अक्सर उसे लगता कि उसका मन शाख पर बैठी उन दो चिड़िया की मानिंद है जिनमें से एक सिर्फ देखती है और दूसरी करती है। जो करती है वह सबकी सुनती है और जो बस देखती है, अक्सर ही अपने खयालों में भटक जाती है … अनदेखे .खुले आकाश में उड़ने को पलपल छटपटाती-सी। बचपन की तरह ही आज भी जमीन पर खड़े होकर आकाश को बांहों में भरने को ही ललायित कुछ भी तो सहेज-समेट नहीं पा रही वह। … बड़ी होकर भी कहाँ बदली है वह, हाँ, थोड़ा-थोड़ा खुद को सयाना जरूर समझने लगी है रुनू जागीरदार। अपनों और सिर्फ अपनों पर ही भरोसा करने वाली सीख को पल्लू में बांधेे आज भी तो अक्सर अकेली खड़ी रह जाती है क्योंकि प्यार में ही सब कुछ भूली रहने वाली रुनु, पद, प्रतिष्ठा तक से पूरी तरह से लापरवाह आज भी तो प्यार के तराजू में ही तो जिन्दगी को तौल पाती है।
अपने ही एकांत में चिड़ियों सी चहकती और उमड़ते बादलों सी बेवजह ही कभी बरसती तो कभी थमती रुनू को कई अव्यवहारिक समझते हैं तो कई अति बेवकूफ भी। पर उसके तो मानो सूरज-चांद भी उसकी अपनी घर-गृहस्थी की जरूरतों के मुताबिक ही उगते और डूबते हैं। रौनक जागीरदार, भारी भरकम नाम ही नहीं, भारी भरकम प्रतिष्ठान की स्वामिनी , मशहूर व्यवसायी प्रवीण जागीरदार की पत्नी है, पर कभी उमड़ना घुमड़ना आया ही नहीं उसे। कभी बिजली की तरह कड़की-तड़की ही नहीं वह तो। पति उकसाने की कोशिश भी करते, तो उलटे उन्हें भी शांत कर देती वह। और तो और नौकर-चाकर तक उसके रुआब में न आते। हाँ, मदद चाहिए होती तो सबसे पहले उसी के पास ज़रूर आते… सबकी मित्र, सबकी हितैषी। पता न हो तो कोई उसके पद और वैभव का विश्वास ही न कर पाए, इतनी सहज और खुद मे डूबी रहने वाली थी वह। रुनु को धन-दौलत,हीरे जवाहरातों की जगह रिश्तों की ही अधिक परवाह रहती और इन्हें ही सहेजते-सरियाते बीतते उसके दिन-रात। रिश्तों के नेह में जकड़ी तो ऐसी कि बाहर की दुनिया को देखने या जानने-समझने की फुरसत ही नहीं मिली। पर हरेक के बस में नहीं था उसे समझ पाना या सुलझा पाना। आए दिन लोग जुड़ते और रूसी से झर भी जाते उसके जीवन से। परिचित तो बहुत थे परन्तु दिल से जिन्हें अपना कह पाए, हाथ की उंगलियों पर गिन लो, इतने भी तो नहीं थे उसके पास। बचपन में जब बात-बात पर मचलती, अपनी ही जिद पर अड़ी घंटों रोती रह जाती तो कोई संभाल न पाता सिवाय बाबा के। बचपन में भी तो उसकी चाभी बस बाबा के ही हाथों में रहती थी। बहुत ख्याल जो रखते थे बाबा…हर बात बताते और समझाते ही नहां थे उसे, समझते भी थे लाडली की हर पसंद-नापसंद को। फूल-पत्तियों से उसे भी प्यार था और बाबा को भी। पेड पर चढ़ते वक्त घुटने छिल जाते तो तुरंत ही दवाई लगाते थे। माँ की तरह डांटते जरूर थे पर दोबारा पेड़ पर चढ़ने को मना नहीं किया कभी उन्होंने। वाकई में बहुत प्यार करते थे बाबा- कभी नहीं कहा कि लड़कियों को यह नहीं करना चाहिए, वह नहीं करना चाहिए, अपितु उनका तो कहना था कि जो घुड़सवारी करेगा, वही तो गिरेगा…फिर शेरों के मुंह किसने धोए हैं!
आज भी तो प्यार से ही बस में आती है, वरना तो एक दर्शक-सी, सबके बीच रहकर भी सबसे अलग-थलग दूर ही तो खड़ी रह जाती है वह। वैसे भी कम ही आ पाए हैं पास …न कोई अधिक भाया ही और ना ही किसी में दूध-चीनी-सी घुल-मिल ही पाई वह। इतना अपना लगे तो पहले कोई…अपनाने के लिए भी तो खुद को पूरा खोना पड़ता है और हरेक के बस की बात नहीं यह- बचपन से ही जान चुकी थी वह यह भी।
बाबा ही तो थे जो दिनभर उसकी एक-एक भाव-भंगिमा पर नज़र रखते। उदास देखते ही मनाने और फुसलाने लग जाते। नए-नए खेल खेलते, नई-नई कहानियाँ गढ़ते। फिर भी न मानती तो मुस्कुराते और कहते –‘ देख, तू यूँ अकेली बैठी आँखें बंद किए ऊँ-ऊँ कर रही है और उधर काला कउआ कबका तेरा बांया कान ले कर उड़ भी गया।‘
और तब पहली बार तो जरूर रोना भूलकर दोनों कान सहलाए थे उसने कि अपनी जगह पर सही सलामत है भी या नहीं, फिर तो खुद भी उनके उस खेल में शामिल होने लगी थी वह। अपनों से चिढ़ने का तो सवाल ही नहीं उठता, खुद भी तो चिढाने लग जाती थी उन्हें। फिर भी बस न चलता तो दौड़कर वापस उन्ही की गोदी में जा बैठती, वह भी पूरे हक़ के साथ। आदतें तो अभी भी वैसी ही हैं उसकी। या तो नाराज नहीं होगी और अगर हो गई तो मनाना भी इतना आसान नहीं, इतनी हठीली और चुप्पी है आज भी। पर बाबा के लिए तो सदा नन्ही और खिलंदड़ी ही रही वह। दो चिड़िया ही नहीं, दो रूप भी तो हैं रुनु के बचपन से ही, अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग ।
‘ बाबा आप भी बिल्कुल बुद्धू हो। हमेशा बांया कान ही क्यों, कभी-कभी दांया कान भी तो ले जा सकता है आपका काला कौआ ? या फिर उसकी एक ही आँख है!‘
‘ बात तो सही ही पकड़ी है तुमने। सुना तो मैंने भी यही है कि इनकी एक ही आंख होती है ।’
गोदी में भरकर जी भर प्यार करते फिर बाबा। हंसते-हंसते दोहरे हो जाते दोनों। प्यार से माथा चूमकर आशीष देने लगते-ऐसी ही बनी रहना, मेरी लाडो। बुद्धिमान और साथ साथ सरल भी। और सच में वैसी ही तो है वह आज भी।…
…
‘और कुछ मेमसाहब? अटैचियाँ और बैग्स मैने रैक और अल्मारियों में कायदे से लगा दिए हैं। दो बोतल मिनरल वाटर के साथ-साथ एक जग आरो का भी भरकर रख दिया है, यदि आप चाय-कौफी कुछ बनाना चाहें तो उसके लिए।” कमरा ठीक करके बाहर जाते वेटर ने उसकी तंद्रा तोड़ते हुए याद दिलाया- ” ब्रेकफास्ट हम 11 बजे तक ही परोसते हैं। ’
‘ ठीक है, पर आज नहीं। धन्यवाद…अरे हाँ, दो कप चाय दे जाना , बाहर बाल्कनी में । ‘
‘साथ में कुछ खाने को भी लाऊँ?’
‘ नहीं।‘ कहती रुनू ने सौ-सौ के दो नोट पर्स से निकाले और उसे देते हुए बाहर बाल्कनी में पति के पास आ बैठी।
आसमान खुला था और सुबह की ठंडी हवा मन को स्फूर्ति से भर रही थी। उसे लगा कि यह एक अच्छे दिन की शुरुवात है। सामने समंदर का फैला विस्तार था और लहरें किनारे तक आने की दौड़ में एक दूसरे को पीछे धकेलती धींगा-मुश्ती-सी कर रही थीं। मन किया कि वह भी समंदर तक जाए और खूब भीगे व नहाए…डूबे इन लहरों में।
‘ सुनो , थोड़ा आराम कर लो। फिर तैयार हो जाओ। 11 बजे पण्डित जी आएँगे मंदिर से। उनके साथ दर्शन को चलना है। होटल वालों ने ही सब इंतजाम कर दिया है।‘
‘पर इतनी जल्दी क्या थी? चार दिन को हैं हम यहाँ पर। आज आराम करते, कल चलते!’ इसके पहले कि पहली चिड़िया कुछ और चहके, दूसरी ने ‘ठीक है। ‘ कहकर कार्यक्रम का अनुमोदन करते हुए सील लगा दी थी उस पर। अब आराम करने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी उसके पास। जल्दी से चाय गल्पकर, नहाने चली गई वह। नौ तो बज ही चुके हैं, वक्त ही कहाँ बचा था अब और?
घंटे भर बाद , जैसा कि उनके कार्यक्रम में था , वे डाइनिंग हॉल में बैठे नाश्ता कर रहे थे, बीच-बीच में दरवाजे को भी आंखें टटोल लेतीं। पंडित जी का इंतजार जो था दोनों को ही। कभी भी आ सकते थे वे।
जीवन को सुचारु चलाने में पति और दूसरी चिड़िया का कितना बड़ा हाथ है , रुनू अच्छी तरह से जानती थी , वरना वह तो अभी भी समुन्दर में ही लोटपोट हो रही होती…
…..
पंडित जी समय से पहले ही आ गए। हाथ जोड़कर अभिवादन किया दोनों ने उनका । बेहद विनम्र परन्तु व्यवहारिक लगे, जैसा कि उनके पेशे वाले व्यक्ति के लिए जरूरी है, होना भी।
टैक्सी पहले से ही तय थी और मुश्किल से आधा मील चलकर छोड़ भी दी गई। होटल से थोड़ी ही दूरी पर था मंदिर। अब सामने स़ड़क के उस पार मंदिर की भव्य इमारत थी और रुनु की बरसों की साध मानो पूरी होने जा रही थी। मन एक अभूतपूर्व पुलक से भर गया।
‘ जूते-चप्पल, कैमरा, मोबाइल सब यहीं पर जमा करवाने होंगे हमें।‘ पंडित जी ने तुरंत ही आगाह करते हुए उसकी तंद्रा को तोड़ा। तुरंत ही, वैसा ही किया भी गया। अब बिना मोबाइल और कैमरा के वे सिर्फ श्रद्धालु थे, पर्यटक नहीं।
‘ पता होता तो जमा करने से पहले एकाध मंदिर की फोटो वगैरह तो ले ही लेती’…पहली चिड़िया धीमी आवाज में फिर बुदबुदाई और उसकी आवाज रुनु तक ने अनसुनी कर दी इसबार।
‘ हर मनमानी के लिए वक्त नहीं देती जिन्दगी। पूजा और दर्शन करने आई हो, सिर्फ फोटो लेने नहीं।‘
-कहकर दूसरी ने पहली को हमेशा की तरह ही निरुत्तर भी कर दिया था। और वह हमेशा की तरह एकबार फिर खुद में ही सिमटकर रह गई थी।
वैसे तो दुपहर के 12 ही बजे थे अभी, परन्तु सिर पर चढ़ा सूरज प्रचंड था और सड़क जलते कोयलों-सी ही धधकती हुई। इसपार से उसपार तक जाने में भी योगियों जैसी साधना की जरूरत पड़ी। पर उसकी उलझन देखकर पण्डित जी को बहुत आनंद आया। मुस्कुराकर बोले- ‘ तीरथ करने आई हैं, थोड़ी परेशानी तो उठानी ही होगी।‘
पर यह जबर्दस्ती की परेशानी क्यों? शाम को भी तो दर्शन करने आ सकते थे वे ! उसकी समझ में कुछ नहीं आया फिर भी कैसे भी पंजों और एड़ियों के बल तेजी से सड़क पार करती वह मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुँच ही गई। जानते हुए भी कि निश्चय ही पैर में फफोले पड़ चुके थे, उसने उनपर ध्यान न देना ही उचित समझा। हाँ एक बात जो बारबार परेशान किए जा रही थी, वह यह थी कि इतनी दूर जूते चप्पल उतरवाने की क्या जरूरत आन पड़ी थी पण्डित जी को। मंदिर के बगल में भी तो जूते-चप्पल उतारने की उचित व्यवस्था थी। सामने ही एक कोने में जूते-चप्पलों का अंबार लगा था और लोग उतार-उतारकर आराम से दर्शन करने जा ही रहे थे।
‘ क्या पता दुकानदार के साथ कोई कट तय हो। पैसे मिलते हों इसमें भी थोड़ं बहुत कमिशन के।‘ होठ अपने आप ही वक्र हो चुके थ उसके।
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अक्सर ही उसने देखा है कि पहली चिड़िया के लिए चुप रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि खुद उसके लिए कभी कुछ बोल पाना। अक्सर बचपन की तरह ही आजभी खुदपर ही हंस और रोकर ही रह जाती है वह। आंसूभरी आंखों से पति की तरफ देखा तो वह फूलमाला और प्रसाद खरीदने में मगन थे।
‘इसकी क्या जरूरत है?’ -पण्डित जी ने भी उन्हें टोका। ‘ अंदर सब मिलेगा।‘
‘लेना है तो बस तुलसी की माला ले लीजिए।‘
वही किया गया।
छोटे-बड़े जाने कितने मंदिरों का जाल था अंदर-ही-अंदर उस मुख्य मंदिर के अंदर। हाल ही में पीछे छूटे काशी विश्वनाथ से लेकर सभी देवी-देवताओं का वास था चारोतरफ। वह नत् मस्तक थी। तुलसी की मालाएं कब किसने उसके हाथ से ले लीं , याद करने पर भी याद नहीं आ रहा था रुनु को।
‘यहाँ सिर्फ हिन्दु ही आ सकते हैं। दूसरे धर्म वाले नहीं।‘
उसकी श्रद्धा पर पण्डित जी मुग्ध थे और हुलस-हुलसकर एक-एक मूर्ति के बारे में समझा रहे थे अब उन्हें।
पर उसका ध्यान तो एकबार फिर मन के अंदर चल रही उन चिड़िया की बहस में ही जा उलझा था-
‘ यह कैसा मंदिर है …हिन्दू तो नहीं ही हो सकता। हम हिन्दू तो कभी ऐसा भेदभाव नहीं करते किसी के साथ। हमारे मंदिरों में तो कोई रोक-टोक नहीं किसी के लिए।‘ पहली चिड़िया फिर कराह रही थी और दूसरी वैसे ही सामंजस्य करने की, चीजों को अनदेखा करने की सलाह दे रही थी।
‘ हिन्दुओं में भी वही सब होता है जो और धर्मों में होता है , बस मुंह से बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते हिन्दू अन्य कट्टर पंथियों की तरह।‘ दूसरी ने उसे इस सांस्कृतिक सदमे से कैसे भी बाहर लाने की भरसक कोशिश की परन्तु पहली तो अब दार्शनिक भी हो चली थी- ‘जो दर्शक है वह कभी दर्शन नहीं कर पाता। बाहरी अवरोधों से कटकर मन की आंखें खोलनी पड़ती हैं प्रभु के दर्शन के लिए और वही आज नहीं कर पा रही हूँ मैं।‘
रुनु ने कानों पर हाथ धर लिए-इतने पैसे…इतनी भटकन और फिर यह सब… नहीं सुनना और सोचना है उसे यह सब। चुपचाप भीड़ में धक्के खाती सिर झुकाए आगे बढ़ रही थी रुनू अब। अचानक वह पंडा हाथ फैलाकर सुरक्षा घेरा सा बनाकर उसके आगे खड़ा हो गया- ‘आप मां, बस मेरे साथ-साथ ही चलें अब।’ उसे लगा था धक्कों और भीड़ से परेशान रुनू ने आँखें बन्द कर ली हैं, अंदर चल रही विचारों की भीड़ का तो उसे अनुमान ही नहीं था, जो इस बाहर की भीड़ से भी ज्यादा दम घोट रही थी उसका।
पंडा हर तरह से उनका ध्यान रख रहा था। जिस दर्शन में घंटों लगते , विशिष्ट मार्ग से कुछ ही मिनटों में वह उन्हें करवाकर बाहर ले आया था।
आगे-आगे पंडा और पीछे-पीछे पति, रुनु एक सुरक्षित घेरे में चल रही थी और अगले कुछ ही पल में मंदिर के मुख्य कक्ष में भी आ पहुँची। सामने देवों की भव्य मूर्तियाँ थीं।
‘ मांग लो माँ , जो भी मांगना है आज। यहाँ हर इच्छा पूरी होती है।‘ पंडा उन चिड़ियों सा ही चहका। पर रुनू की तो मांगने की आदत ही नहीं थी ।
‘ सभी कुछ तो दिया है देनेवाले ने । क्या मांगू मैं अब, भला ?’ होठों से वही थमी ठंडी सांस ही बाहर निकली-‘ वैसे भी तो वह अंतर्यामी हैं , घट-घट की जानते हैं।‘
‘ पर बिना मांगे तो मां भी दूध नहीं पिलाती। अवसर न गंवाएँ माँ। माँगें। लोग दूर दूर-से आते हैं यहाँ अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए।‘
पंडे ने एकबार फिर थोड़ा दवाब डालते हुए पुनः पुनः आग्रह किया उससे।
‘ आगे बढ़ो, माँ। ये सब पैसे वालों के चोंचले यहाँ नहीं चलते।‘
‘दलाल लगा है आपके पीछे। लूटेगा आपको। दर्शन भी नहीं करने देता चैन से।‘
वह मोटा पुजारी भी अब और चुप न रह सका था। पर रुनु झुलस गई थी सिर से पांव तक-यह दुनिया चैन से क्यों नहीं रहने देती-पैसा न हो तो मुसीबत…हो तो मुसीबत ! पूर्णतः आहत और कानतक लाल हो गई थी अब रुनु। बहुत छोटा महसूस कर रही थी वह अब अंदर ही अंदर…ठगा-सा और कुछ-कुछ बेवकूफ-सा भी। मिनट भर को तो उस पंडित का मुंह भी उतरा हुआ लगा था उसे। परन्तु उनकी तो जात ही चिकने घड़े वाली है, तुरंत ही एक खिसयानी-सी हंसी के साथ तटस्थ हो गया वह ।
रुनू के मन के अंदर की दोनों ही चिड़िया भी बिल्कुल ही चुप थीं अब। अक्सर जब भ्रमित या आहत होती हैं वह तो दोनों ही जाने कहाँ चोला छोड़कर उड़ जाती हैं। अक्सर ही दोनों को यूँ एकमत होते भी देखा है उसने। दोनों यूँ ही चुप थीं उस वक्त भी । उसने भी चुपचाप मूर्तियों की छवि को आंख भरकर एकबार फिर से ठीक-ठीक देखना चाहा पर आँसू भीगी आंखों में अभी भी सब धुंधला ही था। इसे भी प्रभु की इच्छा ही मानती, सिर झुकाए बाहर निकल आई वह तब।
परिक्रमा के बहाने अब पण्डित उन्हें एक और नए परिसर में ले आए थे, जहाँ एक पढ़ा-लिखा-सा सुदर्शन युवक पहले से ही विराजमान था, मानो इंतजार ही कर रहा हो उनका।
‘ आप मुख्य महाराज हैं। खुद भगवान के कपड़े बदलते हैं। श्रंगार करते हैं।‘
‘ अच्छा।‘ रुनु ने पति के साथ हाथ जोड़, नतमस्तक होकर अभिनंदन किया।
‘क्या भगवान इनके हाथ के खिलौना हैं…बस !’ उसके मन में चल रही चिड़िया की वक्र हंसी भांप ली थी उन्होंने शायद।
‘बैठें । आएँ, थोड़ा आराम कर लें।‘
तब मुख्य पुजारी ने वहीं सीढ़ियों पर अपने पास बैठने का, हाथ से जमीन थपथपाकर इशारा किया ।
दोनों वहीं, पास ही निचली सीढ़ी पर बैठ भी गए।
‘ दर्शन आराम से हुए?’
‘हाँ। ‘
‘कोई तकलीफ तो नहीं, हुई। ? ‘
‘नहीं। तकलीफ कैसी? आस्था की बात है सारी। हमारे हिन्दू धर्म के चारो धाम में से बस यही एक धाम रह गया था , प्रभु की दया से आज यह भी पूरा हुआ।‘ पति का चेहरा हर्ष से दमक रहा था पर पहली चिड़िया को एकबार फिर इस सारे झूठमूठ के दिखावे पर बेहद चिढ़-सी हो रही थी- ‘तुम कबसे इतने धार्मिक हो गए! तुम्हारा तो इन बातों में कोई विश्वास ही नहीं।’
‘ बस, धूप में जलती जमीन पर पैदल चलने में बहुत तकलीफ हुई थी मुझे ! ‘ तमककर रुनू ने उनकी बात बीच में ही काटते हुए तुरंत अपनी शिकायत पेश कर दी।
‘औटो क्यों नहीं कर लिया था? ‘ महंतजी ने भी बच्चों की तरह ही उसे फुसलाने के लिए असिसटेंट को डांटा ।
औरफिर तुरंत ही उसकी तरफ घूमकर बोले, ‘ सुबह कलकत्ते से सेठ जी आए थे। पांच लाख का भोग लगाया है। आप कितने का लगाना चाहते हो आज?’
वही शायद ज्यादा बेवकूफ लगी उन्हें या फिर गृहलक्ष्मी….पर इसके पहले कि वह कुछ जवाब दे पाए, एक दान-फहरिश्त पकड़ा दी गई थी उसे जिसमें कम-से-कम 1100 से लेकर 5 लाख तक के दान का प्रावधान था।
‘ 1100 ठीक रहेंगे ।‘ पति ने फुसफुसाकर धीरे-से कहा।
जेब के अंदर पैसे निकालने को गए हाथों को वहीं रोकते हुए रुनू ने देखा कि 2100 के भोग पर प्रसाद भी मिलता है। 1100 पर कुछ नहीं। अब इतनी दूर तक आए हैं तो 2100 ही ठीक रहेंगे । रुनू ने पति की तरफ देखते हुए कहा। पर अब उस मुख्य पुजारी ने तालिका अपने हाथ में ले ली थी ।
‘3100 कर दें इसमें सूखा प्रसाद भी मिल जाता है जिसे आप अपने साथ बच्चों के लिए ले जा सकती हैं।‘
‘ ठीक है।‘ इसबार दोनों ही चिड़िया एक साथ चहकीं। थक गई थी रुनू भी शायद इस दर्शन की पूरी प्रकांड और बृहद प्रक्रिया से।
….
बाहर आकर इसबार जलती धरती पर नहीं चलना पड़ा उसे । औटो मंदिर की तरफ ही बुलवा दी गई थी।
….
होटल पहुंचते ही अभी वह नहाकर, ठंडी होकर निकली ही थी कि डलिया भरकर प्रसाद सामने टेबल पर रखा दिखा ।
‘यह कब आया? ‘
‘ अभी-अभी वही मंदिर वाले पंडित जी दे गए हैं। मैंने पांच सौ एक रुपए देकर दरवाजे से ही टरका दिया । आराम करना चाहता हूँ, अब । आओ खा लेते हैं। जो भी खाना है।‘ पति ने हुलसकर प्यार से जवाब दिया।
प्लेट और चम्मच पहले से ही बगल में ही रखी थीं। रुनु ने डलिया खोली तो नारियल के तेल की तेज महक से पूरा कमरा गमक गया। चम्मच से जरा-सा लेकर चखने की कोशिश की तो तुरंत ही आँखों में आंसू आ गए। तेज उठती उबकाई तक को रोकना मुश्किल हो गया था उसके लिए। प्रसाद का अपमान नहीं करना चाहती थी वह पर निगल भी नहीं पा रही थी। फीका और तेल में डूबा वह स्वाद बिल्कुल ही उसके मन-माफिक नहीं था। जैसे-तैसे औषधि की तरह वह तो निगल ही लिया। पति ने उसकी दशा देखकर अपनी फैली हथेली वापस खींच ली थी।
‘ भगवान माफ करे, मैं तो नहीं खा पाऊंगी यह। आपके लिए निकालूँ।‘
‘ नहीं। कुछ खाना ही मंगवा लेते हैं।‘
चख तो लो ही। रुनू ने समझाना चाहा। पर पति अपने निर्णय से टस-से-मस नहीं हुए। भगवान से माफी मांगते हुए डलिया यूँ ही वापस बांध दी गई । देखा भी नहीं कि उसमें और क्या-क्या है नीचे केले के पत्तों के अंदर लिपटा हुआ और कलावे से बंधा हुआ।
वेटर दो गिलास जूस लेकर सामने खड़ा था, जिसका और्डर वह नीचे कमरे में आने से पहले ही दे आई थी।
‘ महा प्रसाद ….दर्शन को गए थे क्या आज आपलोग! …बड़े भाग्य से नसीब होता है यह तो।‘
वेटर की श्रद्धा होठों जितनी ही आँखों से भी झलक रही थी।
‘आप ले जाओ। मिल-बांटकर खा लेना। हम दोनों तो नहीं खतम कर पाएँगे इसे।‘ रुनू के डूबते मन को तो मानो तिनके का सहारा मिल गया था। महाप्रसाद की बेकदरी के महापाप से उबार लिया था इस वेटर ने उसे।
‘आर यू श्योर, मैडम…सर?’
‘हाँ, हाँ , श्योर।‘
और तब पांचतारा होटल का वह वेटर तुरंत ही, खुशी-खुशी पूरी डलिया माथे से लगाकर ले गया।
‘ तो अब आज शाम को बीच पर चलें।‘ इसबार रुनू की दोनों चिड़िया एक साथ ही चहकीं, ‘ अब तो दर्शन भी हो गए।‘…
ॉ‘ नहीं ।‘
पति की सख्त और दृढ़ आवाज से सारा उत्साह पल भर में ही ठंडा हो गया।
‘ समुद्र तो हर जगह है, परन्तु ये मंदिर हर जगह नहीं । और अभी कई और देखने हैं हमें।‘
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं। ‘ दूसरी चिड़िया ने भी उतने ही जोश से उनकी हाँ में हाँ मिलाई।
रुनू को पल भर को तो आश्चर्य ही हुआ -कहीं यह इनकी पालतू तो नहीं ! अभी पलभर पहले ही तो सभी की आंखों में वह नीला समंदर जोरदार ठहाके मारते देखा था उसने।…