मत्स्य कन्या
वह निषाद की बेटी थी ; षोडषी और सुंदरी। कड़ी मेहनत करती और पिता के काम में पूरा हाथ बटाती। उन्हीकी तरह यात्रियों को इसपार से उसपार ले जाती। अक्सर ही यात्री उसके रूप और सौष्ठव पर मुग्ध हो जाते । पर कम ही जानते थे कि इस साधारण-सी खेवटी ने अपना यह रूप अप्सरा माँ अद्रिका से लिया है जो कि बृह्मा के श्रापवश मछली बनकर वहीं नदी में रह रही थी और स्वभाव की महत्वाकांक्षाएँ व जिद क्षत्रिय वंशीय पिता महाराज सुधन्वा से। निषाद ने तो इस परित्यक्त बालिका को बस बेटी की तरह पाला-पोसा ही था। वास्तव में तो निषाद की बेटी थी ही नहीं वह।
जैसा कि जिन्दगी में अक्सर होता है जब अपनों ने उसे छोड़ दिया तो परायों ने अपनाया। राजा द्वारा तजने की वजह साफ थी – नवजात बालिका के शरीर से मछली की असह्य गंध आती थी। और तब दयालु निषाद ने उसे पाला पोसा और बेटी का स्नेह दिया।
इस मत्स्यगंधा के जन्म की कहानी भी उसके शरीर की गंध की तरह ही अनूठी है।
एक बार महाराज सुधन्वा शिकार पर गए हुए थे और पीछे से रानी रजस्वला हो गई। संतान की चाह में रानी ने अपने पालतू व विश्वनीय शिकारी बाज द्वारा यह संदेश पति को भिजवाया। राजा आ तो नहीं पाया परन्तु तुरंत ही अपना वीर्य एक दोने में ऱखकर और बाज के पंजों में बांधकर उसे वापस रानी के पास भेज दिया। पर पक्षी तो पक्षी ठहरा , राह में एक दूसरे बाज ने दोना देखकर उसपर झपट्टा मारा और इस छीना-झपटी में वह दोना नीचे बहती नदी में गिर गया जहाँ अद्रिका मछली बनी तैर रही थी। विधि का विधान कुछ ऐसा बना कि रानी तो नहीं मछली अवश्य उस वीर्य को निगलकर गर्भवती हो गई। और कालान्तर पर निषाद ने जब इस गर्भवती मझली को पकड़ा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा-मछली के पेट से दो स्वस्थ शिशु एक लड़का और एक लड़की निकले। अचंभित और उल्लसित निषाद तुरंत ही दौड़ा-दौड़ा राजा के पास पहुँचा और यह विचित्र समाचार देकर , दोनों बच्चे उन्हें सौंप दिए। राजा सन्तानहीन था । पुत्र को तो उसने रख लिया जो कि मत्सराज कहलाया परन्तु पुत्री को यह कहकर लौटा दिया कि इसे कैसे मैं अपने महल में रख सकता हूँ इसमें से तो मछली की असह्य महक आती है!
राजा सुधन्वा को तब नहीं पता था कि उसकी यही बेटी एकदिन हस्तिनापुर का भाग्य लिखेगी और खुदको और उसे इतिहास में अमर कर देगी।
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उस दिन आकाश बहुत साफ था और नदी का जल बिल्कुल शान्त। मन्द-मन्द लहरों पर गाती गुनगुनाती मत्स्यगंधा पाराशार ऋषि को यमुना पार ले जा रही थी। अचानक नदी में एक खूबसूरत मछली आई और भांति-भांति की जल क्रीडाएँ करने लगी। मछलियों और मत्स्यगंधा का अभी भी गहरा नाता था । एक-दूसरे को देखकर विह्वल हो जाती थीं वे। इस बेसुधी में पल भर को मत्स्यगंधा का आंचल सरका और पाराशार ऋषि ने वह देख लिया जो उन्हें नहीं देखना चाहिए था। कामातुर ऋषि वहीं नाव में ही अपना सारा संयम और तप भूलकर, मत्स्य कन्या से संभोग का निवेदन करने लगे।
मत्स्यगंधा ने ऐसी कई भूखी नजरों से खुद को बचाया था। विनम्र हाथ जोड़कर बोली महाराज मैं शूद्र निषाद और आप कुलीन ब्राह्मण, हमारा आपका संयोग कैसे संभव है?
कहते हैं कामान्ध पुरुष और पशु में ज्यादा फर्क नहीं रह जाता। लाल रेशों से भरी आँखें अभी भी उसे निर्वस्त्र किए जा रही थीं और शरीर की एक-एक मांसपेशी उस सोलह वसंत की नाजुक वल्लरी को बाहों में भरने को बेताब थी। गिड़डिड़ाते से बोले –मांगो जो मांगना है परन्तु यह संभोग तो होकर ही रहेगा। मत्स्यगंधा उनका यह अनियंत्रित कामुक रूप देखकर डर गई। अब उसका बच पाना मुश्किल था। इनकी बात नहीं मानी तो जाने क्या श्राप दे दें , क्या पता नाव को ही बीच जमुना में डुबो दें और उसे सूअरिया या इससे भी निम्न जानवर बनाकर तटपर मैला खाने को छोड़ दें। जब बचने का कोई रास्ता नहीं, तो क्यों न इस असह्य परिस्थिति में इनसे अपने उद्धार का ही कुछ मांग लूँ। इनकी भी इच्छा पूरी हो जाए और किसी को कानो-कान खबर न हो। मेरे शरीर पर भी एक खरोंच तक न आए । मेरा कौमार्य ज्यों का त्यों बना रहे और हाँ मेरे शरीर की यह मझली वाली गंध सदा के लिए चली जाए और मैं ऐसी सुगंध से भर जाऊँ कि कई कई योजन तक मेरी रूप और गंध पहुँचे और सबको विह्वल कर दे। तभी तो हम दोनों इस संभोग का आनंद ले पाएँगे।
ऋषि तो ऋषि थे तप का बल था उनके पास। तुरंत ही उसकी हर बात मान गए। बोले, ” तुम चिन्ता मत करो! प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और किसी ने कुछ नहीं देखा और सत्यवती के साथ जी भरकर संभोग करके तृप्त ऋषि ने उसे आशीर्वाद देते हुये कहा , तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो चुकी है। अब तुम मत्स्यगंधा नहीं। ‘
नतमस्तक खड़ी मत्स्यकन्या अब कस्तूरी-सी गमक रही थी । यही नहीं, उन्होंने उसे पुनः आश्वासन दिया कि हमारे इस संभोग से तुम्हें जो पुत्र उत्पन्न होगा वह अद्वितीय रूप से विद्वान और धीर-गंभीर होगा और तुम्हारी हर मुश्किल में तुम्हारे काम आएगा। फिर नदी में स्नान करके, उसे अकेला छोड़कर ऋषि कभी न लौटने के लिए चले भी गए। उसी दिन साहसी सत्यवती ने एक पुत्र को जन्म दिया जो तुरंत ही बड़ा भी हो गया और आगे चलकर चारो वेदों में पारंगत और संभवतः वेदों का और पुराणों का व ग्रंथ महाभारत का रचयिता वेद व्यास कहलाया। यह वही सत्यवती का ज्येष्ठ पुत्र था जिसने मरते दम तक माँ का साथ निभाया। जब शान्तनु से पैदा दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य उसे उत्तराधिकारी नहीं दे पाए थे तो राजमाता सत्यवती ने अपने इसी पुत्र की मदद ली थी। एक की गंधर्व के साथ युद्ध में अकाल मृत्यु हो गई थी और दूसरा दो-दो रानियों के साथ अति भोग विलास के कारण बिना सन्तान दिए ही क्षय रोग से मर गया था। भीष्म युवराज घोषित होने के बावजूद भी कभी शादी न करने का प्रण ले चुके थे क्योंकि सत्यवती के पिता की यही शर्त थी बेटी राजा को सौंपने की कि सत्यवती का बेटा ही सिंहासन पर बैठेगा। ऩिषाद की शर्त सुनकर राजा शान्तनु तो चुपचाप वापस लौट आए थे पर भीष्म से सत्यवती की याद में घुलते पिता का दुख नहीं देखा गया था और उन्होंने ही खुद जाकर निषाद की हर शर्त मानी थी और सत्यवती को लाकर पिता को सौंपा था।
राजा शान्तनु की महारानी बनने के कई साल बाद मां के आदेश पर नियोग विधा से अपने सौतेले भाई विचित्र वीर्य की विधवा अम्बिका और अम्बालिका को व अम्बिका की दासी को तीन पुत्र दिए थे वेदव्यास ने जो धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर कहलाए और इन्होंने ही कुरु वंश को आगे बढाया। यह बात और है कि कुरुवंशी तो था ही नहीं इनमें से कोई !
वास्तव में सत्यवती की ही संतानें थे वे सभी, जो कि एक मत्स्यकन्या थी, असह्य महक वाली बेहद महत्वाकांक्षी , खूबसूरत धोखे से उत्पन्न मत्स्यकन्या…जो आजीवन अपनी इच्छाओं के लिए संघर्षरत् रही और जिसका अपना आंतरिक संघर्ष कुरुक्षेत्र तक ले गया उस कुल को।..
शैल अग्रवाल
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