वाला जहाज ? अचेत होते राघवन को अब इस भयावह अँधेरे में भी अन्ना और अप्पा के आँसू न सिर्फ साफ-साफ दिखाई ही दे रहे थे बल्कि उसके बेजान शरीर को थोड़ी बहुत गरमाहट भी दे रहे थे। आज तो राका की कोयले की अँगीठी का धुँआ तक उसे बुरा नहीं लग रहा था, आँखों में नहीं चुभरहा था। अँधेरे ने वह सब कर दिया जो सत्ताइस साल का उजाला नहीं कर पाया था। राघवन के तन और मन दोनों अब मष्तिष्क से अलग होकर बेकुल बापस दौड़ जाना चाहते थे, अपनी राका के पास, अप्पा-अन्ना के पास, उनके उसी पुराने मकाने में, लकड़ी की उसी गन्दी टाल पर। कुछ ही घँटों बाद वहाँ रोम के बर्फीले टारमैक पर एक और अवैध रूप से आए इन्सान का शव सबके लिए समस्या और उलझन बना पड़ा था। सामान निकलने वाले कर्मचारियों में हलचल थी। आखिर यह चढ़ा तो, चढ़ा कैसे– जरूर मौत ही खींच लाई होगी, वरना सबजीरो में मरने कौन पहुँचता है, आखिर सबको ही अपनी जान प्यारी होती है ? जेब में रखे जेवरात और रुपयों को सहलाते एँटनी ने मुँहपर रूमाल रख लिय। खुशी और नफरत सब ढक चुके थे। ” स्मार्ट बनता था बास्टर्ड–योरोप जाएगा—नकल करेगा उसकी। ” राघवन् को पहचानने से साफ इनकार कर चुका था वह। ” क्या-क्या नहीं करते ये थर्ड-वर्ड के थर्ड-क्लास लोग भी ? बेवकूफों को अपनी जान तककी परवाह नहीं। नेक्स्ट-टाइम कार्गो लोडिंग फैसिलिटी थोड़ी और टाइट करनी होगी आपलोगों को भी। पता नहीं कौन था यह बेवकूफ? कहाँसे आया –कब और कैसे घुसा बदनाम करने को हमें ? जाने किस-किससे मिला होगा यह क्रिमिनल? किस-किसको घूस दी होगी इसने ? ” चालाक एँटोनी हर बातसे मुकर गया और उसके मँहगे सूट को, हैसियत को देखकर किसी ने कुछ और पूछने की, जानने की जरूरत नहीं समझी। एयरपोर्ट औथोरिटी भी अब घबरा रही थी, ” कोई इन्टर नैशनल स्कैंडल न बन जाए। हटाओ जल्दी से इस लावारिश लाश को। किसी मैडिकल स्कूल में भेज दो। पढ़ने और रिसर्च के काम आएगी, परफेक्ट यन्ग स्केल्टन है। हमें भी घर जाकर आराम करना है आखिर। ” रोम में उस जहाज को उतरे पूरा साल हो चुका है पर केरला से दूर, दिल्ली की कहीं एक चमकीली बस्ती में बूढ़े अन्ना-अप्पा आजभी ब्रिटिश एम्बैसी के बाहर बैठे राघवन् का इँतजार कर रहे हैं। आराम शब्द का तो मानो मतलब तक याद नहीं उन्हें अब। चमचम काँच के शहर की धुँध और कोहरा सब कुछ अपने शरीर पर कम्बल की तरह ओढ़े-समेटे, ठँड से जमे-ढिढुरे वे वहीं बैठे रहते हैं, उसी एक जगह पर। यूँ तो वे भी जानते हैं कि सात-समँदर पार जाने वाले, साल भर के बाद मुश्किल से ही लौट पाते हैं, पर बेटे की कोई खोज-खबर तो आनी ही चाहिए थी!— ‘ शुभ-शुभ सोच मन–शुभ-शुभ। शिवहरी, शिवहरी।’ तरह-तरहकी आशँकाओं के बावजूद भी उनकी बूढ़ी आस अब और कुछ बुरा सोचना तक नहीं चाहती थी। आस और निराश की इस उधेड़बुन में उलझे वे दोनों समय से पहले ही बूढ़े और दयनीय लगने लगे थे। लोगों ने तो अब उनकी तरफ सिक्के तक फेंकने शुरु कर दिए हैं। उन्हें भी कोई एतराज नहीं। बेटे के मोह ने सुख-चैन, मान-सम्मान सब छीन लिया है उनका। पैसे-लत्ते, आनाज शक्कर— कनस्तरों में भरकर जो कुछ लाए थे, सब हवन और स्वाहा हो चुका है अब तक, राघवन का भटक-भटककर पता पूछने में। अब तो बस मुठ्ठी भर चने ही पेटके गढ्ढे की इस आग का सहारा हैं। सबकुछ खप जाता है, सब भस्म कर लेती है यह आग। कोई हारी-बीमारी या दुख भी नहीं लगता अब तो उन्हें,  जाने कहाँ से एक अजीब-सी जीवटता आ गई है उनके बूढे शरीर में। वैसे भी दिल्ली भरी पड़ी है उनके जैसे टूटे-बिखरे लोगों से, टूटी-बिखरी उम्मीदों से। लँदे-फँदे दो गरीब लावारिस और सही। बस वह एक एम्बैसीके दरवाजे पर तैनात गोरखा ही हर दिन उनकी सूनी आँख की आँच में जलता रह जाता है। पलकों पर जमे सूखे आँसुओं में अक्सर डूब तक जाता है वह तो। अपनी तरफ से भरसक समझाने की कोशिश की है उसने कई बार। कहा है, ” जाओ बाबा, लौट जाओ। अपने देश को जाओ। तिल-तिल क्यों जान देते हो यहाँ पर? जहाँ तुम बैठे हो, अब तो उस जमीन की घास तक सूख चुकी है इँतजार करते-करते। फिर तुम्हारी यह आस क्यों नहीं मरती ? क्यों चमगादड़-से उलटे लटके हो इस भ्रम में, क्यों तुम्हें भी बेटे के मोह में कुछ दिखाई नहीं देता? जिन्दा या मुर्दा हम जैसे गरीब भला कब लौट पाते हैं घर से बाहर निकलकर? और हमारी खबरों का आ पाना तो हम से भी ज्यादा दुर्लभ है। मत भटको, इन उँची इमारतों की लम्बी-काली परछाँइयों में। ये डरावने-साये तो सब कुछ ही निगल जाते हैं। कुछ पता नहीं चलता यहाँ पर। इन चमचमाती इमारतों में हम जैसों की कोई फाइल नहीं होती। ” पर अप्पा-अन्ना को तो राघवन् जाते-जाते कुछ और ही सिखा गया है–अपने सारे सपने दे गया है वह। अप्पा को भी राघवन् के रँगीन चश्मे की आदत पड़ चुकी है। खुद-बखुद जाने कहाँसे राहत ढूँढ ही लाते हैं। ” ना बेटा ऐसा नहीं कहते, हौसला रखो। भगवान के यहाँ देर है अँधेर नहीं। एक-न-एकदिन देखना, जरूर आएगा हमारा राघवन्। आखिर सब ही तो आते हैं लौटकर–तीतर बटेर, पँछी, चौपाहे, सभी अपने घर का रास्ता जानते हैं। देखना खूब बड़ा आदमी बनकर ही लौटेगा वह अपने घर। यह बात दूसरी है कि बदली में छुप जाए, पर ध्रुवतारा कभी डूबता तो नहीं। ” सूनी रात के सन्नाटे में तीनों को ही अपनी फसफसी आवाज हर दिन की तरह, आज भी अजनबी और अनजान ही लग रही थी। अँधेरी परछाइयों से अभ्यस्त, पास पड़ा बीमार पिल्ला तक पीठ घुमाकर सोना सीख चुका था, पर अप्पा-अन्ना नहीं। फिर एकबार खुली आँखें कोहनी से दबाकर बन्द कर लीं उन्होंने । ठँडे-पथरीले फुटपाथ पर आखिर अब नींद का इन्तजार तो करना ही होगा, जैसे साल भर से राघवन् का कर रहे हैं। सोए नही तो उठ कैसे पाएँगे, और उठे नहीं तो, भला एम्बैसी कैसे पहुँचेंगे ?   अप्पा ने घड़ी देखी-अभी तो बस रात के दो ही बजे हैं। एम्बैसी अब भी रोज सुबह साढ़े नौ बजे ही खुलती है । और हर रोज सुबह सात बजे से लाइन में खड़े अप्पा-अन्ना बस एक बात ही सोच पाते हैं, ” क्या पता कल का दिन ही वह दिन हो, जो राघवन् को या उसकी खोज-खबर ले ही आए!… ———————————————————————————————————————————————

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