कहानी समकालीनः विसर्जनः शैल अग्रवाल

“जय दुर्गे महाकाली नमस्तुते माँ चंडी नम:। या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।” श्लोक के शब्द मनचाहे क्रम से ही, विस्मृत अवस्था में भी स्वत: ही होठों तक आ और जा रहे थे।
“जय जयति ब्रह्मचारिणी जय जयंती भद्रकाली माँ सरस्वती नम:।” मानो बिस्तर पर नहीं, माँ के मंदिर में आसित थे वे — आश्चर्य था प्रणव भास्कर बैनर्जी को खुदपर?
“जय जय शैलपुत्री रक्त-नेत्रिणी विघ्न-विनाशिनी विंध्य-वासिनी कष्ट हरिणी नम:।”
“या कात्यायनी पार्वती कमला गौरी नंदिनी रक्षामि अहं माँ अंबे नमोस्तुते।”

मंत्र और संस्कृत सब भूल चुके थे वे परंतु रात के नीरव सन्नाटे में भी, अनियंत्रित और उत्कंठ पाठ खुद उनके ही कानों से टकराकर चतुर्दिक गूँजने लगा। बुद्धि और मन की सीमाएँ तोड़ते, माथे पर बहते ठंडे पसीने से, देवी के प्रति समर्पित वे बोल, निरंकुश आँखों और होठों से बह रहे थे। माँ के हर रूप का साक्षात्कार कर लिया था आज उन्होंने- माँ जगत जननी दुर्गा, माँ सुख-समृद्धिदात्री लक्ष्मी, माँ आत्मसंतुष्टा, ज्ञान-वर्धिनी सरस्वती, माँ पाप-विनाशिनी महाकाली। शक्ति का संचार था चारों तरफ़। सृष्टि और रचयिता दोनों ही से जुड़ गए थे वे इस एक ही पल में।

खुदको नास्तिक मानने वाले प्रणव बैनर्जी के लिए यह एक नया अनुभव था। आस्था और प्रकाश की इस रात्रि में त्रिशंकु से लटके हुए वे अपनी अधखुली आँखों से भी, साफ़-साफ़ देख पा रहे थे माँ को। बस माँ के रेशमी आँचल के नीचे सर रखकर भी, पूर्णत: समर्पित होकर भी, वापस सो नहीं पा रहे थे वह — एक बेचैनी, एक प्रश्न पूछती, उत्तर टटोलती व्यग्रता में डूब चुका था आकुल मन।

प्रणव बैनर्जी को याद आया कि जब एक बार पहले भी कभी, दुर्गा माँ पूर्ण शृंगार के साथ, मिष्ठान भंडार पर लेटी, सपने में अवतरित हुई थीं और अपने ही नाम पर घर का नामकरण करने की सलाह दी थीं, तो भी बस वही एक बात कही थी माँ ने उनसे। बस यही कहा था तब भी तो, कि देख मैं तो हमेशा ही तेरे आस-पास हूँ, पर तू ही ध्यान नहीं देता मुझपर। तब भी तो बस उनकी आस्था को ही झकझोरा था माँ ने। आख़िर कौन हैं यह माँ — गौरी, अंबा, दुर्गा, महाकाली? वह तो पूजा पाठ में विश्वास नहीं करते फिर माँ दुर्गा कभी शेर पर तो कभी सुअर पर, कभी गधे पर, तो कभी भैंसे और कभी हँस, हाथी, मयूर पर चढ़कर क्यों आ जाती हैं उनके पास? यों सपनों में बार-बार आना — दर्शन देना आख़िर क्या चाहती हैं माँ उनसे? पहली बार तो नहीं हुआ यह कि माँ सपने में आईं, इसके पहले भी कम से कम दो तीन बार तो आ ही चुकी हैं माँ? याद है उन्हें कि कैसे खुशी की एक लहर दौड़ गई थी पूरे बदन में, शांति मिली थी उन्हें माँ के दर्शन से। परंतु आज तो मन बस उद्वेलित ही था — अनजाने अशुभ की आशंका से काँप रहा था।

माँ कृशकाय, बेहद दयनीय रूप में, सूखे, सफ़ेद बालों को हवा में लहराती, पिछवाड़े आँगन में अति सूक्ष्म रूप ले प्रकट हुई थीं और हवा की सरसराहट सी गुज़र गई थीं उनके आँखो के आगे से। उनकी तरफ़ देखते-देखते, उसी पथरीली और सख्त़ ज़मीन पर बेचैन तेज़ी से लुढ़कती, पलट-पलटकर परिक्रमा लेती माँ पल भर में ही अदृश्य भी हो गई थीं – क्यों ये सपने इतने अस्पष्ट और धुँधले होते हैं? झुँझलाहट हो रही थी उन्हें खुदपर, सपना टूट जाने पर। कृशकाय और दरिद्र — बूढ़ी कमज़ोर माँ। मारकीन की मैली कुचैली काली किनारी की धोती में लिपटी हुई, लिपटी क्या खोई हुई। कोई शृंगार नहीं और झुर्रियों भरे हाथों में त्रिशूल और पोपले होठों पर एक रहस्यमय मुस्कान, आधी खुली आँखों से एकटक उन्हें ही देखती हुई? आख़िर क्या अर्थ हो सकता है इस स्वप्न का? क्या कहना चाह रही थीं वह– कैसा रूप था यह माँ का – बेटे की आस्था की परीक्षा ले रही थीं या फिर वह बस अवहेलना कर रही थीं उसकी, दंड देना चाहती थीं उसे? धिक्कार रही थीं पुत्र के कर्तव्य का दायित्व ठीक-ठीक न निभाने के लिए — दूर-दूर रहने के लिए?

वैसे तो बुद्धिजीवी और विख्यात मनोचिकित्सक प्रणव बैनर्जी दुनिया की नज़रों में प्रमाणित और सही या गल़त समझे जाने वाले किसी भी मुद्दे की कभी परवाह ही नहीं करते थे परंतु हाड़ माँस के एक इंसान थे वह भी तो, और माँ के दुख-सुख से तो हर बेटा ही विचलित हो जाता है फिर वह ही कैसे अपवाद रह पाते?
पचास साल की इस लंबी उम्र में भलीभाँति जान गए थे वह भी कि सारा खेल मन का ही तो होता है। यह मन ही तो है जो अंदर ही अंदर एक संसार रचता है और फिर भरमाता है। उनके मतानुसार हर मन के अंदर सही ग़लत की एक अपनी ही अलग दुनिया है, हर व्यक्ति खुद ही अपराधी और निर्णायक भी स्वयं ही होता है अपना। और अपनी किसी भी दुख या आपदा से तबतक नहीं उबर सकता, जबतक कि खुद ना चाहे।

सब जानते और समझते हुए भी, अक्सर ही बेचैन हो उठना, किसी अनजाने और खोए को ढूँढते रह जाना, उसी में उलझे रह जाना, मानो एक आदत-सी पड़ती जा रही थी यह उनकी। परंतु यह भी तो जानते थे वे कि दुनिया या विद्वान कुछ भी कहें, कोई नहीं समझ पाया कभी अबूझ इन रहस्यों को। एक अकेला वह ईश्वर ही है जो जानता और समझता है सबकुछ। पूजा-पाठ ही नहीं, उन जैसों की आडंबरहीन सहजता को भी समझता है वह तो। वैसे भी, खुदपर बाँधे अनगिनत संयम और नियमों का अँधेरा भी तो उतना ही भटका सकता है जितना कि अज्ञान का? क्या समझता और माफ़ नहीं करता वह — हमारी कमज़ोरियों को, क्रूर और अबोध हर तरह के अपराधों को, राग द्वेष के हज़ार विकारों के – आख़िर उसी का रचा तो है यह संसार? अगर ग्लानि और पश्चाताप के आँसुओं से मन निर्मल करना हम सीख लें, तो बस प्रकाश ही प्रकाश है चारों तरफ़। विद्वानों का ज्ञान ही नहीं, प्यासे मन की ज़रूरत और तड़प तक जानता है वह तो। फिर कैसी यह बेचैनी और उलझन? दंड देना ही नहीं, प्यार करना भी आता है उसे। तभी तो बार-बार ही भिन्न-भिन्न रूपों में आगाह और आवाज़ देती है माँ। जानते थे वे कि डरने की कोई ज़रूरत नहीं उन्हें, ना ही इस दुनिया में और ना ही उस दुनिया में। माना कि विधिवत कभी कोई पूजापाठ नहीं की थी उन्होंने, परंतु जानते थे वे कि कभी कोई ऐसा काम भी तो नहीं किया, जिसकी वजह से आत्मा कचोटें या कष्ट दें और फिर यह आत्मा ही तो परमात्मा है। चलो पल भर को मान भी लें कि आत्मा परमात्मा नहीं, अलग है, पर हैं तो आख़िर उसका ही अंश? “एको अहं, सर्वो अहं” पढ़ा ही नहीं, जिया भी था उन्होंने तो। प्रणव भास्कर बैनर्जी के होठों पर एक निरासक्त हँसी बिजली-सी कौंधी और बहते आँसुओं में विलुप्त हो गई – इतना अकेला और सूना क्यों हैं यह संसार- क्यों इतनी लाचार है “अहं ब्रह्मास्मि” का वेदमंत्र देती और पढ़ाती यह दुनिया?

प्रणव ने घड़ी देखी सुबह के पाँच बज चुके थे। परदे खोल दिए। कमरा उजाले से भर गया। याद आया आज तो महालय का दिन है, अर्थात हफ़्ते भर में ही नवरात्रि शुरू। सोच की उमंग मुक्त नर्तन करने लगी। फिर तो अब नव दुर्गा के स्वागत में लग जाएगा पूरा का पूरा बंगाल, बंगाल ही क्या पूरा भारत ही, गुजरात, पंजाब सब। सारी व्यस्तताओं के बाद भी उनका मन अक्सर ही भारत में ही रमा रह जाता। शरद ऋतु की वह गुलाबी ठंड और पूजा का जोश और उत्साह — अश्विन मास के नव चंद्र का भव्य स्वागत करने वाली यह प्रथा बहुत ही प्यारी लगती है उन्हें। यों तो अश्विन और चैत्र, साल में दो बार माँ आती हैं, परंतु दशहरे से जुड़ जाने के कारण शरद की यह छटा कई गुना ज़्यादा हो जाती है। कहीं हँसी कहकहे, तो कहीं सुंदरियों और किशोरियों के रेशमी कपड़ों की सरसराहट। नई नवेली चूड़ी व पायलों की खनक। बच्चों के लिए कोने-कोने मिठाई, कपड़े, खिलौने सभी कुछ- चारों तरफ़ बस उल्लास ही उल्लास। हज़ारों बड़े बूढ़े और बच्चे- मानो खुशी से उमड़ पड़ता है पूरा शहर। भारत ही क्यों यहाँ ब्रिटेन में भी तो होती होगी देवी पूजा? वक्त मिला तो जाते ही रहेंगे वह भारत इसी वक्त, इसी महीने। एक वादा कर लिया था उन्होंने खुदसे भी और अपने भारत से भी।

मात्र याद करते ही एक अनोखी पुलक से भर गया मन। कभी वे भी गौरी के साथ सुबह शाम तीनों दिन ही पूजा के पंडाल पर जाते थे। नौ दिन बस पूजा पाठ, खाना पीना और सांस्कृतिक कार्यक्रम। वह धनुचि नृत्य– ढोल मृदंग पखवाज़, शंखनाद में मिलकर बहती धूप, गूगल, कपूर और चंदन की महक, जो कपड़ों और बालों में ही नहीं आत्मा तक में रची बसी है – आज भी याद है उन्हें सबकुछ। माँ दुर्गा के बीसों रूपों की भव्य पूजा होती हैं इन नौ दिनों में। तीन दिन दुर्गा के अंदर के विकार नष्ट करने के लिए। फिर अगले तीन दिन लक्ष्मी के, उनकी कृपा और समृद्धि के लिए। और अंतिम तीन दिन माँ सरस्वती के, ज्ञान अर्जन के लिए। और फिर माँ की विदाई। साल में बस इन्हीं नौ दिन के लिए ही तो आ पाती है माँ अपने मायके। उनके परदादा के दादा शिरोमणि ने ही तो बनवाया था वह दुर्गा माँ का भव्य मंदिर, और वह भी, उसी स्थान पर जहाँ पर माँ प्रकट हुई थीं। तभी तो आजतक माँ की कृपादृष्टि है उनके परिवार पर।

साफ़ स्वस्थ होकर, संयम व शांति लेकर ही तो मन ज्ञान अर्जन के लायक हो सकता है, इतनी-सी बात तो देवी की पूजा के बिना भी, बचपन से ही जान गए थे वह। सोलह वर्ष की नाजुक उम्र में ही पहली बार दर्शन दिए थे माँ ने बुद्धिजीवी प्रणव को। अपने रथ पर सवार माँ ने हज़ारों की भीड़ में से एक उसी को तो चुना था और वह आशीश माला पुजारी द्वारा फेंके जाने पर, सीधे उसी के गले में तो आकर गिरी थी। पता नहीं माँ के आशीश का फल था या फिर उससे उत्पन्न आत्मविश्वास और मेहनत का कि अपने स्कूल या शहर में ही नहीं, पूरे प्रांत में उच्चतम अंक आए थे प्रणव बैनर्जी के। माँ-बाप, परिवार, विद्यालय और गुरुजन, सबका ही सीना गर्व से तन गया था।

ऐसा नहीं कि पूजा में आस्था नहीं थी, अच्छा लगता था उन्हें माँ का शृंगार और असुर महिषासुर का मर्दन। सत्य की असत्य पर विजय। बस अष्टमी के दिन दी गई बलि को नहीं स्वीकार पाते थे सुकुमार भावुक प्रणव। ना ही बकरे की और ना ही प्रतीकात्मक दिए गए कुम्हड़े की बलि। कोई भी अच्छी नहीं लगती थी उन्हें। कोई न्याय संयम या बलिदान और त्याग की भावना नहीं जगा पाती थी यह प्रथा उनके अंदर। इस प्रथा को छोड़कर सबकुछ अच्छा लगता था उन्हें नवरात्रि और माँ के बारे में — सैंकड़ों देवी माँ के रूपों और पौराणिक कथाओं के बारे में सबकुछ जाना था उन्होंने भी।

कैसे कभी बालरूप में तो कभी रमणी रूप में दर्शन देती आई हैं माँ अपने भक्तों को, पता था उन्हें भी। जन्माष्टमी से ही तैयारी शुरू हो जाती थी दुर्गा पूजा की। और यह महालय का दिन जिस दिन माँ अपने ज्ञान चक्षु खोलती हैं उन्हें विशेष रूप से ही भाता था। ज्ञान की एक अतृप्त भूख जो थी उनके जिज्ञासु मन में।
महालय यानि कि माँ दुर्गा की अधगढ़ी मूर्ति की चक्षुदान का दिन। पूर्वजों को याद करने और तर्पण का दिन। मन एक बार फिर बेचैन हो उठा- आख़िर क्या चाहती है माँ उनसे – क्यों देखा उन्होंने विचलित करने वाला माँ का यह रूप, वह भी आज के दिन, कौन से नेत्र खोलना चाहती हैं माँ? क्या आज ही भारत जाना चाहिए उन्हें, हफ़्ते बाद तो जा ही रहे थे वह। पिछले तीस साल से एक आध वर्ष को छोड़कर हर दुर्गापूजा पर बनारस के दुर्गा कुंड वाले अपने घर में ही तो होते हैं वे। पूरा दिन यों ही, एक उहापोह में निकल गया। डॉ. प्रणव बैनर्जी का मन आज मरीज़ों में नहीं लग पा रहा था। किसी भी मन की गुत्थियाँ नहीं सुलझा पा रहे थे वे, क्योंकि खुद उनके अपने मन में एक गाँठ लग चुकी थी अब।

रात खाना खाने के बाद पत्नी और बच्चों के साथ ड्राइंग रूम में बैठकर टी.वी. देखने के बजाय अकेले स्टडी में बंद कर लिया था प्रणव ने खुद को। हाथों ने मजबूरन, जाने किस याद की उँगली पकड़ें, पास पड़े काग़ज़ पेंसिल उठा लिए थे और बेचैन उँगलियों ने स्केच बनाना शुरू कर दिया था। हमेशा की तरह एकबार फिर आज तस्वीर के नाम पर वही दो हृदय-भेदी रहस्यमय आँखें उभर आईं थीं उस सादा सफ़ेद काग़ज़ पर। आँखें जो हूबहू गौरी की याद दिलाती थी उन्हें– आँखें जिनकी गुत्थियों में प्रणव तरुणावस्था से ही पूरी तरह से डूब चुके थे, आँखें जो आजतक, छह हज़ार मील दूर बैठकर भी पीछा करती रहती हैं उनका।
“यह तुम आँखें ही पहले क्यों बनाते हो प्रणव? हमलोगों की तरह चेहरे का बाहर का आकार क्यों नहीं?” गौरी ने भी आख़िर एक दिन पूछ ही डाला था उनसे।
“क्योंकि आँखों के सहारे ही किसी के मन या आत्मा में उतरा जा सकता है गौरी। उसे पढ़ा जा सकता है।” और तब उनकी सहपाठिनी, बरसों से ही, वहीं दुर्गा कुंड पर, पड़ोस में रहने वाली गौरी प्रियदर्शिनी डर गईं थी। भावों की तीव्रता से भी और उनके सोचने के तरीकें से भी। न जाने क्या सोचकर तब न सिर्फ़ दोनों हाथों से चेहरा छुपाकर आँखें बंद कर ली थीं उसने, अपितु चुपचाप सर झुकाए वहाँ से तुरंत ही चली भी गई थी वह – मानों प्रणव हमउम्र नहीं, एक जादूगर थे और उनके आगे कुछ पल और रुके रहने से सारे भेद खुल जाने का अंदेशा था उसे। क्या छुपा रही थी गौरी उनसे, यह तो प्रणव बरसों बाद ही जान पाए थे, मन को पढ़ने का जादुई तिलिस्म जो नहीं आता था उस वक्त। और तब पहली बार प्रणव ने गौरी की वे शर्मीली झुकी आँखें काग़ज़ पर उतारी थीं। उसके बाद तो अक्सर ही वे आँखें स्केच पैड पर उभरी आतीं और बात करने लगतीं उनसे – बातें जो घंटों पेंटिंग स्कूल में साथ-साथ रहते हुए भी वे एक दूसरे से कह या सुन नहीं पाते थे। हाल यह था कि प्रणव पूरे हफ़्ते मेडिकल स्कूल में अपने लेक्चर्स में बैठे-बैठे ही वह सब बातें दोहराने लगते जो उन्हें शनिवार को गौरी से कहनी होती थीं और वह जो गौरी के आते ही, उसके सौम्य रूप को देखते ही, भूल जाया करते थे वे। एक अकथ सुख में डूबे, घंटों बिना कुछ कहे, बगल में बैठे रह जाते थे वे। शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता था तब और ना ही अनकहे अर्थों के लिए उपयुक्त शब्द ही।

सभी पहचान गए थे इस राग-अनुराग — अनकही प्रीत को। प्रणव के डाक्टर बनते ही गौरी की माँ खुद ही रिश्ता लेकर आ गई थीं और तब ज्योतिषाचार्य किशन देव की बेटी ज्योतिर्मयी ने गौरी की कुंडली चुपचाप वापस लौटा दी थी। यह कहकर कि जिसके सातवें घर में मंगल और शनि बैठें हों, काल सर्प योग हो, ऐसी कुलच्छिनी को कैसे अपनी बहू बना सकती है वह — आख़िर एक ही तो बेटा है उनका। और तब अपनी बचपन की सहेली कावेरी की बेटी नंदिता से तुरंत ही शादी रचा दी थी प्रणव की। मद्रासिन की बेटी का अशुभ ख़तरा सर पर मंडरा रहा था उनके बंगाली ब्राह्मण परिवार पर और ख़तरों को न्योता देने की आदत नहीं थी ज्योतिर्मयी बैनर्जी की।

“सूरत शक्ल पर मत जा। देखने में ही भोली लगती है वह बस। देखना शादी के बाद दो बरस भी पति रह पाए तो बहुत समझना।” अस्सी घाट पर पुजारी के टूटे और आधे पानी में तैरते पुराने पट्टे पे आँखें बंद किए लेटे बेटे को समझा लिया था उन्होंने अपने असंगत तर्क-वितर्कों के साथ — बिना परवाह किए या देखें कि कैसे शाम का अँधेरा गंगा की छाती पर ही नहीं, बेटे के मुँह पर भी फैल चुका था और वह सुर्ख सूरज आँसू भरी आँखों को अपनी ही पलकों में छुपाए चुपचाप ही बहती नदी तक को ले डूबा था। बात वह यों ही आई गई हो जाती, अगर दो बरस बाद ही एकबार फिर से मुलाक़ात न हो जाती गौरी से उनकी।

नंदिता को लेने ससुराल गए थे प्रणव। वहीं कमच्छा की चौमुहानी पर ही थी प्रणव की ससुराल। सामने ताज़े संतरों को देखकर गाड़ी रुकवा ली थी उन्होंने। अकेले ही उतर गए थे वह, साल भर के बेटे तन्मय को गाड़ी के अंदर ही सोता हुआ छोड़कर। लौटे तो हाथों के तोते उड़ गए। बेटा नहीं था गाड़ी में। मिनटों में ही पूरी दुनिया घूम गई थी। अब किससे पूछें, क्या करें, सोच ही रहे थे वह, कि किसी ने बताया कि सामने के घर में रहने वाली महिला ले गई हैं बच्चे को यह कहकर कि बच्चे के माँ बाप आएँ तो, वहाँ सामने उस घर पर भेज देना।

धड़कते मन से दौड़े थे घर की तरफ़ वह और दरवाज़े पर ही पत्थर का बुत बन कर जम गए थे। सामने दरवाज़े पर रंजन शास्त्री का नाम पत्र था और तन्मय को गोदी में लिए खुद गौरी खड़ी थी उनके आगे– बंगाली लाल बॉर्डर की सफ़ेद साड़ी से सर ढके और चमकते लाल सिंदूर से माथे के बीचोबीच निकली लंबी पूरी माँग भरे हुए। कानों में दुहरे झूमर वाले सोने के झुमके और गले में मंगलसूत्र और हाथ भर-भर कर हाथी दाँत के लाल हरी नक्काशी वाली चूड़ियाँ और चाँदी का कड़ा। गोरे सुंदर माथे पर सूरज-सी चमकती सिंदूर की वह बिंदिया– पल्लू से बँधा बाएँ कंधे पर झूलता ताली का गुच्छा– बंगालिनों से ज़्यादा बंगालिन लगी थी वह मद्रासन उन्हें।

“आओ भास्कर, अंदर आओ।” मानो प्रणव को कहीं पीछे छोड़ आई थी वह, हाँ इसी नाम से पुकारा था उस वक्त उन्हें। प्रणव ख़ामोशी से देहली लाँघकर अंदर आ गए थे। मन में होती उथल-पुथल से काँपते घुटनों को बैठने की, सहारे की सख़्त ज़रूरत महसूस हो रही थी। कुछ भी पूछ पाएँ वह, इससे पहले ही लुंगी बाँधते, रंजन दा आ गए थे बैठक में, “कब आए प्रणव तुम?” रंजन दादा गौरी से ज़्यादा सहज लग रहे थे उस वक्त। कम से कम उसी पुराने प्रणव नाम से तो पुकारा था उन्होंने उसे। एक ही झटके में पूरा अतीत, सारी पहचान झुठलाई तो नहीं थी।
“मैं तो तुम्हारे बेटे को देखते ही समझ गया था कि यह प्रणव का ही बेटा है- वही रूप रंग सबकुछ ही तो तुमपर गया है। मैंने ही गौरी से कहा था कि अंदर ले चलो बच्चे को, यहाँ घर में आराम से सोएगा। आख़िर हम भी तो कुछ लगते हैं इसके।”

सब कुछ ही चुभ ही रहा था प्रणव के मन में- जो सहज था वह भी और जो असहज होने के कारण अनदेखा नहीं कर पा रहा था वह, वह भी। झुकी आँखों से ही एकबार फिर गौरी के मन को पढ़ना चाहा उन्होंने, पर वह तो बेल के शरबत से भरे दोनों गिलास मेज़ पर टिका, बेटी के साथ मग्न खेल रही थी। गोदी में खेलती छह महीने की वैदेही माँ सी ही सुंदर थी।
“किस्मत वाले हो भास्कर तुम, जो तुम्हारा बेटा पसंद आया इन्हें। हँसकर बोली थी वह (प्रणव नाम न लेने की मानो कसम खा ली थी उसने) “मेरी वैदेही में तो पेंटिंग की तरह नुक्स निकालते रहते हैं ये। (उसके मुँह से निकला ‘ये’ शब्द सहज होते हुए भी अंदर तक बींध गया था प्रणव को) “नाक नक्श तो बहुत अच्छे हैं गौरी, बस रंग में ज़रा सफ़ेद और मिलाना भूल गईं हो तुम।” रंजन दादा ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए कहा और फिर तो उनके खुद के हँसी ठहाकों से पूरा कमरा गूँजने लगा। यह वही रंजन दा थे जो गौरी और प्रणव को अपने सबसे ज़्यादा होनहार शिष्य समझते थे। शांति निकेतन की परंपरा के अनुसार गुरु श्री नंदलाल बोस से व्यक्तिगत रूप में मिलाने ले गए थे उन दोनों को। कितना आदर करते थे प्रणव और गौरी भी उनका। रंजन दा की हर बात ब्रह्म वाक्य थी। दादा द्वारा परोसे गए किसी तिरस्कार, किसी अपमान या डाँट का कभी बुरा नहीं माना था गौरी और प्रणव ने। उस दिन भी नहीं, जब गौरी से दादा ने माँ की प्रतिमा बनाने के लिए शीशे के आगे नग्न होकर खुद ही को स्केच करने को कहा था। और गौरी ने वैसा ही किया भी था। दादा को दिखाते समय कोई शरम या विकार नहीं उठा था उस किशोरी के मन में – ठीक भी तो है माता-पिता गुरु और ईश्वर से कैसा परदा– इन्हीं के हाथों से तो हमारी संरचना और भरण-पोषण हुआ है। पल भर में ही प्रणव ने पढ़ लिया था उसके पारदर्शी मन को। पर उसकी नज़र जब स्केच पर गई थी तो पूरी बीर बहूटी हो गई थी वहीं गौरी और यह देखकर अच्छा लगा था प्रणव को। उसका पुरुषत्व भी तो सचेत हो उठता था गौरी के टमाटर से लाल गालों को देखते ही पर आज कितना बदल गया है सब कुछ- कोई भाव नहीं आए-गए थे गौरी के शांत चेहरे पर। एक शादी मात्र ने कितनी दूरी ला दी थी उन दोनों के बीच। चिढ़ हो रही थी उसे सामने बैठे गौरी के पति से।

“मेरी बेटी है वैदेही, कुछ तो मेरा लेगी ही।” काले कलूटे रंजन दा साँवली सलोनी वैदेही पर पूरी तरह से मुग्ध थे और अपनी ही रौ में बोले जा रहे थे। रंजन दा को इतना खुश कभी नहीं देखा था प्रणव ने। आख़िर क्यों न हों, कहते हैं छोटी उम्र की बीबी से शादी करके बुढ्ढ़ा आदमी भी जवाँ हो जाता है फिर गौरी तो पूरे बीस साल छोटी थी उनसे। जिन्हें साधु समझता था वही रंजन दा राक्षस निकले, उसीकी सीता को चुराकर ले गए– किस अशोक वन में डाल दिया है इन्होंने इसे, पर यह जघन्य अपराध हुआ तो हुआ कैसे? अचानक अपने गुरु शेखर दा के प्रति बरसों से बैठी सारी श्रद्धा उड़न छू हो गई थी प्रणव के मन से। क्या गौरी की मर्ज़ी से भी हुई थी यह शादी? क्या पता औरतों का मन वैसे ही बहुत चंचल होता है– प्रणव के लिए अब और वहाँ बैठना मुश्किल हो चला था और तब फिर से आने का वादा करके चुपचाप चले आए थे वह वहाँ से उठकर, बिना शरबत का गिलास पिए, बिना नमस्ते कहे और बिना ही गोल मटौल सुंदर-सी वैदेही की गोदी में लिए या प्यार किए। गौरी और रंजन दा दोनों ही आए थे कार तक छोड़ने, बस वही किसी से आँखें नहीं मिला पा रहे थे।

उसके बाद उनकी मुलाक़ात गौरी और रंजन दा से अगले वर्ष उसी दुर्गा कुंड के पूजा-पंडाल में ही हुई थीं। वैदेही दौड़ने भागने लगी थी और गौरी पूरी तरह से अपनी घर गृहस्थी में रम चुकी थी। माँ से बहुत अच्छी दोस्ती थीं गौरी की। पूजा की सारी तैयारी उसी के हाथ में रहती थी। यों तो वह भी घर-गृहस्थी में पूरी तरह से रम चुके थे पर जब भी माँ और गौरी को दुर्गा मंदिर की सीढ़ियों पर एकसाथ बैठे देखते तो मन के अंदर का एक चोर कोना बुरी तरह से आहत होकर कराहने लग जाता। आख़िर चार साल से कुंडली मारकर बैठा वह प्रश्न फुफकार ही उठा था गौरी को अकेले देखकर उस दिन। वहीं घर के आगे दुर्गा कुंड की सीढ़ियों पर ही रोका था प्रणव ने गौरी को। क्या तुम खुश हो गौरी? कभी हमारे बारे में भी सोचती हो क्या? बहुत ही दयनीय और विचलित लग रहे थे प्रणव बैनर्जी उस समय। अब रोए कि तब। मानो उत्तर नहीं, सहारा माँग रहे हों गौरी से। और तब बहुत ही दृढ़ और ठहरा हुआ जवाब दिया था गौरी ने उन्हें, बिल्कुल अपने स्वभाव की ही तरह। जिंद़गी सोचने नहीं, जीने के लिए होती है भास्कर। कर्म करना ही हमारे बस में है, और कुछ नहीं। और फिर बादल और भिखारी की कैसी ज़िद, कैसा मान-सम्मान? ना ही तब कुछ समझ पाए थे प्रणव बैनर्जी और ना ही आजतक जान पाए कि उन्माद और अनुराग के उस छोटे से एक पल में क्या समझा दिया था गौरी ने उन्हें और खुद को।

अब तो पूरे तीस साल हो चुके थे रंजन दा को उस अभागन से शादी किए हुए। गौरी के किसी काल सर्प ने अभीतक तो उन्हें नहीं ही डँसा था, बल्कि पहले से भी ज़्यादा स्वस्थ और सुखी लगते थे वे। माँ से ही गौरी की सारी ख़बर मिलती रहती थी उन्हें। अभी पिछले महीने ही बेटी वैदेही की भी शादी कर दी है गौरी ने एक सुगढ़ और धनाढय बंगाली परिवार में। माँ ने लिखा था वर बहुत ही सुंदर और सुयोग्य है और उन्हीं के कहने पर गौरी पत्री-वत्री के पचड़े में भी नहीं पड़ी थी। क्या रखा है इन बातों में, बिना बात ही अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाते हैं। माँ की चरण रज लेकर विवाह के काम शुरू कर दिए थे। वे ही सब सँभाल लेंगी सब हँसकर बस इतना ही कहा था गौरी ने। और सब सँभाल लिया था माँ ने जैसे कि गौरी को सँभाल लिया था। और फिर सँभालती भी क्यों न, पिछले तीस साल से निर्जला व्रत करती है माँ का। पूजा के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती है वह। माँ ने ही बताया था कभी उसे यह सब और यह भी कि कैसे पत्री वाली बात की वजह से हुई बदनामी की वजह से कोई भी शादी नहीं करना चाहता था गौरी से। और तब गौरी की माँ के आँसू नहीं देखे गए थे उनसे। और उन्होंने खुद ही जैसे तैसे राजी किया था शास्त्री जी को शादी के लिए। कहा था उनसे कि सोचते क्या हो अब, घर में रोटी बनाने वाली आ जाएगी, बुढ़ापे का सहारा रहेगी। आपका घर बस जाएगा और अभागिन के माथे का कलंक मिट जाएगा। शास्त्री जी तो राज़ी हो ही गए थे, उसने भी कोई ना-नुकुर नहीं की। गौरी तो वाकई में गऊ निकली। एक आपत्ति नहीं की, जिस खूँटे से बाँधी, चुपचाप बँध गई। कहाँ होती हैं आजकल ऐसी शांत लड़कियाँ, वह भी इतनी पढ़ी-लिखी, गुणी और संस्कारी। शास्त्री जी आजतक बहुत ही खुश हैं गौरी के साथ। उनके तो मानो पिछले जन्म के पुण्य ही उदय हो गए हैं। जी जान से पति की सेवा करती है अपनी गौरी – हमारे भी हर सुख-दुख में भी, यही तो काम आती है– हर ज़रूरत हारी-बीमारी पर तुरंत ही आ खड़ी होती है आँगन में। मानो पिछले जनम की बेटी या घर की बहू हो।

अच्छा तो माँ ने अब तक रिश्ता जोड़ ही लिया कुलच्छिनी के साथ। प्रणव की आँखें आँसुओं में डूबी हुई थीं, लिखे से भी ज़्यादा अनलिखा छू और विचलित कर रहा था उन्हें। समझ में नहीं आया कि हँसे या रोएँ – नहीं जानते थे वे कि माँ की उस एक नादानी जिसने मन को बस एक रिसता नासूर बना दिया था, भला कैसे और कब माफ़ कर पाएँगे वह?
ठीक सामने नंदिता और तन्मय दोनों ही बैठे थे। चुपचाप ही, आँखें चुराकर डबडबाई आँखें पोंछ डालीं उन्होंने– जेब में रखे रूमाल तक का ध्यान नहीं रहा उन्हें। विचलित करने वाला वह सपना भी तो कुछ ऐसे ही, गौरी की यादों की तरह ही भुलाए नहीं भूल रहा था। गौरी की तरह ही, आस्था और विश्वास पर प्रश्न चिह्न लगाए जा रहा था। खुद अपनी माँ से, उसके आँचल से दूर लिए जा रहा था उन्हें– एक ऐसी पश्चाताप की आग में झोंक रहा था उन्हें जिससे बाहर आने को आजीवन झटपटाते रहे हैं वह। कभी गौरी का चेहरा माँ के चेहरे में तबदील हो जाता, तो कभी माँ का नंदिता के में। इंग्लैंड से भारत और फिर दिल्ली से बनारस तक का वह सफ़र एक ऐसे ही व्यग्र उहापोह में ही बीता था उनका।

घर के दरवाज़े पर हमेशा की तरह ही, अल्पना और मंगल दीप जलाकर ही स्वागत किया था माँ ने उनका, पर दिए की लौ की वह ललक माँ के चेहरें पर नहीं दिखी थी प्रणव को आज। पोपले मुँह की बिना दांतों की मुस्कान और झुर्रियों भरी खाल के साथ झूलते हाथ, उसी सपने वाली बूढ़ी देवी माँ की याद दिला रहे थे उन्हें। बाबा तो माँ से भी ज़्यादा बूढ़े दिख रहे थे। उम्र के बढ़ते शिकंजों ने कमर ही नहीं, उनके मन तक तो तोड़ दिया था। पाँच मिनट सीधे खड़े तक नहीं रह पाते थे वे तो- कोई उल्लास, कोई ललक नहीं थी उन रीती आँखों में। चारपाई पर लेटे-लेटे गीता हाथ में लिए, सीलिंग को घूरते रहना बस यही एक दिनचर्या थी उनकी। माँ सुबह सात बजे टी.वी. खोल देतीं तो वह भी रात के ग्यारह बजे तक उनके आगे बेमतलब ही चिल्ला-चिल्लाकर सो जाता पर सूनी थकी वे आँखें न सो पातीं। अब मैं इन्हें अकेला नहीं छोड़ सकता, प्रणव ने निश्चय किया।

“पर हम अकेले कहाँ हैं? यह गौरी है न हमारे पास।”
मानो माँ ने बेटे की आँखों के दर्द को पढ़ लिया था, माँ झट से पल्ले से आँसू पोंछते हुए बोली थीं,
“हमारे हर सुख-दुख की साथी।”
“और फिर बनारस और दुर्गा माँ को छोड़कर कहाँ जाएँगे हम अब? लोग तो जाने कहाँ-कहाँ से मरने के लिए काशी आते हैं और हम कहीं और जाएँ, नहीं, ऐसा नहीं होगा।” बाबा बीच में ही माँ की बात काटकर बोल पड़े थे।

इसके पहले कि वह कुछ जवाब दे पाए, शब्दों के दुख से उबर पाए, गौरी चौके से तीर की तरह आई और बाबा को आराम कुरसी पर बिठाकर चाय का प्याला पकड़ा गई थी। बड़ों को चुप और शांत करने का इतना अच्छा तरीका तो पहले कभी नहीं देखा था उन्होंने। कितनी समझदार हो गई है यह गौरी- प्रणव ने ध्यान से गौरी को देखा। कुछ भी तो नहीं बदला था, वही कद काठी, वही विश्वसनीय आँखें और वही पुरानी आश्वासन देती मुस्कान। बस इक्की-दुक्की बालों में गुथी चाँदी की लकीरें ही गुज़रे वक्त की साक्षी थीं। उनके खाने पीने का, कमरा ठीक करने का, सब इंतज़ाम गौरी ने ही तो किया था। प्रणव को लगा कि उनसे भी ज़्यादा माँ और बाबा की सगी हो चुकी थी गौरी। और तब पहली बार प्रणव अपने मन के बीहड़ में जा छुपे थे, हर दुख-दर्द, एक-एक पछतावे और आँसू की गठरी साथ लेकर। सभी ने तो गौरी को पा लिया था सिवाय उनके। उद्वेलित मन फूट-फूट कर रोना चाहता था, शिकायत करना चाहता था अम्मा बाबा से, खुद गौरी से भी, परंतु पचास वर्षीय प्रणव बैनर्जी ने खुद को, एक बार फिर से सँभाल ही लिया।

उस शाम मंदिर में अष्टमी की पूजा थी। पंडाल फूलों से सजा हुआ था। गेंदा, गुलाब और चमेली की मालाओं ने माँ के भव्य गोल गुंबद को पूरी तरह से ढक दिया था। अशोक की पत्तियों में गुंथे गुलाब और बेले के फूल वातावरण को भीनी-भीनी और अनूठी गंध दे रहे थे। धूप-दीप और अगरबत्ती के साथ दिए में जलती वह घी और सामग्री की महक दूर गली तक जा फैली थी। माँ का अभूतपूर्व शृंगार हुआ था आज। कल विदा जो थी। गुलाबी गोटे की साड़ी, हरा किमख़ाब का ब्लाउज़। माथे पर झूमर और माथा पट्टी। नाक में नथ, होठों पर लाली और बड़ी-बड़ी मुस्कुराती आँखों में वह मनोहारी काजल की लकीर। पैरों में पायल व आलता और मेहंदी लगे हाथों में कलाई भर-भरकर चूड़ियाँ। प्रणव की आँखें टिक नहीं पा रही थीं, न माँ पर और ना ही गौरी पर। गौरी भी तो आज पूरे ही शृंगार में थी। उसने भी तो गुलाबी गोटे वाली साड़ी ही पहनी थी। नथ, माँग टीका, सब लगाए थे। याद नहीं रहा उन्हें कि परसों ही, सप्तमी की पूजा पर सिंदूर दान के बाद माँ ने ही यह गुलाबी साड़ी गौरी और नंदिता, दोनों को दी थीं। और दिए थे टीका, चूड़ी, बिंदी, पायल, आलता सभी कुछ। बरसों के बाद उस दिन प्रणव के तबले पर अपने सितार के साथ जुगलबंदी की थी गौरी ने। भैरवी, जैजैवंती से लेकर दीप और हिंडोल राग तक, डूब गए थे वे दोनों एक दूसरे में, सब कुछ भूल और भुलाकर। मानो अपने-अपने शरीरों से निकलकर दो आत्माएँ एक दूसरे के मन में राधाकृष्ण-सी जा बैठी थीं। दूर बैठकर भी दोनों के बीच कोई दूरी नहीं थी।

अचानक प्रणव बैनर्जी उठे और धनुचि हाथ में लेकर माँ के आगे नाचना शुरू कर दिया। बरसों बाद आज बहुत खुश थे वह। ढाक, मृदंग और पखवाज़ की आवाज़ें तेज़ होती चली गईं और साथ में ही लय में झूमते उनके पैर भी। शरीर में आज किशोरों-सी फुर्ती थी। धुएँ के बादल सर के ऊपर, कंधों पर, मुँह के चारों तरफ़ सफ़ेद रंग के कई-कई चक्र पर चक्र बना रहे थे। गोरे वक्ष पर काले बालों के बीच चंद सफ़ेद बाल पसीने की बूँदों में भीगे सोने से चमक रहे थे और सावन में झूमते मयूर से प्रणव अपनी दोनों बाहों को ऊपर उठाए, सधे नर्तक और साधक की तरह घूम-घूमकर कलैयाँ लिए जा रहे थे। पसीने की बूँदें अब धार बनी झरते पंखों-सी झर रही थीं और हाँफती साँसों की उनकी जयजयकार माइक से होकर पूरे ही पंडाल में गूँज रही थी। होश नहीं था उन्हें आज कुछ भी। नियोन की लाल पीली नीली हरी सतरंगी आभा फेंक रहे बल्ब, लटकी माला से गोरे चिट्टे तन को एक नयी आभा और रूप दे रहें थे और गौरी की आँखें अलौकिक रूप की एक-एक छवि मन में उतारें जा रही थी। एकटक देखती गौरी की आँखों में आज कोई शरम या लोकलाज नहीं थी। हाथ में झाँझ लिए गाती गौरी पूरी मीरा ही तो दिख रही थी उस वक्त। माई मैंने गोविंद लीन्हो मोल, कोई कहे सस्तो कोई कहे महँगो, लीन्हो तराजू तोल — उनकी भटकती आत्माओं से ही, दोनों की आँख से बहते आँसू ज़मीन पर कहीं मिलकर अब एक हो चुके थे। बंद पलकों के अंदर पलता वह सपना आज किलक-किलक कर कुलाचें ले रहा था। माँ जब भी आती हैं, नयी शुरुआत लेकर आती है और जाती हैं तो भक्तों की झोली में सबकुछ डाल जाती हैं और उन दोनों ने तो, भिखारियों-सी मन की रिक्त झोली माँ के चरणों के नीचे बिछा दी थी।

पूजा के उस शोर-शराबे में किसी ने नहीं देखा या जाना उनके उस हठ और पागलपन को, सिवाय नंदिता के जो अब घर वापस लौटने के लिए बेचैन थीं। घर आकर माँ ने बेटे की एक शिशु की तरह नज़र उतारी और पत्नी ने रातभर पैर दबाए, फिर भी ताप के सन्निपात में रातभर जाने क्या-क्या बड़बड़ाते रहे थे प्रणव बैनर्जी। माँ और नंदिता को दुर्ग महा काली माँ गौरी जैसे शब्दों के अलावा कुछ भी तो समझ में नहीं आ पाया था – या फिर शायद वे समझना ही नहीं चाहती थीं– तरकस से निकले तीर की तरह वक्त को वापस भी तो नहीं लाया जा सकता? निश्चय ही माँ आ गई हैं सर पर, ऐसा कहकर माँ ने मंदिर से औघड़ और ओझा तक को बुलवा लिया था बेटे की झाड़-फूँक के लिए।

सुबह माँ की विदाई का समय था। बेटी की विदाई की तरह ही हर आँख भीगी हुई थी और पंडाल में भोर से ही एक व्यस्त चहलकदमी थी। कहीं प्रसाद बन रहा था तो कहीं रथ सज रहा था। सवारी उठाने वाले लड़के माथे पर चंदन और तिलक लगाए प्रतिबद्ध प्रतीक्षा कर रहे थे और सध्य-स्नाता सुहागिनें के लंबे काले बालों से टपकी गंगाजल की बूँदें वातावरण में आचमन और संकल्प-सा– पूजा का एक पावन माहौल बना रही थीं। पुष्पांजलि के उस सौम्य पल में, सुबह-सुबह ही सभी श्रद्धालु पंक्तिबद्ध हाथ जोड़े खड़े थे।

कुंड के किनारे से, अस्सी और वरुणा से, राजा दरवज्जे के कोठे से, हाथी की सूँड से, सूअर के दाँत से और जाने कहाँ-कहाँ की मिट्टी से बनी और जुड़ी वह माँ की प्रतिमा सजीव थी आज। आँखें चंचल थीं और कुछ कहना चाह रही थीं। पुजारी पारी-पारी से हथेलियों पर पुष्प रख रहा था और श्रद्धालु माँ के चरणों पर अर्पण कर, अगले के लिए जगह छोड़, आगे बढ़ते जा रहे थे। माँ, नंदिता, गौरी, तन्मय, वैदेही सभी ने विधिवत श्रद्धांजलि दी थी पर प्रणव की पारी आते ही गदगद वह माँ के पैरों में लेट गए। आँखें उठीं तो सामने माँ की प्रतिमा में गौरी थी– वहीं आँखें, वहीं मुस्कुराहट, सँभल पाना मुश्किल ही था अब। और तब बहते आँसुओं से ही पैर पखारने लगे वह माँ के। “या तो मुक्ति दो मुझे इस प्रीत और राग से या फिर स्वयं में लीन करो। और नहीं सहा जाता यह बिछोह मुझसे।” हिचकियों में डूबी आवाज़ फसफसी और अस्पष्ट थी। फूलों को चरणों में छोड़, अष्ट भुजाओं की तरफ़ बाहें फैला दी थीं अब प्रणव बैनर्जी ने। गौरी और नंदिता दोनों ही उनकी तरफ़ लपकीं और इसके पहले कि वह पागलपन एक तमाशे में बदले, वहाँ से उठाकर घर ले आई थीं उन्हें।
“आज तुम्हारी तबियत ठीक नहीं। रात भर के सोए नहीं हो। अब कहीं नहीं जाना, बस आराम करो।” ज्योतिर्मयी की आवाज़ सख्त़ और बेटे के लिए चिंतित थी। परंतु प्रणव को कौन रोक सकता था अब– आज गौरी में माँ, और माँ में गौरी नज़र आई थीं उन्हें। पर न माँ को बाहों में ले सकते थे वे और न ही गौरी के चरणों में बैठकर पूजा कर सकते थे। माँ का विसर्जन हो चुका था और गौरी कबकी अपने घर जा चुकी थी।

एक बार फिर अपनी ही सोच की भँवरों में डूब चुके थे वे। अपने ही विकारों में घूमते-घूमते दम घुट रहा था उनका। पर कीचड़ से उगे कमल के फूल-सा मन हमेशा से ही इस देह के अंदर रहकर भी, देह से परे ही तो रहता है। इसे कौन सा बंधन, किस दूरी ने रोका है कभी? और मन के इसी गुण ने उबार लिया उन्हें तब। संसार में रहकर भी लिप्त नहीं हो पाना कभी, कैसे सीखा गौरी तुमने? आँख के आँसुओं को पोंछता उनका मन गौरी के बगल में जा बैठा था। उससे बस एक यही सवाल पूछे जा रहा था।

अनजान गुत्थियों को सुलझाता, धरती आकाश के बीच कहीं अपनी ही दुनिया में भटकता उनका मन, बस यही एक ऐसी गुत्थी थी जिसे नहीं सुलझा पा रहा था पर कभी टूटे नहीं थे वह। उनका हठी मन अक्सर ही उन्हें एक ऐसी दुनिया में ले जाता था, जो कि दूसरों के बनाए नियमों पर नहीं, स्व-निर्धारित मूल्यों और संकल्पों की धुरी पर ही घूमना जानती थी। एक ऐसी दुनिया जो कि रात-दिन को अँधेरे और उजेरे की धूनी पर बिठाकर एक अनूठी ज्योति जला देती थी उनके अंतस के तमस में। मन में बसे इस संसार में जहाँ कई अपने थे, हमेशा साथ रहते थे कई ऐसे अनाम और अनजान चेहरे भी थे जिन्हें देखने और पहचानने को उनका व्यग्र मन ललकता ही रह जाता था, पर वे अधगढ़ी मूर्तियाँ कभी भी स्पष्ट और साकार रूप लेकर सामने न आतीं, बस मरु में चमकते कनों-सी छलती और भरमाती ही रह जाती। यह दुर्गा माँ भी उस अनंत का ऐसा ही एक रूप है क्या? छी, छी क्या सोच रहे हैं वह– प्रणव बैनर्जी ने अपनी राक्षसी सोच को धिक्कारा और संयम की लगाम से रोक लिया।

इसका यह अर्थ नहीं कि जीवन संयमहीन, अराजक और अतृप्त था उनका। बेहद धैर्यवान सुलझे और सधे स्वभाव के थे प्रणव बैनर्जी। जो मिल गया, या जिसे अपना कह दिया, उससे ही खुश रहना भलीभाँति आता था उन्हें भी। नियतिवादी नहीं थे वे, पर सब्र करना बचपन से ही सीख लिया था उन्होंने। बस थोड़ी-सी ज़िद और एक हठी आग्रह था उनकी सोच में– मन के बहुत ही पक्के थे पर वह, संयम की लगाम से कसकर रखते थे खुद को। चीज़ों को त्याग तो सकते थे पर खुद को बस काट कर अलग नहीं कर पाते थे प्रणव बैनर्जी। मन में कुछ ठान लिया और सही लगा तो चल पड़ते थे उसी राह पर, फिर चाहे पथ में कितने भी आँधी-तूफ़ान आएँ, परवाह नहीं थी उन्हें इसकी। असल में एक विरोधाभास का नाम था प्रणव भास्कर बैनर्जी- एक उलझी हुई गुत्थी थे, बेहद समझदार दिखते प्रणव भास्कर बैनर्जी।

स्थिति जब असह्य हो चली तो महाकाल की उस अर्धरात्रि में ही बिस्तर से उठकर बाहर आ गए वे। कदम स्वत: ही गौरी के घर तक ले गए थे उन्हें पर एक भी आवाज़ नहीं दी थी उन्होंने, इतना होश और संयम था अभी उनके पास। घंटों दरवाज़े को फूलों से सजाने के बाद प्रणव बैनर्जी एकबार फिर उठे और घर से दस कदम दूरी पर बसे अस्सी घाट की कीचड़ लगी सीढ़ियाँ उतरने लगे। गंगा की मटमैली लहरों में डूबे, आज शरीर ही नहीं आत्मा तक को धो देना चाहते थे वे। रात के उस अँधेरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझता, किनारे पर बँधी रस्सी की वह कसी गाँठ तक खोल डाली थी उन्होंने और नाव खुद ही खेते-खेते मझधार तक चले गए थे– वहीं, जहाँ सुबह-सुबह माँ का विसर्जन किया गया था। परेशान आँखें माँ को ढूँढ़ रही थीं और होठ गौरी को आवाज़ दे रहे थे। ऐसी ही आँसुओं में डूबी पूरी वह रात, नाव खेते-खेते और माँ को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते ही निकाल दी थी उन्होंने। किनारों पर जलती लाशों की उस धुँधली रौशनी में कहीं तो गंगा की लहरों पर तैरते बुदबुदे थे तो कहीं फूल, पत्ती और बेलपत्र- बस और कुछ नहीं।

कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा उन्होंने? कहीं अधजला मुर्दा दिख रहा था तो कहीं तैरता मरा कुत्ता। फूल पत्ती कौवा बिल्ली सब दिख रहे थे पथराई आँखों को सिवाय देवी माँ के। गंगा की लहरों के बीच विलुप्त हो चुकी थीं वे। अधीर प्रणव के बहते आँसू भी वापस नहीं ला पा रहे थे माँ को अब।
सूरज की पहली किरन के साथ ही अचानक उनके मन की व्यग्रता ने ढूँढ़ ही निकाला था उन्हें। गंगा के दूसरे किनारे पर कमर तक कीचड़ में फँसी माँ की वह मूर्ति मानो आठों बाहें फैलाए बस उन्हीं का इंतज़ार कर रही थीं। किरन का प्रकाश सीधा मुकुट और चेहरे पर था और देवी के रूप की उस आभा से पूरा का पूरा गंगा का पाट जगमग कर रहा था। प्रणव ने दौड़कर मूर्ति को बाहों में भर लिया। पागलों की तरह दुलारने लगे उसे। गोदी में सर रखकर बच्चों की तरह एकबार फिर फूट-फूट कर रोने लगे वे, “वादा करो अब मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाओगी गौरी।” पता नहीं थके मन का भ्रम था या फिर सन्निपात का असर, माँ की वह मूर्ति हिली और एक आँसू मूर्ति की बायीं आँख से गिरकर उनकी सूनी हथेली पर फैल गया। मूर्ति अब हाथों से फिसलकर दूर मझधार की तरफ़ बही जा रही थी। गंगा की जिस लहर ने मूर्ति को वहाँ उनके लिए रोककर रखा था, अब वही उन्हें उनसे दूर बहा ले जा रही थी। पहले गर्दन फिर हाथ– एक-एक करके सब डूब रहे थे- धीरे-धीरे हिलते डुलते, मानो अगले साल फिर आने का वादा कर रही थीं माँ।

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