कहते हैं जब अहसास मिट जाते हैं तो सुबह दुपहर शाम सब एक से ही लगने लगते हैं…बेरंग और फीके-फीके। पत्नी की मृत्यु के बाद बुढ्ढा भी अकेला रह गया था। शायद उसके दिनरात भी कहीं अटक गए थे…खो गए थे रिश्तों की दौडती-भागती इस भीड़ में। रोज-रोज ही खांसता-कराहता, हर बूढा दिन बडी मुश्किल से एक और रात को निगल पाता और गले में फंसे कफ से सारे सपने अक्सर खुली आंखों में ही जमे रह जाते । अकडी-झुकी कमर और दुखते घुटनों के संग बिस्तर से निकल पाना, घूमना-फिरना अब उसके लिए आसान नहीं था। थोडी भी हलचल और खुशी उसके बूढे बीमार दिल में तब होती, जब बच्चे स्कूल जाते या फिर स्कूल से वापस घर आते।
पर किसी के भी पास तो समय नहीं था कि पल भर रुक कर उसके पास बैठता, उससे दो बातें करता। बस उनके पैरों की आवाजें और घिसटते बस्तों का शोर…यही सब सुनकर बुढ्ढा खुश और तृप्त हो लिया करता था। अक्सर कमरे की डयोढी पर आ बैठता और उसके बाद फिर एक लंबा इंतजार करता शाम होने का… जब बच्चे फिरसे घर लौटेंगे… दौडेंग़े-भागेंगे— आपस मे लडे-झगडेंग़े…वैसे ही हंसें और चहकेंगे। बुढ्ढा अब आवाजों की परछाइयों से मन बहलाना सीख चुका था। वह खूब अच्छी तरह से जानता था कि यदि इस सन्नाटे से नहीं जूझा तो एकदिन बस यही खामोशी उसे ले डूबेगी।
उस दिन अँधेरे को पी-पीकर रात और भी उद्दंड और डरावनी हो चली थी। बेतरतीबी से उड़ती हवाएँ सीटी पर सीटी मारे जा रही थीं और दर्द किसी शरारती बच्चे सा बारबार उसकी छाती के इर्द-गिर्द घूम रहा था। अधजली लालटेन के अँधेरे में बाप को कसकर छाती से लगाए पगली गौर से उसकी हर उठती-गिरती सांस को गिने जा रही थी। एक, दो, तीन, चार… उखड़ती साँसों की इस उधेड़बुन में न तो पगली ही पंप दे पाई और न बुढ्ढा ही मांग पाया। बिजली को भी अक्सर ऐसे ही मौकों पर जाना होता है। अचानक पलकों पर आए आँसू सा बुढ्ढे का सर एक ओर ढुलका और वह चला गया…चुपचाप, जैसे जीता था वैसे ही… बिना किसी धमाके के या चीख पुकार के…किसी को कोई तकलीफ दिए बगैर ही।
उसने तो किसी से एक गिलास पानी तक का नहीं मांगा था। जीवन की तरह आज उसकी मौत भी इतनी साधारण और महत्वहीन थी कि यदि शव की अन्तिम क्रिया की जिम्मेदारी ना होती तो शायद घर में किसी को पता तक न चल पाता।
जल्दी जल्दी सब काम निपटाए गए। लाश को ज्यादा देर तक रखना ठीक भी तो नहीं और ज्यादा रोनेधोने से भी क्या फायदा? भरी पूरी उमर में गया है बुढ्ढा। वैसे भी साठ-सत्तर की उमर कोई कम तो नहीं होती ! साधू-सन्त था जो हाथ पैरों से चला गया– कम से कम किसी से सेवा तो नहीं करवाई। घर में चारो-तरफ जितने मुँह उतनी ही बातें थीं।
दूर खडा वह नहीं सोच पा रहा था कि ऐसे में आखिर उसे अब और क्या करना या कहना चाहिए ? वैसे तो वह यह सब सुनते ही दौडा चला आया था पर शब्द कोई तीतरबटेर तो नहीं जो हाथ लपकाकर पकड़े और पका-सजाकर चांदी की तश्तरी में पेश कर दे। आज तो वैसे भी वे पकड में ही नहीं आ रहे थे। होठों तक आ-आकर फुर्र हो जा रहे थे। उसके कान और सर के अन्दर-अन्दर ही भिनभिनाए जा रहे थे। पहले वह अपने अन्दर के इन सायों से तो लड ले, फिर दूसरों के बारे में सोच पाएगा। वैसे तो उसे भी यह पता है कि हम सभी अपने अन्दर कई-कई साए लिए घूमते हैं, फिर उसमें और इस सामने बैठी पगली में इतना फर्क क्यों है? इस पगली को तो कभी उसने अपने सायों से डरते नहीं देखा। शायद उसने गठरी में कहीं एक जादूई आइना छुपा रखा है और जब जी चाहे, वह इन सायों को देख लेती है, पहचान लेती है- बातें करलेती है। यह तो शायद उन्हें दुलार और धिक्कार तक सकती है !
चेहरा ज्यादा डरावना हो तो पगली रोती, चीखती-चिल्लाती या फिर कभी कभी तो बिल्कुल ही खामोश तक हो जाती। झट बाप की गोदी में छुप कर सो जाती। पर अगर कभी साया जाना-पहचाना या प्यारा निकल आए, तो पगली का लाड़ आकाश छू लेता… घंटों का चूमा-चाटी का सिलसिला शुरु हो जाता। ढेर सारी बातें होतीं। यहां तक कि गीत संगीत सब होता और होते जी भरकर शिकवे-शिकायत-- मानो दो पुरानी सहेलिया मिल बैठी हों। पर इस पगली के बारे में वह क्यों इतना सब सोचता और जानता है? क्या इसलिए कि कभी वह भी इसके बहुत पास था–आखिर बहन है उसकी। पर अब उसके दुख से कलेजा मुँह को क्यों नहीं आता…समझ में नहीं आ रहा कि मुँह में आई इस कडवाहट को कैसे और कहां थूके? चुपचाप ही वह सब कुछ पी गया– सबसे अलग-थलग, दूर दूर, वहीं खडे-ख़डे ही…
अपनी ही दुनिया में कैद पगली का यूँ रोना-चिल्लाना, हंसना-गाना पूरे घर के लिए एक सर-दर्द बनता जा रहा था। कैसे उठना है– कहां बैठना है? कब क्या करना चाहिए– किसी भी बात का मानो कोई शऊर ही नहीं रह गया था उसे। पर अब सेठ विश्वंभर दयाल की लाडली, इकलौती बेटी को घर के बाहर भी तो नहीं फेंका जा सकता—विशेषकर तब, जब पूरा परिवार ही सेठ जी के रहमो-करम पर ही पलता था !
यूँ तो सेठ विश्वम्भर दयाल, सेठजी से बुढ्ढा कब बने, उसे भी याद नहीं– पर अब कोई फरक भी नहीं पडता– हाँ शायद उस दिन, जब उन्होंने गल्ले की चाभी पहली बार अपने भाई दीनदयाल को पकड़ाई थी—या फिर शायद उस दिन जब उनकी बीमार लाडली बेटी को पहला दौरा पडा था और परेशान बाप सारे काम-धंधे भूलकर बस डॉक्टरों और हकीमों की चौखट से ही बंधा रह गया था। मंदिरों में सर पटकता दिन-रात उसके लिए दुआ मांगता फिर रहा था और उसकी हर नामुराद प्रार्थना उसकी पगली बेटी-सी गले लगी यूं ही उसके कांधे पे सर रख, सुबक-सुबककर सो जाया करती थी।
पर आज तो हद ही कर दी थी इस पगली ने। अर्थी के लिए आई सारी मालाओं को तोड ड़ाला था उसने। चिन्नी-चिन्नीकर कुछ फूल बाप पर डाले, कुछ खुदपर और फिर एक एक पंखुड़ी चुनकर बडे ध्यान और धैर्य से बाप के ऊपर सजाने लगी। इतनी आहिस्ता और हिफाजत से मानो जरा भी आहट पर बुढ्ढा उठ बैठेगा– हमेशा की तरह ही पूछेगा ‘ सोई नहीं बेटा ? ‘ और फिर गोदी में सर खींच कर उसका माथा चूमेगा– बाल सहलाएगा। पर ऐसा आज कुछ भी नहीं हुआ। बूढ़े बाप में कोई हरकत नहीं थी। थककर पगली ने खुद ही मुरदे बाप की गोदी में सर रख दिया। यही नहीं उसे नर्सरी राइम्स तक सुना डालीं। जाने क्या क्या गाने भी गाए। कभी बाप की आँखें खोलने की कोशिश करती तो कभी अपनी तरफ उसका मृत चेहरा घुमाना चाहती। यहाँ तक कि तैयार शव की बन्द आँखों पर दौड़ क़र चश्मा तक लगा आई वह तो, शायद बाप को ठीक से दिख नहीं रहा है कि उसके पास कौन बैठा है और उसे पहचान नहीं पा रहा हो? फिर अचानक खुद ही पूरे होश में भी आ गई। सर हिलाती-डुलाती कहने लगी, देखना, मैं रोउँगी तो कतई ही नहीं। पापा कहते थे न कि ‘ बेटा जब मैं मरूँ, तो तू बिल्कुल ही मत रोना, चाहे पूरा घर कितना ही क्यों न रोए– मैं सबका रोना-धोना तो बर्दाश्त कर लूंगा, पर तेरे आँसू नहीं देख पाउँगा। वचन दे, मेरी गुडिया तू नहीं रोएगी, वरना मेरी आत्मा तो बहुत ही तकलीफ पाएगी।‘ और जहां तक बाप की तकलीफ का सवाल था पगली पूरे होश में थी। और वह सच में नहीं रोई। बस फटी फटी आँखों से सब देखती रही। समझने की कोशिश करती रही।
‘ धूप चढ रही है देर करने से क्या फायदा ? ‘कह कर घरवालों ने पगली को शव से अलग कर दिया और अर्थी लेकर चल पडे।‘मैं भी जाउँगी पापा के साथ। मुझे भी शमशान जाना है।‘-- पगली को अब एक नई रट लग गई थी पर मरघटे पर औरतें तो नहीं जातीं… सबको ही यह बात पता थी। किसी ने पीछे आती पगली को बांहों में जकडा तो किसी ने धूल में लिथडता आँचल सँभाला पर जाने कहां से पगली में गजब के बल और हठ आ गए थे’ कहा—‘ कहां ले जा रहे हो मेरे पापाको आखिर तुमलोग–मुँह खोलो इनका ‘– आहत पगली करीब-करीब रोती-सी गुर्रा रही थी ’ हटो सबमुँह पर से हटाओ यह कपडा – साँस लेने दो पापाको। ‘ फिर यकायक खुदही आग-आग-पानी-पानी चिल्लाने लगी वह। ‘ पानी लाओ– आग बुझाओ। देखो मेरे पापा जल रहे हैं–‘ पगली रोती रही। हँसती और गाती रही और तीन घंटों में वहां मरघटे में उसका सबकुछ जलकर भस्म हो गया।
चुपचाप खडा वह बस दूर से देखे जा रहा था इस पगली को। एकबार तो उसका भी मन किया कि आगे बढक़र पगली को समझाए, सान्त्वना दे। आखिर बहन है उसकी, मुँहबोली ही सही। बचपन में भैया-भैया कहकर आगे पीछे घूमी है–सुख-दुख बाँटे हैं उसके। पर अँत में ऐसा कुछ भी नहीं किया उसने… क्योंकि सिर्फ कह देने भर से, मुँहबोला बेटा या भाई बना लेने से ही तो कोई बेटा या भाई नहीं बन जाता। बाप की भी तो कुछ जिम्मेदारियां होती हैं– जैसे बेटे से अपेक्षा की जाती है। एक ही झटके में उसे दूध में पड़ी मक्खी-सा बाहर निकाल फेंका –वह भी इन घरवालों के कहने पर। कैसी मक्खन-सी चिकनी आवाज मे कहा था बुढ्ढे ने– ’ जाओ बेटा, अपनी जिम्मेदारी खुद उठाओ। अच्छा ही है अगर तुम मेरे आगे अपने पैरों पर खडे हो जाओगे। और फिर तुम्हें इस पगली को भी तो संभालना है?’ क्यों संभाले वह इस पगली को– क्यों निभाए यह फालतू की जिम्मेदारी– जिम्मेदारी पर उसे याद आया कि शमशान में आग शायद उसे ही देनी हो। वह दौड पड़ा--कहीं खामखव्वाह देर न हो जाए।
शमशान में चिता धू-धू जल रही थी। दूर से ही प्रणाम करके वह चुपचाप घर लौट आया, पत्नी और बच्चों के पास। वहां घाट पर किसी को उसकी उपस्थिति या अनुस्पतिथि का एहसास तक न था। अगले दिन फूल बीनने में उसने भी परिवार की मदद की। कलश में बन्द फूलों को कहीं पगली तितर-बितर न कर दे इसलिए सब कुछ ढक-छुपाकर, संभालकर रख दिया गया था। मन तो उसका भी बहुत किया कि एकबार, बस एक बार बेटी को बाप से मिला दे। कम-से-कम भाई होने का एक फर्ज तो निभा ही दे। पर बरसों से मन पर चढे फ़ालिज ने उसे कुछ भी करने से रोक दिया। अनाथ होने का दर्द पगली के मुंह पर जाने क्यों उसे अच्छा लग रहा था। उसकी दुखती रग को सहला रहा था।
बहुत लाडली थी न बापकी, भुगते अब। क्यों करे वह कुछ। उसके लिए क्या किया था किसीने? पलने को तो कुत्ते और बिल्लीके बच्चे भी पल ही जाते हैं। सिर्फ खिलाने-पिलाने-पढाने-लिखाने से ही तो मा-बाप का फर्ज पूरा नहीं हो जाता। शादी ब्याह कराके काम धंधे में झोंककर ही तो बाप का हक नहीं मिल जाता। इस पगली जैसा प्यार तो कभी नहीं मिला उसे। देखता हूँ कौन अब इसके नाज-नखरे उठाने आता है? यदि बुढ्ढा समझदार होता तो उसके भी हर छोटे-बड़े दुख पर ऐसे ही हंसता और रोता। बेटी की तरह उसके भी सपनों की किताब के हर पन्ने पर चांद-सितारे चिपकाता। यह बरसात का मौसम भी कितना अजीब है अपनी ही बूंदों की रेल-पेल में पानी भीगता जाता है। मौसम की इस चिपचिपाहट से बचने के लिए, माथे का पसीना पोंछ वह मुंडेर के नीचे जा खडा हुआ।
अगले दिन घाट पर बाल मुंड रहे थे। वह भी बैठ गया लाइन में–सबके बीच। मानो या न मानो—प्यार तो बुढ्ढे ने बाप जैसा ही दिया था-भले ही थोडा कुछ कम था- या फिर शायद असली बाप कैसा होता है-- वह यह जानता ही नहीं था। वह तो यह तक भूल चुका था कि उसके जरा बीमार होने पर भी वे मौसी-मौसा सोते तक नहीं थे और नन्ही बहन पानी का गिलास लिए भरी गरमी में बगल में ही रात भर खडी रह जाती थी। चलो जो भी हो इतना फर्ज तो गैर का भी बनता ही है कि मृतात्मा को अन्तिम सम्मान दिया जाए और फिर इन बालों के मुंडाने में क्या जाता है? घर की खेती है–चार दिन में फिर उग आएँगे। घर-बाहर चार जनों में ठीक लगेगा।
पर दीनदयाल को छोटा-सा यह अनचाहा हस्तक्षेप भी कतई पसन्द नहीं आया- ‘नहीं इसकी जरूरत नहीं। तुम उठो। सिर्फ जिसने दाग दिया है उसीके बाल उतरते हैं।’ झुंझला कर वे बोले और वह तुरन्त ही उठ खडा हुआ। पहले जब दो साल पहले, मौसी गई थीं तब तो सबके ही बाल उतरे थे -सिवाय उसके। मानो एक षड्यंत्र चल रहा था– उसे जैसे दूर-दूर रखा जा रहा था। एक जलता आंसू उसकी हथेली पे गिर कर चुपचाप सूख गया।
मौसी ने तो निश्चय ही उसे बहुत प्यार किया था। पंद्रह दिन की उमर से पाला था उस अनाथ को। उसकी हर जरूरत का ध्यान रक्खा था उन्होंने। वह उनके लिए अपनी तरफ से जरूर ही कुछ करना चाहता था। कुछ ऐसा जिससे उसके इस बेटे वाले एहसास को तसल्ली मिल पाए। पर हमेशा की तरह आज फिर रोक दिया गया था उसे और लाचार वह आंख में आंसू लेकर उठ आया था।
आजतक याद है उसे– परिवार का छोटा बडा हर सर मुडा लड़क़ा। क्यों ये छोटी-छोटी बातें इतना दुख देती हैं, क्यों इन्सान इन्हें कभी नहीं भूल पाता? पर क्यों दूर खड़े, सब देखते मौसा तब भी कुछ बोल नहीं पाए थे– क्यों वह इतने मजबूर थे आखिर? क्यों उसपर विश्वास नहीं कर पाते थे वे? शायद यह सब अच्छा ही लगा था उन्हें भी कि उनकी पत्नी को इतना सम्मान दिया जा रहा था। या फिर शायद उसके दर्द को उनके हृदय तक पहुंचाने के लिए उन दोनों की धमनियों में एक रक्त ही नहीं बह रहा था।
अब तो किसी दिखावे या आडम्बर की भी जरूरत नहीं रही। मरा बुढ्ढा वसीयत नहीं बदल सकता। इस बार एक भी सर नहीं मुड़ा। आखिर क्या जरूरत है बेवकूफ बनकर घूमने की? पर तभी, न जाने कहां से पगली वहां आ पहुंची और उसने बडी सहज़ता से वह सब कर डाला जो वह घंटों से मन ही मन में बिलखकर भी नहीं कर पा रहा था।
पगली ने पास पडा नाऊ का उस्तरा उठाया और खुद ही अपना सर मूंड डाला। फिर मंदिर की सीढियों की तरफ हाथ नचा-नचाकर बोली- ’ आती हूं, पापा आती हूं। ‘ जल्दीजल्दी घाट की सब सीढियां उतर गई वह। पूजा की थाली में रखी सबसे बडी माला हाथों में उठा ली और गंगा की तरफ दौड़ पड़ी। वैसे भी वहां घाट पर ज्यादा सीढियां नहीं थीं। पगली मंत्र-मुग्धा सी खुद में खोई आंखों से अनवरत् अश्रुधारा बहाती बढ़ी चली जा रही थी–परवाह किए वगैर, बिना जाने कि पानी उसकी कमर से बढक़र, छाती क्या गरदन तक आ पहुंचा था। अब तो उसके लडख़डाते पैर भी जबाव दे रहे थे। पानी के बहाव से उखड़ रहे थे। पर पगली को तो बस गंगा के बीच में खड़े पापा ही दिखाई दे रहे थे जो हमेशा की तरह बारबार कहे जा रहे थे, ‘ क्या तू मेरे लिए कभी कुछ नहीं कर पाएगी?’
रोज ही तो पापा पगली को सुनाते थे-‘ जानती है तू, अब तो लड़कियां भी वही सब कर सकती हैं जो लडक़े करते थे। बाप के मरने पर रामशरण की बेटी ने भाइयों को अलग खडा कर दिया था। बोली थी- नहीं, अपने बाप का क्रिया-करम तो मैं ही करेगी।’ क्यों सुनाते थे पगली को पापा यह सब। इतनी बहादुर नहीं है वह–और इतनी पागल भी नहीं। बहुत प्यार करती है अपने पापा से–कैसे झोंक पाती उन्हें जलती आग में। और फिर खड़े-ख़ड़े सब कुछ राख होते देखना–नहीं कर सकती थी वह यह सब, कभी नहीं। फिर क्यों पापा यही चाहते थे?
अब इस पगली को कौन और कैसे समझाए? वैसे भी रामशरण का केस तो बडा ही सीधा था। आम मौत थी उसकी और चार-चार बेटे थे उसके। सेठजी के पास तो ले-देकर बस यही एक पगली ही थी रोने और हंसने के लिए। फिर बात सिर्फ क्रिया-कर्म की ही तो नहीं, और भी तो जाल जुडे हैं साथ-साथ। कबसे सब उन्हें और इस पगली को झेल रहे थे, अब बेटे के काम भी इस पगली ने किए तो दुनिया वाले क्या कहेंगे? पर पगली को तो मानो आज परवाह ही नहीं थी। यह श्रध्दांजली तो देनी ही थी, और उसी को देनी थी। ‘ हां पापा मैने तुम्हारा संस्कार नहीं किया पर मैं तुम्हें मुक्ति अवश्य दिलवाउंगी।’ पगली बारबार खुद से ही कहे जा रही थी।
हाथ से बहाई माला गर्व से लहराती, खुशी-खुशी सामने खडे पापा तक जा रही थी और संतुष्ट पगली आंसुओं की लड़ी से ढकी पानी में बढती चली गई– माला के पीछे-पीछे। मानो पापा के पास जाकर ही यह अंतिम नमस्कार करना था उसे। अचानक दो सशक्त हाथों ने पगली को रोक लिया-
‘आगे मत बढो बहन। यह क्या कर रही हो ? जीवन बहुमूल्य होता है।’
नवागन्तुक ने पगली को खींचकर जल के बाहर खडा कर दिया।
रुआंसी पगली कुछ भी तो नहीं कह पाई।
‘ क्या कर रहीं थीं तुम-–आत्महत्या? ‘ नवयुवक ने अब कुछ कड़े स्वर में पूछा ?
पगली सहम गई-
‘नहीं, वह असल में मेरे पापा मुझे वहां खड़े बुला रहे थे–बारबार कह रहे थे मेरे लिए कुछ करो और मेरा भी मन यही चाह रहा था कि मैं कुछ करूं अपने पापा के लिए तभी तो उनकी आत्मा को शान्ति मिल पाएगी।’
‘ अच्छा तो तुम तर्पण करना चाहती थीं अपने दिवगंत पितर का–आओ मैं करवाता हूं। ‘
और वह संभ्रांत व्यक्ति फिर से उसे नदी में ले गया पर वहीं किनारे के पास, उथले पानी में उसके हाथ पे एक फूल रखकर मंत्र पढने लगा ’ प्रेतात्माया: शुध्दिनाम्–अब पिता का नाम लो–’
पिता के लिए प्रेत शब्द सुनना अच्छा नहीं लगा फिर भी पगली स्थिति की गंभीरता समझ रही थी। शायद यह क्रिया-कर्म ही उसके पापा को स्वर्ग के सिंहासन तक ले जाए और उसने झुके सर से सब कुछ साफ-साफ दुहरा दिया।
ढूंढते-ढूंढते परिवार के अन्य सभी सदस्य उस तक पहुंच गए। इसके पहले कि कोई कुछ कहे वह पंडित पलटकर बोला–
‘ ऐसे नाजुक क्षणों में आपलोगों को इन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था। वह तो प्रभु-कृपा से मैने सही वक्त पर देख लिया वरना आज न जाने कैसा अनर्थ हो जाता। इनके डूबने में तो कोई कसर ही नहीं रह गई थी। लगता है मृतात्मा को बहुत स्नेह करती थी यह बच्ची। ‘
भाई बडबडाया-‘ समस्या है यह लडक़ी हमारी जान के लिए ‘– डांटकर बोला- ‘ चलो घर चलो।’
पगली चुपचाप पीछे-पीछे चल पड़ी। दूसरा भाई पंडित को स्पष्टीकरण दे रहा था-’ असल में दिमाग से कुछ विक्षिप्त है बिचारी। बाप की अकेली बेटी थी-वह भी बहुत ही लाडली- इसीलिए कुछ ज्यादा ही धक्का लगा है। आपने आज इसे डूबने से बचाकर परिवार का नाम डूबने से बचा लिया वरना समाज तो यही कहता कि बाप के मरने के बाद चार दिन भी संभाल नहीं पाए भाई इस पगली को। आभार में यह पान-फूल स्वीकार कीजिए।’ जेब से एक सौ का कडक़ नोट निकालकर उसने क्षुब्ध पंडित को देना चाहा।
‘ नहीं-नहीं, आप मुझे व्यर्थ ही पाप का भागीदार मत बनाइये।’
वह पेशेवर कर्मकांडी ब्राह्मण भी आर्त और द्रवित हो चुका था-
‘ इसने तो असली तर्पण किया है, वह भी अश्रु और रक्तजल के साथ। सब काम इसने खुद ही किया है। मेरा क्या–मैं तो मात्र एक दर्शक था।’
घर आकर पगली को तख्त के पावों से बांध दिया गया। अब इस तरह से खुला छोड़ना ठीक नहीं। न जाने कौन सी मुसीबत खड़ी क़र दे। अब तो आंख रखने को बुढ्ढा भी नहीं है आसपास। फिर घर में किसे इतनी फुरसत है जो चौबीस-घंटे इस पर निगरानी रखे। इसे देखे निहारे।
सर मुंडी पगली और भी ज्यादा विचित्र और विक्षिप्त लग रही थी अपने उन मैले और अस्तव्यस्त कपडों में। सर पर उलटी सीधी खिंची उस्तरे की लकीरें दूर से ही नजर आती थीं। कहीं-कहीं तो बीच-बीच में बेतरतीबी से खड़े बाल तक रह गए थे। शायद नाऊ को बुलाकर फिर से उस्तरा फिरवाना होगा या शायद जरूरत ही नही इस सबकी। क्या फरक पडता है अब कि यह कैसी लगती है। कौन है जो इसे इतने ध्यान से देखेगा ?
पगली वहीं जमीन पर फसट्टा मारकर बैठ गई और बैठी-बैठी झट से बच्चों की तरह सो भी गई। न चाहते हुए भी उन थके हाथ-पैरों का भारीपन वह अपने मन पर महसूस कर रहा था और उसे लग रहा था यह पगली नहीं, उसकी खाल में डरी-सहमी एक हिरणी सो रही है–हर आहट और खतरे से पूरी तरह से चौकस और चौकन्नी। चाहकर भी हट नहीं पाया वह वहां से। पैर मानो वहीं उस जमीन से जुड़ गए थे।
आज घर में किसी की भी आंखों में नींद नहीं थी। अब गन्तव्य पर आकर कैसे हार मान ली जाए। पगली दाग नहीं दे सकी, क्योंकि जो दाग देता है, समाज की नजरों में वही वारिस होता है। वैसे तो पगली की तरफ से कभी कोई खतरा था ही नहीं और सेठजी के होशहवास में ही सब रजिस्ट्री-पेपर वगैरह साइन करवा लिए गए थे। पूरी लिखा-पढी हो चुकी थी। पर जाने क्यों मन डरता था–क्या पता यह कभी ठीक ही हो जाए और अपने हक का दावा कर बैठे– किसी से शादी-व्याह ही कर ले? दुनिया वाले तो बस इसी का साथ देंगे। एक वचन ही तो चाहता था बुढ्ढा बदले में कि इस पगली की आजीवन देखभाल हो–अकेली और लावारिश न भटके यह उसके बाद? तो सडक़ पर कौन आने देगा इसे।
इस पगली का क्या किया जाए? न सिर्फ यह समस्या जटिल हो चली थी बल्कि अब तो परिवार के सम्मान से भी जुड ग़ई थी। कमरा बन्द करके पूरा परिवार चल पड़ा बुढ्ढे का सामान सिलटाने–पगली के बारे में चलो फुरसत से सोचा जाएगा।
सिवाय चन्द किताबों और पुराने कपड़ों के वहां और कुछ भी नहीं था। जो कुछ कीमती और रखने लायक था, सब पहले ही बांट चुका था वह। उस कचरे को नौकरों के हाथों जलवा दिया गया। सोच से भी ज्यादा बेवकूफ निकला यह बुढ्ढा तो। अपनी इस पगली के लिए कुछ भी सम्भालकर नहीं रक्खा उसने तो–
अगली सुबह लुटी-बिखरी पगली पूरी तरह से शान्त थी। सिर्फ बाप के हाथों से खाने वाली पगली ने चुपचाप तेरहवीं के ब्राह्मणों के साथ बैठकर खाना खाया। उसके बाद बाप की चौकी के दाहिने पाए को उनका चश्मा पहनाकर, भरी गरमी में बाप का ऊनी मफलर गले में लपेटे, बातें करने बैठ गई वह अपने पापा से. वहीं, उसी नंगे, तपते फर्श पर। बाप के सिवाय शायद ही कोई आजतक उसकी बात समझ पाया था। इसके पहले कि ज्यादा कुछ तमाशा हो, बातें बनें, पगली उठी और कमरे के खिडक़ी-दरवाजे, सब उसने अन्दर से बन्द कर लिए।
‘ कब तक बैठकर निहारे इसे कोई– ये खेल-तमाशे तो रोज के ही हैं–‘ गाल पर भरपूर तमाचे की तिलमिलाहट लिए हुए दीनदयाल अपने कमरे में सोने चले गए। ‘ इतनी हिमाकत कि मुंह पर दरवाजा बन्द करती है–पगली कहीं की।’ उन्होंने उसकी धृष्टता को पागलपन समझ कर माफ करने की कोशिश की। पर पगली का तो अब एक नया दिन शुरु हो चुका था और उसे अभी बहुत से जरूरी काम निपटाने थे। बडे धैर्य के साथ उसने पिता के फूल चुने फिर गरम धरती पर अंजुली भर-भरकर गंगाजल छिडक़ने लगी।
सुना है पगली को किसी अस्पताल में भेजे जाने की सलाह बन रही है, पर इस शहर और जान-पहचान वालों से दूर। ज्यादा बात न फैले तो ही अच्छा है। बुढ्ढे के आगे बात और थी –अब भला इस मुसीबत को कौन झेलेगा? और आज पहली बार वह भी घरवालों के निर्णय से पूर्णत: सहमत था। अपने घर जाने को आखिर उसके पैर मुड़ ही गए।
पगली के कमरे से अब जोरजोर से गाने की आवाज आ रही थी, ‘ अच्छा तो अब भजन-कीर्तन और प्रवचन होगा।’ उसने सोचा। गीत तेज होता चला गया। हवा के साथ चारो तरफ बिखर गया ‘ सूरदास की उलटी बानी, बरसे कंबल भीगे पानी।’
बाहर बरामदे के नीचे जमा पानी हर छोटी-बड़ी ग़िरती बूंद के संग कांपे जा रहा था। मानो भीगने से डर रहा हो या फिर शायद भीगते-भीगते थक गया हो। सुरीली आवाज की लय पर बूंदें एकबार फिर थिरकीं ‘भगुआ बसन पहिन जोगनिया बनली रानी, बरसे कम्बल भीगे पानी।’ बेमतलब ही सही पगली गाती बडा सुरीला थी। कमल सी जीवन से जुडी वह उसकी आवाज, स्वार्थ और षडयंत्र के दलदल से अलग और दूर थी– शायद इसीलिए गहरे कोहरे सी मन पर जमती चली जा रही थी।
सोच की परतें खुल रही थीं। सब साफ-साफ समझ में आने लगा। कम्बलों के नीचे भी आदतन् भीगता पानी– भीगेगा ही। डरेगा ही, जब अपने लिए एक अकेला कोना चुनेगा। जैसे फलने-फूलने के लिए पत्तियों को पेड से, पेडक़ो जड़ों से और जड़ों को मिट्टीसे जुड़ना पड़ता है वैसे ही हमें भी तो जुड़ना पड़ता है। आश्रय लेना पडता है। तभी सबकुछ बढ़ और पनप पाता है। छांव और फल दे पाए इस लायक बन पाता है। शिकायतों के जंगल में दबी मन की घास तो हमेशा सूखी ही रहेगी–ताजी हवा चाहिए इसे भी। राम शायद इसलिए राम बने क्योंकि वह किसीके बेटे, भाई और पति थे। जरूरी नहीं कि इन्सान खुद बोले और मांगे तभी उसे समझा जाए। उसका परिवेश, उसकी खामोशी तक बोलती है, सवाल करती है। पलपल जवाब चाहती है अगर हम सुनना चाहें तो, समझना चाहें तो। डूबने के लिए नदी और नाले की ही जरूरत नहीं, खुद में भी डूबा जा सकता है और यही नहीं, अपने साथ दूसरों को भी डुबोया जा सकता है:
उसके मुडते पैर थम गए– न अपनाओ, न समझो तो, सभी कुछ कितना उलटा और बेगाना सा लगता है–इन अनगिनित इन्सानों की तरह—उसकी अपनी बेसहारा पगली इस बहन की तरह।
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