कहानी समकालीनः सपना वही एकः शैल अग्रवाल

” तू तो मेरी नन्ही-सी राजकुमारी है… ”

” कौन सी, परियों वाली–” अपने रूई से फूले, गढ्ढे वाले गालों में उँगलियाँ घुमाते हुए चारु ने चहककर पूछा ?

” नहीं, असली वाली। परियों वाली में क्या रखा है बिट्टो ! जिन्दगी के सब सुख तो असली राजकुमारी ही लेती है।”

गुड़िया सी बेटी को गोदी में बिठाकर पापा बोले।

बिना जादू की छड़ी और परों के असली राजकुमारी क्या मजे ले पाती होगी चार साल की चारू के कुछ भी समझ में नहीं आ  पाया, फिर भी उसने चुपचाप पापा की बात मान ली क्योंकि वह जानती थी कि उसके पापा सबकुछ जानते हैं। कभी गलत हो ही नहीं सकते। सोमेन्द्र ने भी तो अपना तन-मन, जिन्दगी का हर पल, सब कुछ बस बेटी के ही नाम तो कर रखा था। वह उसे इतना समर्थ और समझदार देखना चाहते थे कि जिन्दगी में हार का मुँह तक न देखे–य़थासंभव धोखा न खाए कभी उनकी गुड़िया। इतना सुख देना चाहते थे कि कभी उसे लगे ही नहीं कि वह असली राजकुमारी नहीं — एक साधारण-सी लड़की है और एक साधारण-से आदमी के घर में पैदा हुई है।

पापा यह भी जानते थे कि सुख-सुविधाओं के बाद भी सफल जीवन के लिए योगियों जैसा सँयम भी कितना जरूरी है। निष्काम रहना जरूरी है। इसलिए नहीं, क्योंकि ऋषि-मुनी और योगी यही कहते और करते आए हैं, बल्कि इसलिए कि यदि दुखों से बचना है, तो यही और सिर्फ यही एक तरीका है, इस कठिन दुनिया में जिन्दा रहने का। छोड़ना और छूटना–बस यही तो दो इस जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई हैं। मानो कभी यह राज-पाठ किसी वजह से छूट ही जाए या फिर छोड़ना ही पड़ जाए, तो कम-से-कम दुख तो न पाए उनकी लाडली। आसानी से सब छोड़ पाए, बिल्कुल सीता मैया की तरह। वैसे भी यह सुख-दुख, आम- खास कुछ भी तो नहीं। बस मन के खेल हैं सब। जो आज आम है, कल खास भी तो हो सकता है। बात बस भरोसे और विश्वास की ही तो है। और यही एक विरासत–सच्चाई और आत्म-विश्वास की राज-गद्दी अपने बाद वह अपनी नन्ही के लिए छोड़ना चाहते थे।

असली राजकुमारी बनना कितना कठिन है, यह ठीक से पहली बार चारु को उस दिन समझ में आया , जब स्कूल से घर आते ही, पापा का प्यार नहीं वरन् जाँच-पड़ताल का सामना करना पड़ा था उसे। चारू को स्कूल शुरू किए बस अभी कुछ महीने ही बीते थे और आज पहली बार रोज की तरह पापा ने उससे स्कूल में क्या खाया– क्या पढ़ा—कौन-सा डाँस का नया स्टेप सीखा — कौन-सी तस्वीर बनाई यह सब कुछ नहीं पूछा था। बस बिना कुछ पूछे और कहे अदालत के कटघरे में ला खड़ा किया था उसे। जज की तरह लाल आँखों और कड़कती आवाज में वह बारबार पूछे जा रहे थे, ” सच-सच बतलाओ चारु, आज तुमने कितने पानी के बताशे खाए थे ? चार या छह ?”

चारू कुछ जबाव दे इसके पहले ही मा ने आकर उसे अपनी गोदी में छुपा लिया था। इतनी कड़ी-कड़कती आवाज, वह भी चारु के लिए, इस घर में किसी ने कभी नहीं सुनी थी। सच्ची बात तो यह है कि उसदिन तो मा भी डर गई थीं।

“—यह कैसा अटपटा सवाल है—चार खाए या छह– क्या फर्क पड़ता है ?”

मा सफाई में धीरे से बुदबुदार्इं।

” पड़ता है— मुझे पड़ता है। ” पता नहीं कैसे पापा ने सब सुन लिया था और अब वह आपे से बाहर थे।

” मैं जानता हूँ वह चाट वाला सरासर झूठ ही बोल रहा था। मेरी बेटी उधार के बताशे कभी नहीं खाएगी। सुसरा, आज बीच बाजार में खीसें निपोर रहा था-‘बाबूजी, अबतो अपनी बिटिया बड़ी हो रही है। आज पूरे छह बताशे खा लिए उसने।‘ छह-? तुम ही कहो, यह कैसे हो सकता है ? मैं तो इसे बस एक रुपया देता हूँ और एक रुपए में सिर्फ चार बताशे आते हैं। फिर इसने छह कैसे खा लिए ? मैने भी तुरँत उसके मुँह पर अठन्नी दे मारी और खबरदार किया कि आइँदा यदि पैसे चाहिएँ तो मुझसे माँगे, पर शेखी में भी चारू के खिलाफ कोई उलटी-सीधी बात न करे। मेरी बेटी है वह– भूखी रह लेगी पर उधार का नहीं खाएगी।”

छोटी होकर भी चारु पापा की बात समझ रही थी। पापा का डगमग आत्म-सम्मान और बेटी के चरित्र पर अटूट भरोसा- दोनों ही देख पा रही थी वह। यही भरोसा ही तो था जिसे वह कभी नहीं तोड़ पाई थी, बड़ी होकर भी नहीं। हजार तकलीफों के बाद भी नहीं…आकर्षण चाहे कितना भी सशक्त हो और कीमत कितनी भी बड़ी।

पापा उसे कितना प्यार करते थे या नहीं करते थे, यह वह कभी भी पूरी तरह से ठीक-ठीक नहीं जान पाई थी पर पापा की जरा सी तकलीफ भी उससे बर्दाश्त नहीं होती थी। यही वजह थी कि उस दिन भी मा की गोदी से उतर कर, चार साल की नन्ही चारु, चुपचाप बिना कुछ बोले, बिना बुलाए ही, लड़खड़ाते कदमों से पापा के आगे जा खड़ी हुई थी । सर झुकाए-झुकाए ही बोल पड़ी थी ,

” आई एम सॉरी पापा, मैने छह बताशे ही खाए थे। मेरी– ” इसके पहले कि चारु का वाक्य पूरा हो, पापा का कड़कड़ाता और जिन्दगी का पहला चाँटा झनझनाकर चारु के कोमल गाल पर था। चाँटा नहीं जिन्दगी का पहला पाठ था यह। जान गई थी चारू कि पापा नहीं चाहते कि उनकी राजकुमारी पहले मोड़ पे ही फिसले। पापा के आँसू कह रहे थे कि उसे मारकर उन्हें भी कम तकलीफ नहीं हुई थी, परन्तु बात ही कुछ ऐसी तेज और धारदार थी—वैसे तो, कुछ भी नहीं। फिर भी बहुत कुछ।

राजकुमारी हो या परी, जरूरतों को अपनी सामर्थ से ज्यादा बढ़ाने पर दुख मिलना निश्चित है और अपनी राजकुमारी के लिए दुख की कल्पना मात्र पापा के लिए असँभव थी। मम्मी की बात और थी। मम्मी का बस चलता तो आकाश के सारे तारे तोड़कर बेटी के पैरों के नीचे बिछा देतीं। उनकी ममता सही-गलत की सीमाएँ नहीं जानती थी। बस अपनी गुड़िया की मुस्कान उनके जीवन का ध्येय और मोक्ष दोनों ही थी। बेटी को उन्होंने बस एक ही हिदायत दे रखी थी। छूठ मत बोलना, किसी को दुख मत देना। तुमने अगर इन दोनों में से

एक भी गलत काम किया तो तुम्हारी भी जानवरों की तरह दुम निकल आएगी। क्योंकि ऐसे बिना सोचे-समझे, दूसरों को तकलीफ देने वाले काम बस जानवर ही तो करते हैं।

” पर जानवरों को तो बात करनी नहीं आती मां ? ” चारु के प्रश्न पूछने पर मा ने हँसकर कहा था

” आती क्यों नहीं— बस उनकी बात का कोई मतलब नहीं होता जैसे छूठों की बात का नहीं होता।”

नन्ही चारु को सब समझ में आ गया–सच क्या होता है, झूठ क्या है और मा की बात मानना उसके लिए कितना जरूरी है।

और फिर उसके बाद एकदिन गुसलखाने के शीशे के आगे रुँआसी खड़ी चारु, चढ्ढी सरकाए घँटों अपना पिछवाड़ा

निहारती रह गई थी। जब मा से और नहीं रहा गया तो प्यार से पूछ ही बैठी थीं–

” क्यों परेशान है बेटा ?” और रुआँसी चारु बोली थी–” क्या निकल आई मा ?”

मा नहीं समझ सकीं बेटी क्या कह रही है–और क्या निकल आयी ?

तब परेशान बेटी ने कुछ शरमाकर, कुछ ग्लानि से पूछा था—-” वही दुम ?”

मा को सब समझ में आ गया। वह जानती थीं कि किसी भी हालत में उनकी चारु झूठ नहीं बोलेगी–इतना विश्वास है उन्हें उस पर और आत्म-विश्वासस है उनकी बेटी के पास। जरूर किसी बच्चे से आज पहली बार लड़ाई हुई है। हाथा-पाई हुई है और पहली बार आवेशवश उनकी चारु वह कर आई है जो उसे नहीं करना चाहिए था। और अब बस मा की बताई कथित दुम निकलने का इन्तजार कर रही थी ।

जानते हुए भी कि बेटी ने आज नियम तोड़ा है, मा ने उसे डाँटा या मारा नहीं था– ना ही वे उसपर नाराज ही हुर्इं थीं। बल्कि उसे गोदी में लेकर, उसके परेशान मन को बारबार तसल्ली देने की कोशिश की थी। ढाढस बँधाया था। प्यार से समझाया-बुझाया था,

” डरो मत, यदि गलती करके माफी माँग ली जाए, वचन दिया जाए कि अब दुबारा फिर कभी ऐसा नहीं होगा तो भगवान भी माफ कर देता है और कोई दुम नहीं निकलती। ”

हमेशा की तरह उस दिन भी मा की गोदी में जाते ही परेशान चारु हँस पड़ी थी, विश्वस्त हो गई थी। और उसने मा को सच-सच सब कुछ बता दिया था –कैसे और क्यों उसने अपनी सहेली को मारा था– जाने क्यों, वह उसकी गुड़िया ही नहीं दे रही थी और वह अपनी गुड़िया माँग-माँगकर थक गई थी।

और तब मा ने बेटी का माथा चूमकर एक और नया सच समझाया था उसे,

” अपने अधिकार के लिए तो लड़ना ही चाहिए हमेशा, बस कोशिश यह रहनी चाहिए कि कम-से-कम तोड़-फोड़ हो, मनमुटाव हो।

जो सच्चा है वही साफ-सुथरी लड़ाई लड़ सकता है। ”

जिन्दगी एक सपने की तरह निकल रही थी। चारु हर इम्तिहान में ही खरी उतर रही थी। आज तो इन दिवाली के दियों की तरह सोमेंद्र का मन भी झिलमिल कर रहा था। उमँगों सी बढ़ती बेटी को देख-देखकर वह फूला नहीं समाता था। हरतरफ बस खुशी ही खुशी थी। जब से चारु आई थी जीवन के हर काम में उत्साह और आनन्द चौगुना हो गया था।

” सेठजी अब पूजा की थाली में चार सुपाड़ी और कलावा और रख लीजिए। लक्ष्मी पूजन विधि-विधान से न हो तो कोई मतलब नहीं रह जाता। ”

एक तरफ पँडित जी विधि-विधान का महत्व समझा रहे थे तो दूसरी तरफ,

” पापा–पापा मेरी तरफ देखो, देखो मैने कितनी सुन्दर अल्पना बनाई है। “, पापा की ढुड्डी प्यार से अपनी तरफ घुमाते हुए चारु आग्रह पर आग्रह किए जा रही थी। ठीक भी तो है जब तक पापा उसकी तरफ मुड़कर प्यार से देखें नहीं, चारु कुछ भी तो नहीं कह पाती है उनसे। पर जब चौथी बार भी पापा ने नहीं सुना, मुड़कर नहीं देखा तो नन्ही चारु का धैर्य छूट गया। बिना कहे ही अपनी बात मनवाने वाली चारु और बर्दाश्त न कर सकी। कोई और होता तो बात और थी। चारु में धैर्य ही धैर्य था। सबकुछ सह लेती थी वह। पर यह तो उसके अपने पापा थे—सिर्फ उसके अपने पापा–। इन मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश के पीछे, उस आसमान में बैठे भगवान के पीछे– उसके अपने पापा को पता तक नहीं चल पा रहा था कि उनकी चारु उन्हें कबसे बुला रही है। चारु की आँसू भरी आँखें अब और कुछ नहीं देख पा रही थीं। बिना सोचे समझे ,बिना आगा-पीछा सोचे, गुस्से और इर्षा वश उसने पूजा की थाली को हाथ मारकर बिखेर दिया।

अगले पल ही चारु के सामने की धरती घूम गई और आकाश के सारे तारे एकसाथ ही आँखों के आगे टिमटिमाने लगे। पापा का वह अप्रत्याशित गुस्से से भरपूर चाँटा सच में ही जबर्दस्त और भरपूर था। उस चाँटे की गूँज अब भी, तीस साल बाद तक चारु सुन सकती है। अगले तीन दिन तक पापा चारु से नहीं बोले थे और न ही वह खुद ही पापा के आगे जा पाई थी। बस चुपचुप अकेली-अकेली रोती रही थी। पापा ने भी उसे नहीं मनाया था। पर चौथे दिन पापा खुद ही आए, खूब सारी गुड़िया और मिठाइयों के साथ। चारु पापा से आँखें नहीं मिला पा रही थी इसलिए नहीं कि वह नाराज थी बल्कि इसलिए कि वह अपने आप से बहुत शर्मिन्दा थी। उस उमर में भी उसे समझ में आ गया था कि मन के आगे कभी इतना अधिक मजबूर नहीं होना चाहिए।

और तब अपनी बेहद दुखी बेटी को पापा ने गले से लगा लिया था।

” बेटा खुदको कभी इतना महत्व मत दो कि दूसरों से ईर्षा होने लगे।”

और यह पापा का अपनी समझदार बेटी के लिए दूसरा और बेहद महत्वपूर्ण सबक था।

खट्टी-मीठी स्मृति को सँजोए, हर प्यारी चीज को चुपचाप आसानी से पीछे छोड़ती, चारु बड़ी हो रही थी।

समय के साथ राजकुमार भी आया और अपनी राजकुमारी को ले गया। सुख-सुविधाओं के बावजूद भी धीरे-धीरे वह, अपने पापा की सचमुच की राजकुमारी, स्वेच्छा से अपने घर की रानी, नौकरानी, सब बन गई। चारु ने सुहाग का ताज और प्यार की बेड़ियाँ दोनों ही हँसकर पहन लीं। शायद बड़े होने की यही सजा है—असली राजकुमारियों को भी अपने राजकुमार का, जिन्दगी का गुलाम बनना पड़ता है। यदा-कदा बस उस बचपन में खोई राजकुमारी की इक्की-दुक्की यादें, जब पुरानी सहेलियों सी मन की दहलीज पर आ खड़ी होतीं, और सवाल करतीं- बोल चारु– क्या यह समझदारी और दुनियादारी ही तेरा जीवन है ? क्या कुछ और नहीं चाहिए तुझे जीवन से ? क्या अपने इस राज-पाठ की रानी बनकर ही खुश है तू ?, तो चारु उन्हें मन के अन्दर आमन्त्रित ही नहीं करती। दरवाजे से ही विदा दे  देती।

ठीक ही तो है–आखिर रानी बनने के लिए ही तो हर राजकुमारी बड़ी होती है।

अब तो उसकी अपनी गुड़िया भी सवाल-जबाब करने लगी है–बिल्कुल चारु की तरह ही। पर चारु से बहुत ज्यादा समझदार और दुनियादार है वह। सच की धरती को कभी अपने पैरों के नीचे से फिसलने नहीं देती दिया। कल ही की तो बात है जब उसने चारु को घेर लिया था।

” मम्मी–मम्मी, आप अपने पापा के पास क्यों नहीं रहतीं,  क्या आप उनसे प्यार नहीं करतीं ?”

” ऐसी बात नहीं, हर लड़की को शादी के बाद अपने पापा को छोड़कर अपने पति के घर जाना पड़ता है। ”

” पति क्या होता है?”, गुड़िया ने परेशान होकर फिरसे पूछा ?

” पति, जिससे हमारी शादी होती है–जिसे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं।” हँसकर चारु ने बताया।

” तब तो बस मैं अपने पापा से ही शादी करुँगी—” दिया ने भी बहुत सोच-विचारकर अपना निर्णय सुना दिया।

” पर पापा की तो मम्मी से शादी हो चुकी है—” चारु ने बेटी की समस्या को बढ़ाते हुए एकबार फिरसे उसे छेड़ा ?

अब पाँच साल की दिया सच में डर गई थी। पापा मम्मी से बिछुड़कर नहीं रह सकती वह– दौड़कर पापा से लिपट गई।

सुबक-सुबककर रोते-रोते फिर सोचा, ” तो क्या फिर मैं अपने नेक्स्ट डोर नेबर से शादी कर सकती हूँ पापा ? ”

पापा के पास रहने का बस एक यही तरीका दिया को समझ में आया था। रात में भी पापा से आँख खोलकर सोने की फरमाइश करने वाली दिया पूरी जिन्दगी उनसे दूर कैसे रह सकती थी?

बेटी के दर्द और डर को चारू और समीर दोनों ही समझ रहे थे। बाल सहलाते हुए समीर ने डूबती गहरी आवाज में कहा, ” ठीक है बेटा, तुम हमेशा अपने पापा के पास ही रहोगी। कोई तुम्हें पापा से दूर नहीं ले जा सकता। डरो मत तुम—तुमतो मेरी प्यारी-प्यारी राजकुमारी हो। ”

दिया खुश होगई। आँखों में चमक भी वापस आ गई,” सच पापा,  प्रौमिस! कौन सी? वही महलों में रहने वाली, असली ? ”

चारु की आँखें भर आर्इं, फिर वही सवाल–फिर वही  एक सपना आज भी?

चारु जानती थी असली राजकुमारी बनना कितनी बड़ी समस्या है ? जिम्मेदारी और कठिनाईयों की बेड़ियाँ पहने कैसे-कैसे मन को मारना पड़ता है। फिर नियम और सँयमों में बँधा जीवन इतना आसान भी तो नहीं ? बचपन से ही बुजुर्ग बनकर क्यों जियें ? क्या उसकी कोमल दिया का मन, इस नन्ही उमर से इस जिम्मेदारी का बोझ उठा पाएगा ? वैसे क्यों करना पड़ता है हमें यह सच और सपनों का समझौता और बँटवारा–? क्या सपने भी सच का ही अँश नहीं? यही आँखें तो उन्हें भी देखती हैं ?

इसके पहले कि समीर कोई जबाब दे, चारु ने भरी आँखों से कहा, ” नहीं, मेरी गुड़ियारानी, परियों वाली। ”

” असली राजकुमारी तो बस दुनिया के गोरख-धँधों में ही फँसी रह जाती है। ”

” कहानी किस्सों के पन्नों में रहने वाली तुम्हारी यह राजकुमारी, महलों में रहने वाली असली राजकुमारी की कैसे बराबरी कर पाएगी चारु? ”  हैरान पति ने बीच में ही उसकी बात काट डाली ।

” बिल्कुल वैसे ही समीर, जैसे आकाश धरती से करता है। यह यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़ी कड़ी धरती शायद आज भी बस इसीलिए हरीभरी और सुहानी है क्योंकि कल्पना के आकाश से ढकी है। नभ के चाँद-सूरज से जगमग है। शायद यही वजह है कि हम सह भी पाते हैं इसे और जी भी पाते हैं इस पर। मेरी परियों की राजकुमारी के पास चन्दा-सूरज से दो कल्पना के पर हैं, विश्वास की एक जादू की छड़ी है। इनके सहारे तो वह बहुत कुछ कर सकती है। मन चाहा हासिल कर सकती है। चाहे जो बन सकती है। चाहे जहाँ आ-जा सकती है। कुछ भी तो असँभव नहीं उसके लिए। ”

” पर माँ, मेरे पास तो कोई पर और जादू की छड़ी नहीं? ”

नन्ही, बाप-सी व्यवहारिक दिया कैसे यह मन का छुपा-ढका और ज्ञान-विज्ञान की बातो-सा रहस्य समझ पाती– हैरत और आश्चर्य से बस मा को देखती ही रह गई वह। यह मा को क्या हो गया है आज। कैसी उलझी-उलझी बातें कर रही हैं वो ?

” ना मेरी नन्ही परी, ऐसे नहीं कहते—ऐसा नहीं सोचते। पर और छड़ी तो दोनों ही हैं हम सब के ही पास। बस, इस जिन्दगी की भाग-दौड़ में हम कहीं खो न दें, इसलिए भगवान ने सँभालकर मन के अन्दर छुपा दिया है इन्हें। ढूँढना भी तो अब हमें खुद ही पड़ेगा ना ।”
पूरे आत्म-विश्वास के साथ चारु ने सही और सच्चा-सच्चा जवाब दिया– उसे लगा कि आज वह पहली बार किसी को क्या, खुदको भी, अपना असली सच बताने की हिम्मत कर पाई है।
चारू की मुस्कुराती सँतुष्ट आँखें अब बँद थीं और दिया देख रही थी कि मा की पुतलियाँ बन्द पलकों के अँदर ही, खुशी-खुशी तेजी से इधर-उधर घूम रही थीं–मानो मन के अँदर रखा, बरसों पुराना कुछ ढूँढ रही हों—बरसों का खोया, कुछ छू-छूकर बारबार टटोल रही हों–

 

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