मेरी जिज्जी हँसती हैं तो बहुत अच्छी लगती हैं, वैसे एक राज़ की बात बताऊँ मेरी जिज्जी जब रोती हैं तब भी बहुत अच्छी लगती हैं क्योंकि जिज्जी जब रोती हैं तो निःशब्द आँसू एक शांत नदी के बहाव की तरह चुपचाप बहते चले जाते हैं, बिना कोई आवाज़ किए…बिना कोई लहर उठाए। उनकी गुनगुनी गर्मी में भीगते हुए मन को एक अजीब-सी शांति मिलती है, मानो गरम पानी के सोते में डुबकी मार ली हो। मेरी जिज्जी का तो पूरा अस्तित्व ही ऐसा है… कोमल, सुखद और समझदार। वैसे आश्चर्य नहीं, अगर आपने जिज्जी को कभी रोते न देखा हो क्योंकि जिज्जी ने तो अपने चारों तरफ़ हँसी और मुसकुराहटों का एक अभेद्य किला बना रखा है। यह जिज्जी की पुरानी आदत है। कितनी भी तकलीफ़ हो, दर्द हो, पर उनके लिए तो मानो इन शारीरिक तकलीफ़ों का कोई अर्थ ही नहीं होता। जब बचपन में माँ छोटी-सी शरारत पर मारते-मारते थक जातीं और जिज्जी उसके बाद भी बिना कुछ कहे-बताए, चुपचाप होमवर्क करने बैठ जातीं, तो मैंने अक्सर ही माँ को बड़बड़ाते हुए सुना था… “भगवान ने बड़ी ही ढीठ लड़की पैदा की है। परन्तु जिज्जी तो मोम-सी नरम थीं।
शाम को जब मैं उनके दूध के गिलास में चुटकी भर हल्दी और सौंठ मिलाकर ले जाता और उन्हें बहला फुसलाकर, पूरा गिलास खाली करवाकर ही वहाँ से हटता तो जिज्जी प्यार से मेरा हाथ सहलातीं और उनके वह खामोशी से बहते आँसू मेरी अंतरात्मा तक में उतर जाते।
शरारत भी क्या… हम भाइयों से भरे परिवार में चारों तरफ़ लड़के ही लड़के तो थे। ले देकर एक बस रामसखी की बेटी जानकी ही थी जिसके साथ जिज्जी खेल सकती थीं, ख़ास करके गुड़ियों से। हम भाइयों को रोज़-रोज़ बैठकर उन गुड़ियों के तरह-तरह के कपड़े बदलना, रोज़-रोज़ बस वही खाना पकाने वाला खेल, बिल्कुल ही अच्छा नहीं लगता था और माँ को जिज्जी का जानकी के साथ खेलना। जिज्जी और जानकी में करीब-करीब बहनों जैसा रिश्ता जुड़ गया था। बिना कुछ बोले भी वह घंटों एक दूसरे के साथ खेल सकती थीं। कभी-कभी तो रामसखी भी लग जाती थी उनके खेल में। गुड़ियों के बिछौने, रंग-बिरंगी फ्राकें, सब उसी की तो सिली हुई हैं। माँ कितना भी डाटें मारें, इतवार की दुपहर को बाल सुखाने के बहाने जिज्जी अपनी गुड़िया लेकर चुपचाप बगीचे में निकल ही जाती थीं और जानकी भी तुरन्त वहाँ पहुँच जाती थी, मानो सुबह से इंतज़ार कर रही हो।
वहीं पीछे, अपने बगीचे के सर्वैंट-क्वार्टर में ही तो रहती थीं जानकी और उसकी माँ। बस इतना छोटा-सा ही, दो जनों का परिवार था उसका। उसके बापू को मरे तो आज तीन साल होने को आए। सुनते हैं उसके पहले उसका बाबा भी यहीं रहता था और बगीचे में माली का काम करता था जैसे जानकी का बाप करता था और उसकी दादी घर का, जैसे अब जानकी की माँ करती है। आज जिज्जी, जानकी , मैं खुद, सब कितने बड़े हो गए हैं।
जिज्जी पहली बार गोलू को लेकर घर आई हैं। गोल-मटोल गोलू बहुत ही प्यारा है। हम सब दिन-रात उसी की सेवा में लगे रहते हैं। पापा भी हँसकर छेड़ते रहते हैं, “आखिर मामा यों ही तो नहीं बन जाते।” कल सुबह-सुबह पापा को गोलू की पॉटी साफ़ करते देख माँ ने पापा को भी तो छेड़ ही दिया था, “आखिर नाना भी तो यों ही नहीं बन जाते।” बगल में नैपी पकड़कर खड़ा हरभजन भी मुसकुराता हुआ मम्मी से बोल पड़ा था, “यह सुख तो किस्मत वालों को ही मिलता है, बहू जी। देखो हम चुपचाप बगल में खड़े हैं और बाबू जी आधी-रात में भी भाग-भागकर भैया का काम कर रहे हैं… यह ममता चीज़ ही कुछ ऐसी है।” गोलू क्या मानो पूरे घर में जैसे एक खुशी की लहर आ गई थी। अभी बस आँख लगी ही थी कि मम्मी की आवाज़ के शोर ने पूरे घर को जगा दिया।
“क्या काँय-काँय लगा रक्खी है? आइंदा इस पिल्ले को तो तू घर ही छोड़कर आया कर। ऐसा हेज भी किस काम का…? न खुद चैन ले… न दूसरे को लेने दे। दो घंटे में मर नहीं जाएगा यह।”
हाथ के बर्तन को ज़मीन पर रखकर जानकी ने गीले राख-सने हाथों से ही सर्वेश्वर सिंह को गोदी में उठा लिया और थकी काया को चूसता सर्वेश्वर माँ की गोदी की राहत से पल भर को चुप भी हुआ था, पर शायद छोटी-सी काया का दर्द बड़ा था और वह फिर से वैसे ही ज़ोर-ज़ोर से वापस रोने लगा था।
अचानक ही सबको चकित करती जिज्जी आईं और जानकी के राख सने हाथों से… ‘ला मुझे दे’ कहतीं, बिना जवाब सुने ही जानकी की गोदी से बच्चे को उठाकर कमरे में वापस चली गईं। उसी सहजता और सुगमता से जैसे बरसों पहले उसके हाथ से गुड़िया ले जाया करती थीं। सर्वेश भी बिल्कुल चुप हो गया, जाने उनके हाथों में क्या जादू था?
गोलू के लम्बे चौड़े साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर, खा पीकर सर्वेश आराम से सो गया। उसने गोदी की भी माँग नहीं की। यहाँ तो बिस्तर ही माँ की गोद से भी ज़्यादा गरम और गुदगुदा था।
घंटे भर बाद जब सब काम निबटाकर अपने गीले हाथों को धोती के पल्लू से पोंछती जानकी आई तो जिज्जी ने मुँह पर उँगली रखकर, दूर से ही इशारे में फुसफुसाकर कहा, ‘बाद में ले जाना। बस अभी-अभी सोया है।’ जानकी भी चुपचाप जैसे आई थी, चली गई। उसे अपनी सहेली पर पूरा विश्वास जो था। उनकी सह्रदयता को वह भली-भाँति जानती थी। जानती थी माजी कुछ भी कहें, समझें, जिज्जी की गोद में सर्वेश पूरी तरह से संतुष्ट और सुरक्षित रहेगा, बल्कि उससे भी ज़्यादा अच्छी तरह से रखेंगी वह तो उसे। इससे ज़्यादा और क्या चाहिए किसी माँ को। जानकी के होठों पर संतोष की मुस्कान थी और हाथ-पैरों में उमंग।
चार घंटे कैसे बीत गए जानकी को पता ही नहीं चला। आज उसने अपनी बीमार माँ को सर धोकर नहलाया। उनका बिस्तर भी बदला। और खिचड़ी भी खूब मन से बनाकर माँ को खिलाई बिना जलाए, जैसी माँ को अच्छी लगती है वरना सर्वेश्वर दयाल सिंह जी की फरमाइश पर तो हाथ का हर काम अधूरा ही छोड़ना पड़ता है उसे। माँ भी तो उसकी तरफ़दारी लेकर डँटियाने लग जाती हैं, “हमार नाती को जिच ना किया करो… हमार किसन कन्हाई पहले, अऊर कमवा पाछे-पाछे।”
“आज तो किसन-कन्हाई माँ और नानी को भूलकर मौसी के पास सो रहे थे। अरे एही तो दिन हैं ओके तनिक लड़ियाने के फिर तो बड़ा होके तोहरे लग्गे भी ना बैठ पइहँ। पहले पढ़ाई फिर आपन नौकरी-चाकरी।”
माँ-बेटी दोनों ही नन्हे सर्वेश के सुनहरे भविष्य में डूबी बैठी थीं। आज जानकी के पास वक्त ही वक्त था क्योंकि उसकी सहेली, उसकी बहना उसके जिगर के टुकड़े को सँभाले हुई थी। माँ के बाल काढ़ती जानकी सुनाए जा रही थी कैसे ससुराल में रोज़ सर्वेश्वर का बापू, चाहे कितना ही थका हो, जबतक सर्वेश्वर के साथ खेल न ले, सोता नहीं। असल में उसी ने तो बचवा की सब आदत बिगाड़ी हैं… जानकी के मुख पर गर्व और प्यार की चमक थी।
“क्यों हमारे जीजा जी की बुराई कर रही हो जानकी? आने दो उन्हें, हम और सुरू मिलकर शिकायत करेंगे तुम्हारी। क्यों बेटू ठीक है न?” और छोटे-से बेटू ने चैन की अंगड़ाई लेकर मौसी को अपनी स्वीकृति दे दी। जिज्जी ने प्यार से उसका माथा चूम लिया। जिज्जी कब आईं, माँ बेटी को बातों ही बातों में पता ही नहीं चल पाया था। माँ की खटिया के कोने को जानकी ठीक से झाड़ भी पाए इसके पहले ही जिज्जी और सुरू उस पर विराजमान थे। जिज्जी के हल्के से गुदगुदाने पर वह खिलखिलाकर हँस रहा था।
“मौसी को पहचानते हो क्या सर्वेश्वर दयाल सिंह?” जानकी ने खुशी और आभार में आए आँसुओं को धोती से पोंछते हुए बेटे से पूछा? नन्हा सर्वेश माँ की आवाज तुरन्त पहचान कर और कसकर हाथ पैर फेंकने लगा। इधर-उधर गरदन घुमाकर उसे ढूँढ़ने लगा। लगता था मानो उसके बीमार हाथ-पैरों में नई जान आ गई थी। पर साँस अभी भी खड़खड़ की आवाज़ के साथ ही चल रही थी।
“बस यों ही इसे लम्बे चौड़े नाम के साथ ही बुलाती रहेगी, या इसका थोड़ा बहुत ध्यान भी रक्खेगी। ठंड के मारे पूरा सीना जकड़ा हुआ है। विक्स लगाकर खूब मालिश की है मैंने तब जाकर सो पाया था कहीं।” विक्स की शीशी जानकी को पकड़ाते हुए जिज्जी ने प्यार भरी शिकायत की।
अचानक जानकी की उदास आँखें अंगूठे से ज़मीन कुरेदती आभार के दो शब्द ढूँढ़ने लगीं पर जिज्जी की आँखों में तो बस प्यार ही प्यार था। मन की बातें खुद ही बाहर आने लगीं। अपनों से कैसी शरम? कैसा आडंबर?
“असल में जिज्जी दो ही स्वेटर हैं न इसके पास और इतनी जल्दी गीला कर देता है उन्हें। फिर जाड़े में सूखने में भी तो टाइम लगता है।” एक ही साँस में जानकी ने हिम्मत जुटाकर पूरी बात कह डाली।
जिज्जी सब समझ गईं। “तू आना शाम को। गोलू के दो-तीन स्वेटर जो छोटे हो गए हैं इसको बिल्कुल सही आएँगे। ऐसे तो बिचारा कभी ठीक ही नहीं हो पाएगा।” जिज्जी ने बच्चे की सेहत पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा।
जानकी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। “एक बात कहूँ जिज्जी, प्रणव बाबू को गोलू मत कहा करिए। सबसे पहले नाम से ही आदमी का पहचान होता है। आदर इज़्ज़त होता है। नाम हमेशा दमदार होना चाहिए।”
“अच्छा अब समझ में आया क्यों तू छोटू को सर्वेश्वर दयाल सिंह जी कहकर ही बुलाती है।” आदत से मजबूर जिज्जी एक के बाद एक प्यार के नाम दिए जा रही थीं उसे।
“अच्छा चलती हूँ मैं। गोलू नानी को परेशान कर रहा होगा।”
“चाय नहीं पिएँगी जिज्जी आप?” जानकी ने जाती हुई सहेली से पूछा।
“आज नहीं,” मुसकुराती जिज्जी ने मुड़कर जवाब दिया, “और हाँ शाम को स्वेटर लेने आना मत भूलना।”
ठीक साढ़े पाँच जब जानकी आई तो जिज्जी की आँख उसकी आहट से ही खुलीं। दोनों बच्चों से थकी जिज्जी ऐसा सोईं कि वक्त का पता ही नहीं चला।
माँ अलग आवाज़ पर आवाज़ दिए जा रही थीं, “शाम को प्रभा के यहाँ खाने पर चलना है। कब उठोगी, कब तैयार होगी? यह आजकल के बच्चे? सोने से ही फुरसत नहीं इन्हें।”
इसके पहले गोलू उठकर माँ के सुर में सुर मिलाए और माँ कोई और नया तूफान उठाएँ, जिज्जी घबराकर फँसे गले से बोलीं, “सुन जानकी तू अभी जा। कल फिर आ जाना। सुबह ले जाना। मैं स्वेटर निकालकर तैयार रक्खूँगी। अभी ज़रा जल्दी में हूँ।”
जानकी जैसे आई थी वैसे ही चुपचाप चली गई। गुमसुम और उदास। जिज्जी की आँखों में उसका उदास और छोटू का बीमार चेहरा बार-बार घूमता रहा। जब सोना बिल्कुल ही नामुमकिन हो गया तो अपने आलस को धिक्कारती जिज्जी उठीं और गोलू के दर्जनों स्वेटरों में से चार छोटू के लिए निकाल लिए। वैसे भी जाड़ा तो खतम ही समझो और जिस रफ्तार से छोटू बढ़ रहा है इनमें से एक भी उसे अगले साल तो नहीं ही आने का। बल्कि जाते समय एक दो और जानकी को दे जाऊँगी। कितनी खुश होगी वह इतने सारे स्वेटर देखकर। अब कम से कम उसके बेटे को ठंड तो नहीं ही लगेगी और जिज्जी सुबह के इंतज़ार में, जानकी की मुस्कुराहट के इंतज़ार में कब सो गईं, कुछ पता ही नहीं चला।
आँख खुलीं तो सुबह के साढ़े पाँच बजे थे। दिन तो अच्छी तरह से चढ़ आया है वैसे भी जानकी के यहाँ तो सब चार बजे ही उठ जाते हैं। अब और इन्तज़ार नहीं कर पाईं जिज्जी। स्वैटरों का पुलंदा लिफ़ाफ़े में रखते समय थोड़े से रुपए भी डाल दिए। वक्त-बेवक्त काम आएँगे जानकी के और सर्वेन्ट क्वार्टर की तरफ़ चल पड़ीं वह। पर यह क्या? वहाँ से तो दबी-दबी रोने-सुबकने की आवाज़ें आ रही थीं। क्या हो गया-कहीं जानकी की माँ भी तो नहीं… कलेजा मुँह को आने लगा। कहीं सर्वेश को तो कुछ नहीं… नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता। जिज्जी सर्वेंट क्वाटर की तरफ़ दौड़ीं।
सामने जानकी छोटू को गोद में लिए बैठी, बुत-सी लग रही थी। बार-बार बेटे को चूमे जा रही थी। कसकर छाती से लगा रही थी जैसे डर गई हो कि कोई उसे उससे छीनकर ले जाएगा। बिल्कुल वैसे ही जैसे गाय मरे बछड़े को चाटती है… चिपकाए रखती है। यह क्या सोच रही हूँ मैं? भगवान सर्वेश्वर को खूब लंबी उमर दे, जीजी ने अपनी सोच को धिक्कारा।
कसकर पकड़े बच्चे को उससे छुड़ाने में असमर्थ रामसखी खड़ी-खड़ी रोए जा रही थी। कभी अपनी बीमारी को कोसती तो कभी जानकी को डाँटने लग जाती, “अब इसे क्यों लड़िया रही हो। यह तो छलिया था…छलिया। मोह माया में हमें डालकर, मुँह मोड़ गया। छोड़ गया हमें यों ही रोने और बिलखने को। आप ही समझाइए जिज्जी इसे। अब तो बस पिंजरा रह गया है। पंछी तो कब का जाने कहाँ उड़ गया।”
हवा में हाथ नचाती रामसखी पूरी पागल-सी लग रही थी । मन-ही-मन में जाने क्या-क्या लगातार बुदबुदाए जा रही थी वह।
जिज्जी क्या समझातीं जानकी को, उनकी समझ में तो खुद ही कुछ नहीं आ रहा था अब। अभी कल ही तो उन्होंने उसे गोदी में लेकर जी भर खिलाया था। माना कि थोड़े से आलस में स्वेटर नहीं निकाल पाईं थीं वह कल, पर इतनी छोटी-सी भूल की इतनी बड़ी सजा तो कोई भी नहीं दे सकता… भगवान भी नहीं। जिज्जी ने अविश्वास में हाथ बढ़ाए तो जानकी ने चुपचाप बेटे को उनकी गोद में दे दिया। उसे उन पर पूरा भरोसा जो था। शायद जिज्जी की गोद में ही सर्वेश ठीक हो जाए, फिर से मुसकुराने लग जाए। उसकी गोदी में तो दूध के लिए भी नहीं रोता।
किंकर्तव्य-विमूढ़ जिज्जी को छोटू गुड़िया जैसा लगा। शिथिल, ठंडा और बेजान। पश्चाताप और ग्लानि में डूबी जिज्जी के हाथ से पैकेट छूटकर ज़मीन पर गिर गया। अब इसे कभी किसी स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कोई पैसे इसके कभी काम नहीं आएँगे। हाँ, उनके दिए पैसे जानकी के बुरे वक्त में ही काम आएँगे। यही तो सोचा था ना उन्होंने रुपए डालते समय। काश घड़ी की सूई पीछे जा पाती और उनके मन में आता यह रुपए छोटू की पढ़ाई के काम आएँगे। शादी में काम आएँगे।
बुत-सी खड़ी जिज्जी के हाथ से सर्वेश को जब कोई नहीं छुड़ा पाया तो जानकी की माँ मुझे बुलाकर ले गईं। कैसे मैं जिज्जी को वहाँ से ला पाया, मुझे खुद याद नहीं। बस इतना मालूम है कि सात आठ घंटे हो गए हैं जिज्जी को यों ही चुपचाप यहीं बैठे-बैठे। अंगूठे से ज़मीन को कुरेदते और बारबार कुछ लिख-लिख कर बिगाड़ते हुए। रह रहकर एक गहरी काली दर्द की लपट उनके चेहरे को झुलसा जाती है। आज तो उनका वह खामोश आँसुओं का झरना भी नहीं बह रहा है जिसके नीचे बैठकर जिज्जी अपना बड़े से बड़ा घाव तक को धो लेती थीं। मानो सब चुक गया हो। आत्म-संताप में जलकर भस्म हो चुका हो। चारों तरफ़ एक बर्फ़-सी सिहरा देने वाली खामोशी छाई हुई है। मानो हर तरह की आवाज़ों ने इस दमघोटू सन्नाटे से घबराकर आत्महत्या कर ली है।
माँ आती हैं और गोलू को जिज्जी की गोदी में डाल देती हैं, “ले संभाल अपने बेटे को, ऐसी छोटी-छोटी बातों को मन से लगाएगी तो कैसे जी पाएगी तू। यह तो दुनिया है दुनिया… यहाँ तो यह सब चलता ही रहता है। इन छोटे-छोटे लोगों के यहाँ तो हर साल ही बच्चे पैदा होते हैं और हर साल ही…” इसके पहले माँ अपना वाक्य पूरा कर पाएँ…एक भयानक विस्फोट होता है। खामोश गुनगुने पानी के सोतों की तरह आँसू बहाने वाली जिज्जी एक लंबी अनियंत्रित दहाड़ के साथ, बिफर-बिफर कर रोने लग जाती हैं। मानो बरसों का दबा ज्वालामुखी फट पड़ा हो।
दर्द दरिया बनकर बह रहा था और उनके काँपते शरीर में एक जलजला-सा आ गया था। कसाई-खाने की तरफ़ घसीटे जाने वाली गाय की तरह मैं चुपचाप सब देख रहा था।
“ऐसा मैंने क्या कह दिया?” माँ सहमकर पीछे हट गईं। ”
ले, तू ही सँभाल अपनी बहन को। तेरे से ही सँभलेगी अब तो यह,” कहती माँ तो चली गईं पर गोलू को गोदी में लिए खड़ा-खड़ा मैं सोच रहा हूँ कैसे चुप कराऊँ अपनी जिज्जी को अब, कैसे रोकूँ, दर्द की इस उमड़ती बाढ़ को? बाढ़ें कब भला रोके रुकती हैं? आज तो मुझे अच्छी तरह से पता है वह हल्दी और सोंठ वाला दूध भी काम नहीं आएगा। वैसे भी वक्त उन दिनों से बहुत आगे आ चुका है। हम बदल गए हैं। पर ऐसे बिलखता भी तो नहीं छोड़ सकता अब इन्हें। शायद समय ही दवा हो इनकी दुखती रगों की। जिज्जी के चेहरे को खरोंचती वह दर्द की लकीरें मेरी आत्मा तक को खुरेचती, रग-रग में धँसती चली जा रही हैं।
एक बात बताऊँ… आज मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा… यह घर, माँ, जानकी, मेरी अपनी जिज्जी, कुछ भी नहीं।
अपने-अपने दुख और ग्लानि के टीलों में दबे हम सब कितने दूर-दूर और अजनबी से नज़र आ रहे हैं। किसी के लिए कोई कुछ भी तो नहीं कर पा रहा। इस आज और अभी की रिसती सरहदों में मेरा दम घुटने लगा है। नन्हीं बच्ची-सी असहाय और कमज़ोर जिज्जी को मैं कहीं छुपा लेना चाहता हूँ। हरदम बचाना जो चाहता था उन्हें हर दुख से। पर आज… कुछ भी तो नहीं कर पा रहा…
न सर्वेश को ज़िंदा कर सकता हूँ, न वक्त की घड़ी में कल को वापस ला सकता हूँ। वैसे भी तो अपने-अपने दुखों की गठरी सर पर उठाए हम सभी कभी न कभी तो, ज़रूर ही, उबर ही आते हैं… दुख की इस नदी के दूसरे किनारे…। शायद मेरी जिज्जी भी कभी जल्दी ही, फिर से ठीक हो ही जाएँ, क्योंकि वह तो बचपन से ही सिर्फ़ एक फाइटर ही नहीं, सरवाइवर भी हैं।…
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