कहानी समकालीनः घटकः शैल अग्रवाल

घट, घटक और घटित इन तीनों के संयोग से ही घटता है कुछ, परन्तु जरूरी तो नहीं कि इनका आपस में भी कोई तारतम्य हो !  …

जीप का और हमारा इतना ही साथ था। आज हर हाल में जोधपुर  पहुंचाना ही था और जीप को  वापस छावनी पर। कैसे हो पाएगा? वक्त की दौड़ में हम जीतेंगे या  वक्त,  सोचकर ही बेचैनी हो रही थी । रावत ने घबराहट दूर करने के लिए जोर जोर से गाना शुरू कर दिया था और घबराया  पाण्डे स्टीयरिंग व सामने रास्ते पर और अधिक ध्यान देने के लिए जोर देने लगा। तभी एक जोरदार हिचकी के साथ जीप ने घरघर के दो बड़े झटके दिए और सत्तर-अस्सी की रफ्तार से दौड़ती जीप  अचानक ही रास्ते  पर पलट कर उलटी खड़ी हो गई।
‘ भगवान ही बचाए आज तो। लगता है कारबोरेटर में कचरा आ गया है… गाड़ी तो अब छूटनी ही  छूटनी है।’

‘ जाने किस का मुँह देखकर उठे थे आज, यहाँ तो पश्चिमी देशों की तरह कोई आपत्तिकालीन व्यवस्था  तक नहीं!’

पाण्डे ही नहीं,  रावत भी अब डरा-डरा और परेशान लग रहा था ।

कार का अचानक यूँ रुक जाना और चालीस मील का शेष सफर… दो घंटे बाद ही यात्रा के अगले पड़ाव के लिए हफ्ते में एकबार मिलने वाली वह एक अकेली ही रेलगाड़ी थी ! अटके, तो रह गए यहीं इसी छोटे से गांव में… एक दो दिन नहीं, पूरे हफ्ते भर के लिए छुट्टियाँ मनाते। कुछ न कुछ तो करना ही होगा…न कुछ देखने को न करने को। जर्मनी से यहाँ इस बीहड़ में, भाड़ झोंकने के इरादे से तो नहीं आए थे हम।

वक्त का वह जाने कौन सा पहर था, उमस भरा और बेचैन। चांद आसमान से उतर आया था और सड़क किनारे झाड़ पर अटका अब  लैम्प पोस्ट का काम कर रहा था हमारे लिए। इस चांदनी में आराम से हम सड़कों के उन सारे नक्शों को पढ़ सकते थे और समय का सदुपयोग करते हुए आगे का रास्ता भी ठीक-ठीक समझ सकते थे, परन्तु  हमने ऐसा कुछ भी नहीं किया। बस, वैसे ही, घड़ी की सूइयों में जान अटकाए भागते वक्त को पकड़ने की कोशिश में  उलझे रहे। सारी व्यवस्था होते हुए भी, खाने पीने तक का होश नहीं  रहा हमें। भूल गए कि घड़ी बारबार देखने से वक्त रुकेगा नहीं, या तीनों के मन में बढ़ती बेचैनी, यूँ, इस तरह से कम नहीं हो पाएगी।

माना, राजस्थान को बहुत पास से जानने की जिज्ञासा  भटकाती-भरमाती रही है। इन रेत के टीलों पर, इस रेगिस्तान में खींच लाई है, परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि पूरी छुट्टियाँ बरबाद कर लें। तीन दिन बीत चुके थे…फिर अब पूरा हफ्ता कैसे जाया हो जाने देते?…अभी तो यात्रा की शुरुआत ही थी।  कुछ खास नहीं देखा, कुछ खास नहीं किया… दो ही हफ्ते ही की तो छुट्टी है और माउंट आबू से लेकर हल्दी घाटी,  उदयपुर,  रनकपुर, अजमेर पुष्कर … सभी बाकी! अभी तो बस थार और जैसलमेर के आसपास ही भटकते रहे थे हम। चिंता और धूप का मिलाजुला असर था शायद कि सूखे होठ और खुश्क होता गला ही नहीं, माथे की तड़कती नस भी अब बर्दाश्त के बाहर हो चली थी। पक्षी तक नहीं दिख रहे थे, मदद की उम्मीद किससे और क्या करते हम वहाँ पर !

पर तभी वह आया… भगवान जाने कहाँ और किधर से!  देवदूत-सा याद करते ही प्रकट हो गया था  आँखों के आगे, धड़धड़ करती अपनी काली बुलेट मोटर बाइक पर सवार । रुका, तो पल भर के लिए  विश्वास ही न हुआ, न तो उसके आने का और ना ही  अपने आकस्मिक सौभाग्य का।

हाँ, देवदूत ही सही शब्द था उसके लिए, उस वक्त। न सिर्फ कारबोरेटर से कचरा निकाल कर जीप पुनः स्टार्ट कर ली उसने, अपितु थोड़ा सा पेट्रोल भी डाल दिया जीप में । एक बात जो बारबार ध्यान आकर्षित कर रही थी, वह थी कि इतना सजीला हट्टा-कट्टा नौजवान और इतना शर्मीला और गंभीर? जब तक रहा एक शब्द नहीं बोला । बस मुस्कराहट से ही हाँ-ना के, सारे काम चलाता रहा। युवावस्था का चुलबुलापन और जोश दोनों ही कोसों दूर थे उससे।

चलते वक्त भी कुछ नहीं बोला था। बस आँखें ही बोल रही थीं उसकी …अजीब सम्मोहन था उन आँखों में।…

सौ के वे नए पांच नोट हमारे हाथों में ही फड़फड़ाते रह गए और बिना कुछ बोले, मुस्कुराता, हाथ जोड़कर आगे बढ़ गया था वह, पीछे मुड़े या देखे बगैर ही। हम भी तुरंत ही चल पड़े थे। वक्त नहीं था ज्यादा कुछ और सोचने व समझने के लिए।

तब कैसे भी दौड़ते भागते गाड़ी आखिर पकड़ ही ली थी हमने!

सामान सारा चढ़ चुका था। हम आराम से सीटों पर बैठ चुके थे। रावत और पाण्डे, दोनों साथी ऊपर की सीटों पर पसरते ही खर्राटे लेने लगे थे। मैं भी जूते-मोजे उतारकर आराम से हाल ही में खरीदी किताब में डूबने को तैयार था।
तभी वह आई और ठीक सामने की सीट पर आकर बैठ गई।…

मैं जो सोने की तैयारी में था, जग गया। चार सीटों वाले उस डिब्बे में, सामने मेरी चौथी सहयात्री… उस गुलाबी किरन से सजे नारंगी दुपट्टे वाली लड़की की तरफ मेरा ध्यान गया तो हटा ही नहीं। वेश भूषा सभी से तो भले घर की और संपन्न लग रही थी वह …होगी ही…ऐरे-गैरे तो नही दे पाते यह किराया। य़ा फिर अकेली यात्रा कर रही है, इसलिए मां-बाप ने ज्यादा सुरक्षित समझा होगा यही डिब्बा …जरूर ऐसा ही सोचा होगा घरवालों ने। बन्दूक के साथ गार्ड भी तो चलता है डिब्बे में। लगता है अभी-अभी शादी हुई है, पर अकेली कैसे?  भाई, पति कोई तो साथ होना ही चाहिए था। …राजस्थान में तो बहू-बेटियों को यूँ अकेले सफर नहीं करने दिया जाता। पर मैं क्यों इतना परेशान हो रहा हूँ इसे लेकर? लड़की जाने, उसके घरवाले जानें। …अब करने देते होंगे शायद। आखिर भारत भी तो इक्कीसवीं सदी में जी रहा है और राजस्थान भी तो भारत में ही है। यह एम टीवी और ब्यूटिफुल एन्ड बोल्ड यहाँ भी तो प्रसारित होता ही है। गहरे गुलाबी रंग का कामदार भारी लंहगा, नारंगी गोटा लगी सलमे सितारे कढ़ी ओढ़नी, माथे पर दपदप करता बोल्ला… वैसे भी लड़की की वेशभूषा और हावभाव में कुछ भी तो ऐसा नहीं था जो आज की या इस इक्कीसवीं सदी की याद दिलाता।

कहने को तो बैग से किताब निकाल रखी थी, पर अभी भी उसी सहयात्री को ही पढ़े जा रहा था मैं। यह बीमारी बचपन से ही तो है और कहीं भी भीड़भाड़ में चलते-फिरते अजनबी चेहरे पढ़ने लग जाता हूँ मैं।… आदतें कब बदलती हैं, फिर आज तक चेहरों से बेहतर कोई किताब भी तो नहीं।…

गहरी काली काजल भरी आँखों से चोर नजर वह भी मेरी तरफ देख लेती थी और फिर अपने बैग में कुछ ढूंढने के बहाने छुप भी जाती थी। हम तीन अजनबी छड़ों के  साथ सामने की सीट पर अकेली बैठी वह सिकुड़ी सिमटी लड़की वैसे ही लग रही थी, जैसे कोई बेहद खूबसूरत और नाजुक फूल झाड़-झंकाड़ के बीच, बिल्कुल ही गलत जगह पर उग आया हो…कुछ अटपटी, कुछ तकलीफ और संकोच में डूबी हुई, पर बेहद बेचैन और कुछ कहने को आतुर।  ..जरूर सोच रही होगी,  इस कूपे में, यहाँ बीहड़ में कम-से-कम कोई और तो नहीं ही चढ़ना चाहिए था… फिर हम तीनों कहाँ से और कैसे आ गए!

खैर…गाड़ी ने सीटी दी और एक गहरी चैन की सांस की आवाज के साथ गाड़ी चल पड़ी।

चुम्बकीय आकर्षण था उन काजल भरी आँखों में, अनियंत्रित-सा मैं बारबार घूम-घूम कर उसे ही देखने लगता। शराफत कह रही थी कि मुँह घुमाऊँ और चुपचाप सो जाऊँ, मैंने वही करने की कोशिश भी की पर प्रकृति की पुकार ने जोर मारा और एक बार फिर मैं उठने पर मजबूर था। उठने के लिए घूमा तो सामने लड़की नहीं थी। कहाँ गई होगी, सोच ही रहा था कि सामने दरवाजे पर, वहीं खड़ी दिख भी गई वह।

‘ अंधेरे में, चलती ट्रेन में, दरवाजे के पास खड़ी क्या कर रही है ? कहीं कोई उल्टा-सीधा इरादा तो नहीं इसका !  गार्ड पता नहीं कहाँ था। लम्बी तान कर सो रहा होगा वह भी कहीं! ‘

…अब मेरे अंदर का सतर्क नागरिक-बोध जाग उठा था। थोड़ी फौजी व कड़क आवाज में पूछा- ‘ यहाँ खड़ी-खड़ी क्या कर रही हो… अभी तो घंटों कोई स्टेशन नहीं आएगा? इस सुनसान में कहीं कूदने का खतरनाक इरादा तो नहीं है तुम्हारा?’

‘ पता है मुझे ।… फिर कूदूंगी क्यों अब भला मैं ?’  रहस्यमय ढंग से बेहद डूबी आवाज में उसने जवाब दिया। आवाज इतनी धीमी और अस्फुट थी मानो अतीत की कई वादियों से भटक कर मुझ तक पहुँची हो, पर एक एक शब्द सिर्फ मेरे लिए और जैसे मुझे ही ढूँढ रहा हो।

सिगनल नहीं था या जाने और क्या वजह थी , गाड़ी अब पूरी तरह से वहाँ रुकी खड़ी थी और सामने से आता हवा का झोंका जंगली गुलाब और रात की रानी की महक को साथ लिए, पूरे डिब्बे को गमका रहा था। मैंने देखा- फिर भी एक उदासी थी चारो तरफ। इतनी उदासी कि मन विचलित हो जाए…

‘रेत की प्यास सब पी जावे है सांई-सा। उसके दर्द को भी पी गईं।‘ वे भूरी आँखें  रेत-सी ही चमक रही थी उस दिन। कोई भय या  आंसू  नहीं था उनमें।

‘सामने खड़ी वह पुरानी मोटर बाइक देख पा रहे हो न आप,  वहाँ उस पेड़ के नीचे?’

उसकी भेदती आंखें मन और मस्तिष्क को अनदेखा करती अब मानो मेरी आत्मा से संवाद कर रही थीं।

भरपूर चांदनी में दूर टीले पर खड़ी वह जंग लगी पुरानी मोटर बाइक साफ-साफ दिख रही थी मुझे ।

‘ हाँ।‘

‘तो …?’ मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी तरफ देखा।

उसकी मुस्कुराहट और चितवन अब शिशु सी सरल और रहस्यमय थी और वह दूर-बहुत दूर, अपनी ही दुनिया में जा पहँची थी।

‘ ये किस्सो तो पूरो थार ही जाणे है  साँई-सा सिवाय तुम्हारे..जानोगे भी कैसे, दूर जो चले गए, आप। .यह सूँसू सनसन करती बावरी हवा और सन्न सफेद बालों संग टीले-टीले भटकती धूप सभी ने तो देख्यो है इन्हें। घटक और घटित कुछ भी हाथ नहीं अब, फिर भी सबकी मदद करतो आज भी घूम्यै है ये। जिसको कोई नहीं, उसको बन्नेराजा। आज भी तो ऐसो ही कहे हैं सब । बेहद शरीफ और मदद वाल्यो थो, वो। उस दिन शादी करने जा रह्यो प्रभावती संग, इसी मोटरबाइक पर सवार। सेहरा, पीरो, चूड़ा और बोल्ला सबसे लैस थे दोनों। बात तभी आग की तरह गांव भर में फैल गई थी और यहीं पे, इसी ठौर गांववालों ने घेर लियो उन्हें। लाठियों से मारमार कर जान ले डाली थी। गूजरों को छोरा और राजपूतानी …कैसे होने देते ये मेल? दुनिया थू-थू न करती ! पर कौण रोक्क थाम पायो है इन्हे। जानते हो बाबूजी बीसियों बरस गुजर गए इस बात को, पर आज भी आषाढ़ की पूरनमासी को दपदप करते चांद के नीचे मोटर बाइक खुद ही चल पड़े है और दोणों दिखे हैं उस पर संग-संग सवार। भरम है सब। कोई अलग नहीं कर पायो इन्हें! पूरो गांव जाणे है कि मर कर भी साथ ही तो हैं दोनों। नफरत नहीं, पूजा चढ़ावा आवे है अब तो। सभी क्वारे, मुसीबत के मारे, अपने-अपने मन की साध लेकर आवे हैं इनके आगे  … क्या पता दूसरों की खुशी के लिए ही डेरा डाले बैठे हैं अभी तक ये इस दुणिया में। ‘

मैने देखा कई लाल झंडे-से गड़े दिख रहे थे बाइक के चारो तरफ और कुछ सूखे फूल-पत्ते, दोने-माला आदि भी पूजा के चढ़ावे से आसपास बिखरे पड़े थे।

‘और प्रभावती …क्या वह अभी भी जिन्दा है?’ मेरी सहज जिज्ञासा अब इस उदास कहानी में खूब रस ले रही थी।

‘कहाँ बाबूजी…क्या करती वो भी जिन्दा रहकर बन्नेसा बिना… इसी टीले से कूदकर इसी रेल की पटरी पर जाण दे दी उसने भी। क्या करोगे इन बातों में उलझकर…किस-किसको दुख सुणोगे, किस-किसका दर्द बांटोगे सांई-सा तुम? म्हारे राजिस्थान की ये धरती ही ऐसी है, रेतीली और कंकरीली पथरीली फिर भी साथ-साथ चलती, सुख-दुख सब समेटती और हमें तुम्हें जान से प्यारी !‘

इसके पहले कि मैं कहानी पर विश्वास या अविश्वास, कुछ भी कर पाता, ‘चंदन को म्हारो पालणो जी , रेशम की म्हारी डोरी रे, आजा झुलाऊँ म्हारे लाडले, नित-नित वारी जाऊँ रे… ’, जाने किस काल्पनिक अजन्मे सुख को बाँहों में भऱकर झुलाती, गाती गुनगुनाती, वह लड़की छाया सी उतरी और अगले पल ही वायु के वेग पर सवार सामने के टीले पर जा पहुँची। अब वह उस मोटर बाइक पर इन्तजार करते युवक के पीछे बैठी हंस-हंसकर उससे बातें करती दिख रही थी मुझे।

‘ तो क्या यही वह जगह है ? ’ प्रश्न मेरे सूखे गले में ही अटक कर रह गया था। बात साफ थी।

अब मुझे लगने लगा जैसे मैं खुद था बाइक पर सवार उन दोनों के साथ। शरीर का रोम-रोम अनंत सुख से रोमांचित था। यह कैसा वाकया है , क्यों इतना विचलित हो उठा हूँ मैं? पता नहीं क्यों वह लड़की बेहद अपनी लग रही थी मानो पिछले जनम का रिश्ता हो मेरा …और मैं …एक फौजी, हैरान था खुद पर।  बहुत कुछ याद आ रहा था…धुंधला-धुंधला-सा।

‘यह कौन सी नई विक्षप्ति है…यह कैसे संभव है…वह वहाँ है तो मैं ‘वह’ कैसे हो सकता हूँ…माना स्वभाव से रूमानी हूँ, पर ये गलतफहमियाँ मेरे स्वास्थ के लिए ठीक नहीं। ‘ मैंने उस पगली सोच का तुरंत ही गला घोंट दिया, फिर भी  मन भर आया था।

‘ मिलना-बिछुड़ना, जुड़ना-टूटना …सब पल भर के ही तो निर्णय हैं। निर्णय जो कभी हम खुद लेते हैं, तो कभी दूसरे हमारे लिए। …किसने कब ढील दी और किसने काटी, बिना जाने ही कटी पतंग-सी यह  जिन्दगी चलती ही रहती है। पल में कहीं से कहीं पहुँच जाती है और पूरी की पूरी पलट भी जाती है। बिना किसी निर्णय के ही, बेमतलब ही, कभी-कभी तो।..चाहे जो जाने-समझे हम, पर यह भटकन और विछोह की क्रूर नियति ही तो है प्यार की असली विरासत। अकस्मात की छोटी-सी जान-पहचान और यूँ अनियंत्रित भावनाओं का ज्वार…क्या साझा घटक और घटित था इसकी और मेरी जिन्दगी का और क्या है असली निचोड़ इस घटनाक्रम का?  कहते हैं बेवजह और बिना पूर्वजन्म के रिश्ते के कोई किसी के पास नहीं जाता कोई। तो क्या जिन्दगी में  यह पल ही सबसे अधिक बलवान है , आदमी से भी ज्यादा…उसकी अपनी इच्छा या चाहना, सोच और योजना कुछ भी नहीं?… आदमी जो धरती-आकाश बांध सकता है…चांद और सूरज के रास्ते मांप रहा है, फिर क्यों कैद रह जाता है वर्तमान में ही ! क्यों नहीं याद ऱख पाता इन जनम जनम के अतीत को, जान पाता आनेवाले भविष्य को!’

मैंने देखा वे उमड आए ऊदे बादल बाहर रेत के टीले को ही नहीं मेरी पलकों की कोरों को भी नम किए जा रहे थे।कहाँ भटक गया मैं भी, मैं वहाँ टीले पर और यहाँ रेल के डिब्बे में दोनों जगह एकसाथ… कैसे संभव है भला।  … इसके पहले कि घट, घटित और घटक के उन उलझे-उलझे जोड़-बाकी, गुणा-भाग को सुलझाऊँ, समझ तक पाऊँ , देखा- दोनों मुस्कुरा-मुस्कुराकर मेरी तरफ हाथ हिला रहे थे। अलविदा कह रहे थे। मैंने भी यंत्रवत् हाथ हिलाकर विदा कह दी उन्हें।

…मन में बेहद लाड़ उमड़ आया  था जैसे सूखे पत्थरों से झरना फूट पड़े । कहीं-न-कहीं गहरे जुड़ चुका था मैं उससे। स्वतः नजर उधर ही उठ गई, मानो भरपूर आँखों से देखना चाहता था आखिरी बार । आंखों में भर लेना चाहता था सब कुछ । पर, वहाँ कोई नहीं था। खुद को चिकोटी काटनी चाही। मन में पुनः वही झँझावत था। भूत प्रेतों में विश्वास नहीं था, ना ही पुनर्जन्म में, पर जो देखा था वह भी तो सपना नहीं था। क्या कहानी सच थी…क्या वह लड़की ही प्रभावती थी… किससे कहूँ, किससे पूछूँ, कौन करेगा विश्वास  मेरी बातों पर…जग हंसाई कराऊं इतना बेवकूफ नहीं, फिर जरूरी तो नहीं जो दिखे वही सच हो! शेक्सपियर जैसे सयानों ने भी तो यही कहा है कि इस बृह्माण्ड में जो भी अज्ञात और अनजाना घटता है, जानना तो दूर,  उस यथार्थ की भनक तक नहीं मिल पाती हमें।  हमेशा एक और एक मिलकर दो या ग्यारह ही हों, जरूरी तो नहीं। …एक-का-एक भी तो रह सकता है … कभी-कभी तो बस गोल-मटोल अनंत और रहस्यमय शून्य तक रह जाता है आँखों के आगे,  जैसा कि आज मेरे साथ हुआ! आखिर क्या साबित करना चाहती थी वह …फिर मुझे ही क्यों चुना उसने , मुझसे ही क्यों आकर इस तरह मिली !

श्वेत-बिन्दु बनकर उभरे संशय को माथे से पोंछते हुए, मुस्कुराने की असफल कोशिश की मैंने।

क्या मिल भी पाऊंगा वापस कभी …क्या थी आज की यह घटना! अतृप्त आत्माओं की भटकन या फिर मात्र एक भटकती जिज्ञासा? क्या थे इन चिर युवा सदात्माओं के टूटे-बिखरे प्रयोजन? अंतस का मंथन यूँ ही मथता गया और गाड़ी उस घटना से उन दोनों से बेहद तेज रफ्तार के साथ लगातार दूर और दूर ले चली मुझे।

पता नहीं सोच थी या आषाढ़ की पूरनमासी का चांद… काले बादलों से घिरा सच में वह बेहद उदास और रहस्यमय लग रहा था मुझे । मन के कोने से धीमी-सी आवाज उठी- कुछ नहीं हासिल होगा ज्यादा सोचने समझने से। देखो, ट्रेन तक तो चल पड़ी है अगली मंजिल की ओर।

वापस अपनी सीट पर आ बैठा हूँ। खिड़की बन्द करने के लिए उठा तो देखता हूँ- धुली चांदनी में तैरते काले बादल बन्द लिफाफों-से  कुछ किलकारियाँ, कुछ ना-नुकुर और कुछ मान मनेनौवल की बातें हवा के संग-संग मुझतक बहा ला रहे हैं और आश्चर्य तो यह था कि मेरा मन उन्हें समझ रहा था, गीत सा गुनगुना रहा था, मानो सब जानता समझता हो। कई धुंधली और अस्पष्ट यादें मुझे छू और सहला रही हैं। मन में अजब संतोष और पुलक हैं। सोने का तो अब सवाल ही नहीं उठता। खिड़की वैसे ही खुली छोड़ दी है मैंने। जानता हूँ, अक्सर यात्राओं में मंजिल से ज्यादा ही रोमांच होता है, पर इस सबके लिए मैं ही क्यों चुना गया?..जो घटित हुआ…सबका घटक कौन था फिर  घटरूप में प्रभु ने मुझे ही क्यों चुना।…अभी भी सोचे जा रहा हूँ। बिना किसी प्रयोजन के तो कुछ नहीं होता  इस दुनिया में?  असमंजस में हूँ-सामने बिखरे सुनहरे किरन के उस रेशे को उठाऊँ या नहीं…पड़ा रहने दूँ क्या इसे भी यूँ ही …कोई तो प्रमाण रहेगा आँखों को कि अभी-अभी, कुछ देर पहले ही वो यहाँ बैठी थी, वाकई में आई थी। वैसे आया तो वह भी था ।…

———

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

error: Content is protected !!