कहानी समकालीनः वार्ड नं. 18- शैल अग्रवाल

वार्ड नँ. 18

फटे गुब्बारे में से निकली हवा सा धीरे-धीरे सारा तनाव बाहर निकल आया। देखने आए लोग मुस्कुराने लगे। नर्सों के हाथ-पैरों में फिर से फुर्ती आ गई। मैरी आज छह महीने के बाद उठकर जो बैठी है। बिस्तर पर लेटे-लेटे, ऑक्सीजन मास्क के नीचे जीवन से लड़ रही मैरी अचानक स्वस्थ लगने लगी है।

कुशल हाथों ने जल्दी-जल्दी बिस्तर की सारी सलवटें हटा दीं। जीवन और मौत की दूरी कितनी है मालूम नहीं पर इन दरवाजों के बीच निकलती जिन्दगियों ने मौत को अक्सर बहुत पास से, जीवन के साथ-साथ चलते देखा है। रिश्तों का टूटता बिछुड़ता अहसास और असँभावित सँभावनाओं का डर—- पानी की काँपती चन्द बूँदें आँखों में तैरने लगती हैं। रोने से भी बद्तर एक करुण मुस्कान होठों पर आ चुपकी है, जो अवश्यँभावी है उससे डरा नहीं जाता— एकनिष्ठ आत्म-समर्पण माँगती हैं ये निर्णयात्मक घड़ियाँ। और मैरी ने ईशू के आगे हाथ जोड़कर, खुद को, रॉबर्ट को, अब ईश्वर के भरोसे छोड़ दिया।

” सॉरी मिसेज व्हाइट अब आपके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। ”

डॉ. के अभी चन्द घँटों पहले कहे ये शब्द बार-बार मैरी को समय गिलास में रक्खी बालू सी फिसलती जिन्दगी की क्षण-भँगुरता का अहसास दिला रहे थे। तुम्हारे पास वक्त बहुत कम है। बार-बार कानों में आकर फुसफुसा रहे थे।

” तो मुझे क्या करना चाहिए, क्या चाहते हो तुम ? ”  मैरी उन दीवाल पर नाचती, परेशान करती परछाइयों से ही पूछने लगी। सामने चार्ट पर बड़े-बड़े अक्षरों में “टी. एल. सी. ओनली” लिखकर डॉ कूपर अपनी इन्सानी मजबूरियों से बँधे, लाचार आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे वक्तों में याद आता है कि शायद हमसे अलग कोई ऊपर बैठा अपने ठँग से दुनिया सँचालित कर रहा है, जिसकी योजना में हमारी कोई दखलँदाजी नहीं। कुछ भी नहीं बदला जा सकता। कुछ भी नहीं किया जा सकता। ज्ञान और विज्ञान से भी नहीं। टी. एल. सी. यानीकि ‘ टैन्डर लविंग केयर ’। बस प्यार ही प्यार। दुलार ही दुलार…। और इससे ज्यादा क्या चाहिए जिन्दगी को ? मैरी समझ नहीं पा रही। प्यार के, आवाहन के, ये शब्द भला मृत्यु-दँड कैसे हो सकते हैं ? ये तो मुक्ति के दस्तावेज थे। मुक्ति, इस दर्द और घुटन से। मुक्ति, इस जर्जर अस्सी वर्ष की जीर्ण काया से। शायद एक नयी रोमाँचक यात्रा की शुरुवात हो या फिर एक लम्बी अखँड विस्मृति की, चैन की नींद मिले। दोनों ही स्थितियाँ ज्यादा राहतमय थीं। रहस्यमय और रोमाँचक थीं। जब हाथ में कुछ नहीं तो सोचना क्या ? डरना कैसा ? तीन महीने से एक बहादुर सिपाही की तरह दर्द और बीमारी से लड़ रही मैरी ने आज हथियार रख दिए थे। अब इनकी कोई जरूरत नहीं। समय आ गया था जब साहस के साथ सच को भी अन्दर समेट लिया जाए और मैरी ने यही किया भी। डॉ. ने उसके कमजोर हाथ प्यार से अपने हाथों में लेकर, दूर कहीं घुप कुँए से आती मजबूर सी आवाज में पूछा था ” क्या आप मुझे सुन सकती हैं मिसेज व्हाइट ? ” और मैरी ने उत्साह में अपनी कमजोर पलकें दो बार झपका कर स्वीकृति दी थी।

” सॉरी, अब आपके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता।”

फिर बन्द हो गया सब… दवा,  इंजेक्शन और पल-पल की जाँच-पड़तालों का सिलसिला। आखिर कितना दर्द बर्दाश्त करती मैरी, कबतक और क्यों बर्दाश्त करती, विशेषत: तब, जब जिन्दगी की चिनगारी हर पल दर्द की एक मोटी परत से ढकी रहती थी। दर्द जो सोडा की बोतल में बँद गैस के बुदबुदों सा उसकी रग-रग में भर गया था। बाहर आने को कुलमुला रहा था।

बच्चों सी उत्साहित मैरी आज उठ बैठी थी वैसे ही जैसे बुझने से पहले लौ कुछ और तेज हो जाती है। आज वह खाने के साथ वाइन लेगी और पुडिंग भी। बिल्कुल वैसे ही जैसे चालीस साल पहले लेती थी फ्रैंक के साथ। चिल्ड आइसक्रीम और हौट कस्टर्ड। कितना चिढ़ाता था फ्रैंक उसे, ”  तुम्हारी पुडिंग भी बिल्कुल तुम्हारे स्वभाव की ही तरह है…हौट और कोल्ड सबकुछ साथ-साथ।”

मैरी के सुनहरे बालों में खेलती धूप फ्रैंक की आँखों में चिनगारी बनकर मचल उठती। उसकी नीली आँखों में तैरती खुशी मन में प्यार का सागर लहरा देती। आज सबकुछ बस कितना ठँडा और फीका रह गया है। सिकुड़ते,  एँठते पैरों में मोजे चढ़ाते हुए मैरी ने सोचा। उसकी खुरदुरी काया सी खुरदुरी जिन्दगी अब कभी मखमली नहीं हो पाएगी। फ्रैंक जाने कहाँ खो गया था। उस कब्रिास्तान में जहाँ मैरी अक्सर फूल लेकर जाती थी, वहाँ तो बस उसकी यादें ही सोई पड़ी थीं। फिर भी बक्त-बेवक्त वह राहत ढूँढती वहाँ पहुँच ही जाती थी। उन्हें ही दुलरा और सहला आती थी। समय का घोड़ा ठक-ठक दिनों को अपने पैरों से रौंदता कुचलता भागा जा रहा था पर ये हठीली यादें झाग फेंकती, हाँफती आज भी उसीके साथ घिसटी जा रही हैं। मैरी की तरह ही, अपने गन्तव्य से जूझती-भागती,  जान-बूझकर अनजान बनती– अपनी इच्छाओं से खुद ही अनिभिज्ञ।

वार्ड नँ. अठ्ठारह अजीब सा कमरा है। रौशन और हवादार…खुला-खुला, पर कराहती काली परछाइयों में बन्द। रहस्यमय और सुनसान पर फीके कहकहों से गूँजता। सबकुछ भूलकर आँखें बन्द कर लो, तो नींद आ ही जाती है- राहत मिल ही जाती है। पर अपना और दूसरों का दर्द, सब कुछ भूलकर, पीछे छोड़कर सो पाना हर व्यक्ति के लिए इतना आसान तो नहीं !

किशोरी मैन्डी बिल्कुल अपनी माँ जैसी ही सुन्दर है।

नाजुक, कलात्मक फूलों के गुलदस्ते को हाथ में पकड़े बिस्तर पर लेटी रोजलिन आज भी अपनी बेटी से कम सुन्दर नहीं। कौन कह सकता है कि इसे जानलेवा कैन्सर है और इसकी जिन्दगी भी  वर्ष क्या, चन्द महीनों से ज्यादा की नहीं है। सामने रखे हुए सुन्दर पके फलों की तरह, बाहर से देखने में तो पूर्णतः स्वस्थ और सुन्दर पर अन्दर-ही –अन्दर कैंसर के कीड़ों से घुनी हुई।

रोजलिन को अभी-अभी थियेटर ले गए हैं। हँसकर, साहस और आत्म-विश्वास के साथ उसने अपने पति और बेटी से विदा ली है। पति जो अभीतक मुस्करा रहा था। प्यार से हाथ सहला-सहलाकर रोजलिन को तसल्ली दे रहा था,  बेटी से आँखें चुराकर आँसू पोंछने लग जाता है।

पर बेटी को तो अब आँख चुराने का भी होश नहीं। वह आज जी भरकर रोना चाहती है। उसे तो यह भी पता नहीं कि वह आखिर यूँ लगातार रो भी क्यों रही है ? इसलिए कि उसकी मां बहुत बीमार है या फिर इस खुशी में कि वह अब जल्दी ही ठीक हो जाएगी। बिस्तर पर रक्खे हुए फूल रोजलिन का इन्तजार करते रहेंगे,  वैसे ही जैसे किसी मकबरे पर रक्खे करते हैं– खूब अच्छी तरह से जानते हुए भी कि शायद नीचे चैन से सोया इन्सान अब कभी नहीं जग पाएगा। पर रोजलिन को तो जगना ही होगा, अपनी मैन्डी की खातिर। फूल सी बिखरी इस खुशनुमा जिन्दगी की खातिर। अभी तो लड़ाई शुरु हुई है। मैरी की बात और है, वह तो थककर सँधिपत्र दे चुकी है। हार चुकी है, नहीं शायद जीत चुकी है। फिसलते कगारों पर टिके पेड़ों सी गिरने से डरना भूल चुकी है।

वार्ड नँ.  18 अजीब सा कमरा है, डरावना, अजनबी, पर एकबार जान लो, अपना लो, तो आरामदेह हो जाता है।  घर बन जाता है। बिल्कुल जिन्दगी की तरह। शरीर में छुपी अदृश्य आत्मा की तरह,  बेहद दुबली-पतली कृष्-काय पर्ल.. पर्ल जो अपने दुख को मुस्कान में समेटे, हरेक का हालचाल पूछती घूमती रहती है। लगता ही नहीं अभी चन्द दिनों पहले इसका भी ऑपरेशन हुआ है। अपने कार्डों को, फूलों को, एक-एककर बड़े जतन से बार-बार सजाती-सँवारती पर्ल। एक कार्ड अचानक जाने क्या कह जाता है कि हँसती मुस्कुराती पर्ल, गुड़िया सी शिथिल होकर लुढक जाती है। सुबकने लग जाती है। मन करता है जाकर उसके आँसू पोंछूँ, कुछ कहूँ पर पैर जमीन से जुड़ गए हैं। दुख और नदी, दोनों बस बहना ही जानते हैं। भला कौन छीन पाया है उनके इस अधिकार को। और शायद इस बहाव को रोकने से बाढ़ भी तो आ सकती है ? अचानक बेटे-बेटियों और शुभ-चिन्तकों का एक हुजूम, फूलों और मुस्कानों से लदा-फँदा पर्ल का हालचाल लेने आ जाता है। और पर्ल वैसे ही अपनी अलौकिक मुस्कान से उनका स्वागत करती है। वैसे भी सुना तो यही है कि देवदूत कभी नहीं रोते।

चारो तरफ दुख और दर्द का हुजूम, अजीब सा माहौल है। वही एक जानी-पहचानी कहानी। पँख नुची मुर्गियें सी आहत जिन्दगी, ठीक होने के इन्तजार और उत्कँठा में बेचैन छटपटाती। इधर-उधर दौड़ती-भागती। मन कराहता है इस शरीर से सारे रिश्ते तोड़ लो। पर अगले पल ही हाथ दर्द की गोलियों की तरफ खुद ब खुद बढ़ जाता है।

‘ बस आज और दर्द बर्दाश्त कर लो, कल सब ठीक हो जाएगा।’ नर्स कह रही है।

शब्द जाने-पहचाने जरूर हैं पर जाने क्यों अब बेईमान लग रहे हैं।

‘ फिकर मत करो बहुत मामूली सी तकलीफ है। ‘

‘  फिकर’ , फिकर तो यहाँ हवा में मक्खन की टिक्की सी जमी पड़ी है। अगर जरा भी नर्म-दिली से सोचो तो स्पष्ट छुरी सा काट सकते हो उसे। यह बात दूसरी है कि अगले पल ही मक्खन सी पकड़ से फिसलकर बह भी जाएगी। बस एक हमदर्द मुस्कान की उष्मा में, एक आश्वासित स्पर्श के नीचे।

पर दर्द तो सिर्फ महसूस किया जा सकता है, न। महसूस करने के लिए दर्द से गुजरना होता है और चाहकर कोई भी दर्द से गुजरना नहीं चाहता। पोर्कीपाइन सी अपनी बाँह को सहलाते-खुजाते मैं सोच रही हूँ अब कौन सा कोना बचा है जहाँ अगला इँजेक्शन लगाएगी यह नर्स। पर परेशान होने की जरूरत नहीं, नर्स झट कुछ ढूँढ ही लेती है और पचासों गाठों जैसी दुखती गुठलियों में एक नयी गुठली और शामिल हो जाती है।

‘कसकर पकड़ी रहो, बाद में अपने मित्रों को दिखाना कि देखो मुझे कितनी सूइयाँ लगी हैं’, नर्स मुस्कुराकर कहती है।

‘ दिखाना’ , किसे दिखाना ? यहाँ, जहाँ आदमी बन्द आँखों से चलता है, कौन देखेगा और क्या देखेगा ?

छोटी-सी गुड़िया-सी वैलरी चुपचाप सबका दर्द महसूस कर रही है, बाँट रही है। रात में दबे पाँव आकर हर ड्रिप और खाली सैलाइन के बैगों को बदल जाती है। उघड़े कम्बलों को उढ़ा जाती है। गिरे तकियों को फिर से सिराहने लगा जाती है। शायद किसी दर्द में थोड़ी राहत मिले। कोई उलझी डोर सुलझ जाए।

रोड-रोलर सी सारा भी बार-बार सब देख जाती है। सबकुछ एक व्यवस्थित तरीके से ही तो चल रहा है फिर अक्सर क्यों अँधेरी छतों पर कराहती ये परछाइयाँ चुगली कर देती हैं, मुँह चिढ़ा जाती हैं ?

‘ तुम्हारी व्यवस्था ठीक है पर हम चाहें तो एक पल में ही किसी शैतान बच्चे सा यह सारा खेल बिगाड़ सकते हैं ‘ कहजाती हैं।

माना अस्पताल डरावनी जगहें हैं पर ये अस्पताल आत्मीय जगहें भी तो बन सकती हैं अगर हम लोगों को जान लें, अपना लें, बिल्कुल जिन्दगी की तरह। हर पीड़ा एक दृष्टि देती है। दृष्टि जो देख सकती है। आत्मसात् कर सकती है। हमें विध्वँस और पलायन के मार्ग बताती है। कभी-कभी तो जीतना भी सिखाती है। दर्द की तहों को चीरकर पुनः सम्पूर्ण सृजन करना भी सिखाती है । और फिर जैसे हर इतिहास घावों से भरा होता है, घावों का भी तो अपना एक इतिहास होता है। स्मृति-स्मारक सा इन्हें भी तो धोया और चमकाया जा सकता है। पाला और सहेजा जाता है।

एक घाव जिसने कभी जिन्दगी का सबसे प्यारा उपहार दिया था आज उसी घाव से निकल कर सब कुछ बाहर आ गया है। एक जादुई थैला, उसका मुँह, मुँह की बन्द सील, सब कुछ। अचानक जब विजय-स्मारक बस मील का एक पत्थर बनकर रह जाए, तब क्या करना चाहिए?  कुछ नहीं शायद… क्या कुछ करने और न करने से कोई ऐतिहासिक महत्व घट या बढ़ जाता है ? आनन्द और दर्द से जुड़ी हर अदृश्य डोरी तो शायद जीवन से जुड़ी होती है। यादें बन रग-रग में रक्त सी दौड़ती है। शिराओं में वक्त-बेवक्त बिजली सी कड़कती है । चाहे अनचाहे आँखों से बेबक्त की बरसात-सी बहती है। पर होठों पर हठीली मुस्कान सी बैठी गुनगुनाती भी तो यही है।

देख रही हूं, अचानक वार्ड में एक हलचल सी हो गई है। कई नर्सें एक साथ मैरी के बिस्तर की तरफ दौड़ पड़ी हैं। उसके बिस्तर के चारो तरफ परदा खींच दिया गया है। उसे सबसे काट और अलग कर दिया गया है। क्या मैरी गयी— मन फिर डरता है। अस्पताल कितनी निराशामय और दुखपूर्ण जगह है। कैसे रह पाते हैं यह डॉ. और नर्सें यहाँ चौबीसों घँटे, इसी माहौल में ?

सहमी आँखें फिर से मैरी के बिस्तर की तरफ ही चली जाती हैं। बिस्तर साफ-सुथरा और खाली है… नये मरीज के इन्तजार में।…
मैरी शायद हॉस्पिस चली गई।… या फिर शायद..?.मन अब आगे और सोचना नहीं चाहता। ठीक ही तो है, ज्यादा जुड़ना भी तो ठीक नहीं,  जीवन की तरह… गुलदान में बिस्तर के पीछे रक्खे मैरी के इन फूलों की तरह, जो अब एक नये मरीज को राहत देने के लिए तैयार हैं।

मई-2000

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